Book Title: Samyak Charitra Chintamani
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 210
________________ १८२ सम्यक्चारित- चिन्तामणिः ७. कच्छपरिङ्गित - कछुवेके समान कटिभाग से सरक कर वन्दना करना कच्छपरिङ्गित दोष हैं । ८. मत्स्योद्वर्त -- मत्स्य के समान कटिभाग को ऊपर उठाकर वन्दना करना मत्स्योद्वर्त दोष है । ९. मनोदुष्ट - मन से आचार्य आदि के प्रति द्वेष रखते हुए वन्दना करना मनोदुष्ट दोष है । १० वेदिकाबद्ध - दोनो घुटनो को हाथो से बांधकर वेदिका की आकृति मे वन्दना करना वेदिकाबद्ध दोष है । ११ भय - भय से घबड़ाकर वन्दना करना भय दोष है । १२ बित्व - गुरु आदिसे डरते हुए अथवा परमार्थं ज्ञान से शून्य अज्ञानी होते हुए वन्दना करना बिभ्यत्व दोष है | १३ ऋद्धि गौरव - वन्दना करने से यह चतुविध सघ मेरा भक्त हो जायगा, इस अभिप्राय से वन्दना करना ऋद्धिगौरव है । १४ गौरव - आसन आदि के द्वारा अपनी प्रभुता प्रकट करते हुए वन्दना करना गौरव दोष है । १५. स्तेलित दोष -- मैंने वन्दना की है, यह कोई जान न ले, इसलिये चोर के समान छिपकर वन्दना करना स्तनित दोष है । १६. प्रतिनीत - गुरु आदि के प्रतिकूल होकर वन्दना करना प्रतिनोत दोष है । १७. प्रदुष्ट - अन्य साधुओ से द्वेषभाव- कलह आदिकर उनसे क्षमाभाव कराये बिना वन्दना करना प्रदुष्ट दोष है | १८. तजित - आचार्य आदिके द्वारा तर्जित होता हुआ वन्दना करना तर्जित दोष है, अर्थात् नियमानुकूल प्रवृत्ति न करने पर आचार्य कहते हैं कि 'यदि तुम विधिवत् कार्य न करोगे तो संघ से पृथक् कर देगे' आचार्य की इस तर्जना से भयभीत हो वन्दना करना तजित दोष है | १९. शब्द - मौन छोड, शब्द करते हुए वन्दना करना शब्द दोष है । २० होलित - वचन से आचार्य का तिरस्कार कर पद्धतिवश बन्दना करना होलित दोष है ।

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