Book Title: Samyak Charitra Chintamani
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 211
________________ परिशिष्ट १८३ २१. त्रिबलित ललाट पर तीन सिकुड़न डालकर रुद्रमुद्रा में वन्दना करता त्रिवलित दोष है। २२. कुंचित - संकुचित हाथो से शिर का स्पर्श करते हुए अथवा घुटनो के बीच शिर झुकाकर वन्दना करना कुंचित दोष है । २३. दृष्ट - आचार्य यदि देख रहे हैं तो विधिवत् वन्दना करना अन्यथा जिस किसी तरह नियोग पूर्ण करना, अथवा इधर उधर देखते हुए वन्दना करना दृष्ट दोष है । २४ अदृष्ट - आचार्य आदि को न देखकर भूमि प्रदेश और अपने शरीर का पीछी से परिमार्जन किये बिना वन्दना करना अथवा आचार्य के 'पृष्ठ देश-पीछे खड़ा होकर वन्दना करना अदृष्ट दोष है । २५. सघकर मोचन - वन्दना न करने पर संघ रुष्ट हो जायगा, इस भय से नियोग पूर्ण करनेके भाव से वन्दना करना संघकर मोचन दोष है । २६ आलब्ध - उपकरण आदि प्राप्त कर वन्दना करना आलब्ध दोष है । २७. अनालब्ध - उपकरणादि मुझे मिले, इस भाव से वन्दना करना अनालब्ध दोष है । २८ होम - शब्द, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित होकर वन्दना करना होन दोष है, अर्थात् योग्य समय पर शब्द ध्यान देते हुए पाठ पढकर वन्दना करना चाहिये। जो वन्दना करता है वह होन दोष है । तथा अर्थ की ओर इसका उल्लंघन कर २९ उत्तर चूलिका-वन्दना का पाठ थोड़े ही समय मे बोलकर 'इच्यामि भन्ते' आदि अंचलिका को बहुत काल तक पढकर वन्दना करना उत्तर चूलिका दोष होता है । ३०. मूक - जो मूक- गूगे के समान मुख के भीतर ही पाठ बोलता हुआ अथवा गूगे के समान हुंकार आदि करता हुआ वन्दना करता है उसके मूक दोष होता है । ३१. बर्डर - जो मेढक के समान अपने पाठ से दूसरो के पाठ को दबाकर कलकल करता हुआ बन्दना करता है उसके दर्दुर दोष होता है। ३२. मुकुलित- जो एक ही स्थान पर खड़ा होकर मुकुलित अंजलि को घुमाता हुआ सबकी बन्दना कर लेता है उसके मुकुलित दोष होता है ।

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