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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
इन बत्तीसों दोषों से रहित कृतिकर्म हो कर्मनिर्जरा का कारण होता है।
कायोत्सर्ग के अट्ठारह दोष
१ घोटक, २. लता, ३ स्तम्भ, ४ कुड्य, ५ माला, ६ शबरवधू, ७ निगड, ८. लम्बोत्तर, ६ स्तनदृष्टि, १० वायस, ११. खलीन, १२ युग, १३ कपित्थ, १४ शोर्ष प्रकम्पित, १५. मूकत्व, १६. अंगुलि, १७ भ्रूविकार और १८. वारुणीपायो ।
इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. घोटक - कायोत्सर्ग के समय घोड़े के समान एक पैर को उठाकर अथवा झुका कर खडे होना घोटक दोष है ।
२. लता - लता के समान अङ्गो को हिलाते हुए कायोत्सर्ग करना लता दोष है ।
३. स्तम्भ - स्तम्भ - खम्भा के आश्रय खडे होकर कायोत्सर्ग करना स्तम्भ दोष है ।
४ कुडघ - कुड्य - दीवाल के आश्रय खडे होकर कायोत्सर्ग करना दोष है ।
कुडघ
५. माला - माला - पठि, आसन आदि ऊँचो वस्तु पर खडे होकर कायोत्सर्ग करना माला दोष है ।
६ शवरवधू - भिल्लनी के समान दोनो जंघाओ को सटाकर खड़े हो कायोत्सर्ग करना शवरवधू दोष है।
७ निगढ़ – निगड - बेडो से पीड़ित हुए के समान दोनो पैरो के बीच बहुत अन्तराल दे खडे होकर कायोत्सर्ग करना निगड़ दोष है ।
८ लम्बोत्तर - नाभि से ऊपर के भाग को अधिक लम्बाकर कायोत्सर्ग करना लम्बोत्तर दोष है ।
९. स्तनदृष्टि - अपने स्तनो पर दृष्टि देते हुए खडे होकर कायोत्सर्ग करना स्तनदृष्टि दोष है ।
१०. वायस - वायस - कौए के समान अपने पार्श्वभाग को देखते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना वायस दोष है ।
११. खलीन --- खलीन - लगामसे पोडित घोडे के समान दांत कटकटाते हुए कायोत्सर्ग करना खलीन दोष है ।