________________
द्वादम प्रकाश
१११ नामक लिङ्गका आवरण ( लंगोटो) धारण करते हैं और क्षुल्लक कौपीनके सिवाय एक खण्ड वस्त्र भो ग्रहण करते हैं। ऐलक हाथमे हो भोजन करते हैं परन्तु क्षुल्लक पात्रभोजी होते हैं । ऐलक और क्षुल्लकदोनो ही बैठकर आहार करते हैं । ऐलक, विधि अनुसार केशोंका लोच करते हैं और क्षुल्लक लोच, कैचो अथवा उस्तराके द्वारा केशोको दूर करते हैं। दोनों हो जीव-रक्षाके लिये मयूरपिच्छ ग्रहण करते हैं और शौचबाधा की निवृत्तिके लिये कमण्डल धारण करते हैं ।
आर्यिका सोलह हाथकी सफेद साडी ग्रहण करती है और क्षुल्लिका साडोके ऊपर एक सफेद चद्दर भी रखती है। इन सबको चर्याविधि ऐलकके समान जानना चाहिये । आयिकाए उपचारसे महावतसे युक्त कहो गई हैं परन्तु क्षुल्लिका श्राविका ही है इसमे संशय नही करना है। ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जिन्होने निर्दोष चारित्र धारण करनेसे अपना जन्म सफल किया है वे धन्य हैं तथा धन्यभाग हैं, उनका संसारसागर प्राय सूख गया है। बडे-बडे मुनियोका चारित्र धारण करनेको जिनकी शक्ति नही है उनके लिये श्रावकाचारका वर्णन करनेके लिये मेरा यह प्रयास है क्योकि जैनधर्म सब जीवोका हित करने वाला है ॥ ११०-१२० ।। आगे इस प्रकरणका समारोप करते हैं--
वृत्तं मुनीनां गृहिणां नां च यथेच्छमाचर्य महोत्सवेन । दुःखानिवृत्योत्तमसौल्पराशौ मग्ना भवेयुः सतत पुमासः॥ १२१।। आचार एव प्रथमोऽस्ति धर्म इति श्रुति ये हृदये परन्ते । ते श्वघदुःखाव विनिवर्तमाना:स्वर्गापवर्गीय सुखं लभन्ते ॥ १२२॥
अर्थ-ग्रन्थकारकी भावना है कि मुनियो तथा गृहस्य मानवोके चारित्रको हर्षपूर्वक इच्छानुसार धारणकर पुरुष दुःखसे निवृत्त होते हुए उत्तम-सुख समूहमे सदा निमग्न रहे । 'आचारः प्रथमो धर्मः' आचार पहला धर्म है इस श्रुतिको जो हृदयमे धारण करते हैं वे नरक के दुःखसे दूर रहते हुए स्वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त होते हैं ।। १२१-१२२ ।।
इस प्रकार सम्यक-चारित्र-चिन्तामणिमे श्रावकाचारका
वर्णन करने वाला द्वादश प्रकाश पूर्ण हुआ।