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THE FREE INDOLOGICAL
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सम्यक-चारित्र-चिन्तामणि
लेखक डॉ. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य
वीर सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट प्रकाशन
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ग्रन्थमाला-सम्पादक व नियामक
डॉ० दरबारी लाल कोठिया, न्यायाचार्य सेवा-निवृत्त रोडर, प्राच्यविद्या- धर्मविज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५
你
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
लेखक
डॉ० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य
ट्रस्ट-सस्थापक
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
*
प्रकाशक
मंत्री, वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट
प्राप्ति स्थान
व्यवस्थापक,
वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट
बी० ३२ / १३ बी, नरिया काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी - ५ ( उ० प्र० }
*
प्रथम संस्करण
१६६०
•
११०० प्रति
मूल्य : पैंतीस रुपये
५
मुद्रक :
सन्तोष कुमार उपाध्याय नया संसार प्रेस
भदैनी, वाराणसी- १.
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प्रकाशकीय सन् १९८३-८४ में वीर सेवा-मन्दिर-ट्रस्टसे हमने आठ ग्रन्थोंका प्रकाशन किया था, जो सभी महत्त्वपूर्ण रहे। इनमें समाधिमरणो
साहदोपकका द्वितीय संस्करण था। शेष सातों ग्रन्थ इतःपूर्व अप्रकाशित रचनाएँ थी। इस दृष्टिसे यह वर्ष ट्रस्टके इतिहासमें अभूतपूर्व और सुखद रहा। संयोगसे साढ़े पांच हजार रुपयोंका आर्थिक सहयोग भो प्राप्त हुआ।
१९८५-८६ मे हम कोई ग्रन्थ पाठकोंको नहीं दे पाये, इसके मुख्य कारण थे-बनारस छोडकर श्रोमहावोरजी जाना और वहाँ के जैनविद्या-संस्थानमे चल रहे पुराण कोषके कार्यमें मानद सहयोग करना तथा १८ दिसम्बर १६८५ को मेरो सहधर्मिणो श्रीमती चमेलोबाई कोठियाका टीकमगढ (म.प्र.) मे श्वासका उपचार कराते हुए देहावसान हो जाना। फिर भी हमने १९८६-८७ मे करणानुयोग प्रवेशिका, चरणानुयोग प्रवेशिका और द्रव्यानुयोग प्रवेशिका इन तोन ग्रन्थोका पुनर्मुद्रण कराया, जिनकी पाठको द्वारा अधिक मांग हो रही थी।
डॉ. भागचन्द्रजी 'भास्कर' के सम्पादकत्व में 'चंबप्पहचरित' का जयपुरसे मुद्रण करानेमे अवश्य दो-ढाई वर्षका समय लगा और उसे पाठकोके समक्ष हम विलम्बसे रख पाये, जिसके लिए क्षमा-प्रार्थी हैं। ___ आज हमें समाजके ख्यातिप्राप्त विद्वान डॉ. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यको संस्कृतमे रचित और उन्हीके द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दीमे अनूदित सैद्धान्तिक कृति 'सम्यक-चारित्र-चिन्तामणि' का प्रकाशन करते हुए हर्ष हो रहा है। यह चरणानुयोगसे सम्बन्धित साधु और श्रावकके आचारको प्रतिपादिका एक महत्वपूर्ण एवं मौलिक रचना है। आशा हैं उनकी यह कृति मुनिवृन्दो और श्रावकोके लिए बड़ी उपयोगी सिद्ध होगो और वे इसे चाबसे पढ़ेंगे तथा अपने आचारको समृद्ध बनायेंगे। स्मरणीय है कि साहित्याचार्यजी द्वारा रचित सम्यक्त्वचिन्तामणि और सम्यग्ज्ञान-चिन्तामणि ये दो रचनाएं ट्रस्टसे पहले प्रकाशित हो चुकी हैं, जो पाठकोंके लिए बहुत पसन्द आयी हैं और पर्याप्त समादत हुई हैं।
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प्रसन्नताको बात है कि इसकी विस्तृत भूमिका समाजके मान्य मनीषी श्रीमान पं० ब्र० जगन्मोहनलाल जी सिद्धान्तशास्त्री ने लिखकर ट्रस्टको अनुगृहीत किया है। इसमे पण्डितजी ने एक ऐसी बात लिखो है, जो समाजके लिए ध्यातव्य है । उन्होंने लिखा है कि "अनेक मुनिसाघु कूलर, हीटर, पालकी, वाहन आदिका भी उपयोग करने लगे हैं जो सर्वदा विपरोत है। इसका अन्त कहाँ होगा, यह चिन्तनीय हूँ ।" आगे लिखा है कि " साधुओ व आर्यिकाओको बिना पादत्राणके पैदल हो विहार करनेकी आज्ञा है, ईर्यासमितिका पालन करते हुए, परन्तु पालकोका उपयोग करने वालेकी ईर्यासमिति कैसे सधेगी ?" यह वास्तव में मुनि संघोमें बढ़ रहे शिथिलाचारपर उनके द्वारा प्रकटको गयो गम्भीर चिन्ता है । समाजको तत्काल इस दिशामे उचित कदम उठाना चाहिए । अन्यथा यह विष-बेला बढ़ती हो जावेगी । पण्डितजीको यह भूमिका पठनीय एवं मननीय है ।
डॉ० पन्नालालजी एक साधक की भांति निरन्तर सरस्वती को साधना में सलग्न हैं । इस सुन्दर कृतिको प्रस्तुत करनेके लिए हम उन्हे धन्यवाद देते हुए उनके दीर्घायु की मंगल कामना करते हैं ।
आदरणीय पं० जगन्मोहन लालजी शास्त्रीके भी कृतज्ञ हैं, जिन्होंने इस ग्रन्थकी विचार -पूर्ण भूमिका लिखी ।
ट्रस्टके सभी सदस्यो, पाठको और सहयोगियोको भी धन्यवाद है ।
बोता ( म०प्र०) १५-१०-१६८८
बिनम्र
( डॉ० ) दरबारीलाल कोठिया मानद मन्त्री
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भूमिका
प्राचीन ग्रन्थ-लेखनको भो प्रारम्भिक प्रक्रिया यहो पाई जाती है कि ग्रंथकार उस ग्रंयमे वर्णित विषयोकी संक्षिप्त रूपरेखा अन्यके प्रारंभमें लिखा करते थे। उसे ग्रन्थके प्रतिपाद्य विषयको सूची कह सकते हैं। इसीका आजकल कुछ विस्तृत रूप हो गया है और उसे भूमिका, प्रस्ता. वना, प्रास्ताविक, प्रस्तवन उपोद्घात, प्रारंभिक, दो शब्द, प्राक्कथन, आमुख आदि विभिन्न नामोसे उल्लिखित किया जाता है।
श्री डॉ. दरबारी लालजो कोठिया-न्यायाचार्यने जो वोर-सेवामंदिर ट्रस्टके मानद मंत्रो तथा 'युगवीर-समन्तभद्र-ग्रंथमाला के सम्पादक और नियामक हैं मुझसे प्रस्तुत ग्रन्थ 'सम्यकन्चारित्र-चिन्तामणि' की भूमिका लिखने का आग्रह किया। मैंने उनके आग्रहको सहर्ष स्वीकार कर समाजके प्रख्यात विद्वान् डॉ. पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रन्थपर यह भूमिका लिख रहा हूँ।
भूमिका का अर्थ आधारशिला है। इस ग्रथको आधारशिला क्या है, इसका प्रतिपाद्य विषय क्या है, लेखक विद्वान इसे लिखनमे कितने सफल हुए हैं इत्यादि अनेक बातो का स्पष्टोकरण हो भूमिका-लेखकका ध्येय होता है। यह एक प्रकारसे ग्रन्थका परिचय तथा उसको समालोचनाका रूप भी बन जाता है। सामान्य पाठक इसे पढकर ग्रन्थका हद्य जान लेता है और फिर उसको विस्तृत व्याख्याको ग्रन्थमे पढ़ता है तो उसे आनन्द भो आता है तथा ज्ञान-वृद्धि भो होतो है। ___ सम्यग-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक् चारित्र जिनागमके प्रतिपाच मुख्य विषय हैं। अनेकानेक ग्रन्थ इन पर जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत है। उसी शृङ्खला में डॉ. पन्नालाल जी के दो ग्रन्थ 'सम्यकत्व-चिन्तामणि' और 'सज्ज्ञान चन्द्रिका' इसो ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो चुके हैं। यह तृतीय ग्रन्थ 'सम्यक-चारित्र-चिन्तामणि' भी उसोसे प्रकाशित हो रहा है, यह स्तुत्य है। ये तीनो कृतियां संस्कृत-भाषामे तथा विविध छन्दोमें लिखो गई हैं। इस ग्रन्थमें १५ छन्दोका उपयोग किया गया है, जिसको सूचो भो अन्यत्र प्रकाशित है। इस कृतिमे भी पहलेको दो रुसियोंके समान मूल जिनागमके विविध ग्रन्थो में वर्णित ( उपदिष्ट )
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विषयको बहुत सावधानीसे निबद्ध किया गया है। मूल ग्रन्यकर्ता तो इस युगमे श्री १००८ भगवान् महावीर हो हैं, उनको दिव्यवाणोके अनुसार गौतम गणधर स्वामोने द्वादशाग रूप रचनाकी और कालक्रमसे आचार्योंकी गुरु-शिष्य परम्परामे मौखिक रूपमे प्रदत्त इस उपदेशमे क्षीणता आतो रहो, तब अंग पूर्व के अंशमात्र ज्ञानको आचार्य धरसेनसे उनके दो शिष्योने प्राप्तकर, जिनके प्रख्यातनाम भूतिबनी और पुष्पदन्त हैं, उसे पुस्तकारूढ किया।
इसी परम्परामे अनेक जैनाचार्योंको अनेक कृतियां ग्रन्थके रूपमे उपलब्ध हैं। उसो जिनागमकी समागत परम्पराको सुरक्षित रखनेका यह डॉ० पन्नालालजोका सुप्रयास है। सस्कृत-भाषामे गद्य और विशेषकर पद्य-लेखन कार्यमे वर्तमानके विद्वत्वर्गमे डॉ. पन्नालाल जो अग्रणी
सम्यग-दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है और इसके विपरीत मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र हो संसारको पद्धति ( मार्ग) है। यह बात रत्नकरण्डश्रावकाचारमे अपने प्रारम्भिक कथनमे हो पूज्य आचार्य समन्तमद्र स्वामो लिख गये हैं। ___ जोवके कल्याणके लिए हो सम्यग्-दर्शनादि तोनका वर्णन है। इन्हे जिनागममे रत्नत्रय कहा गया है । यद्यपि ये तीनो आत्म-गुण है । जब कि रत्न, जिन्हे हीरा, पन्ना, मणि, माणिक्य आदि नामोसे कहा जाता है, जड, अचेतन पदार्थ है और इस दष्टिसे सचेतनके श्रेष्ठ गुणोको अचेतन रत्लोके साथ जो यथार्थमे एक भिन्न प्रकारके पत्थरके टुकड़े है-समता मिलाना संगत प्रतीत नही होता, फिर आचार्योंने उन तोनोको रत्नकी उपमा दी है, ऐसा क्यो? यह एक प्रश्न तो है ।
विचार करनेपर यह समझमे आता है कि यह अज्ञानी ससारी प्राणो निजको महत्ताको भूलकर इन अचेतन रत्नोको सर्वश्रेष्ठ मानता है तथा इस मोही (मूढ ) को इसकी भाषामे ही इन तीनो आत्म-गुणो की महत्ता समझानी होगो इसके बिना यह उनको कीमत न करेगा, इसलिए रत्नोके साथ समता न होते हुए भो समता मिलाई है।
यह बात सुप्रसिद्ध है और प्रत्येक प्राणोके अनुभवगोचर है कि यह संसार दुःखमय है और सुखको प्रक्रियाके विरुद्ध है। अत सभी मत-मतान्तरो मे मोक्ष निर्वाण-श्रेय परमात्म-प्राप्ति आदिके नामपर संसारके कारण-विषय-कषायोको छोड़कर साधना करने वाले साधुपद
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( ं)
धागे होते हैं जो गृहस्थाश्रमका त्याग करते हैं । आचार्य समन्तभद्रने लिखा है कि- संसार अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःखरूप है तथा अनात्मरूप है । इसके विपरीत संसारसे मुक्ति शरणरूप है, शुभरूप है, नित्य-स्थायी है, सुखरूप है तथा आत्मके स्वस्वभावरूप है ।
इसी आत्म-स्वभावकी प्राप्तिके लिए सम्यम्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र है । इन तीनोके ऐक्यको ही मोक्षका मार्ग कहा है। एक-एकसे या दो दोसे मुक्ति सम्भव नहीं है, अत तीनोंकी एकताको ही उमा स्वामीने तत्त्वार्थ सूत्र में प्रथम सूत्र द्वारा मोक्षमार्ग प्रतिपादित किया है। सम्यक्त्व चारों गतियोंमें किन हो जोवोमे पाया जाता है. सम्यक्ज्ञान भी उसो कारण हो जाता है, परन्तु सम्यक् चारित्र मात्र मनुष्य पर्यायमें हो हो सकता है, अन्यत्र नहीं । यद्यपि देश-वारित्र किसी किसो तिर्यञ्चमें भी पाया जाता है, पर उसकी बडी विरलता है और वह स्वर्ग जानेका कारण बनता है, मोक्षका कारण नही । सकल चारित्र मनुष्योमे उनमे भी कर्मभूमिके मनुष्यों में पाया जाता है । कर्मभूमिके भी उत्सर्पिणीके तृतीय कालमें और अवसर्पिणीके चतुर्थ कालमें हो सम्भव है - पंचम, षष्ठ काल में नही । जो अपवाद-पद्धतिमें पंचमकालके प्रारम्भमे मुक्तिपधारे वे भी चतुर्थकाल में उत्पन्न हुए थे। हाँ इस हुण्डावसर्पिणी कालमें तृतीय कालमे भी मुक्तिगमनका अपवाद पाया जाता है, पर सामान्य नियम तो यही है जिसका ऊपर विवरण किया है ।
सम्यक चारित्र दो रूपोमे देखा जाता है, एक तो आभ्यन्तर परिणाम विशुद्धिके रूपमें और दूसरा आन्तरिक शुद्धि वालेको बाह्य क्रियाके रूप में। आभ्यन्तर चारित्र के साथ-साथ जो साधकका बाह्याचरण है वही व्यवहारसे चारित्र कहा जाता है क्योकि वह शरीराश्रित क्रिया है । प्रकारान्तरसे यह कहा जा सकता है कि आन्तरिक क्रिया आत्म-विशुद्धि है और शारीरिक क्रिया उसीका बाह्यरूप है । चूंकि देह पर है अतः उसको क्रिया पराश्रित होने से व्यवहारनय से चारित्र है और आभ्यन्तरशुद्धि आत्मपरिणमन रूप क्रिया है, अतः वह निश्चयसे चारित्र है ।
निश्चयचारित्र मोक्षका साक्षात्कारण और व्यवहार चारित्र उस अभ्यन्तरको शुद्धिका कारण है। यदि साधक आन्तरिक शुद्धिका प्रयत्न न करे और मात्र बाह्य आचार आगमानुसार भी करे तो उससे मोक्ष नही होता। इनमे साध्य-साधक भाव हो तो दोनोको भी कारण मान लेते हैं । निश्चयचारित्रको मुक्तिका साक्षात् कारण और तरसाधक व्यवहार
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को परम्परा कारण माना जाता है। तथापि आन्तरिक शुद्धिके अभावमें बालक्रिया मोक्षका कारण नहीं।
प्रस्तुत ग्रन्थमें व्यवहारतः चारित्रका वर्णन है जो साधकके लिए अनिवार्य है।
सम्यक-बारित्रका लक्षण "कर्मादान कियो परम चारित्रम्" कहा गया है बन्धके कारण पांच प्रत्यय माने गये हैं। उनके नाम हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। भगवान केवलीके भो पूर्वके चार प्रत्ययो का अभाव होनेपर भी योगके सद्भावमे परमोत्कृष्ट चारित्र नही माना गया। उसके अभावमे हो रत्नत्रयको पूर्णता है तभो तीनोको एकता होती है और वहो मोक्षका साक्षात् कारण बनता है। ___ सम्यक्त्वके आधारपर चतुर्थ-गुणस्थान होता है। पचममे मात्र देशचारित्र होता है। मुनि अवस्था षष्ठ गुणस्थानसे लेकर अन्तिम चौदहवें तकको है। इनमे १३वां, १४वां केवलो अवस्थाके हैं। इनमे छसे बाहरवे तक गुणस्थान छद्मस्थ मुनियोके है। सप्तम ( सातिशय ) अप्रमत्तसे ११वे तक उपशम श्रेणो और ७वे से १२वें तक क्षपक श्रेणी ऐसो दो श्रेणी विभाजित है। क्षपक श्रेणो चढने वाला ही मुक्तिको प्राप्त होता है पर उपशम श्रेणो वाला गिर कर नोचे आता है।
प्रस्तुत ग्रन्थमे इन सबका विशद विवेचन है। सामान्यतः दोक्षार्थी आचार्यके पास जाकर आत्म-कल्याणको भावना प्रकट करता है तथा उसका मार्ग उनसे प्राप्त करनेको इच्छा करता है। नियम यह है कि आचार्य कल्याण को पूर्ण महाव्रत स्वरूप साधुचर्याका स्वरूप बताते है और उसे ग्रहण करनेको अनुज्ञा देते हैं। यदि दीक्षार्थी मुनिव्रतके पालनका साहस नहीं करता-अपनो कमजोरी प्रकट करता है तब आचार्य उसे देशचारित्र ( श्रावक व्रत) का उपदेश देते हैं। इसोप्राचीन आगम पद्धतिको ध्यान में रखकर इस ग्रन्थके लेखकने सर्वप्रथम साधु-धर्मका हो वर्णन किया है। प्रथमाध्यायमें साधुके मूलगुणोंका वर्णन किया है। द्वितीय अध्यायोसे नवम अध्याय तक मनिके पांच प्रकारके सयमो १४ गुणस्थानो, १४ मार्गणास्थानो तथा ५ महावतो, ५ समितियों का विशेष वर्णन करते हुए प्रसमानुसार व्रतोको ५-५ भावनाओ इन्द्रिय-विजय साधुको एषणा-दृत्ति षट-आवश्यक ध्यान, तप अनित्यादि भावनाओंका विस्तृत वर्णन किया है। दशवें अध्यायमें
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आयिका क्षुल्कक-ऐलकका भो वर्णन है तथा म्यारहवें में सल्लेखना तथा बारहवें अध्यायमें श्रावक-धर्मका वर्णन है जिसमें पंचाणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षावत, प्रतोके अतोचार तथा ग्यारह प्रतिमामोके व्रतोका विवेचन है। तेरहवें अध्याय में व्रतो के धारण करने वालेके कोंके क्षयोपशमादि अन्तरंग कारणोका वर्णन है।।
अन्त में एक परिशिष्ट है-शेष कथन जो रह गया है उसे इसमे निबद्ध किया गया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ तेरह अध्यायोमे परिशिष्टके साथ समाप्त होता है।
ग्रन्थ के वर्णनोय विषयोका संक्षिप्त परिचय यहाँ कराया गया है, विशद वर्णन तो ग्रन्थ मे है ही, उसका विस्तार करना अनावश्यक है कुछ वर्णित विषय अधिक स्पष्टीकरण चाहते हैं। उनकी कुछ चर्चा करना यहाँ अप्रासगिक न होगा।
१ वृक्ष से तोडे गए पत्र, पुष्प, फल सचित्त है या अचित्त इस पर लेखक ने वर्तमान गलत व्याख्याओ का निराकरण अध्याय ३, श्लोक २६ से ३५ मे वनस्पतिकायिक जीवोका वर्णन करते हुए भावार्थमे किया है कि एक वृक्षमे वृक्षका जोब अलग है और उसके आधारपर उत्पन्न होने वाले पत्तो व फलोमे उसका जीव अलग रहता है " "... इस अपेक्षा वे सचित्त है । "आदि। इसपर यहां कुछ विशेष विचार किया जाता है।
आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचारमे स्पष्ट लिखा है"मूल-फल-शाक-शाखा-करोर-कन्द-प्रसून-बीजानि ।
नामानियोऽति सोऽयं सवित्तविरलोदयामूर्तिः॥" इसमे वृक्ष को जड़, उसकी शाखा, पत्र-फल-फूल-कन्द-बोज सबको पृथक-पृथक सचित्त माना है और इनको कच्चा अर्थात् बिना अग्निपक्य द्वारा अचित्त किए खाने का सचित्त त्याग प्रतिभा वालेको स्पष्ट निषेध किया है। इससे वृक्षमे ये सब स्वयं अलग-अलग जीव वनस्पतिकायिक मचित्त योनि मे हो हैं। यह आगम सिद्ध है। जिन लोगोको मान्यता इस प्रकारको बनाई गई है कि मनुष्यके अंग-प्रत्यंगोको तरह ये वृक्ष के अग-प्रत्यंग है अतः जैसे नाना अगो वाली मनुष्य देहमे मनुष्यका एक हो जीव है अंग-प्रत्यगोका अलग नहीं है। यहो नियम वृक्ष के अंग-प्रत्यगोपर लगाना चाहिये-यह कथन सर्वथा विपरीत है उसके हेतु निम्न भांति है
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(१.) (अ) एकेन्द्रियके अंगोपांग नामकर्मका उदय नही होता इसे गोकर्मकाण्डके एकेन्द्रिय जोवोके उदय योग्य कर्मों की सूचीमे पढ़िये । न केवल वनस्पतिमे किन्तु पृथिवी, जल, वायु, अग्नि इन सभी एकेन्द्रियोमे अंगोपांग नामकर्मका उदय नही होता । इस स्थितिमे पत्र-फल आदिको वृक्ष, शरीरके अग प्रत्यंग मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है।
(ब ) अंगोपाग मनुष्यादिके टूट जानेपर फिर उत्पन्न नही होते, पर वृक्षोके पत्र, फल, पुष्प प्रतिवर्ष अपनी ऋतु पर नए-नए होते हैं। अता इसकी समता भी नहीं मिलती, बल्कि मनुष्यके पुत्र, पुत्री आदिको तरह ये भो पृथक् आत्मा व पृथक् शरीर वाले हो सिद्ध होते हैं। सभी आगम ग्रन्थोमे उनमे पृथक-पृथक् जोव ही माना गया है।
(स) यदि इसका वर्तमान विज्ञानको दृष्टिसे भी परोक्षण किया जाय तो पत्र-पुष्पादि पृथक् जीव हो सिद्ध होते हैं। कलकतामे सर जगदीशचन्द्र बसुकी प्रसिद्ध वानस्पतिक विज्ञानशालामे अनेक जैन विद्वानोकी उपस्थितिमे परोक्षण कराया गया। यह प्रयत्न मेरे आग्रह पर स्व० बाबू छोटेलाल जी सरावगी (बेलगछिया ) ने कराया था, जिससे एक घासके टकडे को तोडकर मशीनमे फिटकर उसकी शरोरसचरण-क्रिया द्वारा स्पष्ट हो गया था कि टूट जाने पर भो इसमे जीव है।
यद्यपि इसपर और भी प्रमाण व परीक्षण हैं तथापि यहां इतना हो स्पष्टीकरण पर्याप्त है।
जिनागम की मान्यतानुसार अतिथि सविभाग व्रतके अतिचारको व्याख्या भो आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थ सिद्धिमे 'सचित्त कमल पत्रादौ' शब्द द्वारा कमलपत्र तथा आदि पदसे अन्य वृक्षोके टे पत्तोको सचित्त हो माना है। डॉ० पन्नालाल जोने इन प्रमाणोका संक्षेपमे उल्लेख ग्रन्थ मे किया ही है। ____ इस ग्रन्थ के तृतीय प्रकाशमे लेखकने वर्तमान शिथिलाचारपर भी प्रकाश डाला है। लिखा है कि
(अ) आर्यिका वृद्ध भी हो तो भी अकेलो साधुके समोप न जाय, दो तीन मिलकर जाये और सात हाथ दूर रहकर हो धर्म-चर्चा करे । इस आचार सहिता का पालन करना चाहिये-श्लोक ८२, ८३॥
इस समय कई संघ साधुओके ऐसे हैं, जिनमे इसका पालन नहीं होता। बलि उन संघोका पूरा संचालन महिलाएँ ही करती हैं।
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संघ सवाल के लिए वे धन-संग्रह करतो हैं और न केवल संघ-साधुओ पर, संघ के आचार्य पर भी अपना वर्चस्व रखती देखो जाती हैं ।
यह सर्वदा आगम विरुद्ध कार्य है। जैन साधुओ की पुरानो परम्परामें ऐसा एक भी उदाहरण नही है कि महिलाएं संघ-सचालन करतो हो धन संग्रह करतो हो और सघस्य साधुओके आहारके लिए चौकेकी व्यवस्था करतो हो ।
( ब ) इसी तृतीय प्रकाशमे अपरिग्रह महाव्रतका स्वरूप निर्देश करते हुए विद्वान लेखकने श्लोक संख्या ६३ से १०० तकके अर्थ में लिखा है कि
जो मनुष्य पहिले परिग्रहका त्यागकर निर्ग्रन्थताको स्वीकारकर पीछे किसी कार्य के व्याज ( बहाने ) से परिग्रहको स्वोकार करता है वह कूपसे निकलकर पुन: उसी कूपमे गिरनेके लिए उद्यत है ... | दिगम्बर मुद्राको धारणकर जो परिग्रहको स्वीकार करते हैं उनका नरक - निगोदमे जाना सुनिश्चित है । 'यदि निर्ग्रन्थ दोक्षा धारण करने को तुम्हारो सामथ्य नही है तो हे भव्योत्तम । तुम श्रद्धामात्र धारण कर संतुष्ट रहो ।
इस प्रकरणमे लेखकने वर्तमान जैन साधुओंमें शिबिलाचार की बढती हुई प्रवृत्ति पर दुःख प्रगट करते हुए उसके निषेध करने के लिए सम्बोधन किया है जो अति आवश्यक है ।
स्व० ब्र० गोकुल प्रसाद जो मेरे पिता थे । स्व० पं० गोपालदासजो बरैया के पास वे अध्ययनार्थं मोरेना गये थे । उनको एक नोटबुक मे गुरुजी द्वारा कथित कुछ गाथाएँ लिखो हैं । उनमें एक गाया इस प्रकार है
भरहे पंचम काले जिणमुद्दाधार होई सगंथो । तव यरणसोल णासोऽणायारो जाई सो गिरये ॥
अर्थात् - इस भरत क्षेत्रमे पञ्चमकालमे जिनमुद्रा ( निर्ग्रन्थमुद्रा ) धारणकर पुन. वह मुनि सग्रन्थ ( सपरिग्रह ) होगा वह अपने तपश्चरण और शोलका नाश करेगा तथा ऐसा अनगार (निर्ग्रन्थ ) नरकको प्राप्त करेगा ।
यह प्राचीन गाथा किसो प्राचीन ग्रन्थकी है । ग्रन्थका नाम उसमें नहीं है । विद्वान् लेखकका कथन इस आगम-गाथा के अनुसार सर्वथा संगत है।
सारे शिथिलाचार की जड़ परिग्रहकी स्वीकारता है और उसके मूलमे महिलाओ द्वारा संघ-संचालन भी एक जबरदस्त कारण है। इस
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१२ )
पद्धतिसे परम्पराका नाश हो रहा है और अनर्थ बढ़ रहे हैं । इस पर अंकुश लगे बिना शिथिलाचार दूर न होगा।
श्वेताम्बर परम्पराके आचार-ग्रन्थोमे भी ऐसा उल्लेख है कि आर्या ( साध्वी) सौ वर्षको उम्रको हो, उसके समस्त अंग कुष्ठरोग द्वारा गलित हो चुके हो तो भी साधुको उससे एकान्तमे बात भी न करना चाहिये।
इस शिथिलाचारकी बढती हुई प्रवृत्तिसे अनेक साधु कूलरहोटर, पालकी, वाहन आदिका भी उपयोग करने लगे हैं जो सर्वदा विपरीत है। इसका अन्त कहाँ होगा, यह चिन्तनीय हो गया है।
साधुओ व आयिकाओको बिना पादत्राणके पैदल ही विहार करने की आज्ञा है ईर्यासिमितिका पालन करते हुए, परन्तु पालकोका उपयोग करने वालेकी ईर्यासमिति कैसे सधेगी? इसपर भी चतुर्थ अध्यायके श्लोक १४, १५ मे प्रकाश डाला गया है। - ब्रह्मचारी प्रतिमाधारो श्रावक भो निर्जीव सवारीका उपयोग करते हए भी सजीव सवारीका त्याग करते है। वे घोडा बैलगाडी, तागा, मनुष्यो द्वारा खीचे जाने वाले रिक्शा का त्याग करते हैं क्योकि इनसे पशुओ और मनुष्योको कष्ट उठाना पडता है तब पालकीको कैसे साधुके लिए ग्राह्य माना जा सकता है, जो चार हाथ भूमि निरखकर पाव बढाते एवं ईर्या समिति पालते है ?
पञ्चम प्रकाशमे इन्द्रिय-विजय पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। जनन-इन्द्रिय और रसना-इन्द्रिय ये दो इन्द्रियों हो मनुष्यको बलवान हैं। जननेन्द्रियपर विजय प्राप्तकर ब्रह्मचर्यको स्वीकार करने वाले महापुरुषोको रसना-इन्द्रियपर भी अकुश लगाना चाहिए, यह नितान्त आवश्यक है।
षष्ठ प्रकाशमे षडावश्यकोका वर्णन है। इसमें एक जिन स्तुतिमे भगवान महाबोरकी स्तुतिमे नौ पद्य तथा चतुविशति स्तुतिके चौबीस पद्य बहुत सुन्दर रचे गये हैं। साधुओके साथ ही श्रावकोको प्रतिदिन पढने के लिए बहुत उपयोगी है।
इसी प्रकार प्रतिक्रमण आवश्यकका वर्णन करते हुए प्रतिक्रमण पाठकी भो नवीन रचना २५ पद्योमे को है, जो बहुत उपयोगी है। ___ सप्तम प्रकाशमें पञ्चाचारका विशद वर्णन है। वोर्याचारका वर्णन करते हुए विविक्त शय्यासनमे अभावकाश, आतापन योग तथा वर्षा योग इन तीन तपस्याओंके स्वरूपका यथोचित निदर्शन किया गया है।
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। १३ ) अष्टम अध्यायमें बारह भावनामोका सुन्दर चित्रण है, जो विशद है और श्रावक एवं साधुओंके लिये उपयोगी पाठ है। नवम अध्यायमे ध्यानका वर्णन है। दसर्वेमें आयिकाओंके लिए विधि-विधान हैं। ग्यारहवेंमें सल्लेखनाका विधिवत् वर्णन है। __ गहस्थाचार (देशव्रत) का वर्णन १२वें प्रकाशमें किया गया है, जो अति संक्षेप रूप है। गृहस्थाचारका विशेष वर्णन होना चाहिये था, क्योंकि गृहस्थोंके लिए प्रतिपादित सभी ग्रन्थोमें प्राय १२ व्रत, उनके अतिचार और ११ प्रतिमाओका संक्षिप्त विवरण हो पाया जाता है। इसका कुछ विशद वर्णन सागार-धर्मामृत और धर्मसंग्रह श्रावकाचारमे अवश्य है।
आजको आवश्यकता है कि गृहस्पके लिए गृहस्थाचारका विशद वर्णन किया जाय । इससे गृहस्थोका जो अज्ञान शिथिलाचार या अनाचार है, वह दूर होगा। दूसरे वर्तमानके बदले हुए जमानेमे गहस्थ अपना धर्म कैसे पालें, उसे मार्गदर्शन मिलेगा। डॉ. पन्नालालजोसे मेरा अनुरोध है कि वे गृहस्थाचारका विशद वर्णन करने वालो एक पुस्तक अलगसे लिख देवे।
तेरहवें प्रकाशमे संयमासंयम-लब्धिका सक्षिप्त वर्णन है । इस प्रकार यह ग्रन्थ १३ प्रकाशो ( अध्यायो) में समाप्त हुआ है।
अन्तमे परिशिष्ट जोड़ा गया है। इसमे वे विषय निबद्ध है, जो यथास्थान वर्णनमें छूट गए हैं या जिनका विशद वर्णन या स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया।
डॉ० श्री पं० पन्नालालजो साहित्याचार्यका यह प्रयत्न और परिश्रम सफल होगा और पाठक इसे पढ़कर लाभ उठावेंगे इस आशाके साथ विराम लेता हूँ।
नगन्मोहनलाल शास्त्री
श्री महावीर उदासीन आश्रम कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र पो० कुण्डलपूर (दमोह ), म.प्र. ७-१०-१९८८
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लेखकीय वक्तव्य
सम्यग्दर्शन धर्मका मूल अवश्य है, पर मात्र सम्यग्दर्शनसे मोक्षरूप फलको प्राप्ति नही हो सकती । मोक्ष प्राप्तिके लिए तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से समन्वित सम्यक् चारित्रको आवश्यकता है। जिस प्रकार मूलको उपयोगिता वृक्षको हरा-भरा रखनेमे है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनको उपयोगिता सम्यक्चारित्ररूपो वृक्षको हरा-भरा रखने में है, इसीलिये उमास्वामी महाराज ने 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग : ' सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयको पूर्णताको हो मोक्ष मार्ग कहा है । सम्यक्त्व-चिन्तामणिमे सम्यग्दर्शनका और सज्ज्ञान- चन्द्रिका ( अपर नाम सम्यग्ज्ञान- चिन्तामणि ) में सम्यग् - ज्ञानका विस्तारसे वर्णन किया गया है । अब क्रमप्राप्त 'सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि' पाठकोके हाथमे है । इसमें सकल चारित्र और विकल चारित्रका साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है ।
समन्तभद्र स्वामीने हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापोके त्यागको चारित्र कहा है । उन पापोका सकलदेश परित्याग करना सकल चारित्र है और एकदेश त्याग करना विकल चारित्र है । सकल चारित्र मुनियोके होता है और विकल चारित्र गृहस्थोके ।
सकल चारित्रमे पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियोकी प्रधानता है, विकल चारित्र मे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोका वैभव है । सकल चारित्रके सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पांच भेद हैं। इनमें सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र छठवेंसे लेकर नवम गुणस्थान तक होते हैं, परिहार- विशुद्धि सयम छठवें और सातवे गुणस्थानमे होता है, सूक्ष्मसाम्यराय, एकदशम गुणस्थानमें हो होता है और यथाख्यात संयम ग्यारहवे से लेकर चौदहवे गुणस्थान तक होता है । चौदहवें गुणस्थान में जब परम यथाख्यात चारित्र होता है तब तत्काल मोक्षको प्राप्ति हो जाती है। उसके विना देशोन कोटि वर्ष तक यह मानव ससारमे अवस्थित रहता है । विकल चारित्र ( देश - चारित्र ) एक पञ्चम गुणस्थान में ही होता है। प्रारम्भके चार गुणस्थान असंयम रूप हैं।
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( १५ ) आगममें चारित्रको बड़ी महिमा बतलायो गई है। उससे मोक्षको प्राप्ति होती है। यदि उसमें न्यूनता रहे तो उससे वैमानिकदेवको आयु बंधती है। सकलचारित्रकी बात दूर रही, देशचारित्रकी भो इतनी प्रभूता है कि उससे भी देवायुका हो बन्ध होता है। जिस जीवके देवायुको छोडकर अन्य किसो आयुका बन्ध हो गया है उसके उस पर्यायमें न अणुव्रत धारण करनेके भाव होते हैं और न महावत धारण करने के।
नरकायुका बन्ध प्रथम गुणस्थान तक होता है, तिर्यञ्च आयुका बन्ध द्वितोय गुणस्थान तक होता है। तृतीय गुणस्थानमें किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता। चतुर्थ गुणस्थानमें देव और नारकोके नियमसे मनुष्यायुका और मनुष्य के चतुर्थसे लेकर सप्तम गुणस्थान तक देवायुका हो बन्ध होता है। तियंञ्चक चतुर्थ और पञ्चम गुणस्थानोमें देवायुका बन्ध होता है। अष्टमादि गुणस्थानोंमें किसी भी आयुका बन्ध नही होता। आयुका बन्ध किये बिना जो मनुष्य उपशम श्रेणो मांढकर एकादश गुणस्थान तक पहुंच जाता है वह क्रमशः पतन कर जब सप्तम या उससे अधोवर्जी गुणस्थानोमें आता है तभी आयुका बन्धकर तद. नुसार उत्पन्न होता है।
अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके गुणश्रेणो निर्जरा सदा नही होती जब स्वरूपकी ओर उसका लक्ष्य जाता है तब होती है। परन्तु सम्यक् दर्शन सहित एकदेश चारित्रके धारक श्रावक और सकल-चारित्रके धारक मुनियोके निरन्तर होतो रहती है। समन्तभद्रस्वामीने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको प्राप्तिका क्रम तथा उद्देश्य वर्णन करते हुए लिखा है
मोहतिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्तसंज्ञानः ।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः। अर्थात् मोह ( मिथ्यात्व ) रूपी अन्धकारका नाश होनेपर सम्यगदर्शनके लाभपूर्वक जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा भद्र परिणामी जीव रामद्वेषको दूर करने के लिए सम्यक्-चारित्रको प्राप्त करता है।
करणानुयोगके अनुसार जिस जोवके मिथ्यात्वके साथ अनन्तानुबन्धी चतुष्क अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अनुदय है और प्रत्याख्यानावरण चतुष्क तथा सज्वलन चतुष्कका उदय है उसके देशचारित्र होता है और जिसके मिथ्यात्वके साथ अनन्तानुबन्धी चतुष्क अप्रत्या.
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( १६ )
स्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अनुदय तथा सज्ज्वलन चतुष्क एव हास्यादिक नौ नोकषायोका यथासम्भव उदय रहता है उसके सकलचारित्र होता है । सज्ज्वलनचतुष्ककी भी तीव्र, मन्द और मन्दतर अवस्थाएँ होती हैं । षष्ठ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थानतक इनका यथासम्भव उदय रहता है और उदयानुसार गुणस्थानोकी व्यवस्था बनती है ।
कोई भवभ्रमणशील भव्य मानव जब निर्ग्रन्थचार्य के पास जाकर दिगम्बर दीक्षा की प्रार्थना करता है तो उसको भावनाका परीक्षणकर आचार्य दिगम्बर साधुके मूलगुणोका वर्णन करते हैं - पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पञ्चेन्द्रिय, विजय, छह आवश्यक और आचेलक्य आदि शेष सात गुण, सब मिलकर उनके २८ मूलगुण होते हैं । इस ग्रन्थ में मूलाचार आदि ग्रन्थोके आधारपर इन मूलगुणोका विस्तृत वर्णन किया गया है। मुनिव्रतमें दृढ़ता प्राप्त करने के लिए अनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाओका भी कथन किया गया है। स्वाध्यायकी परिपक्वताके लिये मार्गणा और गुणस्थानोकी भी किंचित् चर्चाको गई है। मोहनीय कर्मकी उपशमना और क्षपणाविधिका भी अल्प प्रतिपादन किया गया है । षडावश्यकोका वर्णन करते समय समाज, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्गको विस्तृत चर्चा की गयी है। इसके पाठभी विविध छन्दोमे रचे गये है, जिन्हे लयके साथ पढनेपर बडा आनन्द आता है।
इसी प्रकार आर्यिका दीक्षाकी प्रार्थना करनेपर आर्यिकाओके कर्तव्यकी विधि प्रदर्शितकी गयी है । अन्तमे श्रावकधर्मकी उत्पत्ति और प्रवृत्तिका वर्णन किया गया है। परिशिष्ट में अनेक उपयोगी विषयोका संकलन है ।
पाण्डुलिपि तैयार होनेपर अहारजीमे चातुर्मासके समय पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जीके पास वह परीक्षणार्थ भेजी गई थी । प्रसन्नता की बात है कि उन्होने ब्र० राकेश जीके साथ इसका आद्योपान्त वाचन कर जो सशोधन या परिवर्तन सुझाये थे, यथास्थान कर दिये गये ।
इस सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिकी रचना खुरईको वाचनाके बाद हुयी । अत. वाचनमे रखे गये कषायपाहुड, पुस्तक १३ की चर्चाओसे यह ग्रन्थ प्रभावित है । कषाय पाहुडके कुछ स्थल शंका-समाधान के रूपमें उद्धृत भी किये गए हैं।
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। १७ ) वोर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्टसे उसके मानद मंत्री श्री में० दरबारीलाल जो कोठिया द्वारा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका निरूपण करने वाले सम्यक्त्व-चिन्तामणि और सम्यज्ञान-चिन्तामणि ये दो अन्य पहले प्रकाशित हो चुके हैं, जो विद्वज्जनोंके द्वारा समोक्षित और समादत हुए हैं। अब उसी ट्रस्टसे उन्ही डॉ० कोठियाजीके द्वारा इस सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिका भी प्रकाशन हो रहा है। इसकी प्रसन्नता है।
ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय जिन मूलाचार, मूलाराधना तथा कषायपाहुड आदि सिद्धान्त-ग्रन्थोंसे लिया गया है, मैं उनके रचयिताओंका विनीत आभारी हूँ। पद्य-रचना और तत्त्व-निरूपणमे हुई त्रुटियोंके लिये विद्वद्वर्गसे क्षमाप्रार्थी हूँ। इन्हें वे सौहादभावसे पढ़ें और सूचित करें कि इसमे आगमके विरुद्ध तो कही कुछ नहीं लिखा गया है। तीनोमे लगभग साढे तीन हजार श्लोकोंकी रचना विविध छन्दोमे हुई है। यह मेरे जोवन-निर्माता पूज्यवर गणेशप्रसादजी वीके शुभाशीर्वादका
___ ग्रन्थकी भूमिका जैनागमके मर्मज्ञ पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीने लिखनेको कृपा की है। एतदर्थ उनका आभारोहूं। अन्यका प्रकाशन वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्टके मानद मंत्री डॉ. दरबारोलालजी कोठियाके सौजन्यसे सम्पन्न हुआ है, अतः उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
विनीत पन्नालाल जैन
श्री वर्षी दि० जैन गुरुकुल पिसनहारीकी मढ़िया, जबलपुर वर्णी जयन्ति-आश्विन कृष्ण ४ वीरनि० २५१५
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिमें प्रयुक्त छन्द
१. उपजाति २. वसन्ततिलका ३ स्रग्धरा ४. अनुष्टुप् ५ भुजङ्गप्रयात ६. आर्या ७. शालिनी ८. इन्द्रवज्ञा ६ वंशस्थ १० द्रुतविलम्बित ११. मालिनी १२. स्वागता १३ हरिणी १४ शाद लविक्रीडित १५ प्रमाणिका
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विषय
विषयानुक्रमणिका
प्रथम प्रकाश
मङ्गलाचरण और ग्रन्थ- प्रतिज्ञा चारित्रका लक्षण
चारित्रको प्राप्त करनेवाला मनुष्य मुनि दीक्षा लेनेवाले मनुष्यकी गुरुसे प्रार्थना प्रार्थनाके उपरान्त गुरुको स्वीकृति पाँच महाव्रतोका संक्षिप्त वर्णन पाँच समितियोका संक्षिप्त स्वरूप पाँच इन्द्रियविजयका निरूपण
छह आवश्यकोंका कथन शेष सात मूलगुणोका वर्णन
दीक्षार्थीका दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करना
द्वितीय प्रकाश
मङ्गलाचरण
चारित्र प्राप्त करनेका अधिकारी संयम लब्धिको प्राप्त करने वाले पुरुषके करण तथा करणोका कार्य, संयम के भेद
सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रका
स्वरूप
परिहारविशुद्धि संयमका वर्णन सूक्ष्मसाम्पराय सयमका वर्णन याख्यातचारित्रका वर्णन संयमसे पतित होकर पुनः संयम प्राप्त
करनेवाले सुनियोके करणोका वर्णन प्रतिपात, प्रतिपद्यमान और तद्व्यति
रिक्त स्थानोकी परिभाषा मोहनीय कर्मकी उपशमनाका वर्णन
श्लोक
१
६ - १२
१३ - १७
१८-२२
२२ - २५
२६ - ३१
३२ - ३७
३८ - ४५
४६ - ५३
५४ - ६४
६५ - ७१
Be
८
१ २-५
J
६ १२
१३ - १५
१६ - २०
२१ - २६
२६ - २८
२६ - ३०
३१ - ३५
३६ - ४०
鼠
१-२
२-३
३ ४
४-५
५
५-६
७
७-८
६
६- १०
१०- ११
८
www
१२ १२
१२ - १३
१३ - १४
१४
१५
१५ - १६
१६
१६ - १७
१७- १६
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________________
श्लोक
9.
४१-४४ ४५-६२
१६-२२
६३ -७० ७१
२२ - २३ २३ - २५
२५ - २६
२
२६ - २७
२७
२७ - २८ २८ - २६
अपूर्वकरण गुणस्थानमे होने वाले
कार्यका वर्णन अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका कार्य मोहनीयकर्मको क्षपणाविधिके अन्तर्गत
क्षायिकसम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका
कथन चारित्रमोहनोयको क्षपणाविधिका वर्णन प्रकरणका समारोप तृतीय प्रकाश मङ्गलाचररण महावताधिकारके अन्तर्गत महाव्रतका
लक्षण और उनके नाम अहिंसामहावतका स्वरूप जोवको जातियोका वर्णन, तदन्तर्गत
नरकगतिका वर्णन तिर्यञ्चगतिसम्बन्धो जोवोका वर्णन पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक
जीवोके विशेष प्रकार वनस्पतिकायिक जोवोके प्रकार त्रसजोवोका वर्णन सत्यमहावतका वर्णन, तदन्तर्गत असत्यके
चार भेद अज्ञानजन्य और कषायजन्यकी अपेक्षा
असत्यके दो भेदोका वर्णन अचौर्यमहाव्रतका वर्णन ब्रह्मचर्यमहाव्रतका निरूपण अपरिग्रहमहाव्रतका वर्णन अपरिग्रहमहाव्रतमें दोष लगाने वाले ____ मुनियोंका वर्णन अहिंसामहावतको पाँच भावनाए सत्यमहाव्रतको पाँच भावनाएं मचौर्यमहावतको पांच भावनाएं
२२ - २५ २६ - ३५
२६ - ३० ३० - ३२ ३२ - ३३
३६-१४
४५ - ५१
३३ - ३४
५२ - ६२
६३ - ७१
३४ - ३६ ३६ - ३७
- ३६ ३६-४०
७२-८३ ८४-६२
४०-४१
३ - १०० १०१ - १०३
१०४ १०५ - १०७
Page #23
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विषय
ब्रह्मचर्यमहाव्रतकी पांच भावनाएं अपरिग्रहमहाव्रतको पांच भावनाएं महाव्रताधिकारका समारोप
चतुर्थ प्रकाश
मङ्गलाचरण समिति वर्णन
समितिका वर्णन
भाषासमितिका वर्णन
एषणासमितिका स्वरूप माधुकरी वृत्तिका निरूपण
गोचरीवृत्तिका स्वरूप अग्निप्रशमनी वृत्ति गतंपूरण वृत्ति अक्षम्रक्षण वृत्ति आदाननिक्षेपणसमिति
व्युत्सर्गं समिति
समिति अधिकारका समारोप
पञ्चम प्रकाश
(२१)
मङ्गलाचरण इन्द्रियविजयनामक मूलगुणाधिकार के
अन्तर्गत स्पर्शनेन्द्रियविजयका वर्णन जिह्वा - इन्द्रियविजयका वर्णन घ्राणेन्द्रियविजयका वर्णन चक्षुरिन्द्रियविजयका वर्णन कर्णेन्द्रियविजयका वर्णन इन्द्रियविजयाधिकारका समारोप
षष्ठ प्रकाश
मङ्गलाचरण आवश्यकशब्दका निरुक्त अर्थ समता आवश्यकका वर्णन वन्दना आवश्यकका वर्णन
f
१०८ - ११३
११४ - ११५
११६ - ११७
२
C
४-१५
१६ - २७
२८ - ३५
३६ - ३८
३६ - ४२
४३ - ४५
४६ ४७
ed
१
३
४८ -
५१
५२ - ६५
६६ - ६६
७०
-
१
As
Ε
९ - १७
१८
२५
२६ - ३०
३१ - ३७
३८
१
६ - १४
१५ - ३१
पृष्ठ
४२ - ४३
४४
४५
m
४४
४४
४५ - ४६
४६-४७
४८ - ४६
४६
४६ - ५०
५०
શ્
५० - ५१
५१ - ५३
५३
५३
३४
५४ - ५५
५५ - ५६
५६ - ५८
५७ - ५६ ५८ - ५६ ५६
ॐॐ
५८
६०
६२ - ६३
६३ - ६७
Page #24
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________________
६७-७४
८६-८७
३७
स्तुति बावश्यकका वर्णन
३२-६३ प्रतिक्रमण आवश्यकका स्वरूप
६४-७२ प्रतिक्रमणका पाठ
७३-८८ प्रत्याख्यान आवश्यकका वर्णन ८६-१०० कायोत्सर्ग आवश्यकका वर्णन १०१ - ११७ कायोत्सर्गके चार भेद
११८ - ११६ कायोत्सर्ग सम्बन्धो ३२ दोष और अधिकारका समारोप
१२० - १२१ सप्तम प्रकाश मङ्गलाचरण पञ्चाचारके नाम तथा स्वरूपका वर्णन दर्शनाचारका वर्णन
१२-२२ सम्यग्ज्ञानाचारका वर्णन विनयाचारका वर्णन उपधानाचारका वर्णन
४१-४३ बहुमानाचारका वर्णन
४४.१ अनिवाचारका वर्णन
५०-५२ व्यञ्जनाचारका वर्णन अर्थाचारका वर्णन उभयाचारका वर्णन
५५-५६ चारित्राचारका वर्णन
५७-६० तप आचारका वर्णन आभ्यन्तरतपोका वर्णन-तदन्तर्गत प्रायश्चित्त तपका निरूपण
७३ - ८४ विनय तपका वर्णन वैयावृत्य तपका वर्णन स्वाध्याय तपका वर्णन
६१-६६ व्युत्सर्ग तपका वर्णन
१०० - १०१ ध्यान तपके अन्तर्गत आर्तध्यानका
१०२-१०६ रौद्रध्यानका वर्णन
१०७-१००
Vinay
६१-७२
१००
८५-८६
१००
१०० १०१-१०२
१०२
| স্বগল।
१०२ - १०३
१०३
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________________
।
२३
)
- १०५
१२-२१
१०८
धम्यंध्यानका वर्णन
१०-११० १०३ शुक्लध्यानका वर्णन
१११- ११३ १०३ - १०४ तपाचारका समारोप
११४ - ११६ १०४ वीर्याचारका वर्णन
११७ - १२४ १०५ - पञ्चाचारप्रकरणका समारोप
१२५ अष्टम प्रकाश मङ्गलाचरण अनुप्रेक्षाधिकारके अन्तर्गत अनित्यानुप्रेक्षाका वर्णन
२-११ १०६ - १.७ अशरणानुप्रेक्षा ससारानुप्रेक्षा
२२ - ३२
१०६ एकत्वानुप्रेक्षा
३३ - ४२ ११० - १११ अन्यत्वानुप्रेक्षा
४३ -५२ ११२ - ११३ अशुचित्वानुप्रेक्षा
- ६२ - ११४ आस्रवानुप्रेक्षा
६३ - ७२ ११४ - ११५ संवरानुप्रेक्षा
७३ - ३ ११५ निर्जरानुप्रेक्षा
८५-६३ ११७ - ११५ लोकानुप्रेक्षा
६५ - १०३ ११८ -११६ बोधिदलभानुप्रेक्षा
१०४-११३ ११६ - १२० धर्मानुप्रेक्षा
११४ - १२३ १२० - १२१ अनुप्रेक्षाधिकारका समापन
१२४
१२२ नवम प्रकाश मङ्गलाचरण
१२२ चित्तको स्थिरताके लिये ध्यानको
सामग्रोके अन्तर्गत गतिमार्गणामें गुणस्थान
२-६ १२२ - १२३ इन्द्रिय और कायमार्गणाको अपेक्षा गुणस्थान का वर्णन
१०-१२ १२५ योगमार्गणामें गुणस्थान
१३ - १६ १२४ - १२५ वेद, कषाम और योग मार्गणामें गुणस्थान २०-२३ १२५ - १२६ संयममार्गणामें मुगस्यान
२४-२७ १ २६ वर्शन, लेश्या और भव्यत्व मार्गमा गुणस्थान २८-३॥ १२५ - १२७
१२२
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________________
विषय सम्यक्त्व, संज्ञो और माहारक मार्गणामें गुणस्थान
३२-३८ मार्गणाओंमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हुए गतिमार्गणाकी चर्चा
३६-४५ इन्द्रिय, काय, योग, वेद और ज्ञानमार्गणाको अपेक्षा वर्णन
४६-५६ १२६ - १३० संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व संशो और आहार मार्गणाकी अपेक्षा वर्णन ५७ - ६४ १३० - १३१ दशम प्रकाश मङ्गलाचरण
१-२ १३२ आयिकाओकी विधि
३ -५ १३३ भव्यस्त्रियोंके द्वारा आर्यिकादीक्षाकी प्रार्थना ६-१४ १३३ - १३४ गरुने क्या कहा?
१५ - १७ १३३ - १३४ गुरुद्वारा आयिकाओंको विधिका वर्णन १८-२६ १३५ - १३६ क्षुल्लिकाओके व्रतका वर्णन
३० - ३२ १३६ गरुका उपदेश पाकर भव्यस्त्रियोके द्वारा
आयिकादीक्षाग्रहणका वर्णन ३३ - ३७ १३६ - १३७ एकादश प्रकाश मङ्गलाचरण
१ १३८ सहलेखनाकी उपयोगिता
२-११ १३८- १३६ सल्लेखना धारण करनेका काल और उसके भेद
१२ - २० १३६ - १४० सल्लेखनाके लिये निर्यापकाचार्यकी उपयोगिता २१ - २४ क्षपक द्वारा निर्यापकाचार्यसे प्रार्थना २५ – ३१ ।- १४२ निर्यापकाचार्यके द्वारा क्षपकको सम्बोधन ३२ - ४१ सल्लेखना वर्णनका समारोप
१४३ हावरा प्रकाश मङ्गलाचरण
१४४ देशचारित्र वर्णनकी प्रतिज्ञा
३-५ १४५ - १५५ पांच अणुव्रतोका वर्णन
६ - १४ १५५ तोन गुणवतोका वर्णन
१५-२५ १५६-१५५
१४१
१५३
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________________
श्लोक पृष्ठ २५ - ३८ १५ - १४८
१४६
V
Me Kc CWMC
१५२
(२५) विषय चार शिक्षाक्तोका वर्णन अतिचार वर्णनको प्रतिज्ञा तथा ___ सम्यग्दर्शनके अतिचार अहिंसाणुव्रतके अतिचार सत्याणुव्रतके अतिचार अचौर्याणवतके अतिचार ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार परिग्रहपरिमाणवतके अतिचारदिग्वतके अतिचार देशवतके अतिचार अनर्थदण्डवतके अतिचार सामायिकव्रतके अतिचार प्रोषधोपवासके अतिचार भोगोपभोगपरिमाणके अतिचार अतिथिसविभागवतके अतिचार सल्लेखनाके अतिचार व्रत और शीलका विभाग जिनपूजा आदिका निर्देश जिनवाणोके प्रसारका निर्देश प्रतिमाओका नामनिर्देश दर्शनिकश्रावकका लक्षण वतिक आदि प्रतिमाओके लक्षण उद्दिष्ट-त्याग प्रतिमाका विशेष निर्देश श्रावकधर्म प्रकरणका समारोप प्रयोदश प्रकाश मङ्गलाचरण देशचारित्र धारण करनेके लिये अन्तरङ्ग
कारणभूत कोको दशाका वर्णन उपशामनाका लक्षण और भेद स्थिति उपशामना, अनुभाग उपशामना
और प्रदेश उपशामनाका लक्षण
१४६ ४२ - ४३१ ४५ - १६ १४६- १५०
१५० ५०-५१ १५० ५२-५३
१५१ ५४-५५ १५१
१५२ ५६-६१ ६२-६३ १५३
१५३
१५३ ७०-७१ १५४
१५४ - १५५ ७६ १५४ - १५५ ७७-७६ १५५ ८० - ८७ १५५ - १५६ ८५-६३ १५६ - १५७ ६४ - १०० १५७ - १५८ १०१-१०६ १५६ - १६० ११० - १२० १६० - १६१ १२१ - १२२ १६१
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१
१६२
१६२ ६-१२ १६३ - १६४
१३-२३ १६४ - १६५
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( २६ )
विषय
देशचारित्र धारण करनेमें करणोका विशेष
निर्देश
अधःप्रवृत्त आदि करणोका कार्य देशचारित्र के गुणस्थानका निर्देश देशचारित्र धारण करनेका फल
देशव्रतो तिर्यवो तथा मनुष्योका निवास प्रकरणका समारोप
प्रशस्ति
परिशिष्ट
आहार सम्बन्धी ४६ दोषोका वर्णन
बत्तीस अन्तराय
वन्दना सम्बन्धो कृतिकर्म के बत्तीस दोष
कायोत्सर्ग के १८ दोष
शोलके अठारह हजार भेद
मुनियोके चौरासी लाख उत्तरगुण
निर्जरा सल्लेखना
श्लोक
२४- २७ १६५ - १६६
२८ ३३
१६६
१६७
१६७ - १६८
१६८
१६८ - १६६
१७०
१७१
३४ ३७ १६६
३८ - ३६
४० -
४४
Cente
४३
पृष्ठ
४७
-८
१७२
१७८
१६१
१८४
१७८
१८१
१८४
१८५
१८५
१८६
१८६ - १८७
१८७
१८८
-
-
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२
सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिः
प्रथम प्रकाश
सामान्यमूलगुणाधिकार
अब 'सम्यक्त्व- चिन्तामणि' के द्वारा सम्यग्दर्शन और 'सज्ज्ञानचन्द्रिका' के द्वारा सम्यग्ज्ञानका वर्णन करनेके पश्चात् सम्यक्चारित्रका वर्णन करनेके लिये 'सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि' ग्रन्थका प्रारम्भ करते हैं । निर्विघ्न ग्रन्थ- समाप्तिके लिये प्रारम्भमे मङ्गलाचरण करते हैं । ध्यानानले येन हताः समस्ता रागादिदोषा भवदुःखदास्ते । आर्हन्त्यविश्राजितमत्र वन्दे जिन जितानन्तभवोप्रदाहम् ॥ १ ॥
अर्थ- जिन्होने सासारिक दु.ख देने वाले उन प्रसिद्ध रागादिक समस्त दोषोको ध्यानरूपी अग्निमे होम दिया है, जो अष्ट प्रातिहार्यरूप आर्हन्त्य पदसे सुशोभित हैं तथा जिन्होने अनन्त भवसम्बन्धी तीव्र दाहको जीत लिया है- नष्ट कर दिया है, उन जिनेन्द्र भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
निहत्य कर्माष्टकशत्रुसैन्यं लोकाग्रमध्ये निवसन्ति ये तान् । सिद्धान् विशुद्धान् जगति प्रसिद्धान् बन्दे सवाहं निजभावशुवध्ये ॥ २ ॥
अर्थ - जो अष्टकर्म समूहरूप शत्रुकी सेनाको नष्टकर लोकके अग्रभागमे निवास करते है, जो विशुद्ध है तथा जगत्मे प्रसिद्ध हैं उन सिद्ध परमेष्ठियोको मैं अपने भावोकी शुद्धिके लिये सदा नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥
आचार्यवर्यान् गुणरत्नधुर्यान् बहुश्रुतान् विश्वहितप्रसक्तान् । साधून् सवा श्रायससाधनोत्कान् नमामि नित्यं वर भक्तिभावात् ॥ ३ ॥
अर्थ- गुणरूपी रत्नोंसे श्रेष्ठ उत्तम आचार्योंको, सब जीवोके हितमे संलग्न उपाध्यायको और सदा आत्मकल्याणके सिद्ध करनेमे उत्कण्ठित साधुओंको मैं उत्कृष्ट भक्तिभावसे नित्य ही नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥ सम्यग्व्यवस्था प्रविधाय यः प्राक् सम्पालयामास प्रजासमूहम् । विरज्य पश्चात् भवतो मनालों प्रदर्शयामास शिवस्य वर्त्म ॥ ४ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि तमाविवेवं सुरजातसेवं भव्योषवन्धं जनताभिनन्धम् । गुणर्लसन्तं महसा हसन्तं विश्वान्य देवान् कृतरागिसेवान् ॥ ५॥ प्रणम्य भक्त्या भवभञ्जनाय चारित्रचिन्तामणिमत्र वक्ष्ये। ये सन्ति केचिन्मतिमान्धभाजतेषां कृतेऽयं मम सत्प्रयासः ॥६॥ अतो न विद्वज्जनमाननीय विधेयं मयि दौर्मनस्यम् । श्रुतस्य सेवा महनीय कार्यमित्येव हेतोरहमत्र लग्न ॥७॥ यो वर्तते यस्य निसर्गजातो न तस्य लोपः सहसा प्रसाध्यः। चारित्रचिन्तामणिरेव लोके चिन्त्याभिवाने सततं प्रसिद्धः ॥८॥
अर्थ-जिन्होने पहले समीचीन व्यवस्थाकर प्रजा-समूहका पालन किया था और पश्चात् संसारसे विरक्त हो सब लोगोको मोक्षका मार्ग दिखलाया था, देवोने जिनको सेवाको थो, जो भव्यसमूहके द्वारा वन्दनीय थे, जनसमूहके अभिनन्दनीय थे, गुणोसे शोभायमान थे तथा रागी मनुष्योके द्वारा सेवित ससारके अन्य देवोकी जो अपने तेजसे हँसी कर रहे थे उन आदिदेव-वृषभनाथ भगवान्को मैं संसार परिभ्रमणका नाश करनेके लिये भक्तिसे प्रणाम कर यहा 'चारित्र-चिन्तामणि' ग्रन्थको कहंगा। इस ससारमे जो कोई बुद्धिकी मन्दतासे युक्त हैं उनके लिये मेरा यह सत्प्रयास है। अत विद्वज्जनोके द्वारा माननीय ज्ञानोजन मेरे ऊपर दौर्मनस्य न करे-इसने यह ग्रन्थ क्यो रचा, ऐसा भाव न करे। श्रतको सेवा करना एक अच्छा कार्य है, इसी हेतुसे मै इस कार्यमे संलग्न हुआ हूँ। जिसका जो निसर्ग जात-स्वभाव होता है उसका लोप भो तो सहसा नही किया जा सकता। इस जगत्मे चारित्ररूपो चिन्तामणि हो अभिलषित पदार्थों के देनेमे निरन्तर प्रसिद्ध है, अत. उसका वर्णन करता हूं ॥४-८॥ आगे चारित्रका लक्षण कहते हैंसंसारकारणनिवृत्तिपरायणानां
या कर्मबन्धननिवृत्तिरियं मुनीनाम् । सा कथ्यते विशवबोषधरमुनीन्द्र
चारित्रमत्र शिवसाधनमुख्यहेतुः ॥९॥ अर्थ-संसारके कारण मिथ्यात्व तथा हिंसादि पापोको निवृत्ति करनेमे तत्पर मुनियोकी जो कर्म-बन्धनसे निवृत्ति है-कर्मबन्धनके कारणोको दूर करनेका प्रयास है वही निर्मल ज्ञानके धारक मुनिराजो
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प्रथम प्रकाश के द्वारा चारित्र कहा जाता है। इस जगत्मे चारित्र ही मोक्ष प्राप्तिका प्रमुख हेतु माना गया है ॥ ६ ॥
अथवा मोहध्वान्तापहारे प्रकटितविशवज्ञानपुञ्जो जनो यो
रागावीनां निवृत्य परिहरति सदा पापतापं दुरन्तम् । चारित्रं सन्मुनीन्द्रः शिवसुखसदन कीर्त्यते कोतिपात्र__राचार्यरात्मनिष्ठनिखिलगुणपरैः स्वात्मसंवेदनाढ्यः ॥१०॥
अर्थ-मोह-मिथ्यात्वरूपो अन्धकारके नष्ट हो जानेपर प्रकट होने वाले निर्मल ज्ञान समूहसे युक्त मनुष्य, रागादिक विभाव भावो को नष्ट करनेके लिए जो सदा दुखदायी पापरूपो सन्तापका त्याग करता है वही आत्मनिष्ठ-आत्मध्यानमे लोन, समस्त गुणोका धारक तथा स्वात्मानुभूतिसे युक्त यशस्वी, मुनिराज आचार्योंके द्वारा चारित्र कहा जाता है। यह चारित्र मोक्ष सुखका सदन है-अर्थात् चारित्रसे हो मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है ॥ १० ॥
अथवा आत्मस्वभावे स्थिरता मुनीनां या वर्तते स्वात्मसुखप्रवात्री। सा कोय॑ते निर्मलबोधवद्भिश्चारित्र नामा परमार्थतश्च ॥ ११॥
अर्थ-निश्चयनयसे मुनियोकी, स्वात्मसुखको देनेवालो जो आत्मस्वभावमे स्थिरता है वही निर्मल ज्ञानधारी मुनियोके द्वारा चारित्र कहा जाता है ॥११॥
अथवा हिंसाविपापाद् व्यवहारतो या भवेन्मुनीनां विनिवृत्तिरेषा। चारित्रनाम्ना भवि सा प्रसिद्धा कौघकक्षानल पुञभूता ॥१२॥
अर्थ-व्यवहारनयसे-चरणानुयोगकी पद्धतिसे मुनियोको जो हिसादि पापोसे निवृत्ति है वही पृथिवोपर चारित्र नामसे प्रसिद्ध है। यह चारित्र कर्मसमूहरूप वनको भस्म करनेके लिये अग्नि समूहके समान है ॥ १२॥ आगे चारित्रको कौन मनुष्य प्राप्त होता है, यह कहते हैं
मोहस्य प्रकृतीः सप्त हत्या प्राप्तसुदर्शनः । कर्मभूमिसमुत्पन्नो नरो भव्यत्वभूषिता॥१३॥ तस्वनामयुतो भीतो भवनमणसन्तो।। माजवंजवसिन्धोरच तोरं प्राप्य प्रसन्नधीः ॥१४॥
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सम्यक्चारित्र चिन्तामणि
प्रत्याख्यानावृतेजतेऽनुवये शान्ति भूषितः । चारित्र लभते कश्चिन् सति सज्वलनोदये ॥ १५ ॥ संयमलब्धिरित्येषाऽबद्धायुष्कस्य सम्भवेत् । बलदेवायुषो वा स्यान्नान्यस्य जातुचिद् भवेत् ॥ बद्धदेवतरायुष्कोऽणुव्रतं वा महाव्रतम् । सन्ध नैव शक्नोति नियोगादिह जन्मनि ॥
१६ ॥
१७ ॥
अर्थ - मोहनी की सात प्रकृतियोको नष्टकर उपशम, क्षय या क्षयोपशमकर जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्तकर लिया है, जो कर्मभूमिमे उत्पन्न है, भव्यत्वभावसे सहित है, तत्त्वज्ञान से युक्त है, संसार - भ्रमण की सन्ततिसे भयभीत है तथा संसाररूपी समुद्रका तट प्राप्त होनेसे जिसको बुद्धि प्रसन्न है - संक्लेश से रहित है, प्रत्याख्यानावरण कषायका अनुदय होने से जो शान्तिसे विभूषित है ऐसा कोई मनुष्य सज्वलन तथा नोकषायोका यथासम्भव उदय रहते हुए चारित्रको प्राप्त होता है । यह सयमलब्धि - चारित्रकी प्राप्ति उस मनुष्यको होती है जो अबद्धायुष्क है अर्थात् जिसने अभी तक परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध नही किया है और यदि किया है तो देवायुका ही बन्ध किया है अन्य किसीको यह संयमलब्धि प्राप्त नही होती । क्योकि ऐसा नियम है कि जिसने देवायुके सिवाय अन्य आयुका बन्ध कर लिया है ऐसा जीव इस जन्ममे न तो अणुव्रत धारण करनेमे समर्थ होता है और न महाव्रत धारण करनेमे । तात्पर्य यह है कि संयमलब्धि और सयमासंयम लब्धि उपर्युक्त जोवको ही होती है ।। १३-१७ ॥
आगे मुनिदीक्षा लेनेवाला मनुष्य क्या करता है, यह कहते हैंबन्धुवर्ग समापृच्छय भक्त्वा स्नेहस्य बन्धनम् । पञ्चाशीविजयं कृत्वा विरक्तो देह पोषणात् ॥ १८ ॥ विपिने मुनिभिर्युक्त अवाग्विसर्ग वपुषा
करुणाकरसन्निभम् ।
मोक्षमार्गनिरूपकम् ॥ १९ ॥
गुरुं सम्प्राप्य तत्पाद-युगल बिनमन्मुदा । प्रार्थयते - दयासिन्धो ! मां तारय भवार्णवात् ॥ २० ॥ न मे कश्चिद् भवे नाहं वर्ते कोऽपि कस्यचित् । भवत्पावद्वयं मुक्त्वा शरणं नंव विद्यते ॥ २१ ॥ दत्त्वा निर्ग्रन्यसन्दीक्षां तारयेह भवाब्धितः । इत्थं सम्प्रार्थ्य तत्पादद्वन्द्वदत्तविलोचन. ।। २२ ।।
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प्रथम प्रकाश
अश्रुतिक्तमुचस्तिष्ठत् तस्य वागमृतोत्सुकः। अर्थ-मुनि दीक्षा धारण करनेके लिये उत्सुक भव्यमानव, बन्धुवर्गसे पूछकर, स्नेहरूपो बन्धनको तोडकर तथा पञ्च इन्द्रियोपर विजय प्राप्तकर शरीर पोषणसे विरक्त होता हुआ वनमे उन गुरुके पास जाता है जो अनेक मुनियोसे सहित हैं, दयाके मानो सागर हैं और वचन बोले विना ही शरीर द्वारा-शरीरकी शान्तमुद्राके द्वारा हो मोक्षमार्गका निरूपण कर रहे हैं । गुरुके पास जाकर वह उनके चरण युगल को नमस्कर करता हुआ हर्षपूर्वक प्रार्थना करता है-हे दयाके सागर । मुझे ससाररूपो सागरसे तारो-पार करो। ससारमे मेरा कोई नही है और मैं भो किसोका कुछ नही हूँ, आपके चरण युगलको छोड़कर अन्य कुछ शरण नही है, अत. आप निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर इस ससार-सागरसे पार करो। इस प्रकार प्रार्थना कर वह गुरुके चरणयुगलपर दृष्टि लगाकर चुप बैठ जाता है। उस समय उसका मुख आँसुओसे भीग रहा होता है और वह गुरुके वचनामृतके लिये उत्सुक रहता है ।। १८-२२॥ आगे गुरु क्या कहते हैं, यह बताते हैं
गुरुः प्राह महाभव्य ! साधु संचिन्तित त्वया ॥ २३ ॥ ससारोऽय महादु.खवृक्षकन्दोऽस्ति सन्ततम् । श्रय एतत्परित्यागे नावाने तस्य निश्चितम् ॥२४॥ गहाणु मुमिदीक्षां त्वमेव भवतारिणी।
साधुमलगुणान् बच्मि शृणु ध्यानेन तानिह ॥ २५ ॥ अर्थ-गुरु ने कहा-हे महाभव्य । तुमने ठोक विचार किया है। यह संसार सदा महादुःखरूपो वृक्षका कन्द है। इसका त्याग करनेमे कल्याण निश्चित है, ग्रहण करनेमे नही। तुम मुनि दीक्षा ग्रहण करो, यहो संसारसे तारनेवाली है। मैं मुनियोके मूलगुण कहता हूँ उन्हे तुम ध्यानसे सुनो ॥ २३-२५ ॥ आगे मूलगुणोके अन्तर्गत पांच महावतोका सक्षिप्त स्वरूप कहते हैं
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहो। एतानि पञ्च कष्यन्ते महावतानि सूरिभिः ॥ २६ ॥ प्रसस्थावरजीवानां हिंसायाः वर्जनं नृभिः । भहिंसा नाम विशेयं महानतमनुत्तमम् ॥ २७ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सूक्मस्थूलविभेदेन द्विविधं वर्ततेऽनृतम्। तस्य त्यागो नृणां क्षेयं सत्यं नाम महाव्रतम् ॥ २८॥ सर्वथा परवस्तूनां त्यागो हस्तेयमुच्यते । वारा: स्वपरभेदेन द्विविधा परिकीर्तिताः ।। २९ ।। मनुजस्तत्परित्यागो ब्रह्म नाम महावतम् । बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधोऽस्ति परिग्रहः ॥ ३० ॥ तस्य स्यागो नभिर्यस्तु सोऽपरिग्रह उच्यते ।
महावतस्वरूपं वै गदित ते समासतः॥ ३१ ॥ अर्थ-अहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये आचार्यों द्वारा पांच महाव्रत कहे गये हैं। मनुष्य जो त्रस और स्थावर जीवोको हिंसाका त्याग करते हैं वह अहिसा महावत है। सूक्ष्म और स्थूलके भेदसे असत्य दो प्रकारका है । मनुष्योके जो दोनो प्रकारके असत्यका त्याग है वह सत्य महावत है। बिना दो हुई परवस्तुओका सर्वथा त्याग करना अचौर्य महावत है। स्व और परके भेदसे स्त्रियां दो प्रकारकी कहो गई हैं, उनका मनुष्यो द्वारा जो त्याग होता है वह ब्रह्मचर्य नामका महावत है। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे परिग्रह दो प्रकारका है। मनुष्यो द्वारा उसका जो त्याग किया जाता है, वह अपरिग्रह महाव्रत कहलाता है। इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये सक्षेपसे पाँच महाव्रतोका स्वरूप कहा है ॥ २६-३१ ॥ आगे पांच समितियोका स्वरूप कहते हैं
ईर्याभाषेषणादानन्यासव्युत्सर्गसंशिताः । महावतस्य रक्षार्थं ज्ञेय समितिपञ्चकम् ॥ ३२॥ दिवावणमित भूभीमागं वृष्ट्वा मुनीश्वरः। गम्यते यत् सुविनेया हीर्यासमितिरत्र सा ॥ ३३ ॥ हिता मिता प्रिया वाणी मुनिभिर्या समुच्यते । भाषासमितिरक्ता सा सत्यवागविजिनः ॥ ३४॥ एकवार दिवा मुक्ते मुनिर्यल्पाणिपात्रयोः। एषणा समितिज्ञेया साधुकल्याणकारिणी ॥ ३५॥ शानोपकरणादीनां समीक्ष्यावानसंस्थिती। आवानन्याससंज्ञा सा समितिर्बुषसम्मता ॥ ३६॥ मलमूत्रादिवाषाया निवृत्तिर्गतजन्तुके । धामनि क्रियते या सा व्युत्सर्गसमितिमता ॥३७॥
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प्रथम प्रकाश
७
अर्थ -- ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-न्यास ( आदान-निक्षेप ) और व्युत्सर्गं ये पाँच समितिया महाव्रतोकी रक्षाके लिये कही गई हैं । मुनिराज दिनमे जो चार हाथ जमीन देखकर चलते हैं वह ईर्या समिति है। मुनि जो हित-मित प्रिय वाणीको बोलते हैं उसे सत्य वचनके स्वामी जिनेन्द्र भगवान्ने भाषा समिति कहा है। मुनि दिनमे एक बार जो यथाविधि पाणिपात्रमे भोजन करते हैं वह साधुओका कल्याण करने वाली ऐषणा समिति जानने योग्य है । ज्ञानके उपकरण शास्त्र, शौचके उपकरण कमण्डलु और संयमके उपकरण पीछो आदिको देखकर उठाना रखना आदान-न्यास ( आदान-निक्षेपण ) समिति ज्ञानो जनो द्वारा मानी गई है। जोवरहित स्थानमे मुनियो द्वारा जो मलमूत्र आदिकी बाधा से निवृत्ति की जाती है वह व्युत्सर्ग या प्रतिष्ठापना समिति मानी गयी है ।। ३२-३७ ॥
आगे पञ्च - इन्द्रिय-जयका वर्णन करते हैं
स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षु श्रवणमेव च । हृषीकाणि समुच्यन्ते समुच्यन्ते सम्यग्ज्ञानधरैर्नरैः ॥ ३८ ॥ हृषीकाणां जय. कार्यः साधुवीक्षासमुद्यतः । ये हि बासा हृषीकाणा तेषां दीक्षा क्य राजते ॥ ३९ ॥ कामिनीकोमलाङ्गे च रूक्षं पाषाणखण्डके । रागद्वेषौ न यस्य स्तः स भवेत् स्पर्शनोज्जयी ॥ ४० ॥ इष्टानिष्टरसे भोज्ये माध्यस्थ्यं यस्य विद्यते । रसनाक्षयस्तस्य शस्यते भुवि साधुभि ॥ ४१ ॥ सौगन्ध्ये चापि दौर्गन्ध्ये माध्यस्थ्य न जहाति यः । घ्राणाक्ष विजयो स स्यात् कर्मक्षपणतत्परः ॥ ४२ ॥ मनोशे ह्यमनोज्ञे च रूपे यस्य न विद्यते । वैषम्य विप्रपत्तिश्च स चक्षुविजयी भवेत् ॥ ४३ ॥ निन्दायां स्तवने यस्य माध्यस्थ्य नैव हीयते । श्रवणाजयो स स्यात् साधुवीक्षाधरो नरः ॥ ४४ ॥ यथा खलोनतो होना हयाः कापथगामिन. । तथा संयमतो होना नराः कापथगामिनः ॥ ४५ ॥
अर्थ- सम्यग्ज्ञानको धारण करनेवाले मनुष्योके द्वारा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ कही जाती हैं । मुनिदीक्षा के लिये उद्यत मनुष्योको इन्द्रियोको जय करना चाहिये । क्योकि
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सम्यचारित्र-चिन्तामणि जो इन्द्रियोके दास है उनकी दीक्षा कहां विराजती है, अर्थात् कही नहीं। स्त्रोके कोमल शरोरमे और रूक्ष पाषाण खण्डमे जिसके राग, द्वेष नहीं है वह स्पर्शनेन्द्रिय जयो कहलाता है। इष्ट और अनिष्ट रस वाले भोजनमे जिसको मध्यस्थता विद्यमान रहती है उसका रसनेन्द्रिय विजय पृथिवीपर साधुओके द्वारा प्रशसित होता है। सुगन्ध और दुर्गन्धमे जो मध्यस्थताको नही छोड़ता है वह कर्म-क्षयमे उद्यत घ्राणेन्द्रियजयी होता है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपमे जिसके विषमता और विरोध नहीं है वह चक्षुरिन्द्रिय विजयो होता है । निन्दा और स्तुतिमे जिसको मध्यस्थता नही छूटती वह मुनि-दोक्षामे तत्पर रहने वाला मनुष्य कर्णेन्द्रियजयी होता है। जिस प्रकार लगामसे रहित घोडे कुमार्गगामी होते है उसी प्रकार सयमसे रहित मनुष्य कुमार्गगामी होते हैं ।। ३८-४५ ।। आगे छह आवश्यकोका कथन करते है
साधुनानुदिनं कार्य षडावश्यकपालनम् । समता वन्दना चापि स्तुतिस्तीर्थकृतां सदा ॥ ४६ ॥ प्रतिक्रमणं च प्रत्याख्यानं व्युत्सर्ग एव च । इत्येते षड् सुविज्ञेयाः प्रोक्ता आवश्यका जिनः॥ ४७ ॥ इष्टानिष्टपदार्थेष
रागद्वेषविवर्जनम् । समता शस्यते सद्भिरात्मशुद्धिविधायिनी ॥ ४८ ॥ चतुविशतितीर्थशामकस्य स्तवनं मुदा । क्रियते साधुना यसद् वन्दना नाम कथ्यते ॥ ४९ ।। सर्वतीर्थकृतां भक्त्या स्तवनं यद विधीयते । स्तुतिरावश्यकं ज्ञेयं मुनीनां मोदवायनम् ॥५०॥ भूतकालिकदोषाणां प्रायश्चित्त विधायिनी। क्रिया या साधुसङ्घस्य सा प्रतिक्रमण मतम् ॥ ५१॥ भाविकाले विधास्यामि जातुचिन्नव पातकम् । इत्येवं यत्प्रतिज्ञान प्रत्याख्यानं तदुच्यते ॥ ५२॥ अन्तर्वाह्योपधित्यागे कायमोहविवर्जनम् ।
पायं ध्यायं महामन्त्र व्युत्सर्गः सोऽभिधीयते ॥ ५३ ॥ अर्थ-साधुको प्रतिदिन छह आवश्यकोका पालन करना चाहिये समता, वन्दना, तोथंकरोकी स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग ये छह आवश्यक जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे गये हैं, अतः
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प्रथम प्रकाश
जानने योग्य है । इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंमे राग-द्वेषका त्याग करना, सत्पुरुषोके द्वारा समता कहो गई है । यह समता आत्म शुद्धिको देने वाली है। चौबीस तीर्थंकरोमेसे किसी एक तीर्थकरका हर्षपूर्वक जो स्तवन किया जाता है वह वन्दना कहलाती है और सभी तीर्थंकरोका भक्तिसे जो स्तवन किया जाता है वह स्तुति नामक आवश्यक कहलाता है । यह आवश्यक मुनियोको आनन्द देनेवाला है । भूतकालीन दोषोका प्रायश्चित दिलाने वाली साधु समूहको जो क्रिया है वह प्रतिक्रमण मानी गई है। भावो कालमे कभी भी ऐसा पाप नही करूगा इस प्रकारका जो नियम है वह प्रत्याख्यान कहलाता है । अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रहका त्यागकर महामन्त्रका ध्यान करते हुए जो शरीरसे मोह छोड़ा जाता है वह व्युत्सर्ग नामका आवश्यक कहलाता है ।। ४६-५३ ।।
आगे शेष सात गुणोका वर्णन करते हैं
लोचाचेलक्यमस्नान भूशय्याऽदन्तधावनम् । स्थितिभुक्त्येकमुक्ती च सप्तैते शेष सद्गुणाः ॥ ५४ ॥ मासद्वयेन मासैस्तु त्रिभिर्मासचतुष्टयात् । शिरः स्थान्श्मकूर्च स्थान्कच्चान् लुञ्चेत् प्रमोदतः ॥ ५५ ॥ लुञ्चस्य दिवसे कार्य उपवासो नियोगत. । एकान्ते लुञ्चनं श्रेष्ठमहंभावनिवारणात् ।। ५६ ।। ब्रह्मचर्यस्य शुद्ध्यर्थमाचेलक्य मुदा वहेत् । नर्ग्रन्थ्ये विद्यमानेऽपि नाग्न्यं मूलगुणो मतः ॥ ५७ ॥ चेलखण्ड परित्यागाद् ब्रह्मचर्यं परीक्ष्यते । वस्त्रान्त विकृतिर्व्रष्टुं नैव शक्या शरीरिभिः ॥ ५८ ॥ जोबहिंसा निवृत्यर्थं वैराग्यस्य च वृद्धये । स्नानत्यागो विधातव्यः साधुभिः शिवसाधकैः ।। ५९ ।। विष्टरादिपरित्यागे भूशय्या शरणं मतम् ।
कट: पलालपुज्जो वा कदाचिद् ग्राह्य उच्यते ॥ ६० ॥ रजन्याः पश्चिमे भागे श्रमस्य परिहाणये । शेरते मुनयः किञ्चिद् भूपृष्ठे जातु कर्कशे ॥ ६१ ॥ कुन्दपुष्पामदम्ताली वृष्ट्वा रागः प्रजायते । तद्रागस्य विनाशायादन्तधावनमुच्यते ॥ ६२ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि वासरे टेकवाह यो स्थित्वा पाणिपात्रयोः। मुक्त साधुरनासक्त्या तरिस्थतिभोजनं मतम् ॥ ६३ ॥ एकस्मिन् विवसे मुक्तिबेले के विनिरूपिते ।
गृहिणां साधुसङ्घस्तु सम्मुक्त ह्येकवारकम् ॥ ६४ ॥ अर्थ-केशलोच करना, नग्न रहना, स्नान नही करना, पृथिवोपर सोना, दातौन नही करना, खडे-खडे आहार करना और एक बार आहार लेना, ये मुनियोके शेष सात गुण माने गये हैं। दो माह, तोन माह अथवा चार माहमे शिर तथा डाढी मूछके केशोका हर्षपूर्वक लोच करना चाहिये। लोचके दिन नियमसे उपवास करना चाहिये। एकान्तमे केशलोच करना श्रेष्ठ है क्योकि उसमे अहंभाव-अहंकार नहीं होता। ब्रह्मचर्यको शुद्धिके लिये हर्षपूर्वक नाग्न्यव्रत धारण करना चाहिये । निर्ग्रन्थ-निष्परिग्रह दशाके रहते हुए भी नाग्न्य व्रतको मूलगुण माना गया है। क्योकि वस्त्रखण्डका परित्याग होनेसे ही ब्रह्मचर्यको परीक्षा होती है। वस्त्रके भीतर होनेवाला विकार प्राणियोके द्वारा देखा नहीं जा सकता। जीव हिसाकी निवृत्ति तथा वैराग्यको वृद्धिके लिये मोक्षकी साधना करनेवाले साधुओको स्नानका त्याग करना चाहिये । बिस्तर आदिका त्याग हो जानेपर साधुओको भूशय्या ही शरण मानी गई है। कभी चटाई और पुआल आदि भो ग्राह्य-ग्रहण करने योग्य माने गये हैं। थकावटको दूर करनेके लिये मुनि रात्रिके पश्चिमार्ध भागमे कर्कश पृथ्वो-पृष्ठपर कभी कुछ शयन करते है। कुन्दके फूल समान आभावालो दन्तपक्तिको देख कर राग उत्पन्न होता है। उसका नाश करनेके लिये अदन्तधावन गुण कहा जाता है। मुनि दिनमे एक बार खड़े होकर पाणिपात्र हाथ रूपी पात्रमे अनासक्त भावसे जो आहार करते हैं वह स्थिति-भोजन नामका गुण है। गृहस्थोके लिये दिनमे भोजन करनेके लिये दो बेला कही गई है परन्तु साधु-समूह एक बार हो भोजन करते हैं उनका यह एक भुक्त-मूलगुण कहलाता है ॥ ५४-६४ ॥ इस प्रकार गुरुके मुखसे मूलगुणोका वर्णन सुन दोक्षाके लिए उद्यत मनुष्य क्या करता है, यह कहते हैं
इत्थं मूलगुणान् श्रुत्वा गुरुवदनबारिजात् । ओमित्युक्त्वा मुदा नातो रोमाञ्चित कलेवरः॥६५॥
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प्रथम प्रकाश
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सुञ्चित्वा पाणियुग्मेन कचान शिरसि संस्थितान् । मुक्त्वा वस्त्रावति सबः सजातोऽसौ दिगम्बरः॥६६॥ गुरुणा कृत संस्कारो धृतपिच्छकमण्डलुः । शुशुभे क्षीणसंसारा साधुसङ्घाभिनन्दितः ।। ६७ ॥ करणानां विशुद्विर्या दशिता परमागमे । तां सम्प्राप्य परिप्राप्तोऽप्रमत्तविरतस्थितिम् ॥ ६८॥ अन्तर्महर्तमध्येऽसौ प्रमत्तविरतोऽभवत । कृत्वारोहावरोही स षष्ठसप्तमयोश्चिरम् ॥ ६९॥ धृत सामायिकच्छेवोपस्थापनसंयमः।
विजहार महीपृष्ठे गुरुसङ्घ-समन्वितः ॥७॥ अष्टाङ्गसम्यक्त्वविभूषितो यो, यो ज्ञानशाखोल्लसित समन्तात। चारित्रसौगन्ध्यसमन्वितो यः स मोक्षमार्गो मम मोक्षदा स्यात् ॥७१॥
अर्थ-इस प्रकार गुरुदेवके मुख कमलसे मूलगुणोको सुनकर जिसका शरीर रोमाञ्चित हो रहा था ऐसे उस भव्यने 'ओम्' स्वोकार है, ऐसा कह दोनो हाथोसे सिरके केशोका लोच किया तथा वस्त्रका आवरण दूरकर वह शोघ्र हो दिगम्बर हो गया। गुरुने जिसका संस्कार किया था जो पोछो और कमण्डलको धारण कर रहा था, जिसका संसार अल्प रह गया था तथा उपस्थित साधु समूहने जिसका अभिनन्दन किया था ऐसा वह नवीन दोक्षित, अतिशय सुशोभित हो रहा था। परमागममे करणो-अध प्रवृत्त तथा अपूर्वकरण आदि परिणामोकी जो विशुद्धि दिखलाई गई है उसे प्राप्तकर वह अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थानको प्राप्त हो गया। पश्चात् अन्तमुहर्तके भोतर प्रमत्तविरत हो गया। इस तरह वह छठवें और सातवे गुणस्थानमे आरोह-अवरोह-चढना उतरना करता हुआ सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रसे युक्त हो गया। पश्चात् गुरु-आचार्य तथा सङ्घ-सङ्घस्थ मुनियोंके साथ उसने पृथिवीपर विहार किया।
ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जो अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनसे सुशोभित है, ज्ञानको शाखाओसे उल्लसित-अतिशय शोभायमान है और चारित्ररूपो सुगन्धिसे सहित है ऐसा मोक्षमार्ग मुझे मोक्षका देनेवाला हो॥ ६५-७१॥ इस प्रकार सम्यक्चारित्रचिन्तामणि ग्रन्थमे सामान्य रूपसे मूलगुणोंका वर्णन करनेवाला
प्रथम प्रकाश पूर्ण हुआ।
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१२
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
द्वितीय प्रकाश चारित्रलब्धिअधिकार
मङ्गलाचरण
स्ववशीकृतानि
रिन्द्रियाणि चित्तस्य चाञ्चल्य मनीरितञ्च ।
तान् संयतान् स्वात्म विशुद्धियुक्तान्, वन्दे सदाहं शिवसौख्यसिद्ध्ये ॥ १ ॥
अर्थ- जिन्होने इन्द्रियोको अपने अधीन किया है तथा चित्तको चलताको रोका है, स्वात्मविशुद्धिसे युक्त उन सयतो - ऋषि, मुनि, यति और अनगार भेदसे युक्त चतुविध साधुओको मै मोक्षसुखकी प्राप्ति के लिये सदा नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
आगे चारित्रको कौन व्यक्ति प्राप्त करता है, यह लिखते हैं
चारित्र लभते कोऽत्र क्वत्यः कीदृक् च मानवः । कीवृक् तस्यात्मभावः स्यादिति चिन्ता विधीयते ॥ २ ॥ मनुजः कर्मभूम्युत्थोऽकर्मभूमिज एव च । ज्ञानोपयोगसयुक्तः सल्लेश्याभिः समन्वितः ॥ ३ ॥ पर्याप्तो जागृतो योग्यद्रव्यक्षेत्रादिशुम्भित. । लभते चारित्रलब्धि कर्मक्षयविधायिनीम् ॥ ४ ॥
प्रथमाद्वा चतुर्थाद्वा पञ्चमाद्वा गुणादयम् । प्राप्नोति सयमं शुद्धि वर्धमानां समाश्रितः ॥ ५ ॥
अर्थ - इस पृथिवीपर कहाँ उत्पन्न हुआ कैसा मनुष्य चारित्र - को प्राप्त होता है और उसका आत्मभाव कैसा होता है ? इसका विचार किया जाता है। जो कर्मभूमि अथवा अकर्मभूमिमे उत्पन्न हुआ है, ज्ञानोपयोगसे सयुक्त है, शुभलेश्याओसे सहित है, पर्याप्त है, जागृत है तथा योग्य द्रव्य क्षेत्र आदिसे सुशोभित है ऐसा मनुष्य कर्मक्षय करने वाली चारित्रलब्धिको प्राप्त होता है। बढ़ती हुई विशुद्धिको प्राप्त हुआ यह मनुष्य प्रथम, चतुर्थ अथवा पञ्चम गुणस्थान से सयम - महाव्रत को प्राप्त होता है । अर्थात् इन गुणस्थानोर्स सयमको प्राप्त होने वाला मनुष्य पहले सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होता है, पश्चात् षष्ठ गुणस्थानमे आता है ।। २-५ ॥
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द्वितीय प्रकाश
१३
आगे संयमofount प्राप्त करनेवाला कौन जोव कितने करण करता है और उन करणोमे क्या कार्य करता है यह कहते हैं
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आद्योपशमसम्यक्त्वाल्लभते यदि सयमम् । अधःप्रवृतप्रभूति कुरुते करणत्रयम् ॥ ६ ॥ यदि वेदकसम्यक्त्वी वेदकप्रायोग्यवान्वा । लभते संयमस्थानमनिवृति विहाय तत् ॥ ७ ॥ विशुद्ध्या वर्धमानोऽयं कुरुते करणद्वयम् । यदि क्षायिकसम्यक्त्वो लभते संयमं शुभम् ॥ ८ ॥ वर्धमान विशुद्ध्याढ्यः कुरुते करणद्वयम् । स्थितिकाण्डकघातोऽनुभागकाण्डकसंक्षतिः बन्धा पसरणादीनि गुणश्रेणी च संक्रमः । जायन्तेऽपूर्वकरणे नियमात्साधु
॥९॥
सन्ततेः ॥ १० ॥
उच्यते ।
आर्यखण्डसमुत्पन्नः कर्मभूमिज म्लेच्छखण्डोद्भवो मर्त्योऽकर्मभूमिज इष्यते ॥ ११ ॥ आर्मखण्डे समायान्ति ये सार्धं चक्रवर्तिना । तेषु केचिद् धरन्तीह मुनिदीक्षां सनातनीम् ॥ १२ ॥
अर्थ - यदि प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य संयमको प्राप्त होता है तो वह अधःप्रवृत्त आदि तोनो करण करता है । यदि वेदक सम्यदृष्टि या वेदक प्रायोग्यवान् - वेदककालमे स्थित मिथ्यादृष्टि सयम - स्थानको प्राप्त होता है तो वह विशुद्धिसे बढता हुआ अनिवृत्तिकरण को छोडकर शेष दो करण करता है । स्थितिकाण्डक घात, अनुभाग काण्डकघात, बन्धापसरणादिक, गुणश्रेणी निर्जरा तथा अशुभ कर्मोंका शुभ कर्मरूप सक्रमण, ये सब कार्य मुनिसमूहके नियममे अपूर्वकरण नामक करणमे होते हैं । आर्यंखण्डमे उत्पन्न हुआ मनुष्य कर्मभूमिज कहा जाता है और म्लेच्छ खण्डोमे उत्पन्न हुआ अकर्मभूमिज माना जाता है । दिग्विजय कालमे म्लेच्छ खण्डके जो मनुष्य चक्रवर्तीके साथ आर्य खण्डमे आते हैं उनमे से कोई मनुष्य यहा श्रेष्ठ मुनिदीक्षा धारण करते हैं ॥ ६-१२ ॥
आगे सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रका स्वरूप कहते हैं
सर्व सावद्यसंयोगं त्यक्त्वा केचिन्मुनीश्वराः । भवन्ति समताधारा घृतसाबायिका भुवि ॥ १३ ॥
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सम्यचारित्रचिन्तामणि सामायिकाच्युतो सत्यां पुमस्तत्रैव संस्थिताः। छेवोपस्थापनायुक्ता भवन्तीह मुनीश्वराः ॥ १४ ॥ एतौ सुसंयमौ ननमाषष्ठान्नवमाबधिम् ।।
भवतो मुनिराजानां जिनदेवनिरूपितौ ।। १५ ।। अर्थ-इस भूतलपर कितने ही मुनिराज सर्वसावध संयोग-समस्त पाप कार्योंका त्यागकर समता-साम्यभावके आधार होते हुए सामायिक चारित्रके धारक होते है और जो सामायिक चारित्रसे च्युत होने पर पुनः उसीमे स्थित होते है वे छेदोपस्थापना चारित्रके धारक कहलाते है। जिनेन्द्रदेवके द्वारा निरूपित ये दोनो उत्तम संयम मुनिराजो के छठवे गुणस्थानसे लेकर नौवे गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३-१५ ।। आगे परिहारविशुद्धि सयमका वर्णन करते है
त्रिंशद्वर्षाणि यो धाम्नि सुखेन स्थितवान् सदा । पश्चाद् विरज्य भोगेभ्यस्तीर्थकृत्पादमूलयोः ॥ १६ ।। दीक्षित्वा ह्यष्टवर्षाणि प्रत्याख्यानाभिधानकम् । अधीत्य पूर्व यः प्राप्तः परिहारद्धि दुर्लभाम् ॥ १७॥ गव्यतिप्रमितं नित्य बिहरन् नियमेन च । जीवराशो गमि कुर्वन् न च लिम्पति पापतः ॥१८॥ परिहारविशुद्धचाख्यः संयमो स हि कथ्यते । षष्ठसप्तमयोर्धाम्नोरेव स्यात्परिशंसितः ॥ १९ ॥ आद्योपशमसदृष्टिमनःपर्ययबोधवान् ।
आहारकद्धिसयुक्तो नंत संलभते क्वचित् ॥ २० ॥ अर्थ-जो तीस वर्ष तक सदा सुखसे घरमे रहा है, पश्चात् भोगोसे विरक्त हो तीर्थङ्करके पादमूलमे दीक्षित हो आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान पूर्वका अध्ययन कर दुर्लभ परिहार विशुद्धि ऋद्धिको प्राप्त हुआ है, जो नियममे प्रतिदिन दो कोश विहार करता है तथा जीवराशिपर गमन करता हुआ भी पापसे लिप्त नही होता अर्थात् ऋद्धिके प्रभावसे जिसके द्वारा जोवोका घात नही होता वह परिहार विशुद्धि संयमका धारक कहलाता है। यह परिहार विशुद्धि सयम छठवे और सातवे गुणस्थानमे होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दष्टि, मन पर्यय ज्ञानी और आहारकऋद्धिसे युक्त मुनि कही भी इस सयमको प्राप्त नही होते हैं ।। १६.२०॥
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द्वितीय प्रकाश
... १५ आगे सूक्ष्मसाम्पराय संयमका वर्णन करते हैं
अपकणिमारुतुः क्षपणाविधिमाधितः । क्रमशः अपयन् वृत्त-मोहं दशममाश्रयेत् ॥ २१॥ आरुह्योपशमश्रेणी कश्चित्कर्ममहीपतिम् । शमयन् वृत्तमोहाल्यं दशमं गुणमाश्रयेत् ॥ २२॥ दशमं धामसम्प्राप्तः सूक्ष्मसंज्वलनो भवेत् । श्रेणीयुग्मं समारोद शक्तः क्षायिकदृग्भवेत् ॥ २३ ॥ अन्यस्तूपशमश्रेणीमेवारोढुं समर्थकः । आद्योपशमयुक्तो वा वेदकेन युतोऽपि वा॥२४॥ कामपि श्रेणिमारोढुं नैव शक्नोति जातुचित् ।
एतद्वत्त नियोगेन केवले दशमे भवेत् ॥ २५ ॥ अर्थ-क्षपकश्रेणोपर आरूढ तथा क्षपणाविधिको प्राप्त हुए मुनि क्रमसे चारित्र मोहका क्षय करते हुए दशम गुणस्थानको प्राप्त होते है और कोई मुनि उपशम श्रेणोपर आरूढ होकर चारित्रमोह नामक कर्मों के राजाका क्रमसे उपशम करते हुए दशम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। दशम गुणस्थानको प्राप्त हुए मुनि सूक्ष्मसंज्वलन-सूक्ष्मसाम्पराय संयमके धारक होते हैं। इस संयम वालेके मात्र सज्वलन लोभका सूक्ष्म उदय शेष रहता है। क्षायिक सम्यदृष्टि मनुष्य दोनो श्रेणियोपर आरूढ होने में समर्थ रहता है परन्तु दूसरा-द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य केवल उपशम श्रेणोपर ही चढनेमे समर्थ होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य किसो भो श्रेणोपर चढनेमें कभी समर्थ नहीं होता। यह सूक्ष्मसाम्पराय संयम नियमसे मात्र दशम गुणस्थानमे होता है ॥ २१-२५ ॥ आगे यथाख्यातचारित्रका वर्णन करते हैं
इतोऽग्ने स्याद् यथाख्यातं चारित्रं शिवसाधनम् । मोक्षे किमपि चारित्रं नास्तीति समये स्थितम् ॥ २६ ॥ आत्मनो बीतरागत्वं स्वरूपं यादृशं मतम् । तादृशं यत्र जायेत तब् पयाख्यातमुच्यते ॥ २७ ॥ भीणे वा युपशान्त वा मोहनीयायकर्मणि ।
चारित्रं च यथाख्यातं प्रकटीमवति ध्रुवम् ॥ २८॥ अर्थ-सूक्ष्मसाम्पराय संयमके आगे-दशम गुणस्थानके आगे मोक्षका साधन स्वरूप प्रथाख्यात चारित्र होता है। मोक्षमे कोई भो
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः चारित्र नहीं होता है-ऐसा आगममें उल्लेख है। आत्माका वीतरागता रूप जैसा स्वरूप माना गया है वैसा जिसमे प्रकट हो जाता है वह यथाख्यात चारित्र कहलाता है। मोहनीय कर्मका क्षय अथवा उपशम हो जानेपर नियमसे यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है।
भावार्थ-औपशमिक और क्षायिकके भेदसे यथाख्यात चारित्र दो प्रकारका है। उनमेसे औपशमिक ययाख्यात सयम उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानमे होता है और क्षायिक यथाख्यात क्षीणमोह बारहवे गुणस्थानसे लेकर चौदहवे गुणस्थान तक होता है ।। २६-२८ ॥ आगे सयमसे पतित होकर पुन सयमको प्राप्त होनेवाले मुनियोके करणो का वर्णन करते है
संयमात्पतितो मयंस्तीवसक्लेशतो विना। पुनश्चेत्सयम गच्छेत् नाऽपूर्वकरण श्रयेत् ।। २९ ।। यश्च सक्लेश बाहुल्यात्पतित्वाऽसयम गतः।
भूयश्चेत्सयम प्राप्तः स कुर्यात् करणद्वयम् ॥ ३० ॥ अर्थ-जो मनुष्य तोव सक्लेशके बिना संयमसे पतित हो पुन सयमको प्राप्त होता है वह अपूर्वकरण नामक करणको नही करता है और जो सक्लेशकी बहुलतासे पतित हो असंयमको प्राप्त हुआ है वह यदि पून. सयमको प्राप्त होता है तो करणद्वय-अध प्रवृत्त और अपूर्वकरण नामक दो करणोको प्राप्त होता है।
भावार्थ-सयमको प्राप्त हुआ मनुष्य बहुत सक्लेशको प्राप्त हुए बिना परिणामवश कर्मोंको स्थितिमे वृद्धि किये बिना यदि असंयमपने को प्राप्त होकर पुन सयमको प्राप्त होता है तो न उसके अपूर्वकरण परिणाम हो होते हैं और न स्थितिकाण्डक घात तथा अनुभाग काण्डक घात । किन्तु जो संक्लेशकी अधिकताके कारण मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके साथ असंयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त बाद या दीर्घकाल बाद सयमको प्राप्त होता है तो उसके अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरण नामक दोनो करण होते है तथा यथाख्यात स्थितिकाण्डक घात और अनुभागकाण्डक घात भो होते हैं ।। २६-३० ॥ आगे सयमको प्राप्त हुए मनुष्योकी प्रतिपात, प्रतिपद्यमान और अप्रतिपात अप्रतिपद्यमानके भेदसे तीन स्थानोका वर्णन करते हैं
प्राप्तसयममानां प्रतिपातादिभेदतः । त्रिप्रकाराणि धामानि वणितानि जिनागमे ॥३१॥
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द्वितीय प्रकाश
संक्लेशस्य हि बाहुल्यात् पतन्तो मानवा यदि । अधःस्थाने समायान्ति होयमान विशुद्धितः ॥ ३२ ॥ पचमं वा तुरीयं वा प्रथमं वा समागताः । प्रतिपाताभिधानेन कथ्यते तम्महर्षिभिः ॥ ३३ ॥ संयमं प्रतिपद्यन्ते यत्र धामनि सस्थिताः । प्रतिपद्यमानं प्रोक्तं तद् धामपरमागमे ॥ ३४ ॥ एतद्द्वयातिरिक्तानि वृशस्थानानि यान्यपि । लग्धिस्थानाभिधानानि कथ्यन्ते तानि सूरिभिः ।। ३५ ।।
अर्थ- संयम प्राप्त करने वाले मनुष्यों के प्रतिपात आदि-प्रतिपात प्रतिपद्यमान और अप्रतिपात - अप्रतिपद्यमानकी अपेक्षा जिनागममे तीन प्रकार के स्थान कहे गये है । संक्लेशकी बहुलतासे घटती हुई विशुद्धिसे नोचे पडते हुए मनुष्य यदि नीचे आते है तो पञ्चम चतुर्थं अथवा प्रथम गुणस्थान मे आते हैं । उनके ये स्थान महर्षियोके द्वारा प्रतिपातस्थान कहे जाते हैं और जिस गुणस्थानसे मनुष्य संयमको प्राप्त होते है वे प्रतिपद्यमान कहलाते है तथा इन दोनोसे अतिरिक्त जो संयम स्थान है वे आचार्यों द्वारा लब्धिस्थान कहे जाते हैं ।
१०
भावार्थ- संयमको प्राप्त हुए जोवोके संयमस्थान तोन प्रकार के हैं - १ प्रतिपात स्थान, २. प्रतिपद्यमान स्थान और ३ अप्रतिपातअप्रतिपद्यमान स्थान । सयममे स्थित जीव सक्लेशको बहुलतासे गिरकर जिन संयमासंयम, अविरतसम्यग्दृष्टि अथवा मिध्यादृष्टि अवस्थाको प्राप्त होते हैं वे प्रतिपातस्थान कहलाते हैं और जिनमे स्थितजोव विशुद्धता की वृद्धि से संयमको प्राप्त होता है उन्हे प्रतिपद्यमानस्थान कहते है। तात्पर्य यह है कि विशुद्धताकी हानिसे जहा गिरकर आता है वे प्रतिपात स्थान हैं और विशुद्धताकी वृद्धिसे जोव जिस स्थान से संयमको प्राप्त होता है वे प्रतिपद्यमान स्थान है । प्रतिपात स्थान संयमसे गिरते समय होता है और प्रतिपद्यमान स्थान संयम प्राप्त होनेके प्रथम समयमे होता है। इन दोनोके अतिरिक्त अन्य जितने चारित्रके स्थान हैं वे सब लब्धिस्थान कहलाते हैं ॥ ३१-३५ ।।
आगे मोहनीय कर्मकी उपशमनाका वर्णन करते हैं
मोहनीयस्य
retreat कार्य यमाणमं प्रवक्यामि संक्षेपेण
कर्मणः ।
यथावति ।। ३६ ।।
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः वेवावृष्टिसंयुक्तः कश्चिद् भव्यतमो नरः। अनन्तानुबन्धिकोषमानादीनां चतुष्टयम् ॥ ३७॥ मिथ्यात्वादित्रिकं चेति प्रकृतीनां हि सप्तकम् । तुर्यादिसप्तमान्तेषु गुणस्थानेषु कुत्रचित् ॥ ३८॥ शमयित्वा भवेज्जातूपशमणिसम्मुखः । प्रागषःकरणं कुर्वन् भवेत् सातिशयो मुनिः ॥ ३९॥ एतस्मिन् हि गुणस्थाने विशुद्धि परमां वधत् ।
अपूर्वकरणं धाम लभते शुद्धिसयुतः॥४०॥ अर्थ-अब मोहनीय कर्मकी उपशमनाका कार्य आगम और अपनो बुद्धिके अनुसार संक्षेपमे कहता हूं। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनसे सहित कोई भव्य पुरुष अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार, तथा मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीन, इस प्रकार सात प्रकृतियोका चतुर्थसे लेकर सप्तम गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थानमे उपशम (विसयोजना-अन्य प्रकृतिरूप परिणमन ) कर द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर कभी उपशमश्रेणीके सन्मुख हो अधकरणरूप परिणामको करते हुए सातिशय अप्रमत्तविरत होते हैं। इस गुणस्थानमे परम विशुद्धिको धारण करते हुए अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होते हैं तथा वहा पूर्वको अपेक्षा सातिशय शुद्धिसे युक्त होते हैं।
भावार्थ-पहले बताया गया है कि प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव श्रेणी माडनेकी योग्यता नही रखते । जब कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मुनि उपशमश्रेणी माडनेके सम्मुख होते हैं तब वे अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्वादि त्रिकका उपशम करते हैं। यहां अनन्तानुबन्धोके उपशमका अर्थ है अपने स्वरूपको छोडकर अन्य प्रकृतिरूप रहना। इसे अन्यत्र विसंयोजन कहा है और उदयमे नही आना यह दर्शन-मोहनोय त्रिक-मिथ्यात्वा. दिक त्रिकके उपशमका अर्थ है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको उत्पत्ति लब्धिसारादि अन्य ग्रन्थोमे अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थानमे बतलाई है परन्तु धवला पु०१ ( पृष्ठ २१० ) में असयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान तक चार गुणस्थानोमें रहनेवाला कोई भी जोव कर सकता है, यह बताया है। लब्धिसारादि ग्रन्थोमे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उपशमको विसंयोजन नामसे कहा है
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द्वितीय प्रकाश और यहाँ उपशम नामसे कहा है । यह शब्द भेद हो समझना चाहिये। उपशमश्रेणोके सम्मुख हुए मुनि सप्तम गुणस्थानका दूसरा भेद जो सातिशय अप्रमत्तविरत है उसे प्राप्त होते हैं तथा अध करणरूप परिणाम करते हैं। इस गुणस्थानमे जो विशुद्धि होती है उससे स्थितिकाण्डक घात आदि कार्य नहीं होते। पश्चात् विशुद्धिको बढाते हुए अपूर्वकरण-अष्टम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। इस गुणस्थानको विशुद्धिसे स्थितिकाण्डक घात, अनुभागकाण्डक घात, गुणश्रेणो निर्जरा और अप्रशस्त प्रकृतियोका शुभ प्रकृतिरूप संक्रमण होता है ॥३६-४०॥ आगे अपूर्वकरण गुणस्थानमे होनेवाले कार्यका वर्णन करते हैं
एतस्मिस्तु गुणस्थाने विशुखया वर्धतेतराम् । एकान्तमुहूर्त च सख्यातस्य सहस्त्रकम् ॥ ४१ ।। कुरुते स्थितिकाण्डानां संघातं तावदेव च। बन्धापसरणं कुरुते भावानां हि विशुद्धितः॥ ४२ ॥ एककस्मिन् स्थितेते संख्यातस्य सहस्रकम् । धतेऽनुभागसघातं गुणसंक्रमणं तथा ॥४३॥ समये समयेऽसंख्यगुणितां निर्जरामपि ।
कुर्वन्नन्तर्मुहूर्तान्तेऽनिवृत्तिकरणं व्रजेत् ॥४४॥ अर्थ-इस अपूर्वकरण गुणस्थानमे मुनि विशुद्धिके द्वारा अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त होते हैं अर्थात् इनकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढती रहती है। इस विशुद्धिसे मुनि संख्यातहजार स्थितिकाण्डकोका घात करता है और भावोकी विशुद्धिसे उतने ही सख्यातहजार बन्धापसरण करता है। एक-एक स्थितिकाण्डकके घातमे संख्यातहजार अनुभागकाण्डक घात करता है, गुणसंक्रमण करता है और समय-सययमे असख्यात गुणित निर्जराको करता हुमा अन्तर्मुहूर्तके अन्तमे अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानको प्राप्त होता है।
भावार्थ-यद्यपि अपूर्वकरण गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है तथापि उसके अन्दर असंख्यात लघु अन्तर्मुहूर्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्तर्मुहूर्तसे असख्यात भेद होते हैं ॥ ४१-४४ ॥
तिष्ठेवन्तर्मुहूर्तेन कुर्वाणा पूर्ववत् क्रियाम् । पाचावन्तमुहूतन कुर्यावन्तरक्रिया ॥४५॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि ततश्च क्लीववेवस्य कुर्यादुपशम तथा। अतीतेऽन्तर्मुहूर्ते च स्त्रीवेदं शमयत्यसो ॥ ४६ ॥ सतश्च मर्यवेवस्य मुक्त्वा नवकबन्धनम् । सत्तास्थं निखिलद्रव्यं साधं षट्नोकषायकः ॥ ४७ ॥ वेवस्य नबद्रव्यं वध्यमानं स्ववोषतः । पश्चात् समये समये गुणश्रेणीविधानतः॥४८॥ संज्वलनस्य रोषस्य नवबन्धं विमुच्य सः। सत्तास्थं संचितद्रव्यं शमयत्येव भावतः॥ ४९ ॥ पश्चादन्तर्मुहुर्तेन क्रोधं मध्यकषाययोः। शमयति ततः पश्चात् सांज्वलनं नवबन्धनम् ॥ ५० ॥ ततोऽसंख्यगुणश्रेण्या वर्धमानविशुद्धितः । सांज्वलनस्य मानस्य मुक्त्वा नवकबन्धनम् ।। ५१ । सत्तास्थ सकलद्रव्यं साधं मध्यकषाययोः । मानस्य निखिल द्रव्यं सत्तास्थं शमयत्यरम् ॥ ५२ ॥ ततोऽसंख्यगुणण्या वर्धमानो विशुद्धिभिः । अन्तर्मुहूर्तमात्रेण मायां मध्यकषाययोः ॥ ५३ ॥ शमयित्वाल्पकालेन मानस्य नवबन्धनम् । पश्चात् समये समयेऽसंख्यातगुणणित ॥५४॥ मायाया नवकं मुक्त्वा सत्तास्थं शमयेत्पुनः। अग्रेसरस्ततोभूत्वा मायां मध्यकषाययोः ॥ ५५ ॥ शमयेन्नवकं द्रव्यं मायायाश्च समावजन् । पश्चात् समये समये गुणधेणोविमागतः ।। ५६ ॥ कुर्वन्नुपशम नित्य वर्धमानविशुद्धितः। विवधत सूक्ष्मकृष्टि च भारहीन इवाभवत् ।। ५७ ॥ सज्वलनस्य लोभस्य मुक्स्वा नवकबन्धनम् । सत्तास्थ सकल द्रव्यं शमयत्येव पौरवात् ॥ ५८॥ पश्चावन्तर्मुहूर्तेन लोभं मध्यकषाययोः । शमयेद् विशुद्ध्या स्वस्या निवृत्तिकरणे स्थितः ॥ ५९ ॥ इत्थं मुक्त्वा नवद्रव्यमुच्छिष्टावलिकं तथा। शेषस्य मोहनीयस्य सर्वयोपशमो भवेत् ॥ ६॥ सूक्ष्मकृष्टिगतं लोभं वेदयन् दशमस्थितः । तस्याप्युपशम कृत्वा शान्तमोहस्थितो भवेत् ।। ६१ ॥
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द्वितीय प्रकाश सर्वथा शासमोहोऽयमेकादशगुणस्थितः।
अषास्थपसंयुक्तशरत्कासारवद् भवेत् ।। ६२॥ अर्थ-यह मुनि अन्तर्मुहूर्त तक पूर्ववत् स्थितिकाण्डकघात आदि क्रियाओको करते हुए नवम गुणस्थानमे स्थित रहते हैं। पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा अन्तरकरण करते हैं अर्थात् अप्रत्याख्यानादि बारह कषाय और नो नोकषायोके नीच और ऊपरके निषेकोको छोडकर बीचके कितने ही निकोके द्रव्यको निक्षेपण कर बोचके निषेकोमे से मोहनीय कर्मका अभाव करते हैं। पश्चात् नपुसकवेदका उपशम करते हैं, फिर अन्तर्मुहर्त व्यतीत होनेपर स्त्रोवेदका उपशम करते हैं। तदनन्तर पुरुषवेदके नवकबन्धको छोड़कर सत्तामे स्थित उसके समस्त द्रव्यका छह नोकषायोके साथ उपशम करते है । पश्चात् बढती हुई विशुद्धिके द्वारा अल्पकालमे स्वदोष-रागाशके कारण बंधते हए पुरुषवेदके नवकबन्धका उपशम करते हैं। पश्चात् समय-समय अर्थात् प्रत्येक समयमे गुणश्रेणी विधानसे संज्वलन क्रोधके नवक द्रव्यको छोडकर सत्तामे स्थित संचित द्रव्यका भावोको विशुद्धतासे उपशम करते हैं। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मध्यम कषायअप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी क्रोधका उपशम करते हैं । पुनः संज्वलन क्रोधके नवकबन्धका उपशम करते हैं। तदनन्तर प्रति समय असख्यात गुणश्रेणीरूपसे बढती हुई विशद्धिके द्वारा संज्वलन सम्बन्धी मानके नवकबन्धको छोडकर सत्तामे स्थित सकल द्रव्यका उपशम करते है साथ हो मध्यम कषाय सम्बन्धी मानके सत्तामे स्थित सकल द्रव्यका शोघ्र ही उपशम करते हैं । पश्वात् असख्यात गुणश्रेणी द्वारा विशुद्धिसे बढते हुए मुनिराज अन्तर्मुहूर्त मे मात्र कालके द्वारा मध्यम कषाय सम्बन्धो मायाका उपशम कर गंज्वलन मानके नवकबन्धका उपशम करते हैं। पश्चात् प्रत्येक समय असंख्यात गुणश्रेणीसे सज्वलन मायाके नवकबन्धको छोडकर सत्तामे स्थित समस्त द्रव्यका उपशम करते हैं। पुन आगे चलकर मध्यम कषाय सम्बन्धो माया और सज्वलन मायाका उपशम करते है। पुना प्रत्येक समय असख्यात गुणश्रेणीरूपसे बढतो हुई विशुद्धिसे उपशम करते हए सूक्ष्मकृष्टि करते हैं और भारहोन जैसे हो जा हैं। पश्चात् सज्वलन लोभके नवकबन्धको छोड़कर सत्तामे स्थित पमस्त द्रव्या अपने पौरुषसे उपशम करते हैं। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्तमे मध्यम कषाय
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि सम्बन्धी लोभका विशुद्धि द्वारा उपशम करते हुए नवम गुणस्थानमें ही रहते हैं अर्थात् यह सब कार्य नवम गुणस्थानमे ही होते हैं। इस प्रकार नवक द्रव्य और उच्छिष्टावलीको छोडकर शेष मोहनीयका सर्वथा उपशम हो जाता है। पश्चात् सूक्ष्मकृष्टिगत लोभका वेदन करते हुए दशम-सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमे आते है और वहाँ उसका सज्वलन सम्बन्धो सूक्ष्म लोभका भी उपशम कर सब प्रकारसे उपशान्त होकर ग्यारहवें गुणस्थानमे पहुंचते हैं । इस गुणस्थानवर्ती मुनि, नीचे बैठो हुई कोचडसे युक्त शरद् ऋतुके सरोवरके समान होते हैं।
भावार्थ-इस गुणस्थानमे मोहनीयकर्मका उदय नही रहता, किन्तु सत्ता रहती है। उदय न रहनेसे परिणामोमे निर्मलता रहती है परन्तु लघु अन्तर्मुहूर्तमे सत्ता स्थित संज्वलन लोभका उदय आनेसे मुनि गिरकर नोचे गुणस्थानमे आ जाते हैं। यदि मृत्युकाल नही है तो वे क्रमसे नीचे आते हैं और मृत्यु हो जानेपर विग्रहगतिमे एक साथ चतुर्थ गुणस्थानमे आ जाते हैं। क्रमश छठवे गुणस्थान तक आनेके बाद कोई पुन. उपशमश्रेणोपर आरूढ हो जाते हैं। एक पर्यायमे दो बार उपशमश्रेणो माडी जा सकती है और कोई मुनि छठवें सातवे गुणस्थानमे क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त कर क्षपकश्रेणी माड कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं पर ऐसे जीव अबद्धायुष्क होते हैं अर्थात् उन्होने अभी तक परभवकी आयुका बन्ध नही किया था। दीर्घ ससार वाले कितने हो मुनि ग्यारहवें गुणस्थानसे पतन कर क्रमशः मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे भो आ जाते है और वहाँ एकेन्द्रिय आदिकी आयु बाधकर किञ्चिदूनअर्धपुद्गलपरावर्तनके लिये भटक जाते हैं। उपशमश्रेणी, एक भवमे अधिकसे अधिक दो बार और अनेक भवोको अपेक्षा चार बारसे अधिक नही माडी जाती। क्षपक श्रेणी एक बार ही प्राप्त होतो है और वह भी अवद्धायुष्क मुनिके लिए ।। ४५-६२ ॥ अब आगे मोहनीय कर्मको क्षपणाविधि कहते हुए पहले क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका कथन करते हैं
इतोऽग्रे सम्प्रवक्ष्यामि मोहस्य क्षपणाविषिम् । यथाविषियथाशास्त्रं सक्षेपेण यथामति ॥ ६३ ॥ वेवकदशा समायुक्तः कश्चिदासन्नभव्यकः । तुर्यादिसप्तमान्तेषु गुणस्थानेषु केषुचित् ॥ ६४ ॥
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द्वितीय प्रकाश केवलितकपादानां सन्निधाने समागते। त्रिकं वर्शनमोहस्य वृत्तमोहचतुष्टयम् ॥ ६॥ एतत्सप्तप्रकृतीनां सपणायां समुखतः। प्रथमं कुरुते यावत्करणाना त्रिकं पुनः ॥६६॥ तत्रानिवृत्तिकालान्ते समं हानचतुष्टयम् । क्षपयित्वा पुनश्चायं कुरते करणत्रयम् ॥ ६७ ॥ आयद्विकं समुल्लडग्यानिवृत्तिकरणस्य च । गते संख्यातभागे वै मिथ्यात्वं अपपत्यसो ।। ६८॥ पश्चावन्तर्मुहूर्तन मिकं क्षपयति ध्रुवम् । ततोऽग्रेऽन्तर्मुहूर्तेन सम्यक्त्वप्रकृतिक्षयम् ॥ ६९॥ कृत्वा क्षायिकसदृष्टिहन्तुं चारित्रमोहकम् ।
अपकणिमारोढ़ मुखम विवधाति ॥ ७॥ अर्थ-अब इसके आगे विधिपूर्वक शास्त्र और अपनी बुद्धिके अनुसार मोहनीय कर्मकी क्षपणा विधि कहूंगा। क्षात्योपशमिक सम्यग्दर्शनसे युक्त कोई निकट' भव्यजीव चतुर्थसे लेकर सप्तम तक किसी गुणस्थानमे केवलीद्विक, केवली और श्रुतकेवलोकी निकटता प्राप्त होनेपर दर्शनमोहकी तीन-मिथ्यात्वादिक और चरित्रमोहकी चारअनन्तानुबन्धीचतुष्क, इन सात प्रकृतियोका क्षय करनेके लिये उद्यत होता है । प्रथम ही वह तीन करण करता है। उनमे अनिवृत्तिकरणके अन्त कालमे अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक साथ क्षय अर्थात् विसंयोजन करता है-उसे अप्रत्याख्यानावरणादिरूप परिणमा देता है। पश्चात् पुन तीन करण करता है। आदिके दो करण व्यतीत कर तृतीय करणका संख्यातवा भाग व्यतीत होनेपर वह मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय करता है अर्थात् उसे सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणत करता है। पश्चात अन्तर्मुहूर्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्व प्रकृतिरूप कर उसका क्षय करता है। इस तरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहका क्षय करनेके लिये वह क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ होनेका प्रयल करता है ॥६३-७०॥ भागे चारित्रमोहको क्षपणाकी विधि कहते हैं
सोऽयमन्तमहर्तेन व्यतीत्याधः प्रवृत्तम्।
भपूर्वकरण गत्वा विशुखया वर्धतेतरा ॥७१ ॥ १. जिसके अधिकसे अधिक पार भव बाकी हैं वही जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन
प्राप्त कर सकता है, अधिक भव वाला नहीं ।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि एतस्मिन् हि गुणस्थाने समये समये पुनः । असख्यगुणितश्रेणि-निर्जरी कुरते सदा ॥७२॥ एकान्तमहतेन होककस्थितिकाण्डकम् । हत्या स्वकीयकालानाः संख्यातस्व सहस्रकम् ।। ७३ ॥ प्रधातं स्थितिकाण्डाना कुरुतेऽयं महामुनिः । बन्धापसरण चापि कुरुते तावदेव हि ॥ ७४॥ ततोऽनुभागकाण्डानामसख्यगुणितात्मनाम् । घातं करोति पश्चाच्च प्रविशत्यनिवृत्तिकम् ।। ७५ ॥ तस्यापि संख्यभागेषु विधाय पूर्ववत् क्रियाम् । शिष्टेषु सख्यभागेषु स्त्यानगड्यादिसजिनाम् ।। ७६ ॥ षोडशकर्मभेवाना क्षपणां विवधात्यसो । 'पश्चावन्तर्मुहूर्तेन मध्यमाष्टकषायकम् ।। ७७ ।। युगपत् अपयेत् साधुः शुक्लध्यानप्रभावतः।
मध्यमाष्टकषायाणां सपणानन्तरं भवेत् ॥७८॥ षोडशप्रकृतीनां तु क्षपणाया अयं विधि । एकान्तमहर्तेन क्लीवस्त्रोनरवेदकान् ॥ ७९ ॥ सज्वलनस्य क्रोधादोन क्रमशः अपयेन्मुनिः। ततः सज्वलनं लोभ गृहीत्वा दशमं व्रजेत् ॥ ८॥ तत्र तस्यान्तिमेभागे तमपि अपयेद् यतिः । क्षणेन क्षीणमोहाख्य गुणस्थान बजत्यसौ ॥ ८१॥ कणोऽपि विद्यते यावन्मोहनीयस्य कर्मणः । तावद् भ्रमति जीवोऽयमाजवंजव कानने ॥ ८२ ॥ ततो मुमुक्षभिर्मोहः क्षपणीयः प्रयत्नतः ।
मोहमये भवेन्मयों क्षणात् कंवल्यसंयुतः ॥ ८३ ॥ अर्थ-क्षपकश्रेणिपर आरूढ होनेवाले वे मुनिराज अन्तर्मुहूर्त द्वारा अधःप्रवृत्तकरण गुणस्थानको व्यतीत कर अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त १ स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, वीन्द्रियजाति,
चतुरिन्द्रियजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण इति नाम्नायु । २. सत्कर्मप्राभूतापेक्षया। ३. कषायप्राभृतकी अपेक्षा।
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द्वितीय प्रकाश
.. २५ होते हैं और वहां विशुद्धिसे अत्यन्त बढ़ते रहते हैं। वे मुनि इस गुणस्थानमे प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा करते हैं। एक एक अन्तर्मुहूर्तमे एक-एक स्थितिकाण्डकका घात कर अपने कालके भीतर सख्यात हजार स्थितिकाण्डक घात करते हैं तथा उतने ही बन्धापसरण करते है। पश्चात् असंख्यात गणित अनुभागकाण्डकोका घात करते है। इस सबके पश्चात् वे महामुनि अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानमे प्रवेश करते हैं। उसके भो संख्यातभागोमे पूर्ववत्-अपूर्वकरणके समान क्रिया करते हैं। पश्चात् शेष सख्यात भागोमे स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मप्रकृतियोका क्षय करते हैं पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमे शुक्लध्यान-पृथक्त्ववितर्कविचार नामक प्रथम शुक्लध्यानके आठ मध्यम कषायोका युगपत् क्षय करते हैं। यह क्रम सत्कर्मप्राभृतके अनुसार है।
कषायप्राभृतके अनुसार क्रम यह है कि आठ मध्यम कषायोको क्षपणाके पश्चात स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियोका क्षय होता है। एक-एक अन्तमुहूर्तमे नपुंसकवेद, स्त्रोवेद, पुवेद तथा सज्वलन, क्रोध, मान और मायाका क्रमसे क्षय करते हैं। तदनन्तर संज्वलन लोभको लेकर दशमगुणस्थानको प्राप्त होते हैं और वहा उसके अन्तमे उस संज्वलन लोभका भी क्षय करते है। इस प्रकार वे मुनि क्षणभरमे क्षोणमोह नामक बारहवे गणस्थानको प्राप्त होते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि जबतक मोहनोयकर्मको एक कणिका भो विद्यमान रहती है तबतक यह जीव ससाररूपी वनमे भ्रमण करता रहता है। इसलिये मुमुक्षुजनोको प्रयत्नपूर्वक मोहनीयकर्मका क्षय करना चाहिये । मोहका क्षय होनेसे यह मनुष्य क्षणभरमे अन्तर्मुहूर्तके भीतर केवलज्ञानसे सहित हो जाता है ॥ ७१.८३॥ आगे प्रकरणका समारोप करते हैध्याय ध्यायं जिनपतिपद शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः
श्राव भाव जिनवरवचः प्राप्तसज्जानपुजः। भाय धाय सुगुरुचरणं लब्धचारित्रशुद्धिः।
सद्यो मुक्त ज भज सुखं भव्य ! कि क्लाम्यसि स्वम् ॥४॥ अर्थ-हे भव्य । तूं जिनेन्द्रदेवके चरणोका बार-बार ध्यान कर शुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त हो-सम्यग्दृष्टि बन, पश्चात् जिनेन्द्रदेवके वचनोको बार-बार श्रवण कर सम्यग्ज्ञानका समूह प्राप्त कर पश्चात् सुगुरुओ
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि के चरणोंका बार-बार आश्रय ले-उनकी सेवा कर तूं शीघ्र ही मुक्तिका सुख प्राप्त कर, दुःखी क्यो हो रहा है ?
भावार्थ-संसारके दुःखोसे छूटनेका उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति जिनेन्द्रदेवकी उपासनासे होती है, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति जिनवाणीके श्रवणसे होती है और सम्यक्चारित्रको प्राप्ति निर्ग्रन्थ गुरुओकी सेवासे होती है। अत इस विधिसे तीनोको प्राप्तकर तूं मोक्षको प्राप्तकर, कायर हो व्ययं ही क्यो दुःखी हो रहा है ॥ ८४ ॥ इस प्रकार सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिमे चारित्रलब्धिका सक्षिप्त वर्णन करनेवाला चारित्रलब्धि नामका
द्वितीय प्रकाश पूर्ण हुआ।
तृतीय प्रकाश महाव्रताधिकार
मङ्गलाचरण वैराग्यसीमानममेयमाना
मारुह्य मुक्ता भवभोगभूमिः। आज्ञा च भूमिः शिवसौख्यलक्षम्या
येन स्वयं तं विनमामि नेमिम् ॥१॥ अर्थ-जिन्होने वैराग्यकी अपरिमित-उत्कृष्ट सीमापर आरूढ होकर संसार सम्बन्धी भोगोको भूमिका परित्याग किया और मोक्ष सुखरूप लक्ष्मीको स्वयं प्राप्त किया उन नेमिनाथ भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ आगे महाव्रतोके निरूपणकी प्रतिज्ञा, महाव्रतका लक्षण तया नाम
कहते हैंअथ प्रवक्ष्यामि महावतानि धृतानि सद्भिः शिवसौख्यकामः। विनान यरत्र जनाः कदाचिद रोधं समर्था भवबन्धनानि ॥२॥ यानि स्वयं सन्ति महान्ति लोके महड्रीिशविघृतानि यानि । महत्फलं यानि विशन्ति नाम महावतानीह मतानि तानि ॥३॥
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तृतीय प्रकाश हिंसाविपापाद विरतेमवन्ति मनस्विनां पञ्चविधानि तानि । तेषां स्वरूपं क्रमशो बदाम्य हिंसा मुखाना हि महावतानाम् ॥ ४ ॥
अर्थ- अब मोक्ष सुखके इच्छुक सत्पुरुषोके द्वारा धारण किये जानेवाले उन महाव्रतोको कहूंगा जिनके बिना मनुष्य ससारके बन्धन रोकनेमे कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। जो लोकमे स्वयं महान् हैं जो महान् पुरुषोके द्वारा धारण किये गए हैं तथा जो महान् फल प्रदान करते हैं वे महाव्रत माने गये हैं। हिंसादि पाँच पापोसे निवृत्ति होनेके कारण वे पांच प्रकारके होते हैं तथा मनस्वी-साहसी-उपसर्ग विजयी मनुष्योके होते हैं। यहां क्रमसे उन अहिंसा आदि महाव्रतोका स्वरूप कहता हूँ।
भावार्थ-हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंका सर्वथा त्याग करनेसे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत होते है। इन्हे उपसर्ग तथा परिषहोंपर विजय प्राप्त करनेवाले पुरुष हो धारण कर सकते हैं। आगे इन्ही पांच महाव्रतोका विस्तारसे वर्णन किया जायगा ॥ २-४ ॥ अब सर्वप्रथम अहिंसा महावतका कथन करते हैं
प्रागहिसाव्रतं वक्ष्ये समस्तब्रतभूषणम् । बिनतेन न शोभन्ते साधूनां व्रतसञ्चयाः॥ ५॥ प्रमत्तयोगाजीवानां प्राणानां व्यपरोपणम् । हिसानाम महापापं नरकद्वारसन्निभम् ॥ ६॥ एतस्या विरतिर्या हि मनोवाक्कायकर्मभिः।
आद्यं महावतं शेयहिंसानाम संजितम् ॥ ७॥ अर्थ-समस्त व्रतोके आभूषण अहिंसा महाव्रतको कहूँगा। क्योकि इसके बिना साधुओके समस्त व्रतोके समूह सुशोभित नहीं होते। प्रमत्तयोगसे जोवोके प्राणोका विधान करना हिंसा नामका महापाप है। यह पाप नरक द्वारके समान है। इस हिंसासे जो मन, वचन, कायपूर्वक विरति होतो है अर्थात् तीनो योगोसे उसका त्याग होता है वही अहिंसा नामका पहला महाव्रत है ॥५-७ ॥ आगे जोव-जातियोके ज्ञान बिना हिंसाका त्याग नहीं हो सकता, इसलिये संक्षेपसे जीव-जातियोका वर्णन करते हैं
जीवजातिपरिक्षानमन्तरेण न साध्यते । हिंसापापपरित्यागस्तनः किञ्चित् प्रवयिताम् ॥ ८॥
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः गतिमेवेन जीवानां चततः सन्ति जातयः। श्वानतिर्यङ्न वेवाना भेवतो भववासिनाम् ॥ ९॥ रत्नप्रभाविभेवेन श्वाधाः सप्तविधा मताः। रहन्ते ते महादु.ख सुचिरं पापयोगतः ॥१०॥ एते पञ्चेन्द्रियाः सन्ति नियमेन च संझिनः ।
अकालमरणं नास्ति नारकाणां कदाचन ॥११॥ अर्थ-जीव-जातियोके ज्ञान बिना हिसा पापका त्याग नहीं हो सकता, इसलिये जीव-जातियोका कुछ कथन करता हूँ। नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोके भेदसे गति अपेक्षा ससारी जोवोको चार जातियाँ हैं। उनमे रत्नप्रभा आदिके भेदसे नारको सात प्रकारके माने गये हैं। वे नारकी पापके योगसे चिर-कालतक महान् दुख भोगते हैं । ये नारको नियमसे पञ्चेन्द्रिय और सज्ञो होते हैं। इनका कभी अकालमरण नही होता ।। ८-११॥ आगे तिर्यञ्चगति सम्बन्धी जीवोका वर्णन करते हैं
एकेन्द्रियादिभेदेन तिर्यञ्चः पञ्चधा मताः । एकाक्षाः स्थावरा. सन्ति द्वघमाधास्तु असा मताः॥१२॥ पृथिव्यप्तेजसा भेदा तरवारबोश्च भेवतः। स्थावराः पञ्चषा. सन्ति नानादुःखसमन्विताः ॥ १३ ॥ पृथिवी पृथिवीकाय पृथिवोकायिक एव च। पृथिवीजोय इत्येतत् पृथ्वीकायचतुष्टयम् ॥ १४ ॥ जल हि जलकायश्च जलकायिक एव च। जलजीव इति शेयं जलकायचतुष्टयम् ॥ १५ ॥ अनलोऽनलकायश्चानलकायिक एव च। अनलजीव इस्येतेऽनलकार्याश्चतुविधा. ॥ १६ ॥ वायुर्हि वायुकायश्च वायुकायिक एव च। वायुकायो हि विज्ञया वायुकायाश्चतुर्विधाः॥ १७ ॥ तरह तरुकायश्च तहकायिक एव च। तरुकाय इति शेयाश्चतुर्धास्तरुकायिका. ॥ १८॥ पृथिवीकायिकजीवेन त्यक्तो यः कलेवर. । पृथ्वीकायः स विज्ञेयः पृथ्वी सामान्यतो मता ॥ १९॥ पृथ्वीवेहस्थितो जीव पृथ्वोकायिक उच्यते । पृथिव्यां जन्म संघ जोवो यश्च समुद्यतः॥२०॥
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तृतीय प्रकाश पृथ्वीजीवः स विज्ञेयः साम्प्रतं विप्रहस्थितः।
एवं सलारिमेवानां विजेया लक्षणावली ॥२१॥ अर्थ-एकेन्द्रिय आदिके भेदसे तिर्यञ्च पांच प्रकारके माने गये हैं। उनमे एकेन्द्रिय स्थावर हैं द्वीन्द्रिय आदि स माने गये हैं। पृथिवो, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके भेदसे स्थावर पाँच प्रकारके है । ये स्थावर नाना प्रकारके दुखोसे सहित हैं । पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवो. कायिक और पृथिवो जीवके भेदसे पृथिवीकायके चार भेद हैं। जल, जलकाय, जलकायिक और जल जीवके भेदसे जलकायके चार भेद हैं। अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक और अग्निजीव, ये अग्निकायके चार प्रकार हैं। वायु, वायुकाय, वायुकायिक और वायुजीव ये वायुकायके चार भेद हैं । वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पति जोव ये वनस्पतिकायके चार प्रकार हैं। पृथिवी सामान्य है, पृथिवो कायिक जोवके द्वारा छोडा हुआ कलेवर पृथिवीकाय है, पृथिवी शरीरमे स्थित जीव पृथिवीकायिक है और पृथिवोमे जन्म लेनेके लिये उद्यत तथा सम्प्रति विग्रह गतिमे स्थित जोव पृथिवीजोव जानना चाहिये । इसी प्रकार जल, जलकाय आदि भेदोके लक्षण जानना चाहिये।
भावार्थ-पृथिवीकायिक जोवके द्वारा छोडा हुआ कलेवर जब तक अपने उसो आकारमे रहता है तब तक प्रथिवोकाय कहलाता है और जव उसका आकार परिवर्तित हो जाता है तब पृथिवो सामान्य हो जाता है। ऐसा जल आदि सभी भेदोंमे समझना चाहिये। पृथिवो, जल, अग्नि और वायु इन चारकी आगममे धातु संज्ञा है, आयु पूर्ण होने पर इनका जोव निकल जाता है और उसो शरीरमे उसो कायके दूसरे जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।। १२-२१ ॥ आगे पृथिवी, जल, अग्नि और वायुक जीवोके कुछ विशेष प्रकार कहते हैं
मृदुकर्कशभेदेन सा पृथ्वी हिविषा मता। गैरिकाविस्वरूपा या मृद्वी सा पृथिवी स्मृता ॥२२॥ रजतस्वर्णलोहारकूटताम्रादिभेदतः ।। कर्कशपृथिवीमेवा बहवः सन्ति भूतले ॥ २३ ॥ जलस्यमेदा विद्यन्ते हिमवर्षोपलादयः। मधिलावलीविद्यारिवज्योतिरावयः॥२४॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि'
afioerformtarni विद्यम्ले बहुला भिवाः । सञ्झाप्रभञ्जनश्चक्रवाता वायुभेदाः स्मृताः ॥ २५ ॥
अर्थ- कोमल और कठोरके भेदसे पृथिवो दो प्रकारकी मामी गई है । गेरु आदि मिट्टी रूप पृथिवी कोमल पृथिवी है और चांदी, स्वर्ण, लोहा, पीतल तथा ताबा आदि कठोर पृथिवीके बहुत भेद पृथिवीपर विद्यमान है। बर्फ, ओला आदि जलके भेद है। लौं, ज्वालाओं का समूह, बिजली और गाज आदि अग्निकायिक जीवोके भेद है तथा झञ्झा ( वर्षाके साथ चलने वाली वायु ), प्रभञ्जन ( तोड-फोड करने वाली आंधी ) और चक्रवात ( गोल रूप मे नीचे से ऊपरकी ओर जाने वाली वायु ), ये सब वायुकायके भेद माने गये है ।। २२-२५ ।।
आगे वनस्पतिकायिक जीवोके प्रकार बताते हैं
med
द्विविधस्तरुकायिकः ।
साधारणश्च प्रत्येको श्वासाहारादयो येषामेके सन्ति महीतले ॥ २६ ॥ येषां चेकशरीरे साधारणामास्तेहि
स्युरनन्तादेहधारिणः ।
निगोदापरसंज्ञिता ॥ २७ ॥
नित्येतर विभेदेन निगोदा द्विविधा मताः । निगोदादन्यपर्यायो येनं लग्धः कवाचन ॥ २८ ॥ कर्मवचित्र्ययोगेन लप्स्यते नापि जातुचित् । निगोदास्ते मता नित्य- निगोदा दुःखभागिनः ।। २९ ।। अस्मिन् केचन जीवाः स्युरीदृशोऽपि जिनोदिताः । येर्न लब्धोऽन्यपर्यायो लप्स्यते किन्तु जातुचित् ॥ ३० ॥ निगोदाद ये विनिर्गत्य भ्रमन्त्यन्यान्य देहिषु । पुनस्तत्रैव यान्तस्ते सन्तीतर निगोदकाः ॥ ३१ ॥
येषु त्वेक शरीरस्य स्वामी स्यादेक एव हि । प्रत्येक देहिनस्ते स्युजिन बेवं रुवीरिताः ॥ ३२ ॥ वसन्त्यन्ये त्रसेतराः ।
येषामाश्रयमासाद्य जिनागमे समुक्तास्ते प्रत्येकाः सप्रतिष्ठिताः ॥ ३३ ॥ येषां देहे न सम्यन्ये जीवा स्थावरसंज्ञिताः । अप्रतिष्ठित प्रत्येका माकन्दाद्या जिनोदिताः ॥ ३४ ॥ साधारणाश्च ये सन्ति ये च वा सप्रतिष्ठिताः । सोषितशरीराश्च न ते मक्या दयालुभिः ॥ ३५ ॥
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तृतीय प्रकाश
३१
अर्थ - साधारण और प्रत्येकके भेदसे वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं । पृथिवी तलपर जिनके श्वास तथा आहार आदि एक हैं अर्थात् एकके श्वास लेनेपर सबकी श्वास ली जाती है और एकके आहार करनेपर सबका आहारही जाता है एवं जिनके एक शरोरमे अनन्त जोव रहते है वे साधारण माने गए हैं। इन्हीका दूसरा नाम निगोद है। नित्य निगोद और इतर निगोदके भेदसे निगोद दो प्रकारके माने गये हैं । जिन जोवोने कभी निगोद से अन्य पर्याय नही प्राप्त की है और कर्मोंको विचि
तासे कभी प्राप्तभी नही करेंगे वे दुख उठाने वाले नित्यनिगोद हैं । इस नित्यनिगोद मे कितनेहो जीव जिनेन्द्र भगवान्ने ऐसे बतलाये हैं कि जिन्होने आज तक दूसरी पर्याय प्राप्त तो नहीकी है परन्तु प्राप्त करेंगे । निगोद से निकलकरजो अन्य जोवोमे भ्रमण करते हैं और पुन उसीमे जा पहुँचते है वे इतरनिगोद हैं इन्हीको चातुर्गतिक निगोद भी कहते है । जिनमे एक शरीरका एक जीवही स्वामी होता है उन्हे जिनेन्द्रदेवने प्रत्येक कहा है। जिनका आश्रय पाकर अन्य स्थावर जीव रहते है जिना - गममे उन्हे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहा है। जिनके शरीरमे अन्य स्थावर जीव नही रहते वे आम आदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहे गये हैं। जो साधारण हैं, सप्रतिष्ठित है और जिनके शरीर मे त्रसजीव रह रहे है वे वनस्पतियाँ दयालु पुरुषो द्वारा खाने योग्य नही है ।
भावार्थ- जो मूल बीज है जैसे आलू, घुईंया, सकरकन्द, अदरक, मूलो आदि तथा तोडनेपर जिनका समभङ्ग होता हो जैसे धनंतर आदि के पत्ते आदि साधारण है । साधारण जीवोमे एक शरीरके अनेक जीव स्वामी होते हैं परन्तु सप्रतिष्ठित प्रत्येकमे एकके आश्रय रहनेवाले जीव अपना-अपना स्वतन्त्र शरीर लेकर रहते हैं । प्रत्येकमे एक शरीरका एक ही स्वामी होता है-जैसे आम, अमरूद आदि । परन्तु जब तक इनका पूर्ण विकास नही हुआ है तब तक वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं अर्थात् अनेक जोवोके आधार है । गोभी तथा अमर कटूमर आदिमे त्रस जोवभी रहते है अतः दयावन्त जीवोंके द्वारा भक्ष्य नहीं हैं—- खाने योग्य नही हैं ।
यहाँ एक बात यह भी ध्यातव्य है कि आजकल कुछ लोगोमे जो यह धारणा चल पड़ी है कि वृक्षसे तोड़ लेनेपर फल निर्जीव हो जाता है उसे अचित्त करनेकी आवश्कता नही है, यह धारणा आगम सम्मत नही है क्योंकि एक वृक्षमे वृक्षका जीव अलग रहता है और उसके आधारपर उत्पन्न होनेवाले फलो तथा पत्तोंमें उनका जीव अलग रहता है अतः
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सम्यक्चारित - चिन्तामणि
वृक्षसे तोडनैपर वृक्षका जीव तो फलों और पत्तोमें नही रहता परन्तु फल और पत्तोका जीव रहता है उसकी अपेक्षा वे सचित्त माने जाते हैं । सचित्तका त्यागी इन्हे अचित्त कर हो खा सकता है। यदि वृक्षसे तोड लेने पर पत्र आदि अचित्त हो जाते है तो भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतिचारोमे जो सचित्त, सचित्तसबन्ध और सचित्त सन्मिश्र अतिचार वतलाये गए है उनको सगति नहीं बैठती। इसी प्रकार अतिथिस वि. भागके अतिचारोमे जो सचित्त निक्षेप और सचित्त विधान अतिचार बतलाये गए है वे भी संगत नही होते ।। २६-३५ ।।
आगे स जीवोका वर्णन करते है
द्वाप्रभृतयो जीवा गदितास्त्र ससंज्ञिताः । शङ्खशुक्तिकपर्दाद्या द्वीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः ॥ ३६ ॥ श्रीन्द्रिया गदिता लोके मत्कुणवृश्चिकादयः । चतुरक्षा मता जीवा मशकामक्षिकादयः ॥ ३७ ॥ पञ्चाक्षा सन्ति लोकेऽस्मिन् नृगवाश्वसुरादयः । सूक्ष्मवादरभवेन स्थावरा द्विविधा मता ॥ ३८ ॥ प्रत्येकास्त्रसजीवास्तु वादरा एव सम्मता । पञ्चेन्द्रियास्तिर्यञ्चश्च संवय संज्ञिप्रभेदतः ॥ ३९ ॥ द्विविधा गविता लोके संज्ञिनो नूसुरादयः । तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया लोके त्रिविधाः कथिता जिनेः ॥ ४० ॥ जलस्थलाचारित्वानकगोपतगादयः ।
आर्यम्लेच्छाख्यभेदेन द्विविधाः सन्ति मानवाः ।। ४१ ।। चतुणिकायमेवत्वाच्चतुर्धाः सन्ति निर्जरा । एतासां जीवजातीनां रक्षणं प्रथम व्रतम् ॥ ४२ ॥ षटकायजीवजातीनां रक्षणाद् बहिरङ्गतः । रागादीनां विभावानां वारणावन्तरङ्गत ।। ४३ ।। महाव्रतं भवेत्साधो हिंसा संज्ञित ध्रुवम् ।
अथा कथयिष्यामि सत्यं नाम महाव्रतम् ॥ ४४ ॥ अर्थ- द्वीन्द्रिय आदि जीव त्रस कहलाते है। शंख सोप तथा कौडी आदि होन्द्रिय जीव है । खटमल तथा विच्छू आदि जोव लोकमें त्रीन्द्रिय कहे गये है। मशक तथा मक्खी आदि चतुरिन्द्रिय जीव माने गये है और मनुष्य, गाय, घोडा तथा देव आदि इस संसार में पञ्चेन्द्रिय हैं । सूक्ष्म और बादरके भेदसे स्थावर जीव दो प्रकारके माने गये हैं परन्तु प्रत्येक
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तृतीय प्रकाश वनस्पति और उस वादर ही कहे गये हैं। पञ्चेन्द्रिय तियंञ्च संज्ञी और असंजीके भेदसे दो प्रकारके कहे गये है परन्तु मनुष्य, देव और नारको सज्ञी हो माने गये है। तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियोके जिनेन्द्र भगवान्ने जलचर, स्थलचर और नभचरके भेदसे तीन भेद कहे हैं। नक्र-मगर आदि जलचर है, गाय आदि स्थलचर है और पक्षो नभचर है। आर्य और म्लेच्छके भेदसे मनुष्य दो प्रकारके है तथा चार निकाय (भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकके ) भेदसे देव चार प्रकारके है। इन सब जीव जातियोकी रक्षा करना प्रथम अहिंसा महावत है। बहिरङ्गसे छह काय (पांच स्थावर और त्रस) के जोवकी रक्षा करनेसे और अन्तरङ्गसे रागादि विभाव भावोका निवारण करनेसे निश्चितही अहिंसा महाव्रत होता है । अब आगे सत्य महाव्रतका कथन करेंगे ॥ ३६-४४ ॥
प्रमत्तयोगाद्यज्जीवरनत कथ्यते वचः। तवसत्यं परिमेयं तच्चतुर्विध्यमश्नुते ॥ ४५ ॥ निषेधो यत्र जायेत सद्भूतस्यापि वस्तुनः । असत्यं प्रथमं ज्ञेयं तत् सद्भूतापलापकम् ॥ ४६॥ यथा सतोऽपि देवस्य नास्तीति कथनं गृहे। यत्रासतः पदार्थस्य सद्भावो हि विधीयते ॥ ४७॥ असत्यमेतत् विज्ञेयमसदुद्धावनं परम् । असत्यपि देवदत्ते सोऽस्तीति कथन यथा ॥ ४८॥ मूलतोऽविद्यमानेऽर्थे तत्सदशो निरूपणम्।। अश्वाभावे खरस्याश्व कथनं क्रियते यथा ॥४९॥ एतवन्याभिधानं च तृतीया सत्यमुच्यते। गहिताप्रियरूक्षादिवचनं गहिवादिवाक् ॥ ५० ॥ एतच्चतुविधासस्यविपरीतं यदुच्यते।
तत्सत्यं वचनं प्रोक्तं सर्वदुःखनिवारकम् ॥ ५१ ।। अर्थ-प्रमत्तयोगसे जीवोद्वारा जो अनृत-मिथ्याकथन किया जाता है उसे असत्य जानना चाहिये। यह असत्य चार प्रकारका है। जिसमे विद्यमान वस्तुका भी निषेध किया जाता है उसे सद्भूतापलापक पहला असत्य जानना चाहिये। जैसे देवदत्तके रहते हुए भी कहना कि घरमे नही हैं । जिसमे अविद्यमान पदार्थका सद्भाव किया जाता है वह असदुद्भावन नामका दूसरा असत्य है । जैसे देवदत्तके न रहते हुए भी कहना कि देवदत्त है । मूल वस्तुके न रहनेपर उसके सदृश वस्तुका कथन करना। जैसे अश्वके न रहनेपर गृहस्थको भार ढोनेकी अपेक्षा अश्व कहना। यह
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જે
सम्यक्चारित-चिन्तामणि
अन्यरूपाभिधान नामका तीसरा असत्य है। गर्हित, अप्रिय तथा कर्कश आदि वचन गर्हितादि वचन कहलाते हैं । जैसे कानाको कनवा और पंगु को लगडा आदि शब्दसे संबोधित करना । यह सत्य होनेपर भी गर्हित तथा कर्कश होनेसे असत्यकी कोटिमे लिया जाता है । इन चार प्रकारके असत्य से विपरीत जो वचन कहा जाता है वह सत्य कहलाता है । यह सत्य वचन सब दुखोका निवारण करने वाला है ।
भावार्थ - तत्त्वार्थ सूत्रमे असत्यका लक्षण लिखते हुए उमास्वामी महाराजने 'असदमिदानमनृतम्' यह सूत्र कहा है । इसको निम्न प्रकार व्याख्या करनेसे असत्यके चार भेद प्रतिफलित होते हैं- 'सतो विद्यमानस्य अभिधानं कथनं सदभिधानं न सदभिधानम् असदभिधानम्' अर्थात् विद्यमान वस्तुका कहना तो सदभिधान है और उसका नही होना यह असदभिधान है। जैसे देवदत्तके रहते हुए भी कहना, नही है, यह सदपलाप - विद्यमानका नही कहना, पहला असत्य है । 'न सत् असत् अविद्यमान तस्य अभिधानम् असदभिधानम्' अर्थात् अविद्यमान वस्तुका कथन करना यह असदुद्भावन नामका एक दूसरा असत्य है । 'ईषत् सत् असत् तत्सदृशमित्यर्थः ' तस्य अभिधानम्, असदभिधानम् 'अर्थात् मूलरूप से वस्तुका अभाव है परन्तु कुछ अशमे कार्यं निकलने की दृष्टि से अन्यको अन्यरूप कहना यह अन्यरूपाभिधान नामका तीसरा असत्य है । जैसे अश्वके अभाव मे भार ढोनेकी अपेक्षा गधेको अश्व कहना | 'सत् प्रशस्तं न भवतीति असत् अप्रियादि वचन तस्य अभिधानं असदभिधानम् अर्थात् अप्रिय, कठोर, निन्द्य वचन बोलना । इन चारो प्रकार के असत्यका जिसमे मन, वचन, कायसे त्याग किया जाता है वह सत्य महाव्रत कह' लाता है ।। ४५-५१ ।
आगे अज्ञानजन्य और कषायजन्यकी अपेक्षा असत्यके दो भेद कहते हैंअज्ञानाद्वा कषायाद्वा ब्रूतेऽसत्यं वचो जनः ।
तयोः कषायजा सत्यं अज्ञानजनितासत्यं कषायजं तु दीक्षाया वसुराजस्य यद्वाक्यं
दुर्गतेर्बन्धकारणम् ।। ५२ ॥ क्षीणमोहावधिस्मृतम् । ग्रहणे परिमुच्यते ॥ ५३ ॥ कषायजनितं तु तत् । दुर्गतेः कारणं नातं निन्दायाश्च निमित्तकम् ॥ ५४ ॥ असत्यवचनश्यागात् सत्यं नाम महाव्रतम् । प्रशस्यते सदा सद्भिः स्वात्मसन्तोषकारणम् ॥ ५५ ॥
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३५.
तृतीय प्रकाश
तिरश्चां विकलां वाणीं सकलां च स्वकीयकाम् ।
दृष्ट्वा वाणीफलं स्वस्य सफलां कुरु सत्वरम् ॥ ५६ ॥ तथा प्रयासः कर्तव्यो येन स्याद् विशदं वचः । अर्थते प्राप्यते सद्भिः ऋतं नाम तदुच्यते ॥ ५७ ॥ मृगतृष्णां जलं ज्ञात्वा जलं प्राप्तुं समुत्सुकः । न लभ्यते जलं क्वापि धावमानेरपि द्रुतम् ॥ ५८ ॥ यद् वस्तु यथा चास्ति तस्य च वचनं तथा ।
तथ्यं नाम भवेत्सत्यं विसंवादविनाशकम् ।। ५९ ।। सते हितं भवेत्सत्यं भवबाधाविनाशकम् । हितं मितं प्रियं ब्रूयादित्याधाय स्वचेतसि ॥ ६० ॥ सद् वचः सततं ब्रूपावसत्यं मा वदो वचः । मौनं हि परमो धर्मस्तदभावे च सत्यवाक् ॥ ६१ ॥ वक्तव्या सततं पुम्भिः सर्व सन्तोषकारिणी । इतोऽग्रे सम्प्रवक्ष्याम्यस्तेयं नाम महाव्रतम् ॥ ६२ ॥ अर्थ - मनुष्य अज्ञान अथवा कषायसे असत्य वचन बोलता है । इसलिये असत्य के दो भेद हैं- अज्ञानजन्य और कषायजन्य । इन दोनो असत्य वचनोमे कषायजन्य असत्य दुर्गतिके बन्धका कारण है। अज्ञानजन्य असत्य वचन क्षीणमोह नामक बारहवे गुणस्थान तक होता है और कषायजन्य असत्य दीक्षा ग्रहण के समय छूट जाता है । राजा वसुका असत्य वचन कषायजन्य था इसलिये वह दुर्गतिका कारण तथा निन्दाका निमित्त हो गया । असत्य वचनका त्याग करनेसे सत्य महाव्रत होता है । यह सत्य महाव्रत अपने आपमें संतोषका कारण है तथा सत्पुरुषोके द्वारा प्रशसनोय है । तिर्यखोकी विकल – अस्पष्ट और अपनी सकल - स्पष्ट वाणोको देखकर वाणीके फलका विचार कर अपने वाणीको शीघ्र हो सफल करो । भाव यह है कि जिन जीवोने पूर्वभवमे असत्य बोलकर वाणोका - वचन बलका दुरुपयोग किया उनको वाणी तिर्यश्व पर्यायमे विकल - अस्पष्ट हुई और जिन्होने पूर्व पर्यायमे सत्य बोलकर वाणीका सदुपयोग किया उनको वाणी मनुष्य भवमे सकल - स्पष्ट हुई। ऐसा विचारकर अपनी वाणीको शीघ्र हो सफल करना चाहिये | मनुष्यको ऐसा प्रयास करना चाहिये जिससे उसके वचन विशद- - स्पष्ट हो । जो सत्पुरुषोके द्वारा प्राप्त किया जाय उसे ऋत कहते हैं । ऋत नाम सत्यका है, सत्य - यथार्थ वस्तु ही किसोके द्वारा प्राप्तको जा सकता है । मृगतृष्णाको जल जानकर उसे प्राप्त करनेके
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि लिये उत्सुक मनुष्य शीघ्र दौड भो लगावें तो भो उसे कही प्राप्त नही कर सकते । जो वस्तु जैसी है उसको वैसा कहना तथ्य है । सत्यका एक नाम तथ्य है यह तथ्य विसवादको नष्ट करने वाला है। सत्पुरुषोके लिये जो वचन हितकारी हो वह सत्य कहलाता है, यह सत्य भवबाधा -संसारके जन्म, मरण सम्बन्धो दुखोको नष्ट करने वाला है। 'हित, मित और प्रिय बोलना चाहिये' इस नोतिको हृदयमे रख सदा सत्य वचन बोलो, असत्य वचन कभी मत बोलो। मौन ही परम धर्म है । यदि उसकी प्राप्ति सम्भव न हो तो पुरुषोको सदा सत्य वचन हो बोलना चाहिये । यह सत्य वचन सबको सन्तुष्ट करने वाला है।
भावार्थ-ऊपर अज्ञानजन्य असत्यको क्षीणमोह नामक बारहवे गुणस्थान तक बतलाया है । उसका कारण है केवलज्ञान होनेके पूर्व तक मनुष्यके अज्ञानभाव रहता है । अज्ञान, असत्य वचनका एक कारण है। अत. कारणके सद्भावमे कार्यका अस्तित्व बताया गया है। वैसे सातिशय सप्तम गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक सब गुणस्थान ध्यानके गुणस्थान हैं । इनमे बाह्य जल्पका अभाव रहता है । 'अजैर्यष्टव्यम्' वाक्यमे अजका अर्थ पुरानी धान्य होनेपर भो पर्वतकी माके आग्रहसे पर्वतके पक्षमे राजा वसुने निर्णय दिया था। इसलिये कषायजन्य होनेसे वह उसके पतनका कारण हुआ ॥ ५२.६२ ।। आगे अचौर्य महाव्रतका वर्णन करते है
प्रमादाद् यवदत्तस्यादानं तत्स्तेयमुच्यते । तस्य त्यागो भवेत् स्तयत्यागो नाम महाव्रतम्।। ६३ ॥ अर्थो हि विद्यते पुसा प्राणतुल्यो महीतले। तन्नाशे च ततो दुःखं जायते मृत्युसन्निभम् ॥ ६४ ।। स्वकीयपुण्यपापाभ्यां महद्वाल्पतर धनम् । लभ्यते पुरुषैर्यच्च चेतनाचेतनात्मकम् ॥ ६५ ॥ सन्तोषस्तत्र कर्तव्यो न्यायतो वा तदर्जयेत् । द्रव्यं तथा परित्याज्य परकीय विवेकिना ॥ ६६ ॥ तथा क्षेत्रमपि त्याज्य परकीयं महीतले । साधारणजनानां तु चर्चा दूरेऽत्र वर्तताम् ॥ ६७ ॥ विपुलदियुताभूषा अपि निर्बलभूभूजाम् । राष्ट्रसपहा लग्ना नित्यमेव घरातले ॥ ६८॥
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तृतीय प्रकाश कलिविजयते कालो यस्मिन् नीतिघरा अपि । त्यक्त्वा न्यायपथ जाताः कष्टं कापथगामिनः ।। ६९॥ रामराज्यं प्रशंसन्तो वाचा मधुरया नराः। कुर्वन्ति रावणं कार्य मायाचारपरायणाः ॥७०॥ जनानां क्षुबमाचारं दृष्ट्वा केचिद् विवेकिनः ।
भवारण्यपथभ्रान्ता गहन्त्येतन्महाव्रतम् ॥७१॥ अर्थ-प्रमादसे जो अदत्तवस्तुका ग्रहण है वह स्तेय-चोरी कहलातो है, उसका त्याग करना अचौर्य महावत है । पृथिवी तलपर धन, पुरुषोके प्राणतुल्य है इसलिये उसका नाश होनेपर उन्हे मरणतुल्य दुःख होता है । अपने पुण्य पापसे पुरुषोको जो बहुत या कम चेतना चेतनात्मक धन प्राप्त होता है उसमे सन्तोष करना चाहिये अथवा न्यायसे उसे अजित करना चाहिये । पृथिवोतलपर विवेकी मनुष्यको जिस प्रकार दूसरोका द्रव्य त्याज्य है उसी प्रकार दूसरोका क्षेत्र भो त्याज्य है। साधारण जनोको चर्चा तो दूर रहे विशाल सम्पत्तिसे युक्त राजा भी पृथिवीतल पर निर्बल राजाओका राज्य अपहरण करनेमे संलग्न है। यह कलिकाल अपना प्रभाव बढ़ा रहा है जिसमे कि नोतिधारक मनुष्य भी न्यायमार्ग छोडकर कुमार्गगामी हो गये हैं। आजके मायाचारी मनुष्य मधुर वाणोसे रामराज्यको प्रशसा करते हैं परन्तु रावणका कार्य करते हैं। ससाररूपो अटवीमे मार्ग भूले हुए कोई विवेको जन, लोगोका क्षुद्र आचरण देख इस अचोर्य महाव्रतको ग्रहण करते हैं ॥ ६३-७१॥ आगे ब्रह्मचर्य महाव्रतका वर्णन करते हैं
अथाने सम्प्रवक्ष्यामि ब्रह्मचर्य महावतम् । आत्मशः पर हेत सर्वोपद्रवनाशनम् ।। ७२ ।। स्वपरस्त्रीपरित्यागो ब्रह्मचर्य समुच्यते । व्यवहाराग्निश्चयात्तु स्वरूपे चरण मतम् ॥ ७३ ।। ब्रह्मचर्यपरिभ्रष्टा लोके सर्वत्र मानवा. । प्राप्नुवन्ति तिरस्कारं सुचिरं रावणा इव ॥ ७४ ।। विधिना परिणीता या सा स्वस्य स्त्री निगद्यते । शेषाः परस्त्रियः प्रोक्ता दासीवेश्यारयो भुवि ॥ ७॥ नरीसुरीतिरश्ची च चेतना ललना मताः। काष्ठपाषाणनिर्माणाश्चित्रस्थाश्चेतनेतराः ॥७६ ॥ एताश्चतुविषानार्यस्त्याज्या. स्वहितवाञ्छिमिः । मलयोनी मलोत्पन्ने बेहे बोर्गन्ध्यधारिणी ।। ७७ ॥
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ફેદ
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
का नाम स्पृहा पुंसां रामाणां च ब्रह्मचर्ययुता मर्त्या गच्छेयुर्यत्र
परस्परम् । कुत्रचित् ॥ ७८ ॥
जगतीतले ।
महान्तमादर तत्र लभन्ते ब्रह्मचर्यस्य सिद्धयर्थं कर्तव्या ह्यार्यसंगतिः ॥ ७९ ॥ भोजने परिधाने च श्रेया सात्विकता परा । कुशीलजनसंसर्गे निवसेवनंव धामनि ॥ ८० ॥ यथानलस्य संसर्गात्सपिहि द्रवति द्रुतम् । तथैव वनितासङ्गान्नचित्त द्रवति द्रुतम् ॥ ८१ ॥ वृद्धाप्येकाकिनी चार्या न गच्छेत् साधुसनिधिम् । द्वित्रा आर्या मिलित्वेव विदध्युर्ध मंचर्चणम् ॥ ८२ ॥ सप्तहस्तान्तरं स्थित्वा शृणुयु श्रुतवाचनाम् । आचार सहिता ह्येषा पालनीया मुनीश्वरैः ॥ ८३ ॥
अर्थ - -- अब आगे आत्मशुद्धिके उत्कृष्ट हेतु तथा समस्त उपद्रवोका नाश करने वाले ब्रह्मचर्यं महाव्रतको कहूंगा । व्यवहार से स्वकीय और परकीय स्त्रीका त्याग करना ब्रह्मचर्यं कहलाता है और निश्चयसे आत्मस्वरूपमे चरण-रमण करनेको ब्रह्मचर्य माना गया है । ब्रह्मचर्य से च्युत हुए मनुष्य रावण के समान लोकमे सर्वत्र चिरकाल तक तिरस्कार प्राप्त करते रहते है । विधिपूर्वक विवाही गई स्त्री स्वस्त्री कहलाती है और शेष दासो तथा वेश्या आदिक परस्त्री मानी गई है। मानुषी, देवी और और तिरश्च ये तीन चेतन स्त्रिया मानी गई है और काष्ठ तथा पाषाणसे निर्मित एव चित्रमे स्थित अचेतन स्त्रिया कहो गई है। अपना हित चाहने वाले मनुष्योके द्वारा ये चारो प्रकारकी स्त्रिया त्याज्य कहो गई हैं । स्त्री और पुरुष दोनोका शरीर मलको उत्पन्न करने वाला है, मल से उत्पन्न हुआ है और दुर्गन्धको धारण करने वाला है फिर दोनोकी परस्पर प्रोति करना क्या है ? ब्रह्मचर्यसे युक्त मनुष्य पृथिवीतलपर जहा कही भी जाते है वहा महान् आदरको प्राप्त होते हैं । ब्रह्मचर्यको सिद्धिके लिये आर्य मनुष्योकी सगति करना चाहिये तथा भोजन और वस्त्र विषयमे अत्यधिक सात्विकताका आश्रय लेना चाहिये । जहाँ कुशल मनुष्योका ससर्ग हो ऐमे स्थानमे नही रहना चाहिये। जिस प्रकार अग्निके ससर्गसे घी पिघल जाता है उसी प्रकार स्त्रीके संगसे पुरुषका चित्त पिघल जाता है- कामातुर हो जाता है । वृद्धा आर्यिका भो अकेली साधुके पास न जावे । दो तीन मिलकर ही साधुके पास धर्म
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तृतीय प्रकाशे
चर्चा करें तथा सात हाथ दूर बैठकर शास्त्रकी वाचनाको सुनें। यह आचार-संहिता मुनियोको नियमसे पालन करने योग्य है ।। ७२-८३ ।। अब आगे अपरिग्रह महावतका वर्णन करते हैं
अपाये सम्प्रवक्ष्याम्यपरिग्रहमहावतम् । मूपिरिग्रहः प्रोक्तो धनधान्याविवस्तुषु ॥ ८४ ॥ तां त्यक्त्वा मुनयो यान्ति नम्रन्थी परमा बशाम् । परिग्रहपिशाचोऽयं यस्य मूर्धनि वर्तते ॥ ८५॥ भ्रान्तचित्तः स सम्भूय कुरुते विविधाः क्रियाः। मिथ्यात्वं वेदरागाश्च क्रोधादीनां चतुष्टयम् ॥ ८६ ॥ हास्यावयश्च षट् चैते ह्यन्तरङ्गाः परिग्रहाः । सचित्ताचित्तमिश्राणां मेवाद् बाह्यपरिग्रहाः ॥ ८७॥ त्रिविधा विविता लोके मोहोत्पादनहेतवः । दासीदासगवारवाद्याः सचित्ता रमतादयः ॥ ८८ ॥ अचित्तास्तु गृहारामा मिमा जेयाः परिग्रहाः। मनोवाक्कायचेष्टाभिरेषां ल्यागोऽपरिग्रहः॥ ८९॥ उभयप्रन्थसत्यागी कैवल्य लमतेऽचिरात् । परिग्रहातुरो जीवो वाघ्रमीति भवे भवे ॥९॥ शिरास्थं भारमुत्तार्य भवेन्मयों यथा सुखी। तथा पारिग्रह भारमुत्तार्य स्यात्सुखो मुनिः॥ ९१॥ पष्ठबद्धमहाभारो जनो मज्जति सागरे।
यथा तथात ग्रन्थोऽय मज्जत्येव भवार्णवे ।। ९२ ।। अर्थ-अब आगे अपरिग्रह-परिग्रह त्याग महाव्रतका कथन करगे। धन-धान्य आदि वस्तुओमे जो मूर्छा-ममत्व परिणाम है वह परिग्रह कहा गया है । इस मूर्छाका त्याग कर मुनि उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ दशाको प्राप्त होते है । यह परिग्रह रूपो पिशाच जिसके शिरपर रहता है वह भ्रान्त चित्त होकर नाना प्रकारको क्रिया करता है। मिथ्यात्व एक, वेद सम्बन्धी राग तोन, क्रोधादि चार और हास्यादिक नो कषाय छह ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह है। बाह्य परिग्रह लोकमे सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारके माने गये हैं। ये तोनो प्रकारके परिग्रह मोहोत्पत्तिके कारण हैं। दासो, दास, गाय और घोड़ा आदि सचित परिग्रह हैं, चादो आदि अचित्त परिग्रह हैं और स्त्री पुरुषोसे सहित घर तथा हरो-भरो वनस्पतियोसे सहित बाग बगोचे मिश्र परिग्रह जानने
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि योग्य हैं। इन सब परिग्रहोका मन, वचन, काय-त्रियोगसे त्याग करना अपरिग्रह महावत है। अन्तरङ्ग, बहिरङ्ग-दोनो प्रकारके परिग्रहका त्याग करने वाला मनुष्य शीघ्र ही केवलज्ञानको प्राप्त होता है। परिग्रहसे दुःखी जीव भवभवमे-अनेक भवोमे भ्रमण करता है। जिस प्रकार मनुष्य शिरपर स्थित भारको उतार कर सुखी हो जाता है उसी प्रकार मुनि परिग्रहका भार उतारकर सुखी हो जाता है । पोठपर बहुत भारी भारको बाधने वाला मनुष्य जिस प्रकार समुद्रमे डूबता है उसी प्रकार परिग्रहको ग्रहण करनेवाला मनुष्य संसार सागरमे नियमसे डूबता है ॥८४-६२॥ आगे अपरिग्रह महाव्रतमे दोष लगानेवाले मुनियोका वर्णन करते हैं
पूर्व परिग्रहं त्यक्त्वा नन्थ्यं प्रतिपद्यते। पश्चात् परिग्रहं व्याजात स्वीकरोति तु यो नरः॥९३।। स निपानाद् विनिर्गत्य तत्रैव पतनोद्यतः। संघ सञ्चालयिष्यामि निर्मास्यामि च मन्दिरम् ॥ ९४ ।। इति ब्याजो न कर्तव्यो धृत्वा निर्ग्रन्थमुद्रिकाम् । ये हि निर्ग्रन्थतां प्राप्य स्वीकुर्वन्ति परिग्रहम् ॥ ९५ ॥ नरकेषु निगोदेषु तेषां पातः सुनिश्चितः। यदि कर्तृत्ववाञ्छा ते न गताः गृहतिनो ॥ ९६ ॥ केनोक्तस्तवं मुनिमर्या गृहत्याग विधेहि च। यथा हि निर्मले चन्द्रे कलङ्को दृश्यते द्रुतम् ॥ ९७ ।। तथाहि निर्मले साधी दोषः क्षुद्रोऽपि दृश्यते ।। मनिना नैव तत्कार्य दोषास्पदमिह क्वचित् ॥ ९८ ।। येन निर्ग्रन्थमुद्राया अपवादो भवेदिह । कठिना साधुचर्यास्ति खङ्गधारागतिर्यथा ॥ ९९ ॥ निर्ग्रन्थतां तु सन्धर्नु सामर्थ्य नास्ति चेतव ।
श्रद्धामात्रेण सन्तुष्टो भव हे भव्यशिरोमणे ॥ १० ॥ अर्थ-जो मनुष्य पहले परिग्रहका त्यागकर निर्ग्रन्थ दोक्षाको प्राप्त होता है और पोछे किसो कार्यके व्याज-बहानेसे परिग्रहको स्वीकृत करता है वह कूपसे निकल कर पुन उसी कूपमे गिरनेके लिये उद्यत है। मै सगृहीत परिग्रहके माध्यमसे सघका सचालन करूँगा और मन्दिर बनवाऊँगा इस प्रकारका व्याज निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण कर नहो करना चाहिये । जो निर्ग्रन्थता-दिगम्बर मुद्राको प्राप्त कर परिग्रहको
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तृतीय प्रकाश
૪૧
स्वीकृत करते हैं उनका नरक और निगोदमे पडना सुनिश्चित है । यदि तुम्हारी गृहस्थोमे पाई जानेवाली कर्तृत्वकी इच्छा नही गई थी तो तुमसे किसने कहा था कि तुम मुनि हो जाओ और गृह त्याग कर दो। जिस प्रकार निर्मल चन्द्रमामे कलक शीघ्र हो दिखायी देता है उसी प्रकार निर्मल साधुमे छोटा भी दोष दिखायी देता है। इस जगत् मे कही भी मुनिको कोई सदोष कार्य नही करना चाहिये जिससे निर्ग्रन्थ मुद्राका अपवाद हो । साधुकी चर्या तलवार की धारपर चलने के समान कठिन है । यदि निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण करनेकी तुम्हारी सामर्थ्य नही है तो हे भव्योत्तम ! तुम श्रद्धामात्र से संतुष्ट होओ ।। ६३-१०० ॥ अब आगे महतोकी स्थिरताके लिये पच्चीस भावनाओका वर्णन करते हुए - प्रथम अहिसा महाव्रतकी पाच भावनाएं कहते हैअथाग्रे सम्प्रवक्ष्यामि पञ्चविंशतिभावनाः ।
महाव्रतानां स्थैर्यायं मुनयो भावयन्ति याः ॥ १०१ ॥ वाचागुप्तिर्मनोगुप्तिर्यासमिति पालनम् I आवानन्यासनाम्न्यां च समित्यां सावधानता ॥ १०२ ॥ पानभोजनवृतिश्च पञ्चेता भावना मताः ।
अहिंसाव्रतरक्षार्थं मुनयो भावयन्ति य० ॥ १०३ ॥ अर्थ - अब आगे, महाव्रतोको रक्षाके लिये मुनि जिन भावनाओका चिन्तवन करते हैं उन पच्चीस भावनाओको कहेगे । वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण नामक समितिमे सावधानता और आलोकितपान - भोजनवृत्ति ये पाँच भावनाएँ है जिन्हे मुनि अहिसाव्रत की रक्षा के लिये भाते है ।
भावार्थ - जिन-जिन कार्योंसे हिसा होतो है उन सबमे सावधानी रखने के लिये पाँच भावनाएं निश्चित की गई है । वास्तवमे मनुष्य उपर्युक्त पाँच हो कार्य करता है, शेष कार्य इन्ही पाँच कार्योंमे गति होते है ॥ १०१-१०३ ॥
आगे सत्य महाव्रतकी पाच भावनाएं कहते हैं
क्रोधलोभभयत्यागा हास्य सत्याग एव च ।
शास्त्रानुकूल भाषा च पञ्चता भावना मताः ।। १०४ ।। सत्यव्रतसुरक्षार्थं साधवो भावयन्ति याः ।
अर्थ - क्रोध-त्याग, लोभ-त्याग, भय त्याग, हास्य-त्याग और शास्त्रानुकूलभाषा ( अनुवोचि भाषण ) ये वे पाँच भावनाएं है, सत्य - व्रतको रक्षा के लिये मुनि जिनका ध्यान करते हैं ॥ १०४ ॥
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ܕܐ
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
आगे अचौर्य महाव्रतको दृढताके लिये पाँच भावनाओका वर्णन करते हैं
शून्यागारेषु वत्स्यामि मोचिता वासकेषु च ॥ १०५ ॥ भैक्ष्यशुद्धि विधास्यामि न कुर्यामन्यरोधनम् । समिविसंवाद न करिष्यामि जातुचित् ॥ १०६ ॥ अस्तेयव्रतरक्षार्थं पचता भावना मताः । मुनयो भावना होता भावयन्ति पुनः पुनः ॥ १०७ ॥ अर्थ- मैं पर्वतकी गुफा आदि शून्यगृहोमे निवास करूंगा, विमोचित दूसरोके द्वारा छोड़े हुए स्वामित्वहीन गृहोमे रहूँगा, भिक्षा सम्बन्धो शुद्धि रक्खूगा, अपने स्थानपर ठहरनेवाले दूसरे साधुओको रुकावट नही करूंगा तथा सहधर्मीजनोसे विसवाद-विरोध नही करूगा अचौर्यव्रतको रक्षाके लिये ये पाँच भावनाए है। मुनि इनका बार-बार चिन्तन करते है ।। १०५ - १०७ ॥ *
अब ब्रह्मचर्यव्रतको रक्षाके लिये पाँच भावनाए कहते हैवनितारागवधिन्यः कथा या विश्रुता भुवि ।
ता अह नैव श्रोष्यामि रागिजनसमागमे ॥ १०८ ॥
* मूलचारमे तृतीय महाव्रतकी भावनाए निम्न प्रकार से कही हैजायण समपुण्यमणा अणण्णभावो वि चत्तपडिसेवी । साधम्मिओवकरणस्सणुवीचीसेवण
चावि ।। ३३६ ॥ याचना, समनुज्ञापना, अपनत्वका अभाव, त्यक्त प्रतिसेवना और साधर्मिकोके उपकरणका उनके अनुकूल सेवन करना ।
१. याचना - अपेक्षित वस्तुको गुरु या उसके स्वामी सहधर्मी मुनिसे विनयपूर्वक माँगना ।
२. समनुज्ञापना- किसी की वस्तुको यदि बिना अनुमतिके ली हो तो उसकी सूचना देना और कहना कि शीघ्रता के कारण मै आपसे पहले आज्ञा नही ले सका ।
३ अन्यकी वस्तुमे अपनत्व भाव नही करना - यह दूसरेकी है, उसकी आज्ञा से मै इसका उपयोग कर रहा हूँ ।
४ त्यक्त प्रतिसेवो - जिसका अन्य साधुने त्याग कर दिया है, अपना स्वामित्व छोड दिया है ऐसे उपकरण - शास्त्र आदिका उपयोग करना ।
५ साधर्मिकोपकरण - अनुवीचि सेवन - साधर्मी मुनियोके उपकरणोका उनकी आज्ञासे आगमानुसार सेवन करना ।
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तृतीय प्रकाश
कामिनी कुचकक्षाविसुन्दराङ्गविलोकनम् । रागान्नंव
करिष्यामि कामाकुलितचेतसा ॥ १०९ ॥
गार्हस्थ्यावसरे मोगा मुक्ता ये हि मनोहराः । नैव तेषां करिष्यामि स्मरणं जातुचिन्मुदा ॥ ११० ॥ कामवृद्धौ सहाया ये रसमात्रादयो मताः । तेषां ससेवनं नैव करिष्यामि कदाचन ।। १११ ॥ स्वशरीरस्य संस्कार स्वमलमोचनादिकम् । करिष्यामि प्रमोदान्नो बेहसौन्दर्यहेतवे ।। ११२ ॥ ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थं पञ्चता भावना मताः । भाव्यन्ते मुनिभिनित्य कर्मणां क्षपणोद्यतः ॥ ११३ ॥ अर्थ - स्त्रियोमे राग बढानेवाली जो कथाएँ पृथिवीपर प्रसिद्ध हैं रागोजनोके समागम - गोष्ठीमे मैं उन्हे नही सुनूगा । कामसे आकुलित चित्त होकर स्त्रियोके स्तन तथा कक्ष आदि सुन्दर अङ्गोका रागसे अवलोकन नही करूँगा । गृहस्थ अवस्थामे जो मनोहर भोग भोगे थे उनका कभी हर्षपूर्वक स्मरण नही करूँगा । काम-वृद्धिमे सहायक जो रस मात्रा आदिक हैं उनका सेवन कभी नही करूंगा और शरीरको सुन्दरता के लिये त्वचा का मैल छुडाना आदि कामोसे शरोरका सस्कारसजावट नही करूगा । ब्रह्मचर्यको रक्षाके लिये ये पाच भावनाए है । कर्मो का क्षय करनेमे उद्यत मुनिराज इनकी निरन्तर भावना करते है ।। १०८-११३ ।।
अब अपरिग्रह व्रतकी पाच भावनाएं कहते हैं
इष्टानिष्टेषु पञ्चानामक्षणां विषयेषु च । रागद्वेषपरित्यागः पञ्चता भावना मताः ॥ ११४ ॥ नंन्ध्यव्रतरक्षार्थ सुनयो भावयन्ति याः ।
व्रत संरक्षणायोक्ताः पञ्चविंशति भावनाः ।। ११५ ।। अर्थ - पञ्च इन्द्रियोके इष्ट-अनिष्ट विषयोमे राग-द्वेषका त्याग करना, ये वे पाच भावनाएं हैं, जिनका कि अपरिग्रह व्रतकी रक्षाके लिये मुनि चिन्तन करते हैं । इस प्रकार पाच महाव्रतोको रक्षाके लिये पच्चीस भावनाए कही ।। ११४-११५ ।।
आगे मुनिव्रतको प्रधानता बतलाते हुए महाव्रताधिकारका समारोप करते हैं
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सम्यचारित्र-चिन्तामणि
अनादिकालाद् भ्रमता भवेऽस्मिन् जीवेन या दु.खततिः प्रभुक्ता । तस्या विनाशे यतिवृत्तमेव समर्थमत्रास्ति न किचिदन्यात् ।। ११६ ॥ तदेव शक्त्या भुविधारणीयं तदेव भक्त्या मनसा प्रचिन्त्यम् । तदेव याचा वचनोयमत्र तदेव कामात् करणीयमस्ति ॥ ११७ ॥
४४
अर्थ - अनादि काल से इस संसारमे भ्रमण करनेवाले जीवने जो दुःखोका समूह भोगा है उसका नाश करनेमे मुनिव्रत - सकल चारित्र ही समर्थ है अन्य कुछ नही । इसलिये पृथिवीपर अपनी शक्तिके अनुसार वही मुनिव्रत धारण करने के योग्य है, भक्तिपूर्वक वही मुनिव्रत मनसे चिन्तनीय है वहो मुनित्रत वचनसे कहने योग्य है और वही मुनिव्रत शरीर से -- काय से करने योग्य है ।। ११६-११७ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थमे महाव्रतोका वर्णन करनेवाला तृतीय प्रकाश पूर्ण हुआ ।
चतुर्थ प्रकाश पञ्चसमित्यधिकार
मङ्गलाचरण
येनासिना ध्यानमयेन भिन्न कर्मारिसेना महती विदीर्णा । स वीरनाथो गुणिभिः सनाथो मोक्षस्य लाभाय सदा ममास्तु || १ ||
अर्थ- जिन्होने ध्यान रूप कृपाणके द्वारा बहुत बडी कर्म शत्रुओकी सेनाको छिन्न-भिन्न तथा विदोर्ण कर दिया एव जो अनेक गुणोजनो गणधरादिसे सहित थे वे भगवान् महावीर मेरे मोक्ष प्राप्ति के लिये हो ॥ १ ॥
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आगे महाव्रतोकी रक्षा के लिये समितियोका वर्णन करते हैंयथा कृषीवलाः क्षेत्र रक्षार्थं परितो वृती | कुर्वन्ति व्रतरक्षार्थं समितीश्च तथर्षय ॥ २ ॥ ईर्याभाषादिभेदेन समितिः पञ्चधा मता । अथासा लक्षणं किंचिद् दर्शयामि यथागमम् ॥ ३ ॥ अर्थ - जिस प्रकार किसान खेतको रक्षाके लिये चारो ओरसे
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चतुर्ष प्रकाश वृति-कांटे आदिको बाड लगाते हैं उसी प्रकार मुनि व्रतोंकी रक्षाके लिये समितियोको धारण करते है। ईर्या भाषा आदिके भेदसे समिति पांच प्रकारकी मानो गई हैं अर्थात् समितिके ईर्या, भाषा, एषण, आदान निक्षेपण और व्युत्सर्ग ( प्रतिष्ठापना ) ये पांच भेद हैं। अब आगमके अनुसार इनका कुछ लक्षण दिखाता हूँ॥ २-३ ॥ अब सर्वप्रथम ईर्या समितिका वर्णन करते हैं
प्रमादरहिता वृत्तिः समितिः सन्निरूप्यते। चर्यार्थ तीर्थयात्रार्थ गुरूणां वन्दनाय च ॥ ४ ॥ जिनधर्मप्रसाराय मुनीनां गमनं भवेत् । तडागारामशेलाविदर्शनाय न साधवः ॥ ५॥ विहरन्ति कदाचिद् वं लौकिकानन्दहेतवे। रजन्यां तमसाछन्नमार्गायां न व्रजन्ति ते॥६॥ सति सूर्योदये मार्गे दृष्टतत्रस्थवस्तुके। नगवाश्वखरावीनां यातायातविदिते ॥७॥ हरिद्घासाद्यसंकीर्णे साधवो विहरन्ति हि। दण्डप्रमितभूभागं पश्यन्तः संवजन्ति ते ॥८॥ न मन्दं नातिशीघ्रं च विहरन्ति मुनीश्वराः। शौचबाषानिवृत्यर्थ रात्रौ चेद् गमनं भवेत् ॥९॥ विवाविलोकिते स्थाने पिच्छेन परिमार्जिते। बाघानिवर्तयेत्साधुः करपृष्ठपरीक्षिते ॥१०॥ झुप्रजन्तुकरक्षार्थ निष्प्रमादं ब्रजन्ति ते। सम्यग् विलोकिते क्षेत्रे साधूनां विहतिर्भवेत् ॥११॥ पादनिक्षेपवेलायां कश्चन क्षुद्रगन्तुकः । आगस्य चेन्मृति यायाम्न साधोस्तन्निमित्तकः ॥ १२ ॥ सूक्ष्मोपि वशितो बन्ध भाचाहि जिनागमे । प्रमाव एव बन्धस्य यतो हेतुः प्रशितः ॥ १३ ॥ पडपामेव साधूनां विहारो जिनसम्मतः । अतो यात्रादिकव्याजाद गलानः शिविकाधयम् ॥ १४ ॥ बध्यत्येव स्वस्येसमिति नात्र संशयः ।
भवेनिःश्रेयसप्राप्तिनिर्दोषाचरणेन हि ॥१५॥ अर्थ-प्रमादसे रहित वृत्ति समिति कहलातो है । चर्या, तीर्थयात्रा, गुरु-वन्दना और जिनधर्मके प्रसारके लिये मुनियोका गमन होता है। तालाब, बाग तथा पर्वत आदिको देखनेके लिये तथा लौकिक आनन्दके
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि. निमित्त निश्वयसे मुनि कभी विहार नहीं करते हैं। अन्धकारसे जहाँ मार्ग आच्छन्न-व्याप्त रहता है ऐसो रात्रिमे साधु विहार नही करते । सूर्योदय होनेपर, जिसमे स्थित वस्तुएं दिख गई है, मनुष्य, गाय, घोडा तथा गधा आदिके यातायातसे जो क्षुण्ण-विमर्दित हो गया है एवं जो हरी घास आदिसे व्याप्त नही है ऐसे मार्गमे साधु विहार करते हैं। वे मुनिराज दण्ड-चार हाथ प्रमित भूप्रदेशको देखते हुए चलते हैं, न अत्यन्त धीरे-धोरे चलते हैं और न अत्यन्त शीघ्र। शौचादिक बाधाकी निवृत्तिके लिये यदि रातमे जाना होता है तो दिनमे देखे हुए, पीछीसे परिमार्जित और हाथके पृष्ठ भागसे परोक्षित स्थानमे बाधाको निवृत्ति करते है। वे क्षुद्रजीवोको रक्षाके लिये प्रमाद रहित होकर चलते हैं। साधुओका विहार अच्छी तरह देखे हुए स्थानमे होता है। पैर रखते समय यदि कोई क्षुद्रजीव आकर मर जाय तो साधुको उसके निमित्तसे होनेवाला थोडा भी बन्ध आचार्योने जिनागममे नही बताया है क्योकि बन्धका हेतु प्रमाद हो बताया गया है। साधुओका पैदल विहार हो जिनसम्मत है । अत यात्रादिकके व्याजसे पालकोका आश्रय करनेवाला साधु अपनो र्या समितिको नियमसे खण्डित करता है, इसमे सदेह नहीं है। परमार्थसे मोक्षकी प्राप्ति निर्दोष आचरणसे हो होतो है ॥ ४-१५॥ अब भाषा समितिका स्वरूप कहते है
अथात्र क्रियते चर्चा भाषासमितिलक्षणः । योऽसत्य वाक्परित्यागो जातः सत्यमहावते ॥ १६ ॥ रक्षार्थ तस्य भाषायाः समितिः सम्प्रयुज्यते । भाषासमितिसंधारी मुनिराजो निरन्तरम् ॥ १७ ॥ हितां ब्रूते मितां व्रते प्रिया ब्रूते च भारतीम् । तस्य ववनचन्द्रायो निासृतो वचनोच्चयः ।। १८॥ पीयूषनिझर इव श्रोत्रानन्दं ददाति सः। बागेवात्र महीलोकेऽन्योन्यप्रीतिविधायिनी ॥१६॥ काकप्रियरव श्रुत्वा पिकस्य मधुरां कुहम् । उभयोरन्तर वेत्ति भाषाविज्ञानशोभितः ॥ २०॥ सधर्मभिः कृतालापो भाषासमितिधारकः।
धर्मपक्ष दृढ़ीकर्त बहूपि वक्ति जातुचित् ॥ २१ ॥ * विशेष-सल्लेखनाके लिये निर्मापकाचार्य के पास पहुंचनेके लिये अशक्ति वश शिविकाका आश्रय लिया जा सकता है।
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चतुर्थ प्रकार भाषायाः सौष्ठवं प्राप्य यः स्वच्छन्दं प्रमापते । निरर्थकं भवेत्तस्य भाषायाः सौष्ठवं महत् ॥ २२ ॥ एकस्य वचनं श्रुत्वा लोके पुखः प्रजायते। एकस्य वचनं श्रुत्वा युद्धशान्ति: प्रजायते ॥ २३ ॥ एकस्य वचनं श्रोतुं समायान्ति सहनमः। मा, एकस्य संश्रोतुं वित्रास्तिष्ठन्ति मानवाः ॥२४॥ ध्ययं वचन विस्तार विदधाति च यो नरः। अल्पायोऽषिक वानीव विषादं लभते स वै ॥२५॥ बोलेव भारती यस्य भवतीह चलावला। प्रत्यवं तस्य मर्त्यस्य को नु कुर्याद् धरातले ॥ २६ ॥ स्वप्रतिष्ठा स्थिरीकर्तु भूमिलोके महस्विनाम् ।
भाषासमितिवन्नान्यत् साधन वर्तते क्वचित् ॥ २७ ।। अर्थ-अव यहाँ भाषा समितिके लक्षणकी चर्चाको जाती है । सत्यमहाव्रतमे जो असत्यवचनका परित्याग हुआ था उसको रक्षाके लिये भाषा समितिका सुप्रयोग किया जाता है । भाषा समितिके धारक मुनिराज सदा हित, मित और प्रिय वाणो बोलते हैं । उनके मुखचन्द्रसे जो वचन समूह निकलता है वह अमृतके झिरनेके समान श्रोताओको आनन्द देता है। इस पृथिवो लोकमे वाणो ही परस्पर प्रोति करानेवालो है । कौएका अप्रिय शब्द और कोयलको मीठो कुहू सुनकर भाषा विज्ञानसे शोभित मनुष्य दोनोका अन्तर जान लेता है । सधर्मीजनोके साथ वार्तालाप करनेवाला भाषासमितिका धारक मुनि धर्मका पक्ष दढ करनेके लिये कभी बहुत भी बोलता है। भाषाके सौष्ठव स्पष्टताको प्राप्तकर जो स्वच्छन्द रूपसे बोलता है उसको भाषाका बहुत भारी सौष्टव निरर्थक होता है। एकका वचन सुनकर लोकमे युद्ध भडक उठता है और एकका वचन सुनकर युद्ध शान्त हो जाता है। एकका वचन सुननेके लिये हजारो मनुष्य आते हैं और एकका वचन सुननेके लिये दो तोन हो मनुष्य बैठते हैं। जो मनुष्य व्यर्थका वचन विस्तार करता है वह अल्प आयवाला होकर अधिक दान करनेवालेके समान विषादको प्राप्त होता है। इस जगत्में जिसकी वाणी दोलाके समान अत्यन्त चञ्चल है उस मनुष्यका विश्वास भूतलपर कौन करेगा? अर्षातु कोई नहीं। महस्वो-तेजस्वो मनुष्योको पृथिवोपर अपनो
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सम्यक्पारित्र-चिन्तामणि प्रतिष्ठा स्थिर रखनेके लिये भाषासमितिके समान कही दूसरा साधन नही है ।। १६-२७ ॥ आगे एषणा समितिकी चर्चा करते है
अर्थषणा समित्याश्च कापि चर्चा विधीयते । एषणामुक्तिरित्यर्थस्तस्यां या सावधानता ॥ २८॥ एषणासमितिः प्रोक्ता सा विज्ञात-जिनागमः। औदारिकमिदं बम विना भुक्ति न तिष्ठति ॥ २९ ॥ अतस्तस्य सुरक्षार्थमाहारः प्रविधीयते । दिवसे होकवारं यः स्थित सन् पाणिपात्रके ॥ ३०॥ यथाविधि यथाप्राप्तमाहार विदधाति सः। एषणासमिति. संषा मुनिभिविनिरूपिता ॥३१॥ ईदृशो हि ममाहारो बोयेत श्रावकर्जनः। एव वाञ्छा न तेषां स्याज्जैनाचारतपस्विनाम् ।। ३२॥ अन्तराये समायात विषीवन्ति न साधवः। स्वात्मध्यानपराः सन्त. कुर्वते कर्मनिर्जराम् ।। ३३ ।। साधवः सुकुलीनानां जैनाचारस्य धारिणाम् । गहेषु नवधा भक्त्या प्रगृहीताः प्रभुजते ॥ ३४ ॥ कथिता एषणादोषाश्चत्वारिंशत् षडुत्तराः।।
वर्जनीयाः सदा ोते द्वात्रिशच्चान्तरायकाः ॥ ३५॥ अर्थ-अब एषणा समितिकी कुछ चर्चाको जाती है। एषणाका अर्थ भोजन है, उसमे जो सावधानता है वह जिनागमके ज्ञाता पुरुषो द्वारा एषणा समिति कही गई है। यह औदारिक शरीर आहारके बिना नहीं ठहरता इसलिये उसकी सुरक्षाके लिये आहार किया जाता है। जो दिनमे एकबार खड़े होकर पाणिपात्रमे विधिपूर्वक प्राप्त हुए आहारको ग्रहण करता है उसकी यह विधि मुनियो द्वारा एषणा समिति कही गई है। सरस, नोरस, कड़आ अथवा मीठा जैसा आहार प्राप्त होता है साधु उसीमे सन्तुष्ट रहते हैं। श्रावक लोग मुझे ऐसा आहार देते तो ठीक होता, ऐसी इच्छा जैनाचारके तपस्वियोके नही होतो । अन्तराय आनेपर साधु विषाद नहीं करते हैं किन्तु स्वात्मध्यानमे तत्पर रहते हुए कर्मोको निर्जरा करते है। साधु उत्तम कुलीन तथा जैनाचारके धारक श्रावकोके घरमे नवधाभक्तिसे पडगाहे जानेपर आहार करते हैं । एषणा सम्बन्धो छियालोस दोष और बत्तीस अन्तराय
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चतुर्थ प्रकाश कहे गये हैं। ये सब छोडने योग्य हैं अर्थात् इन्हें टालकर आहार करना चाहिये ।। २८-३५॥ आगे माधुकरी आदि पांच वृत्तियोका वर्णन करते हुए पहले माधुकरी वृत्तिका कथन करते हैं
माधुकर्यादिवृत्तीनां धारका मुनिपुङ्गवाः। विरक्ताः स्वशरीरेभ्यो विचरन्ति महीतले ॥ ३६॥ यथा मधुकरः पुष्पाद रसं गृह्णन् तबुद्भवम् । बाधां न कुरुते पुष्पं तथा साधुर्गहस्यतः ॥ ३७॥ आहार स्वेप्सितं गृह्णन् न तं पीडयति क्वचित् । एषा माधुकरीवृत्तिर्गदिता चरणागमे ॥ ३८॥
एथव धामरीवृत्तिः कथ्यतेऽपरनामतः । अर्थ-माधुकरी आदि वृत्तियोको धारण करनेवाले मुनिराज अपने शरीरसे विरक्त हो पृथिवीतलपर विहार करते हैं। जिस प्रकार मधुकर-भ्रमर फूलसे उसके रसको ग्रहण करता हुआ फलको बाधा नही करता उसी प्रकार साधु गृहस्थसे अपने योग्य शुद्ध आहार लेते हुए गृहस्थको पीडित नहीं करते। यह चरणानुयोगके शास्त्रोमे माधुकरो वृत्ति कही गई है, यही वृत्ति दूसरे नामसे भ्रामरोवृत्ति भी कही जाती है ॥ ३६-३८ ॥ अब गोचरोवृत्तिका स्वरूप कहते हैं
यथा गौर्घाससम्पूर्ण दवतं नव पश्यति ॥ ३९॥ पश्यति घाससम्पूलं तथायं हि मुनीश्वरः। प्रासं पश्यति पाणिस्थं दवतं नैव पश्यति ॥ ४०॥ गृहिणां गृहमध्ये या रागवर्धक भूतयः। ताः प्रत्यस्य न दृष्टिः स्यात् स्वात्मन्येव हि सा भवेत् ॥४१॥ एषा गोचरीवतिः कथ्यते सरिसत्तमः।
अहो वैराग्यमाहात्म्यं गवितुं केन शक्यते ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिस प्रकार गाय घासका पूला देनेवालेको नही देखतो किन्तु घासके पूलको देखतो है उसी प्रकार वे मुनिराज पाणिपात्रमे स्थित ग्रासको देखते हैं, ग्रास देनेवालेको नही । गृहस्थोके घरमे जो रागवर्द्धक सम्पदा है उसकी ओर इनको दृष्टि नही रहती, निश्चयसे उनको दृष्टि १. धपालीस दोष और बत्तीस अन्तरायोका वर्णन परिशिष्टमे देखें।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि'
अपने स्वरूप में ही रहती है। श्रेष्ठ आचार्योंके द्वारा यह गोचरीवृत्ति कहो जाती है । अहो । वैराग्यको महिमा कहनेके लिये कौन समर्थ है ? ॥ ३६-४२ ॥
आगे अग्निप्रशमनोवृत्ति कहते हैं
तस्या:
कस्यचिद् भवने वह्निर्ज्याला सन्ततिरुस्थिता । प्रशमने हेतुर्जलधारंव मृग्यते ॥ ४३ ॥ तज्जलं मधुरं वा स्यात्क्षार वा च भवेत् क्वचित् । एवं हघुबरमध्येऽपि सुधाग्निर्वर्धते चिरात् ॥ ४४ ॥ तस्य प्रशमने हेतुः पाणिस्था ग्राससन्ततिः । सरसा नीरसा सा स्यादिति चिन्ता न विद्यते ।। ४५ ।। अग्निप्रशमनी नाम वृत्तिरेषा निगद्यते ।
अर्थ - यदि किसके मकानमे अग्नि ज्वालाओका समूह उठा है तो उसे शान्त करनेके लिये जलधारा ही खोजी जाती है, कही वह जल मीठा होता है और कहो खारा भी हो सकता है । इसी प्रकार उदरके भीतर क्षुधारूपी अग्नि चिरकालसे बढ रही है । उसे शान्त करने के लिये हाथमे स्थित ग्रासोका समूह हो कारण है । वह ग्रास समूह सरस हो या नीरस, इसका विचार नही रहता । यह अग्नि प्रशमनीवृत्ति कही जाती है ।। ४३-४५ ॥
अब गर्तपूरण वृत्तिको कहते है
गृहाङ्गणगतो तथायमोदरो
गर्तो यथा केनापि पूर्यते ॥ ४६ ॥ गर्तः सरसंनरसेरपि ।
प्रासं: पूरयितु शक्यो विरक्तस्य महामुने. ॥ ४७ ॥ गर्तपूरणनाम्नीयं प्रशस्ता वृत्तिरिष्यते ।
अर्थ - जिस प्रकार घरके आगनका गर्त किसी साधारण मिट्टी आदिके द्वारा भर दिया जाता है उसी प्रकार विरक्त महामुनिके उदरका गर्त सरस अथवा नीरस ग्रासोके द्वारा भर दिया जाता है अर्थात् मुनिराज सरस और नोरस आहारमे रागद्वेष नही करते। यह गतपूरण नामकी उत्तम वृत्ति मानी जाती है ॥ ४६-४७ ॥
आगे अक्षम्रक्षण वृत्तिका निरूपण करते हैं
अक्षस्य स्रक्षणे जाते गन्त्री लक्ष्यं प्रगच्छति ॥ ४८ ॥
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चतुर्व प्रकाश यथा तषिवेहोऽयं शकटामा प्रगच्छति। मोक्षाज्यपसनं यावदाहारो ब्रमणोपमः॥४९॥ एषाक्षम्रक्षणीवृत्तिः प्रशस्या चरणागमे । इत्थ वीक्षाधनित्यं सुरक्ष्याः पञ्चवृत्तयः ॥५०॥ स्वस्याहारनिमित्तं यः साधं गृह्णाति साधनम् ।
एषणासमितिस्तस्य चिन्तनीयास्ति भूतले ॥५१॥ अर्थ-जिस प्रकार अक्षपर ( चाकके छिद्रमें स्थित भौरापर) म्रक्षण-ओगन लगा देनेसे गाडी अपने लक्ष्य स्थान तक चली जाती है उसी प्रकार गाडोके समान मुनिका यह शरीर मोक्षरूपी नगरको ओर जा रहा है, आहार इसके लिये ओगनके समान है। चरणानुयोगमे यह अक्षम्रक्षण-वृत्ति प्रशंसनीय मानो गई है। इस प्रकार दीक्षाके धारक मुनियोको इन पाच वृत्तियोका अच्छी तरह पालन करना चाहिये। जो मुनि अपने आहारके निमित्त साधन-सामग्री चौका आदि साथ लेकर चलते हैं उनकी ऐषणा समिति पृथिवीतलपर चिन्तनीय है ॥ ४८-५१॥ अब आदान-निक्षेपण समितिकी चर्चा करते हैं
शौचोपकरणं कुण्ठी पिच्छं संयमसाधनम् । ज्ञानोपकरणं शास्त्रमिति साधुपरिप्रहः ॥ ५२ ।। मावाने क्षेपणे चैषां या साधो सावधानता। सैखाद्यावाननिक्षेपसमितिः परिकथ्यते॥५३॥ बलाहकावली दृष्ट्वा गगने श्यामलप्रभाम् । मध्येमध्ये च पर्जन्ती विद्युत्स्फतिचमत्कृताम् ॥ ५४ ॥ पिच्छपकित समास्फाल्य नत्यन्त केफिनो बने। स्वयमुज्सन्ति पिच्छानि तान्यावाय वनेचराः ॥ ५५॥ वितरन्ति मनुष्येभ्यस्ते चावाय तपस्विनाम् । पिच्छिकानिमितेहेतोः सड्घेषुप्रेषयन्ति च ॥५६ ॥ तेभ्यः पिच्छस्य निर्माणं स्वयं कुर्वन्ति साधवः। पिच्छिकानां मृदुस्पर्शो जीवानां नैव पौडकः ॥ ५७ ॥ अतो विगम्बरः साधुः स्वीकुरुते तमेव हि। गाणीच वकानां च पक्षाः पिच्छतया क्वचित् ॥ ५८॥ गृहीतः केन चिज्जातुन तत्पक्षः सनातनः । नारिकेलेन काष्ठेन कुण्डी या हि विधीयते ॥ ५॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
सेवात्र साधुभिर्ब्राह्या नंद धातुविनिर्मिता ।
अल्पमूल्या गृहस्थानां या वा नैवोपकारिणी ॥ ६० ॥ तस्याहरणसम्मीतिनं स्याज्जातु तपस्विनाम् । एकद्वित्रीणि शास्त्राणि साधूनां हि तपस्विनाम् ॥ ६१ ॥ ज्ञानोपकरणत्वेन न निषिद्धानि सूरिभिः । चातुर्मासस्य बेलायां बहुशास्त्रावलोडनम् ॥ ६२ ॥ न निषिद्धं सुनीद्राणां तत्स्वामित्वविवर्जनात् । ग्रन्थनिर्माणवेलायां तत्सहयोगकारिणाम् ॥ ६३ ॥
पठनं बहुशास्त्राणां विधेय ननु वर्तते । ज्ञानस्य वर्धनं शास्त्रं ज्ञानोपकरणं मतम् ॥ ६४ ॥ एषामादानवेलायां निक्षेपावसरे तथा । जीवबाधा न कर्तव्या. स्वात्मकल्याणवाञ्छिभिः ॥ ६५ ॥
अर्थ - शौचका उपकरण कमण्डलु, संयमका साधन पिच्छी और ज्ञानका उपकरण शास्त्र, यही साधुका परिग्रह है । इनके उठाने और रखनेमे साधुकी जो सावधानता है वही आदान-निक्षेपण समिति कहलाती है । आकाशमे कालो कालो, बीच बीचमे गरजतो और बिजली की कौधसे चमकती घनघटाको देखकर मयूर बनमे अपनी पिच्छावलोको फैलाकर नृत्य करते हुए पंखोको स्वय छोडते है । वनेचर- भील आदि उन्हे लेकर मनुष्योको देते हैं, वे उन्हें लेकर पिच्छिकाएँ बनानेके लिये साधुओ सघमे भेजते है । उन पंखोसे साधु स्वय हो पिच्छिकाएँ बनाते है । पिच्छिकाओका कोमल स्पर्श जोवोको पीडा देनवाला नही है, अतः दिगम्बर साधु उसो मयूर पिच्छको ग्रहण करते हैं । कहीपर किन्हीने परिस्थितिवश गोध और बगलोके पाख भो पिछी रूपसे स्वीकृत किये हैं पर वह पक्ष समीचीन नही है ।
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नारियल या काठसे जो कमण्डलु बनाया जाता है वही साधुओ द्वारा ग्रहण करने योग्य है, धातुओसे निर्मित नही । जो अल्पमूल्य हो और गृहस्थोके काम आने वाला न हो ऐसा कमण्डलु ही ग्राह्य है क्योकि ऐसे कमण्डलुके चुराये जानेका भय साधुओं को नही होता ।
तपस्वी साधु एक, दो या तीन शास्त्र साथमे रक्खे तो ज्ञानका उपकरण होनेसे आचार्योंने उनका निषेध नही किया है । चातुर्मासके समय बहुत शास्त्रोका आलोडन- देखना-संभालना मुनियोंके लिये निषिद्ध नही, क्योकि उनके वे स्वामी नही होते । किसो मन्दिर या
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चतुर्थ प्रकाश सरस्वतीभवनमें संगृहीत शास्त्रोकी अपेक्षा यह कथन है। ग्रन्थनिर्माणके समय उसके सहकारो बहुत शास्त्रोका पठन भी विधेय है-करने योग्य है। शास्त्र ज्ञानको बढाते हैं इसलिये ज्ञानोपकरण कहलाते हैं। आत्म-कल्याणके इच्छुक साधुओको इन सब उपकरणोंके उठाते और रखते समय जीवबाधा नही करना चाहिये ॥ ५२-६५ ।। अब आगे व्युत्सर्ग समितिको चर्चा करते हैं
इतोऽग्ने सविधास्यामि व्युत्सर्गसमितेो कथाम् । मलमूत्रादिबाधाया निवृत्तिजन्तुजिते ।। ६६ ॥ हरिद्घासाघसंकीर्ण निरुद्ध तिरोहिते। स्थाने निवर्तनीयास्ति विपिने विजनेऽपि वा ॥ ६७ ॥ मले मलस्य पातो नो विधातव्य कदाचन । शौचालयेषु शौचस्य करण नोचित क्वचित् ॥ ६ ॥ एषा शरीरवत्तिहि करणीया शरीरिभि।।।
जीवहिसापरीहारे ध्यानं धेयं त्ववश्यतः॥ ६९॥ अर्थ--इसके आगे व्युत्सर्ग समितिकी कथा करूंगा जो जीवजन्तुओसे रहित हो, हरो घास आदिसे व्याप्त न हो, रुकावटसे रहित हो तथा तिरोहित-परदा सहित हो । ऐसे स्थानपर जगल अथवा निर्जन स्थलपर मलमत्रादि बाधाकी निवृत्ति करना चाहिये। मलके ऊपर मल कभी नही पटकना चाहिये तथा शौचालयोमे शौच कही नहीं करना चाहिये । मलमूत्र त्याग, यह शरीरको वृत्ति है अत. अवश्य करनी पडती है परन्तु जीवहिसाके बचाव पर अवश्य ध्यान देना चाहिये ॥ ६६-६६॥ आगे समिति-अधिकारका समारोप करते हैगृहीतवतेषु प्रदोषप्रसारो, भवत्यत्र लोके प्रमावप्रभावात् । अतो दोषहान्युद्यतैर्भव्यलोकः प्रमादे प्रहारो विधेयो बतायः॥७॥
अर्थ-इस लोकमे गृहोतव्रतोके मध्य प्रमादके प्रभावसे दोषोका प्रसार होता है अर्थात् अनेक दोष लगते है अतः दोषोको नष्ट करनेके लिये उद्यत व्रती भव्य जोवोको प्रमादपर प्रहार करना चाहिये ।।
भावार्थ-प्रमादके परित्यागते हो समितियोका पालन होता है और समितियोसे महाव्रतको रक्षा होतो है । अत. चलने, बोलने, आहार करने, रखने, उठाने और मलमूत्र छोड़नेमें प्रमादका त्याग करना चाहिये ॥ ७॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि आत्मबसवर्धनेन प्रमावमन्तर्गत विहातुं ये।
उद्यमशीला मुवने त एव भव्याः प्रमावरहिताः स्युः॥१॥ अर्थ-आत्मबलकी वृद्धि द्वारा जो भीतरो प्रमादको छोडनेके लिये प्रयत्नशील हैं, वे भव्य ही प्रमादरहित हो सकते है ॥ ७१ ॥ इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमे पञ्चसमितियोका
वर्णन करनेवाला समित्यधिकार नामका __ चतुर्थ प्रकाश पूर्ण हुआ।
पञ्चम प्रकाश
इन्द्रियविजयाधिकारः
__ मङ्गलाचरणम् एते हषीकहरया संयमकविकापरप्रयोगेण।
वान्ता यहि समन्तात्ते मुनिराजाः सदा प्रणम्या में ॥१॥ अर्य-जिन्होने संयम रूपो लगामके उत्कृष्ट प्रयोगसे इन इन्द्रिय. रूपो अश्वोका सब ओरसे दमन कर लिया है वे मुनिराज मेरे सदा प्रणाम करनेके योग्य हैं। तात्पर्य यह है कि मैं इन्द्रियविजयी साधुओको सदा प्रणाम करता हूँ ॥१॥ आगे इन्द्रियविजय नामक मूलगुणोका वर्णन करता हूँ
अथेन्द्रियजयं लक्ष्य कृत्वा किञ्चिद् वदाम्यहम् ।' अकृत्वाक्षजयं लोके स्याद् दीक्षाया विडम्बना ॥२॥ हृषीकविषयाधीना लोका भ्राम्यन्ति सर्वतः। क्षितिमूले नभोमार्गे शैले सिन्धुतले तथा ॥३॥ कामिनीकोमलस्पर्शलालसा लम्पटा नराः। इहैव विविधापायानमुत्र श्वनवेदनाः॥४॥ सहन्ते नारका भूत्वा रावणवन्निरन्तरम् । यथा करेणुकुट्टिन्याः कायाकुलितचेतस.॥५॥ घावमाना गजा गर्ने पतन्तः परतन्त्रताम्। प्राप्नुवन्ति महादुःख चिरं सीवन्ति च क्षिती॥६॥
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पञ्चम प्रकाश
तथा कामेनियाधीना मनुजा अत्र मतले। विविषव्याधिमासाथ मज्जन्ति भवसागरे ॥७॥ के के न पतिता लोके नारीसङ्गमुपाश्रिताः ।
अपारदुःखसम्भारे वितते भवसागरे ॥८॥ अर्थ-अब मैं इन्द्रियजयको लक्ष्यकर कुछ कहता हूँ क्योकि इन्द्रियजय किये बिना लोकमे मुनि दीक्षाको विडम्बना हो होती है। इन्द्रियविषयोंके अधीन मनुष्य लोकमे पृथिवीमूल-खान, आकाश-मार्ग, पर्वत
और समुद्रके तलमे सब ओर भ्रमण करते हैं। स्त्रियोके कोमल स्पर्शको लालसा रखनेवाले कामी पुरुष इसी लोकमे नाना प्रकारके कष्ट सहते हैं और परभवमे नारकी बन रावणके समान निरन्तर दुख भोगते हैं। जिस प्रकार कृत्रिम हस्तिनोके शरीरको स्पर्शके लिये आकुलित चित्त वाले हाथी दौडकर गड्ढेमे पड परतन्त्रता रूप महादु.खको प्राप्त होते हैं तथा पृथिवीपर चिरकाल तक दुःखी रहते हैं उसी प्रकार कामेन्द्रियके अधोन मनुष्य इस भूतलपर नाना प्रकारको व्याधियोको पाकर ससार सागरमे मग्न होते है। लोकमे स्त्रियोका संग पाकर अपार दु.खके समूहसे युक्त विस्तृत भवसागरमे कौन-कौन पतित नहीं हुए हैं ? अर्थात् सभी हुए है ॥२८॥ आगे जिह्वा-इन्द्रिय विजयका कथन करते हैं
जिहन्द्रियरसाधीनाः पाठोनाः पुष्टदेहिनः । यथा बन्धनमायान्ति प्राणहीना भवन्ति च ॥९॥ तथा जिहन्द्रियाधीना मा मृत्युमुपागताः। दृश्यन्ते दूषिताहार-पीडिता जगतीतले ॥१०॥ केचितिक्तप्रिया लोके केचिच्च मधुरप्रियाः। केचित्क्षारप्रियाः सन्ति केचिवक्षारमोजिनः ॥११॥ विरुवाहारपाने च लन्धे युवतकोपनाः। कुर्वन्तः कलह नित्यं खिन्नचित्ता भवन्ति हा ॥१२॥ धन्यास्ते मुनयो लोके नीरसाहारकारिणः । आजीव त्यक्त मिष्टान्ना आजीवं क्षारमोचिनः ॥ १३ ॥ आजीवमुष्णपानीयं विरसं संपिबन्ति च । भाजीवं त्यक्तदुग्धा ये ह्याची घृतमोचिनः॥ १४ ॥ तेषां पुरो गृहस्थानां गार्हस्थ्य संकटाततम् । मेसर्षपयोर्मध्ये पाववन्तरमस्ति हि ॥ १५ ॥
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सम्यक्षारित्र-चिन्तामणि ताववन्तरमस्त्यत्र मुनीनां गृहिणां पुरः। चतुरङ्गुलमानेयं रसना प्रेरणी तथा ॥ १६ ॥ ददाति यादृश दुःखं न ततोऽन्यत्तु तादृशम् ।
हहो भव्यानयो रागं त्यक्त्वा स्वं हि सुखी भव ॥ १७॥ अर्थ-जिह्वा इन्द्रियके अधीन हुए पुष्ट शरीर वाले मच्छ जिस प्रकार बन्धनको प्राप्त हो मारे जाते हैं उसी प्रकार जिह्वा इन्द्रियके अधोन मनुष्य क्षित आहारसे पीडित हो पृथिवीतलपर मृत्युको प्राप्त होते देखे जाते हैं। जगत्मे कोई तिक्त प्रिय है-चिरपरा भोजन रुचिसे करते है, कोई मधुर भोजनको पसन्द करते है, कोई खारा भोजन अच्छा मानते है और कोई बिना नमकका भोजन करते है। कुछ लोग विरुद्ध आहार पानीके मिलने पर ऋद्ध हो कलह करते हुए निरन्तर खिन्न चित्त रहते हैं। लोकमे वे मुनि धन्य हैं जो नीरस आहार करते है। किन्होके जोवन पर्यन्तके लिये मिष्ठान्नका त्याग है, किन्हीके नमकका त्याग है, कोई नीरस गर्म पानो पोते है, कोई जोवन-पर्यन्तके लिये दधका त्याग किये हैं और यावज्जीवन घो छोडे हए है। उन मुनिराजोके सामने गृहस्थोका गार्हस्थ्य जोवन सकटोसे भरा हुआ है। मेरु पर्वत और सरसोमे जितना अन्तर है उतना अन्तर मुनि और गृहस्थोके सामने है । चार अंगुल प्रमाण रसना इन्द्रिय तथा कामेन्द्रिय जैसा दुख देती है वैसा दुख उनसे भिन्न अन्य इन्द्रिया नही देती। आचार्य कहते हैं-हे भव्य | इन दोनो इन्द्रियो का राग छोड, तू सुखो हो जा॥६-१७॥ आगे घ्राणेन्द्रिय जयका वर्णन करते है
रक्तपीतारविन्दानां संचयेन समाचिते। विकसत्पुण्डरीकाणा मण्डलेन च मण्डिते ॥१८॥ कञ्जकिञ्जल्कपीताभसलिले सलिलाशये । सौगन्ध्यमापिबन् गन्धलोलुपो भ्रमरोभ्रमन् ॥ १९॥ साय निमीलिते पो ह्यासक्त्या सस्थितोऽभवत् । प्रात: सर्योदये जाते पद्म विकसिते सति ।। २० ॥ क्षणादेवोत्पतिष्यामि स्वेष्टधामेति चिन्तयन् । रजन्याः प्रथमे भागे सलिल पातुभागतः॥२१॥ गज एको जलं पीत्वा पद्मिनी तां चचर्व सः। भ्रमरः स्वविचारेण सह मृत्युमुपागतः॥ २२॥ सौगन्ध्यलोमतो मृत्यं यथा भ्रमर आगतः । तथाय मनुजो लोभाद् विविधः कष्टमश्नुते ॥ २३ ॥
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पैचम प्रकाश इत्थं विचार्य नियो गन्धलोमं विमुञ्चति । स्वात्मन्येव रतो योगी परगन्ध न कानति ॥ २४ ॥ दुर्गन्ध वा सुगन्धे वा घ्राणेन्द्रियजयो मुनिः।
माध्यस्थ्यं याति वस्तूनां स्वरूपं चिन्तयन् सदा ॥ २५॥ अर्थ-लाल पीले कमलोके समूहसे व्याप्त खिलते हुए सफेद कमलोके समूहसे मणि और कमलोको केशरसे पीतवर्ण जलसे युक्त जलाशयमे सुगन्धिकाका पान करता हुआ गन्धका लोभो भ्रमर संध्याके समय निमोलित -सकुचित कमलमे यह विचार करता हुआ स्थित हो गया कि प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर जब कमल खिलेगा तब मैं शीघ्र ही अपने इष्ट स्थानपर उड जाऊंगा। उधर रात्रिके प्रथम भागमे पानी पोनेके लिये एक हाथी आया और पानी पोकर उस कमलिनीको चबा गया। भ्रमर अपने विचारोके साथ मृत्युको प्राप्त हो गया। जिस प्रकार भ्रमर सुगन्धके लोभसे मृत्युको प्राप्त हुआ उसो प्रकार यह मनुष्य सुगन्धके लोभसे अनेक कष्टोको प्राप्त होता है। ऐसा विचारकर निग्रंन्य मुनि गन्धका लोभ छोडते है। अपने आत्मस्वरूपमे रमण करने वाले योगो अन्य गन्धकी इच्छा नही करते । घ्राणेन्द्रिय-जयो मुनि वस्तुओके स्वरूपका विचार करते हुए दुर्गन्ध या सुगन्धमे माध्यस्थ्य भावको प्राप्त होते है ।। १८-२५॥ आगे चक्षु-इन्द्रिय विजयका वर्णन करते हैं
उज्ज्वलज्ज्योतिराकाझी चक्षुविषयसंगतः। शलभो मृत्युमायाति यथायं मानवस्तथा ॥ २६ ॥ अय गौरो ह्ययं श्यामो रक्तोऽयं पोत एव स । एवं विकल्पजालेन गृहस्थाः सन्ति पीडिताः ॥ २७ ॥ गौराङ्गी रोचते मह्य श्यामाङ्गो नंव रोचते। इस्थ विकल्पजालान्तः पतिता भविनो जनाः॥ २८॥ रोषं तोष च विधाणाः कुर्वते कर्मबन्धनम् । मुनयो वीतरागाधा रागद्वेषबहिर्गताः ॥ २९ ॥ चिन्तयन्त्यात्मरूपं तु रूपगन्धाविजितम् ।
आत्मध्यानरतानां कि रूपं कश्च वा रतः॥३०॥ अर्थ-उज्ज्वल ज्योतिको चाहने वाला, चक्षु विषयका लोभी पतंगा जिस प्रकार मृत्युको प्राप्त होता है उसी प्रकार यह मनुष्य भो चक्षु इन्द्रिय के विषयका लोभो बन मृत्युको प्राप्त होता है। यह गौर वर्ण है
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि यह श्याम वर्ण है, यह लाल है और यह पीला है इस प्रकारके विकल्प, जालसे गृहस्थ पीडित है। मुझे गौर वर्ण स्त्री अच्छी लगती है और श्याम वर्ण स्त्री अच्छी नही लगती, इस प्रकारके विकल्प समूहके बीचमे पडे ससारी जीव रागद्वषको धारण करते हुए कर्मबन्ध करते है परन्तु रागद्वेषसे रहित वोतराग मुनि, रूप तथा गन्ध आदिसे रहित आत्मस्वरूपका ध्यान करते है। आत्मध्यानमे लोन साधुओके लिये रूप क्या है और गन्ध क्या है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ २६-३० ।। आगे कर्णेन्द्रिय-जय मूलगुणको चर्चा करते है
वीणावेणुस्वरादोना रागो येषां न विद्यते । खरोष्ट्रकाविशब्देषु द्वेषो येषा न जायते ॥ ३१ ॥ प्रशसाशब्दमाकर्ण्य हर्षो येषां न जायते। निन्दाशब्दावली श्रुत्वा द्वेषो येषा न वर्तते ॥ ३२ ॥ त एव मुनयो धोराः धोत्राक्षजयिनो मताः। यथा वीणारवं श्रुत्वा निश्चलतां गता मृगाः॥३३॥ वधिकानां शमिन्ना नियन्ते काननेऽचिरात् । तथा गीतप्रिया मा आसक्ता रम्यगीतिषु ॥ ३४ ॥ अन्योऽन्य कलहायन्ते म्रियन्ते च यदा कदा । एकेकाक्षवशा जीवाः प्राणान्तमुपयान्ति चेत् ॥ ३५ ।। तदा सर्वन्द्रियाधीना लभन्तं त कथं न हि। इत्थ विचार्य निर्ग्रन्था अक्षाणा जयिनोऽभवन् ॥ ३६ ।। इष्टानिष्टप्रसङ्गषु रागद्वेषौ 'न याति यः।
तमक्षजयिन साधु प्रणमामि पुनः पुनः॥ ३७॥ अर्थ-जिन्हे वीणा और बाँसुरीके स्वर आदिका राग नही है और गर्दभ तथा ऊँट आदिके शब्दोमे जिन्हे द्वेष नहीं होता। प्रशसाका शब्द सुनकर जिन्हे हर्ष नही होता और निन्दाके शब्द सुनकर जिन्हे द्वेष नही होता वे धोर वीर मुनि हो कर्णेन्द्रिय-जयो माने गये है। जिस प्रकार वीणाका शब्द सुन स्थिरताको प्राप्त हुए हरिण बधिकोके वाणोसे विदोर्ण हो वनमे शोघ्र मारे जाते है उसी प्रकार सगोतके प्रेमो तथा मनोहर गोतोमे आसक्त मनुष्य परस्पर कलह करते और जब कभी मरते रहते है। एक-एक इन्द्रियके अधीन जोव जब मृत्युको प्राप्त होते है तब सभी इन्द्रियोके अधोन रहने वाले मनुष्य मृत्युको प्राप्त क्यो नही होगे? ऐसा विचार कर निर्ग्रन्थ मुनि इन्द्रिय विजयो होते
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पञ्चम प्रकाश हैं। जिनके इष्ट अनिष्ट प्रसंगोमे रागद्वेष नही है उन इन्द्रिय विजयो साधुओको मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। ३१-३७ ॥ आगे इन्द्रिय-विजय प्रकरणका समारोप करते हैंरागद्वेषो यस्य नाशं प्रयातो
नोत्पद्यते तोषरोषौ च यस्य। सोऽय साधु। प्राप्य निर्गन्थवृत्तं
शुक्लध्यानाकर्मनाशं करोति ॥ ३८॥ अर्थ-जिसके रागद्वेष नाशको प्राप्त हो चुके हैं तथा जिसके तोष और रोष उत्पन्न नही होते वह साधु हो निर्ग्रन्थ चारित्र-दिगम्बर मुनि मुद्राको प्राप्तकर शुक्ल ध्यानसे कर्मोंका क्षय करता है ।। ३८ ।। इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमे पञ्चेन्द्रियोंके विजयका वर्णन करनेवाला इन्द्रियजयाधिकार नामका
पञ्चम प्रकाश पूर्ण हुआ।
षष्ठ प्रकाश যাযামিকা:
मङ्गलाचरण सम्यक्त्वबोषामलवृत्तमूलो
मोक्षस्य मार्गो गवितो जिनेन्द्रः। तं प्राप्य ये मोक्षपुरं प्रयाता
स्तान् मुक्तिकान्तान प्रणमामि नित्यम् ॥१॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान्ने सम्यग्दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और निर्मल सम्यक्-चारित्ररूप मूलसे युक्त मोक्ष मार्ग कहा है। इसे प्राप्तकर जो मोक्ष नगरको प्राप्त हुए है उन मुक्तिकान्त सिद्ध परमेष्ठियोको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ ॥१॥ आगे आवश्यक शब्दका निरुक्त अर्थ तथा उसके नाम कहते हैं
अथावश्यककार्याणि साधूनां कथयाम्यहम् । रागादीनां शो यो न सोऽवशः कथ्यते जिन। ॥२॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि अवशस्य मुनेः कार्यमावश्यं हि समुच्यते । 'क' प्रत्ययविधानेन तदेवावश्यक भवेत् ॥ ३॥ यद्वावश्य च यत् कृत्यं तदावश्यकमिष्यते। समता वन्दना स्तोत्र प्रतिक्रमणमेव च ॥ ४॥ प्रत्याख्यान तनत्सर्ग इत्येतानि च तानि षट् ।
मुनयः श्रद्धया तानि कुर्वन्तीह दिने दिने ॥ ५॥ अर्थ-अब साधुओके आवश्यक कार्योंका कथन करता हूँ। जो रागादिकके वश नहीं है वह जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा अवश कहा जाता है। अवश मुनिका जो कार्य है वह आवश्य कहलाता है तथा स्वार्थ मे 'क' प्रत्यय करनेसे आवश्यक शब्द होता है ( न वशः अवश., अवशस्मेदम् आवश्यम् आवश्यमेव आवश्यकम् ) अथवा जो कार्य अवश्य हो करने योग्य है वह आवश्यक कहलाता है। समता, वन्दना,स्तोत्र स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये वे छह आवश्यक कार्य हैं जिन्हे मुनि प्रतिदिन श्रद्धासे करते हैं ।। २-५॥ आगे समता आवश्यकका वर्णन करते है
इष्टानिष्टप्रसङ्गषु माध्यस्थ्यं यत् तपस्विनाम् । साम्यं तत् साधुभिर्जेय कारातिविनाशनम् ।। ६ ॥ साम्यभावस्य सिद्धयर्थ साधुरेवं विचिन्तयेत् ।
पुनः पुनश्चिन्तनेन विचारः सुस्थिरो भवेत् ॥ ७॥ अर्थ-इष्ट-अनिष्ट-अनुकूल प्रतिकूल प्रसङ्गोमे साधुओका जो मध्यस्थ भाव है उसे साधुओको साम्यभाव-समता जानना चाहिये। यह साम्यभाव कर्मरूप शत्रुओका नाश करने वाला है। साम्यभावकी सिद्धिके लिये साधुको ऐसा चिन्तन करना चाहिये क्योकि बार-बार चिन्तन करनेसे विचार अत्यन्त स्थिर-दृढ हो जाता है ।। ६-७॥ जीवे जीवे सन्ति मे साम्यभावाः
सर्वे जोवाः सन्तु ये साम्ययुक्ताः। आतंरौद्रं ध्यानयुग्म विहाय
कुर्वे सम्यग्भावना साम्यरूपाम् ॥८॥ पृथ्वोतोये वह्निवायू च वृक्षो
युग्माक्षाया सन्ति ये जोवमेवाः।
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पष्ठ प्रकाश
ते में सर्वे भान्तियुक्ता भवन्तु
क्षान्त्या तुल्यं नास्ति रत्नं यवत्र॥९॥ दुःखे सौख्ये बन्धुवर्गे रिपो वा
स्वर्ण ताणे वा गृहे प्रेतगेहे। मृत्यूत्पस्योर्वा समन्ताज जिनेन्दो
मध्यस्थं में मानसं साम्प्रतं स्यात् ।। १०॥ माता तातः पुत्रमित्राणि बन्धु
र्भार्याश्याला स्वामिनः सेवकायाः। सर्वे भिन्नाश्चिच्चमत्कारमात्रा
दस्मद्पाच्चिचमत्कार शन्याः॥११॥ मोहध्वान्तेनावृतोवबोधचनः
स्वात्माकारं न स्म पश्यामि जातु । अघोद्भिन्नज्योतिरश्मिप्रजातः
स्वात्माकारं तेन पश्यामि सम्यक् ॥ १२ ॥ रागद्वेषौ निराकृत्य चित्त कृत्वा च सुस्थिरम् ।
सामायिक प्रकर्तव्यं कृतिकर्मपुरस्सरम् ॥ १३ ॥ अर्थ-जीव-जोवपर-प्रत्येक जोवपर मेरा साम्यभाव है, सब जीव भी मुझपर साम्यभावसे युक्त होवे। आर्त और रौद्र इन दोनो ध्यानोको छोडकर मैं साम्यभावरूप सम्यग्भावना करता हूँ। पृथिवो, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा द्वोन्द्रियादिक जो जीवोके भेद हैं वे सब मुझपर क्षमाभावमे युक्त हो क्योकि इस जगत्मे क्षम के तुल्य दूसरा रत्न नही है। दु खमे, सुखमे, बन्धु वर्गमे, शत्रमे, सुवर्णमे, तृण, समूहमे, महलमे, श्मशानमे, मृत्युमे और जन्ममे हे जिनचन्द्र | आपके प्रसादसे मेरा मन इस समय मध्यस्थ भावसे युक्त हो। माता, पिता, पुत्र, मित्र, बन्धु, भार्या, साले, स्वामो और सेवक आदि चैतन्य चमत्कारसे शून्य हैं तथा चैतन्य चमत्कार रूप मेरे स्वरूपसे भिन्न है । मेरा ज्ञानरूपी चक्ष मोहरूपो अन्धकारसे आच्छादित था इसलिये मैं आत्मस्वरूपको नही देख सका। आज मेरी ज्ञान ज्योति उद्भिन्न-प्रकट हुई है, इसलिये मैं अपने आत्माके स्वरूपको अच्छी तरह देख रहा हूँ।
रागद्वेषको दूर कर तथा चित्तको स्थिर कर कृतिकर्म-आवर्त तथा नति पूर्वक यथा समय सामायिक करना चाहिये ।।८-१३ ।। आगे वन्दना नामक आवश्यकका वर्णन करते हैं
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः चतुर्विशतितीर्थेशामकस्य स्तवनं यदा। क्रियते साधुसन्तत्या तदा सा वन्दना स्मृता ॥ १४॥ अर्थ-साधु समूह द्वारा जब चौबीस तीर्थङ्ककरोमेसे किसी एक तीर्थङ्करकी स्तुतिकी जाती है तब वह वन्दना नामक स्तवन माना गया है ॥१४॥
विशेष-इस सदर्भमे कषायपाहुड,प्रथम भाग, पृष्ठ १०२-१०३ पर दिया गया शंका समाधान विशिष्ट रुचिकर है
'एयस्य तित्थयरस्स ममसण वदणा णाम । एक्कजिणजिणालय वंदणा ण कम्मक्खय कुणइ, सेसजिण जिणालयच्चा सण दुवारेणप्पण्णकम्मबंधहेउत्तादो। ण तस्स मोक्खो जइणत्तं वा, पक्खवायदूसियस्स णाणचरणणिबधणसम्मत्ताभावादो तदो एगस्स णमसणमणुववण्ण त्ति'।
शंका-एक जिन और एक जिनालयकी वन्दना कोका क्षय नही कर सकती क्योकि इससे शेष जिन और जिनालयोको आसादनाअपमान होता है। इस आसादनासे अशुभ कर्मोका बन्ध होता है। इसके सिवाय एकको वंदना करने वालेको मोक्ष और जैनत्वको प्राप्ति नही हो सकती। पक्षपातसे दूषित मनुष्यके ज्ञान और चारित्रके कारणभूत सम्यग्दर्शनका अभाव है, अत एक जिन या जिनालयको नमस्काररूप वन्दना नही करनी चाहिये।
एत्थ परिहारो बुच्चदे-ण ताव पक्खवाओ अत्यि, एक्कं चेव जिण जिणालयं वा वदामि त्ति णियमाभावादो। ण च सेस जिणजिणालयाण वदणा ण कया चेव, अणतणाणदंसणविरियसुहादिवारेण एपत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाय सव्वेसि पि वंदणुवत्तीदो। एवं संते ण च चउबीसत्थयम्मि वंदणाए अतम्भावो होदि, दव्वविय पज्जवट्ठियणयाणमेयत्तविरोहादो। ण च सम्वो पक्खवाओ असुह कम्मबंध हेऊ चेवेत्ति णियमो अत्थि, खीणमोहजिणविसयपक्ख वायम्मि तदणु वलभादो। एग जिणवदणाफलेण समाणफलत्तादो ण सेसजिण वंदणा फलवंता, तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणवलं भादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुवयोग पउत्तीए विसेसपरूवणाए असभवादो वा एक्कस्सेव जिणस्स वंदणा कायव्वा त्ति ण एसो वि एयंग्गही कायव्वो, एयंतावहारणस्स सव्वहा दृण्णयत्तप्पसंगादो। तम्हा एव बिह विप्पडिवस्तिणिरायर ण
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षष्ठ प्रकाश
मुहेण एय जिणवंदणाए णिरवज्जभावजाणाषण दुवारेण वंदणा विहाण तप्फलाणं च परूवणं कुणइ ति वंदणाए क्लव्वं ससमओ।
समाधान-उपर्युक्त शकाका परिहार करते हैं-एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे पक्षपात नही होगा क्योकि वन्दना करनेवालेके ऐसी प्रतिज्ञारूप नियम नही पाया जाता कि मैं एक जिण या जिना. लयकी वन्दना करूंगा तथा ऐसा करनेसे शेष जिन और जिनालयोको वन्दना नही को, ऐसा नहीं है। क्योकि अनन्तज्ञान दर्शनवोर्य, सुख आदिके द्वारा सब एकत्वको प्राप्त है अत: एकको वन्दना करनेसे सबकी वन्दना हो जाती है । यद्यपि ऐसा है तो भी चतुर्विशति स्तवमे वन्दनाका अन्तर्भाव नही होता क्योकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयका एकत्व-अभेद माननेमे विरोध आता है। फिर सभी पक्षपात अशुभकर्म बन्धका हेतु भी नही है क्योकि मोहरहित जिनेन्द्र के पक्षपातमे अशुभ कर्मोका बन्ध नहीं होता। एकजिन और सभी जिनोकी वन्दनाका समान फल है। अत. समस्त जिनोको वन्दनाका करना फल सहित नहीं है इसलिये एकको वन्दना करनी चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि छद्मस्थका उपयोग एक साथ सबकी स्तुतिमे लग भी नहीं सकता। अत. एककी हो वन्दना करनी चाहिये, ऐसा एकान्त आग्रह नही करना चाहिये क्योकि एकान्तका आग्रह दुर्णय-मिथ्यानय है। इसलिये उपर्युक्त बाधाओके निराकरणपूर्वक एक जिनको वन्दना निरवद्य है यह बतलानेके लिये वन्दनाका प्रकार और उसके फलका प्ररूपण किया जाता है। एक तीर्थङ्करके स्तवनरूप वन्दनामे महावीर तोर्थङ्करका स्तवन इस प्रकार हैअगाधेभवाब्धो पतन्त जनं यः
समुद्दिश्य तत्त्वं सुखाढ्यं चकार । क्याब्धिः सुखाग्धिः सबासौख्यरूपः
सवीरः प्रवीरः प्रमोवं प्रदद्यात् ॥१५॥ अर्थ-जिन्होंने अगाध-गहरे संसार सागरमें पडते हुए जीवोको तत्त्वका उपदेश देकर सुखी किया था, जो दयाके सागर थे, सुखके समुद्र थे तथा सदा सुख स्वरूप थे वे अतिशय शूरवीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्दको प्रदान करें॥१५॥
बातशय दयाको मागाव ये भगवान्
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः विदग्धोऽपिलोका कृतो येन मुग्धः
सकामःप्रकामं रतं चात्मतत्त्वे । न शक्तो बभूव प्रजेतुं मनाग यं
सवीर प्रवोर प्रमोद प्रवद्यात् ॥१६॥ अर्थ-जिसके द्वारा चतुर मनुष्य भो मुग्ध-मूढ कर दिये गये थे वह काम आत्मतत्त्वमे लीन रहने वाले जिन्हे जीतनेके लिये कुछ भी समर्थ नहीं हो सका था वे अतिशय शूरवोर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्दको प्रदान करे॥१६॥ जगज्जीवधातीनि घातीनि कृत्वा ।
हतान्येव लेभे परं ज्ञानतत्त्वम् । अलोकंच लोकं ददर्शात्मना यः
सवीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रपद्यात् ॥ १७ ॥ अर्थ-जगत्के जीवोका घात करने वाले घातियाकर्मोको नष्ट करके हो जिन्होने उत्कृष्ट ज्ञानतत्त्व-केवलज्ञानको प्राप्त किया था और अपने आपके द्वारा जिन्होने लोक अलोकको देखा था वे अतिशय शूरवोर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करे ॥ १७ ॥ सशिष्यः स विप्रो गुरुगों तमोय
समासीनमाराद् विलोक्यवनूनम् । मदं भूरिमानं मुमोच स्वकीयं
सवीरः प्रवीर प्रमोद प्रवद्यात् ॥ १८ ॥ अर्थ-शिष्यो सहित गुरु गौतम ब्राह्मणने समवसरणमे विराजमान जिन्हे दूरसे ही देखकर निश्चित है अपना बहुत भारो अहकार छोड दिया था वे अत्यन्त शूरवोर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥१८॥ सुरेन्द्रानुगेनालकानामकेनाss
कृतास्थानभूमि समास्थाय दिव्यः। वचोभिर्य ईशो विदेशार्थसार्थ
सवोरःप्रवीरः प्रमोद प्रवधात् ॥ १९॥ अर्थ-इन्द्रके अनुगामी-आज्ञाकारी कुबेरके द्वारा निर्मित समवसरणमे विराजमान होकर जिन्होने दिव्यध्वनिके द्वारा पदार्थ समूहका उपदेश दिया था वे अतिशय शूरवोर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करे ॥१६॥
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षष्ठ प्रकाश
विहृत्यार्यखण्डे सुधर्मामृतस्य
प्रवृष्ट्या समग्ताज्जगज्जीवसस्यान् । प्रवृद्धान् चकारारूपोऽधिपो यः
स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ॥ २० ॥
अर्थ – जिन्होने आर्य खण्डमे विहारकर सद्धर्मरूप अमृतकी वर्षा - से सर्वत्र जगत् के प्राणीरूप धान्योको बढाया था, इस तरह जो मेघस्वरूप थे वे अतिशय शूर-वीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ २० ॥
अनेकान्तदण्डः प्रचण्डरखण्ड:
विभेदाशु यस्य प्रकृष्टः प्रभावः
समुद्दण्डवादिप्रवेतण्डगण्डान् ।
स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदद्यात् ॥ २१ ॥
अर्थ - जिनके प्रकृष्ट प्रभावने शक्तिशाली एव अखण्डित अनेकान्तरूपी दण्डोके द्वारा बडे-बडे वादीरूपी हस्तियोके गण्डस्थलोको शीघ्र हो विदोणं किया था वे अतिशय शूर-वीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ २१ ॥
ततो व्यानरूपं निशातं विसातं
कृपाणं स्वपाणौ य आवाय सद्य ।
अघातीनि हत्वा बभूव प्रमुक्त
स वीर प्रवीर. प्रमोदं प्रदद्यात् ॥ २२ ॥ अर्थ - तदनन्तर ध्यानरूपी तीक्ष्ण अत्यन्त शुक्ल कृपाणको हाथमे लेकर अघातिया कर्मोका नाशकर जो मुक्त हुए थे वे अत्यन्त शूर-वीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्द प्रदान करें ॥ २२ ॥
अयामन्दमानन्दमाद्यन्तहीनं
निजात्मप्रजातं ह्यनक्षं समक्षम् ।
चिरं यश्च भेजे निजे नजरूपं
स वीरः प्रवीरः प्रमोदं प्रदधात् ॥ २३ ॥
अर्थ -- मुक्त होनेके बाद जो अनादि, अनन्त, निजात्मासे उत्पन्न, अतीन्द्रिय, आत्मरूप एवं प्रत्यक्ष बहुत भारी मानन्दको प्राप्त हुए थे वे अत्यन्त शूरवीर महावीर भगवान् श्रेष्ठ आनन्दको प्रदान करें ।। २३ ।।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
वन्दना आवश्यकमें एक जिनके सिवाय अन्य गुरुजनोकी वन्दना की जाती है, यह कहते हैं
सूरीणां वा गुरूणां वा प्रतिमानां च भक्तित । वन्दना मुनिभि कार्या यथाविधियथागमम् ॥ २४ ॥ पञ्चषट्सप्तहस्तंश्च दूरस्थाचायिका क्रमात् । सूरि बहुश्रुतं साधूनन्यान् वन्देत भक्तित ॥ २५ ॥
अर्थ - आचार्यों, गुरुओं तथा प्रतिमाओको भी वन्दना मुनियोको आगमके अनुसार यथाविधि भक्तिपूर्वक करना चाहिये । आर्यिका पाच हाथ दूर बैठकर आचार्यकी, छह हाय दूर बैठकर उपाध्यायकी और सात हाथ दूर बैठकर अन्य साधुओको भक्तिपूर्वक वन्दना करे ।। २४-२५ ।।
आगे गुरु वन्दना अवसर और विधिका वर्णन करते हैं
व्याक्षिप्तं वा परावृत्तं निद्रादिनिरतं तथा । आहारं वाथ नीहार कुर्बन्तं संयतं जनम् ॥ २६ ॥ न वन्देत मुनि क्वापि वन्दनायां समुद्यतः । प्रतीक्ष्य समयस्तेन वग्दनायां समर्थित ॥ २७ ॥ आसनस्थोगुरुर्वन्द्य सम्मुखस्थश्च शान्तहृद् । तस्यानुज्ञां समादाय वन्दनां विदधीत सः ॥ २८ ॥ आलोचना विधानेषु प्रश्नानां चापि प्रच्छने । स्वेनापराधे सञ्जाते पूजास्थाध्याययोस्तथा ॥ २९ ॥ वन्दना मुनिभि कार्या कृतिकर्मपुरस्सरम् । प्रतिक्रमे च चत्वारि स्वाध्याये त्रीणि साधुना ।। ३० ।। कृतिकर्माणि कार्याणि पूर्वा चापराह्न । यथाविध्येवकार्याणि प्रभवन्ति फलाय हि ॥ ३१ ॥ अर्थ - जिस समय संयत जन व्याक्षिप्त-अन्यमनस्क हो विपरीत मुख कर बैठे हो, निद्रामे निरत हो, आहार या नीहार कर रहे हो, उस समय वन्दनामे तत्पर साधु कही भी उनकी वन्दना न करे किन्तु वन्दनाके योग्य अवसरको प्रतीक्षा करे । जब गुरु आसनपर बैठे हो, सम्मुख हो और शान्त हृदय हो तब उनको आज्ञा लेकर बन्दना करनी चाहिये | अपने द्वारा अपराध हो जानेपर अथवा पूजा और स्वाध्याय के समय मुनियोको कृतिकर्मके साथ वन्दना करनी चाहिये । प्रतिः
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षष्ठ प्रकार क्रमणमें चार और स्वाध्यायमे तोन कृतिकर्म करना चाहिये। ये कृतिकम पूर्वाह्न और अपराह्न-दोनो समय होते हैं तथा दोनोंके मिल कर चौदह होते हैं। विधिपूर्वक ही किये गये कार्य फल देनेमे समर्थ होते हैं। कृतिकर्मका विशेष स्पष्टीकरण प्रतिक्रमण आवश्यकके वर्णनमे किया जायगा ॥ २६-३१ ॥ आगे स्तुति आवश्यकका कथन करते हैं
चतुविशति तीर्थेशां धर्मचक्रप्रवतिनाम् ।
स्तुतिर्या विविधतस्तत्स्तुत्यावश्यकं मतम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-धर्मचक्रके प्रवर्तक चौबीस तीर्थङ्करोकी नाना छन्दो द्वारा स्तुतिकी जाती है, वह स्तुति नामक आवश्यक है ।। ३२॥
विशेष-इस सन्दर्भमे कषायपाहुड प्रथम भाग (पृ०६१-६२-६३ ) का शंका समाधान विशिष्ट रुचिकर है
'चउवोस वि तित्थयरा सावज्जा, छज्जीवविराहणहेउसावयधम्मोवएस कारित्तादो। त जहा-दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउ. विहो सावयधम्मो। एसो चउविहो वि छज्जीव विराहओ, पयण पायणग्गि सधुक्षण-जालण-सूदि-सूदाणादि वाबारेहि जोवबिराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदण-छिंदावणिपादणपादावण-तद्दहण दहावणादि वावारेण छज्जीव विराहण हेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो । ण्हवणोवलेवण-समज्जणछुहावण-फुल्लारोवण-धूवदहणादि वावारेहि जीववहाविणाभावीहि विणा पूजकरणाणुववतोदो च । कथ सोलरक्खणं सावज्ज ? ण, सदारपोडाए विणा सोलपरिपालणाणुववत्तोदो। कथ उववासो सावज्जो ? ण, सपोट्टत्थ पाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। थावरजोवे मोत्तूण तसजीवे चेव मा मारेहु ति सावियाण मुवदेसदाणदो वाण जिणा णिरवज्जा। अणसणोमोदरिय-उत्तिपरिसंखाण-रसपरिच्चाय-विवित्त-सयणासण-रुक्ख मूलादावणब्भोवासुक्कुडासण-पलियंकद्धपलियंक-ठाण-गोणवोरासण-विणय-वेज्जावच्च-सज्झाय-शाणादिकिलेसेसु जोवे पयिसारिय खलियारणादो वा ण जिणा हिरवज्जा तम्हा ते ण वदणिज्जा ति ?
एत्य परिहारो उच्चदे-तं जहा-जइ वि एवमुवदिसंति तित्ययरा तो वि ण तेसि कम्मबंधो अस्थि, तत्थ मिच्छत्ता संजमकसायपच्चयाभावेण वेयणोयवज्जा सेस कम्माणं बंधाभावादो। वेयणोयस्स विणट्ठिदि अणुभागबधा अस्थि, तत्थ कसाय पच्चया भावादो। जोगो अस्थि त्ति
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः ग तत्थ पयडिपदेस बंधाणमस्थित्तं वोत्तुं सकिज्जदे ? छिदिबंधेण विणा उदयसरूवेण आगच्छमाणाणं पदेसाणमुवयारेण बधववएसुवदेसादो। ण च जिणेसु देस-सयलधम्मोव देसेण अज्जिय कम्मसंचओ वि अस्थि, उदयसरूव कम्मागमादो असंखेज्जगुणाए सेढोए पुव्वसंचिय कम्म णिज्जरं पडिसमय करेंतेसु कम्मसंचयाणुववत्तीदो। ण च तिस्थयरमण वयण-कायवत्तीओ इच्छा पुब्वियामो जेण तेसि बंधो होज्ज, किंतु दिणपर-कप्परुक्खा णं पउत्तिओ ध्व वयि ससियाओ।
शङ्का-चौबीसो तीर्थङ्कर सावद्य-सदोष हैं क्योकि वे षट्कायिक जीवोको विराधनामे कारणभूत श्रावक धर्मका उपदेश करते हैं। जैसेदान, पूजा, शील और उपवास-यह चार प्रकारका श्रावकधर्म है। यह चारो प्रकारका श्रावक धर्म षट्कायिक जीवोका विराधक है। भोजन का स्वयं पकाना, दूसरोसे पकवाना, अग्निका धोकना, जलाना, खूतना तथा खूतवाना आदि कार्योसे जीवविराधनाके बिना दान नहीं बनता। इसी प्रकार वृक्षोका काटना, कटवाना, ईंटोका गिराना, गिरवाना तथा उनको पकाना पकवाना आदि षट्कायिक जीवोके विराधनाके कारणभूत व्यापारके बिना जिन भवनका स्वयं बनाना तथा दूसरोसे बनवाना नहीं हो सकता। अभिषेक, उपलेपन, सम्मान, चन्दन लगाना, फूल चढाना तया धूप जलाना आदि जीववधके अविनाभावी कार्योंके बिना पूजाका करना नहीं बनता। अच्छा, शीलरक्षा सदोष क्यो है ? ऐसी बात नहीं है क्योकि स्वस्त्रीको पीडा पहंचाये बिना शीलको रक्षा नही हो सकती। उपवासका करना सदोष क्यो है ? अपने पेटमे स्थित जीवोको पोड़ा पहुंचाए बिना उपवास नही हो सकता। अथवा स्थावर जीवोको छोड़कर त्रस जोवोको मत मारो ऐसा श्राविकाओके लिये उपदेश देनेसे तीर्थङ्कर सावद्य-सदोष है । अथवा अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसख्यान, रस. परित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाशयोग, उत्कुटासन, पर्यडासन, अर्धपर्यड्डासन, खङ्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय तथा ध्यान आदिसे होनेवाले क्लेशोमे जीवोको डालकर उन्हे ठगनेसे जिन निरवद्य नहीं हैं अत. वन्दनीय-स्तुति करने योग्य नहीं हैं।
समाधान-यहां पूर्वोक्त शड्काका परिहार करते हैं-यद्यपि तीर्थकर ऐसा उपदेश देते हैं तो भी उनके कर्मबन्ध नही होता। क्योकि वहाँ मिथ्यात्व, असंयम और कषायरूप प्रत्यय कारणका अभाव होनेसे वेद
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षष्ठ प्रकाश नोयको छोड समस्त कर्मोके बन्धका अभाव है। वेदनोयके भो स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं है क्योकि कषायरूप प्रत्ययका अभाव है। योग है, इसलिये प्रकृति प्रदेश बन्धका अस्तित्व है यह नहीं कहा जा सकता, क्योकि स्थितिबन्धके बिना उदयरूपसे आनेवाले प्रदेशोमे उपचारसे ही बन्धका उपदेश है। यह भी कहना ठीक नहीं है कि उनके देश चारित्र और सकल चारित्रका उपदेश देनेसे अर्जित कर्मोंका संचय है, क्योंकि प्रत्येक समय उदयरूपसे जितने कर्म आते हैं उनसे असंख्यातगुणी कर्म निजरा प्रत्येक समय वे करते हैं। इसके सिवाय तोथंकरोके मन-वचनकायको प्रवृत्तियाँ भी इच्छापूर्वक नही होती किन्तु सूर्य और कल्पवृक्षकी प्रवृत्तियोके समान वैनसिक-स्वाभाविक है। आगे विविध छन्दोमे वृषभादि तीर्थंकरोकी स्तुति करते हैंयेन क्षितावसिमषीप्रभृती! सुवृत्तीः
संदिश्य कापि विहितोपकृतिर्जनानाम् । कल्पाघ्रिनाशमरणोन्मुखजीविताना.
मादीश्वरोऽवतु सतां सुखदा धियं सः॥ ३३ ॥ अर्थ-जिन्होने पृथिवीपर कल्पवृक्षोके नष्ट होनेसे मरणोन्मुख जीवोके लिये असि, मषो आदि वृत्तियोका उपदेश देकर उनका बहुत भारी उपकार किया था, वे आदीश्वर -भगवान् वृषभदेव सत्पुरुषोको सुखदायक लक्ष्मोकी रक्षा करे ॥ ३३ ॥
यो नो जितः कर्मकलापकेन जितत्रिलोकीगतजन्तुकेन । जेतारमीशं रिपुजालकस्याजितं मुवा तं प्रणमामि नित्यम् ॥ ३४ ॥
अर्थ-तीन लोकके समस्त जीवोको जोतनेवाले कर्मसमूहके द्वारा जो नहो जोते जा सके उन शत्रुसमूहके विजेता अजितनाथ भगवान्को मै हर्षपूर्वक नित्य ही प्रणाम करता हू ॥ ३४ ॥ संसारतापविनिपातपयोदरूपं
जन्माधिमग्नजनसंतरणं सुरूपम् । मिथ्यान्धमोहहननाय सहस्ररश्मि
त शंभवं ह्यमितसंविभवं नमामि ॥ ३५ ॥ अर्थ-जो संसार-पञ्च-परावर्तनरूप संतापको नष्ट करनेके लिये मेघरूप है, संसारमे निमग्न जोवोको तारने वाले हैं, सुरूप-अतिशय सन्टर हैं मिथ्यात्वरूपी गाढ अन्धकारका नाश करनेके लिये सर्य हैं
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सम्यक्चारित्न-चिन्तामणि तथा अपरिमित समोचीन वैभवके स्वामी हैं उन शंभवनाथ भगवान्को मैं नमस्कार करता हू ।। ३५ ॥ कर्मारिदुःखीकृतमानसान्योऽभिनन्दयामास शिवप्रदानात् । भक्त्याभृतोऽहं जगदेकबन्धुं नमामि नित्य ह्यभिनन्दनं तम् ।। ३६ ।।
अर्थ-जिन्होने मुक्ति प्रदानकर कर्मरूप शत्रुओसे दुखित जोवोको अभिनन्दित किया था तथा जो जगत्के एक अद्वितीय बन्धु थे उन अभिनन्दन भगवान्को मैं भक्तिपूर्ण हो नित्य ही नमस्कार करता हू ॥ ३६॥ भोगाभुजङ्गा न विवेकद्धिनिषेवणीया विषमा यतस्ते । एतत् समादेशि हि येन तत्त्वं जिनं सदा त सुमति समीडे ॥ ३७॥ ___ अर्थ-विवेकी मनुष्यो द्वारा भोगरूपो भुजङ्ग-नाग सेवनोय नही है क्योकि वे विषम है, यह तत्त्व-सारगर्भित बात जिन्होने कहो थी उन सुमति जिनेन्द्रको मैं सदा स्तुति करता हूँ। ३७ ॥ देहप्रमान्यक्कृतपनपत्रं पशवन्ध कमलालयाढचम्। तं भव्यपधाकरपाबन्धु पपप्रमं सम्प्रणमामि नित्यम् ॥ ३८॥
अर्थ-जिन्होने शरीरको प्रभासे लाल कमलदलको तिरस्कृत कर दिया था, जो लक्ष्मीपति नारायणके द्वारा वन्दनीय थे, स्वय लक्ष्मोसे सहित थे तथा भव्यजीवरूप कमलवनको विकसित करनेके लिये जो सूर्य थे उन पद्यप्रभ भगवान्को मैं नित्य ही प्रणाम करता हूँ॥ ३८ ॥ कृपाण स्वपाणी समाधिस्वरूप गृहीत्वा समूलं हता येन वल्ली। जराजन्ममृत्युस्वरूपा विरूपा सुपार्श्व तमीश भजे भक्तिभावात् ॥ ३९ ॥
अर्थ-जिन्होने शुक्लध्यानरूपी कृपाणको अपने हाथमे लेकर जन्म जरामृत्युरूपी कुरूप लताको जड सहित काट डाला था उन सुपार्श्वनाथ भगवान्की मै भक्तिपूर्वक आराधना करता हूँ ॥ ३६॥ यस्यास्यकान्त्या जितचन्द्रमा स दिने दिने क्षोणतरीभवन् । मन्ये ममज्जाब्धिजले सलजश्चन्द्रप्रभ तं प्रणमामि नित्यम् ॥ ४०॥ ___ अर्थ-जिनके मुखको कान्तिसे पराजित हुआ वह चन्द्रमा प्रतिदिन क्षीण होता हुआ मानो लज्जित होकर ही समुद्रमे मग्न हो गया था, उन चन्द्रप्रभ भगवान्को मैं नित्य ही प्रणाम करता हूँ॥४०॥ अयि कथ सुविधे वरबोधमाक्
विरलवाक् स्तवनं विदधामि ते ।
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षष्ठ प्रकाश
सुगुणरत्नगिरेऽमितवाक्पते
भवतु मां घिगिमा च सुरश्रियम् ॥४१॥ इति म विजही सुरशासनो गुरुयुतोऽपि यदीयगुणस्तुतो। निरवधि शुभषि गुणशेवर्षि हतविधि सुविषि विनमामि तम् ।। ४२ ।।
(युग्मम् ) अर्थ-हे सुगुणरूप रत्नोके गिरि । हे अपरिमित वचनोके स्वामी! हे सुविधिनाथ भगवान् । अल्पज्ञानी तथा अल्पशब्दोसे सहित मैं आपको स्तुति कैसे कर सकता हूँ? इस प्रकार वृहस्पतिसे सहित होने पर भी इन्द्रने जिनकी स्तुतिमे मद-गर्व छोड़ दिया था उन असीम, कल्याणके धारक, गुणोके निधि तथा कर्मोको नष्ट करनेवाले सुविधिनाथ भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ। ४१-४२ ॥
इष्टानिष्टवियोगप्रयोगसन्तापतप्तजनतानाम् । मेघायितं हि येन प्रवन्दनीयः स शीतलः सततम् ॥ ४३ ॥
अर्थ- इष्टवियोग और अनिष्ट सयोगरूप संतापसे सतप्त जनसमूहके लिये जिन्होने मेघके समान आचरण किया था, वे शीतलनाथ भगवान् सदा वन्दनीय हैं ॥ ४३ ॥ येन स्वयं बोधमयेन लोके प्रकाशितः श्रेष्ठशिवस्य पन्थाः। श्रेयः पवप्रापणहेतुभूतं जिनं तमेकादशमानमामि ॥ ४४ ॥
अर्थ-स्वय ज्ञानमय रहनेवाले जिन्होने जगत्मे मोक्षका मार्ग प्रकाशित किया था तथा जो कल्याणकारी पद-मोक्षकी प्राप्तिमे कारणभूत है उन ग्यारहवे भगवान् श्रेयोनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४४॥ जयति जनसुवन्धश्चिच्चमकारनन्धः
शमसुखभरकन्दोऽपास्तकर्मारिवन्दः । निखिलगुणगरिष्ठः कीर्तिसत्तावरिष्ठः
सकलसुरपपूज्यो वासुपूज्यो जिनेन्द्रः ॥ ४५ ॥ अर्थ-जो मनुष्योके द्वारा वन्दनीय है, चैतन्य चमत्कारसे नन्दनीय हैं, शान्ति सुख-समूहके कन्द है, कमरूप शत्रुओके समूहको नष्ट करनेवाले हैं, समस्त गुणोसे श्रेष्ठ हैं, कीतिक सद्भावसे महान हैं और समस्त इन्द्रोसे पूज्य है वे वासुपूज्य जिनेन्द्र जयवन्त प्रवर्तते हैं ॥ ४५ ॥ वरबोषविरागशरेण हि यः सकलं शकलीकृतवानहितम् । निजकर्ममलं तमहो सतत ह्यमल विमल बिनमामि मुनिम् ॥ ४६॥
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२
सम्यक्चारित्न-चिन्तामणि
अर्थ-जिन्होने अपने कर्ममलरूपो समस्त शत्रुको उत्कृष्ट ज्ञान और वैराग्यरूपी बाणके द्वारा खण्ड-खण्ड कर दिया था उन निर्मलविमलनाथ मुनीन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ॥४६॥ प्राप्तो न पारो विदुषां समूहैर्यदीयसज्ज्ञानसरस्वतो वं। नौम्यर्चनीयं जगतीपति तमनाद्यनन्त जिनपं ह्यनन्तम् ।। ४७ ॥
अर्थ-विद्वानोके समूहोने जिनके सम्यग्ज्ञानरूपी सागरका पार प्राप्त नही कर पाया उन पूजनीय, जगत्के स्वामी तथा ( द्रव्यार्थिक नयसे ) अनाद्यनन्त अनन्तनाथ जिनेन्द्रको मै स्तुति करता हूँ॥ ४७ ॥ संसारसिन्धोविनिमग्न जन्तूनुद्धृत्य यो मुक्तिपदे बधार । त धमसंज्ञैः सहितं क्षमायेनौम्यात्मनोन मुनिधर्मनाथम् ॥ ४८॥
अर्थ-जिन्होने संसार-सागरसे डूबे हुए जीवोको निकालकर मोक्षस्थानमे पहुँचाया था तथा जो क्षमा आदि धर्मोसे सहित थे उन आत्महितकारी धर्मनाथ जिनेन्द्रकी में स्तुति करता हूँ॥४८॥ यस्य पुरस्ताद्रिपुवरनाथा नो स्थिरता समरे समवापुः। चक्रकर सुखशान्तिकरं तं शान्तिजिनं सतत प्रगतोऽस्मि ॥ ४९ ॥
अर्थ-जिनके आगे युद्धमे बडे-बड़े शत्रु राजा स्थिरताको प्राप्त नही हो सके थे, जिनके हाथमे चक्ररत्न था तथा जो सुख और शान्तिके करनेवाले थे उन शान्ति जिनेन्द्रके प्रति म नित्य हो प्रणत-नम्रीभूत
ररक्ष कुन्थुप्रमुखान् सुजीवान दयाप्रतानेन दयालयो यः । सकुन्थुनाथो दयया सनाथः करोतु मां शीघ्रमहो! सनाथम् ॥ ५० ॥ ____ अर्थ-दयाके आधारस्वरूप जिन्होने दयाके प्रसारसे कुन्थु आदि जीवोकी रक्षाको थो तथा जो दयासे सनाथ-सहित थे वे कुन्थनाथ भगवान् मुझे सनाथ-अपने स्वामित्वसे सहित करे ॥ ५० ॥ प्रहतं रिपुचक्रमर सुदृढ वरयोगधरेण हि येन ततम् । तमर भगवन्तमहं सततं विरतं जगतः प्रणमामि हितम् ।। ५१॥
अर्थ-उत्कृष्टयोग-ध्यानको धारण करनेवाले जिन्होने सुदढशक्तिशालो शत्रु समूहको शीघ्र ही नष्ट कर दिया था उन जगत्से विरक्त हितकारी अर जिनेन्द्रको मैं नित्य हो प्रणाम करता हूँ ।। ५१॥
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षष्ठे प्रकाश
मोहमल्लमदमेवनधोरं कीर्तिगान मुखरीकृतवीरम् । खगविनिपातितमारं तं नमामि वर मल्लिजिनेन्द्रम् ॥ ५२ ॥
अर्थ - जो मोहरूपी मल्लका गर्व खण्डित करनेमे धोर थे, जिन्होने अपने कीर्तिगानसे वीरोको मुखर किया था अर्थात् बडे-बडे वीर जिनका कीर्तिगान किया करते थे और जिन्होने धैर्यरूपी खड्गके द्वारा कामको मार गिराया था उन मल्लि जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५२ ॥ मन्ता यो वे वेबस्वार्थबोषाद हिंसादीनां ध्वंसतः सुव्रतश्च । तं तीर्थेश भग्नकर्मारिशोषं भक्त्या नम्रः सुव्रतं सनमामि ॥
।
५३ ॥
अर्थ - जो आगम प्रतिपादित तत्त्वार्थके जानकार होने से मन्ता - मुनि हैं तथा हिंसादि पापोका नाश करनेसे सुव्रत हैं एव जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओके शिरको भग्न कर दिया है उन मुनि सुव्रत तोर्थङ्करको में भक्तिसे नम्र हो नमस्कार करता हूँ ॥ ५३ ॥ सकलबोधधरं गुणिनां वरं हितकर जगतां शमताकरम् । स्थिरतया जितमेरुमहीधरं नमिजिनं जिनमामि निरन्तरम् ॥ ५४ ॥ अर्थ - जो पूर्ण ज्ञानके धारक थे, गुणी जनोमे श्रेष्ठ थे, जगत्का हित करनेवाले थे, शान्तिके आकर थे और जिन्होने स्थिरताके द्वारा मेरु पर्वतको जीत लिया था उन नमिनाथ जिनेन्द्रको में निरन्तर नमस्कार करता हूँ ॥ ५४ ॥
बुधाधिनाथम् ।
विज्ञानलोकत्रितयं समन्तादनन्तबोधेन तं माननीय मुनिनाथनेमि नमाम्यहं धर्मरथस्य नेमिम् ॥ ५५ ॥ अर्थ- जिन्होने अनन्तज्ञान - केवलज्ञानके द्वारा तोनो लोकोको सब ओर से जान लिया था, जो ज्ञानीजनोके स्वामी थे तथा धर्मरूपी रथके नेमि-प्रवर्तक थे उन माननीय नेमिनाथ भगवान्को मै नमस्कार करता हूँ ॥ ५५ ॥
येनातिमानः कमठस्य मानो यस्तोऽसमस्थंयंगुणाणुर्नव । बेहप्रभादीपित पार्श्वदेश तं पार्श्वनाथं सततं नमामः ॥ ५६ ॥
अर्थ – जिन्होने अपने धैर्यं गुणके अंशमात्रसे कमटके बहुत भारी मानको नष्ट कर दिया था, शरीरको प्रभासे निकटवर्ती प्रदेशको देदोप्यमान करनेवाले उन पार्श्वनाथ भगवान्को हम नमस्कार करते हैं ॥ ५६ ॥ यं जन्मकल्याणमहोत्सवेषु सुराः समागत्य सुरेशलोकात् । क्षीरा विधनीरैरबिमेरुशृङ्गं समभ्यसिञ्चम् वरभक्तिभावात् ॥ ५७ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
त वर्धमान मुवि वर्धमानं श्रेयः श्रिया ध्वस्तसमस्तमानम् । भक्त्याभूतः सम्मुदितश्च नित्यं नमाम्यह तीर्थङ्कर समर्थ्यम् ॥ ५८ ॥ ( युग्मम् )
अर्थ - जन्म कल्याणक सम्बन्धी महोत्सवोमे देवोने स्वर्गसे आकर मेरु पर्वतकी शिखरपर क्षीर सागरके जलसे जिनका बहुत भारी भक्तिभावसे अभिषेक किया था, जो पृथिवोमे कल्याणकारी लक्ष्मीसे बढ रहे थे और जिन्होने सबके अभिमानको नष्ट कर दिया था उन पूज्य वर्धमान तीर्थङ्करको मै भक्ति से परिपूर्ण तथा हर्षसे युक्त होता हुआ नमस्कार करता हूं ।। ५७-५८ ॥
इति हि विहितां भक्त्या तीर्थकृतां सुखदायिनों
अमरपतिभिः प्रार्थ्यां स्तोत्रत्रज पठतीह यः । मुदितमनसा नित्य धीमान् स भव्य शिखामणिः
व्रजति सहसा स्वात्मानन्दं मन्दतरं सुधीः ॥ ५९ ॥ अर्थ - इस प्रकार भक्तिसे निर्मित, सुखदायक और इन्द्रोके द्वारा प्रार्थनीय तीर्थङ्करोकी स्तोत्र मालाको जो बुद्धिमान् प्रसन्न चित्तसे निरन्तर पढता है वह उत्तम बुद्धिका धारक, श्रेष्ठ भव्य शीघ्र हो बहुत भारी स्वात्म सुखको प्राप्त होता है ॥ ५६ ॥
आगे जिन स्तुतिकी महिमा बतलाते है
रागद्वेषव्यतीतेषु सिद्धार्हत्परमेष्ठिषु । सूर्युपाध्यायसङ्घेषु श्रमणेषु महत्सु च ॥ ६० ॥ क्षमाप्रभृतिधमषु द्वादशाङ्गभूतेषु च । यः सम्यग्दृशो रागः स प्रशस्तः समुच्यते ॥ ६१॥ तेषामभिमुखत्वेन सिद्धचन्त्यत्र मनोरथाः । एष रागः सरागाणा सुदृशा शिवसाधकः ॥ ६२ ॥ अभावान्मोक्षकारक्षाया निदान नंव मन्यते । काङ्क्षण भाविभोगानां निदान मुनिभिर्मतम् ॥ ६३ ॥ अर्थ - राग-द्वेषसे रहित सिद्ध तथा अरहन्त परमेष्ठियोमे, आचार्य उपाध्याय के सोमे, महामुनियोमे, क्षमा आदि धर्मोमे तथा द्वादशाङ्ग श्रुतो सम्यग्दृष्टि जोवका जो राग है वह प्रशस्त राग है। इन सबको अभिमुखता - भक्ति से इस जगत्मे मनोरथ सिद्ध होते हैं । सराग सम्यग् - दृष्टियोका यह राग परम्परासे मोक्षका साधक है । भोगाकाक्षाका
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षष्ठं प्रकाश अभाव होनेसे यह निदान नही माना जाता क्योकि मुनियोंने आगामो भोगाकाक्षाको निदान माना है ।। ६०-६३ ।। आगे प्रतिक्रमण आवश्यकका वर्णन करते है
जातादृष्टस्वभावोऽयमात्मा मोहोवयाचदा। स्वभावाद्विच्युतो भूत्वा प्रमादापतितो भवेत् ॥ ६४ ॥ तदा स्वभावमास्पृश्य प्रमाबाज ज्ञो निवर्तते। तपस्विनः प्रयासोऽसौ प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ६५॥ देवसिकादिभेदेन सप्तधा जायते तु तत् । विवसस्यापराधेषु कृतं देवसिकं मतम् ॥ ६६ ॥ निशाया अपराधेषु कृतं तन्नेशिकं स्मृतम् । पक्षोद्भवापराधेषु विहितं पाक्षिक भवेत् ॥ ६७ ॥ चतुर्मासापराधेषु चातुर्मासिकमुच्यते । संवत्सरापराधेषु साम्वत्सरिकमिष्यते ॥ ६८ ॥ ईर्याया अपराधेषु स्यादीपिथिकं तु तत् । सन्यासे सस्तरारोहात्पूर्व गुरुपुर स्थितः ॥ ६९ ॥ यावज्जीवापराधानां क्रियते यनिवेदनम् । ओत्तमातिनाम्ना तत् प्रसिद्ध भुवि वर्तते ॥ ७० ॥ सोकर्यायेह साधूनामेकः पाठः प्रदीयते। वचसा पाठमात्रेण न भवेच्छतिरात्मनः ।।७१॥ मनःशुद्धि विधायव तत्पाठः कार्यकृद् भवेत् ।
कर्मास्त्रवनिरोधाय मनसशुद्धिरिष्यते ॥७२॥ अर्थ-ज्ञाताद्रष्टा स्वभाववाला यह आत्मा जब मोहके उदयसे स्वभावसे च्युत हो प्रमादमे आ पड़ता है तब ज्ञानो पुरुष स्वभावसे सम्बन्ध स्थापित कर प्रमादसे दुर हटता है। तपस्वीका यह प्रयास हो प्रतिक्रमण कहलाता है। देवसिक आदिके भेदसे यह प्रतिक्रमण सात प्रकारका होता है। दिवस सम्बन्धी अपराधोमे जो किया जाता है वह देवसिक प्रतिक्रमण माना गया है। रात्रि सम्बन्धो अपराधोके विषयमे जो किया जाता है वह नैशिक प्रतिक्रमण माना गया है। पक्षके भीतर होनेवाले अपराधोके विषयमे जो किया जाता है वह पाक्षिक प्रतिक्रमण है। चार मास सम्बन्धी अपराधोके विषयमे किया गया चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है । एक वर्ष के अपराधोंके विषयमे किया गया साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण माना जाता है। ईर्यागमन सम्बन्धो अपराधोके विषयमे
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि किया गया ईर्यायिक प्रतिक्रमण है और संन्यासके समय संस्तरपर आरूढ होनेके पूर्व गुरु निर्मापकाचार्यके सम्मुख बैठकर जोवन भरके अपराधोका जो निवेदन किया जाता है वह भोतमार्थ प्रतिक्रमण, इस नामसे पृथिवीपर प्रसिद्ध है। ____साधुओकी सरलताके लिये एक पाठ दिया जाता है सो वचनोके पाठ मात्रसे आत्माको शुद्धि नहीं होती। मनको शुद्धिके साथ दोषको शुद्धिके लिये उस पाठका पढना कार्यकारी होता है। परमार्थ यह है कि मनको शुद्धि हो कर्मास्रवके रोकनेमे समर्थ मानो गई है ॥ ६४-७२॥ कालावनन्ताद् धमता समन्ताद
दु.खातिभारं भरता भवेऽस्मिन् । सौभाग्यभागोदधतो मर्यषा
निर्ग्रन्थमुद्रा सुखदा सुलब्धा ।। ७३ ॥ अर्थ-अनन्तकालसे सब ओर-चारो गतियोमे परिभ्रमण करते तथा दु.खके बहुत भार उठाते हुए मैंने इस भवमे सौभाग्यके कुछ उदयसे यह सुखदायक निर्ग्रन्थ मुद्रा प्राप्त की है ।। ७३ ॥ सर्वज्ञ ! सर्वत्रविरोधशन्य !
चञ्चदयासागर ! हे जिनेन्द्र !! कायेन वाचा मनसा मया यत्
__ पापं कृतं दत्तजनातितापम् ॥ ७४ ॥ भूत्वा पुरस्ताद् भवतो विनीतः
सर्व तदेतन्निगदामि नाथ ।। कारुण्यबुद्धचा सुभृतो भवांश्च
मिध्यातवहो विदधातु धात ॥७५ ॥ अर्थ-हे सर्वज्ञ | हे सर्वत्र विरोध रहित । हे दयाके सागर । हे जिनेन्द्र ! मैने मन, वचन, कायसे मनुष्योको अत्यन्त संताप देनेवाला जो पाप किया है उस सबको आपके सामने नम्र होकर कहता हूँ। हे नाथ | आप करुणा बुद्धिसे परिपूर्ण है, अत हे विधाता ! मेरा वह पाप मिथ्या हो ॥ ७४-७५ ॥ क्रोधेन मानेन मदेन माया
भावेन लोभेन मनोभवेन । मोहेन मात्सर्यकलापकेना.
शर्मप्रदं कर्म कृत सदा हा ।। ७६ ॥
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पहा प्रकार
मर्म-दुख है कि मैने क्रोधसे, मानसे, मदसे, मायाभावसे, लोभसे, कामसे, मोहसे और मात्सर्य समूहसे सदा दुःखदायक कर्म किया है ॥७६ ॥ प्रमावमाधम्मनसा मयते
येकेन्द्रियाचा भविनो भ्रमन्तः । निपीडिता हन्त विरोषिताश्च
संरोधिताः क्यापि निमीलिताश्च ।। ७७ ॥ अर्थ-प्रमादसे उन्मत्त हृदय होकर मैने भ्रमण करते हुए दो-इन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय आदि जीवोको विरोधित किया है, कही रोका है और निमोलित भी किया है अर्थात् उनके अंगो-उपाङ्गोको जोर देकर दबाया है॥ ७७॥ बाल्ये मया बोधसमुज्झितेन
कुशानचेष्टानिरतेन नूनम् । अभक्ष्यसम्भक्षणाविकं हा
पापं विचित्रं रचितं न कि किम् ॥७८॥ अर्थ-बाल्यावस्थामे ज्ञानरहित तथा कुज्ञानको चेष्टाओमे लोन रहनेवाले मैंने अभक्ष्य भक्षण आदि क्या-क्या विचित्र पाप नही किया है ॥ ७ ॥ तारुण्यमावे कमनीयकान्ता
कण्ठामहाश्लेषसमुद्भवेन । स्तोकेन मोदेन विलोमितेन
कृतानि पापानि बहूनि हन्त ॥ ७९ ॥ अर्थ-यौवन अवस्थामे सुन्दर स्त्रियोके कण्ठालिङ्गनसे उत्पन्न अल्पसुखमे लुभाये हुए मैंने बहुत पाप किये हैं ।। ७६ ॥ बाला युवानो विषवाश्च मार्या
जरच्छरीरा सरलाः पुमान्सः । स्वार्थस्य सिद्धी निरतेन नित्यं
प्रतारिता हन्त मया प्रमोदात् ॥ ८॥ अर्थ-स्वार्थसिद्धिमे लगे हुए मैने बालक, युवा, विधवा स्त्रियो, वृद्ध तथा सोधे पुरुषोको, खेद है कि बड़े हषसे सदा ठगा है ॥२०॥
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सम्पचारित्र-चिन्तामणिः कृष्याविकार्येषु सदाभिरक्त
आरम्भ वाणिज्यसमूहसक्तः । विवेकवार्तानिधयेन मुक्त
श्चकार पापं किमहं न चित्रम् ॥१॥ अर्थ-खेती आदिके कार्योंमे सदा सलग्न, आरम्भ और व्यापारोके समूहमे आसक्त तथा विवेक वार्तासे रहित मैने क्या विचित्र पाप नही किया है अर्थात् सभी पाप किया है ॥ ८१॥ न्यायालये हन्त विनिर्णयार्थ
गतेन हा हन्त मया प्रमोदात् । चित्रोक्तिचातुर्यचितेन चाह.
सत्यस्य कण्ठो मृतिः सदेव ।। ८२॥ अर्थ-यदि मैं निर्णय लेनेके लिये न्यायालयमे गया तो वहाँ मैने अपने वचनोकी चतुराईसे सदा सत्यका ही गला घोटा है ॥ ८२ ॥ व्यापाधलोकान् रहसि प्रसुप्तान
लोभाभिभूतो क्यया व्यतीतः । जीवस्य जीवोपमवित्तजातं
जहार हा हारिसुहारमुख्यम् ।। ८३॥ अर्थ-लोभसे आक्रान्त तथा दयासे शून्य होकर मैने एकान्त स्थानमे सोये हुए मनुष्योको मारकर जीवोके प्राणतुल्य सुन्दर हार आदि धन समूहका अपहरण किया है ॥ ३ ॥ लावण्यलोलाविजितेन्द्रभार्या
भार्याः परेष्या सहसा विलोक्य । बसन्तहेमन्तमुखर्तुमध्ये
कन्दर्पचेष्टाकुलितो बभूव ।। ८४ ॥ अर्थ-अपनी सुन्दरतासे इन्द्राणियोको पराजित करनेवाली परस्त्रियोको देखकर मै वसन्त, हेमन्त आदि ऋतुओमे कामसम्बन्धो चेष्टाओसे आकुल हुआ हूँ।' ८४ ॥ लोभानिलोत्कीलितधर्यकालः
कार्पण्यपण्यायनिकेतनामः। सङ्गाभिषङ्ग प्रविसक्तचित्त
श्चकार चित्राणि न चेष्टितानि ॥ ८५॥
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षष्ठ प्रकाश अर्थ-लोभरूपो वायुसे जिसको धर्यरूपी कील उखाड दो गयो है तथा जो दीनताको दुकान जैसा बन रहा है ऐसे मैने परिग्रहमे आसक्तहो कौन-कौन विचित्र चेष्टाएँ नहो को हैं ॥५॥ पापेन पापं वचनीयरूपं
मया कृतं यज्जनता प्रभो! तत् । वाचा न वाच्यं मयका कथंचित्
समस्तवेदी तु भवान् विवेद ।। ८६ ॥ अर्थ-हे जनजनके नाथ | मुझ पापोने जो निन्दनीय कार्य किया है उसे मै वचनोसे नहीं कह सकता। आप सर्वज्ञ हैं अतः सब जानते हैं ॥८६॥ त्वयाञ्जनाखा विहिता अपापाः
संप्रापिताः सौख्यसुधासमूहम् । ममापि तत्पापचयः समस्तो
ध्वस्तः सदा स्याद् भवतः प्रसादात् ॥ ८७॥ अर्थ-आपने अंजन चोर आदि पापियोको पापरहित कर सुखामृतके समूहको प्राप्त कराया है। अत आपके प्रसादसे मेरे भी समस्त पापोका समूह नष्ट हो ॥ ८७ ॥ ममास्ति दोषस्य कृतिः स्वभाव
भवत्स्वभावस्तु तदोयनाशः। यद् यस्य कार्य स करोतु तत् तत् ।
न वार्यते कस्यचन स्वभावः ॥ ८८॥ अर्थ-मेरा पाप करना स्वभाव है और आपका उस पापको नष्ट करनेका स्वभाव है। अत जिसका जो कार्य है वह उसे करे क्योकि किसोका स्वभाव मिटाया नही जा सकता ॥८॥
विशेषार्थ-यहां मूलाचार और आचार्यवृत्तिके आधारपर 'कृतिकम' पर कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है।
सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विशति तोर्थङ्कर स्तव पर्यन्त जो क्रिया है उसे 'कृतिकर्म' कहते हैं। प्रतिक्रमणमे चार और १. यहाँ उत्तमार्थ प्रतिक्रमणको दृष्टिमें रखकर जीवनके समस्त कार्योको प्रकट
किया गया है । वैसे साधु अवस्थामें यह सब अपराध सम्भव नहीं हैं।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः स्वाध्यायमें तोन इस प्रकार पूर्वाल्ल सम्बन्धो सात और अपराह्न सम्बन्धी भी सात इस तरह १४ कृतिकर्म होते हैं। प्रतिक्रमणके चार कृतिकर्म इस प्रकार है-आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति ) करनेमे कायोत्सर्ग होता है, एक 'कृतिकर्म' यह हुआ। प्रतिक्रमण भक्तिमे एक कायोत्सर्ग होता है, यह दूसरा कृतिकर्म है। वीरभक्तिके करनेमे जो कायोत्सर्ग है वह तीसरा कृतिकर्म है तथा चतुर्विशति तोर्थकर भक्ति करनेमे शान्तिके लिये जो कायोत्सर्ग होता है वह चौथा कृतिकर्म है।
स्वाध्याय सम्बन्धी तीन कृतिकर्म इस प्रकार हैं-स्वाध्यायके प्रारम्भमे श्रुतभक्तिका जो कायोत्सर्ग होता है वह एक कृतिकर्म है। आचार्य भक्तिकी क्रिया करनेमे जो कायोत्सर्ग होता है वह दूसरा कृतिकर्म है और स्वाध्यायको समाप्ति होनेपर श्रुतभक्तिके अनन्तर जो कायोत्सर्ग होता है वह तीसरा कृतिकर्म है। यहां पूर्वाल्लसे दिवस सम्बन्धी और अपराल्लसे रात्रि सम्बन्धो १४ प्रतिक्रमणोको लेकर साधुके अहोरात्रि सम्बन्धो २८ कृतिकर्म कहे गये है। विशेष विवरण के लिये मूलाचार पृ० ४४१-४४२ (भा० ज्ञा० पी० सस्करण ) द्रष्टव्य है। आगे प्रत्याख्यान आवश्यकका वर्णन करते हैं
प्रत्याख्यानमयो बच्मि कर्मक्षणकारणम् । स्थागरूप परीणामो निम्रन्थस्य तपस्विन ।।९।। प्रत्याख्यानं च तज्ज्ञेयं परमावश्यकं बुधः। योऽपराधो मया जातो नवमः भविष्यति ॥ ९०॥ एवं विचारसम्पन्नो मुनिर्भावविशुद्धये। कुर्वन् मुक्त्यादिसंत्याग प्रत्याख्यानपरो भवेत् ॥ ९१ ।। अनागतादि भेदेन दशधा तच्छ्र ते मतम् ।
विनयादिप्रभेदेन चतुर्धापि समिष्यते । ९२ ॥ अर्थ-अब आगे कर्मक्षयमे कारणभूत प्रत्याख्यान आवश्यकको कहता हूं। निर्ग्रन्थ तपस्वोका जो त्यागरूप परिणाम है उसे ज्ञानीजनोके प्रत्याख्यान नामका परमावश्यक जानना चाहिये। जो अपराध मुझसे हुआ है वह आगे नहीं होगा, इस प्रकारके विचारसे सहित साधु भावशुद्धिके लिये भूक्ति-आहार आदिका त्याग करता हुआ प्रत्याख्यानमे तत्पर होता है । आगममे वह भुक्तिका त्यागरूप प्रत्याख्यान दश प्रकार १ मूलाचार गाथा ५६६ और उसकी आचारवृत्ति ।
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षष्ठ प्रकाश का माना गया है और विनय आदि प्रभेदोंसे चार प्रकारका भी स्वीकृत किया गया है ।। ६६-६२॥
विशेषार्थ-'मूलाचारके आधारपर दश भेद निम्न प्रकार हैं१ अनागत, २ अतिक्रान्त, ३ कोटिसहित, ४. निखण्डित, ५. साकार, ६ अनाकार, ७. परिणामगत, ८ अपरिशेष, ६. अध्वानगत और १०. सहेतुक । आचारवृत्तिके अनुसार इनके संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार हैं
१. अनागत प्रत्याख्यान-भविष्यत् कालमें किये जाने वाले उपवास आदिको पहले कर लेना, जैसे चतुर्दशीका उपवास त्रयोदशोको कर लेना, यह अनागत प्रत्याख्यान है।
२. भतिक्रान्त प्रत्याख्यान-अतीत कालमे किये जानेवाले उपवास आदिको आगे करना, जैसे चतुर्दशोका उपवास अमावस्या या पूर्णिमा आदिमे करना, यह अतिक्रान्त प्रत्याख्यान है।
३. कोटिसहित प्रत्याख्यान-कोटि सहित उपवासको कोटि सहित प्रत्याख्यान कहते हैं, जैसे-प्राताकाल यदि शक्ति रहेगी तो उपवास करूंगा अन्यथा नही।
४ निजण्डित प्रत्याख्यान-पाक्षिक आदिमें अवश्य करने योग्य उपवासका करना निखण्डित प्रत्याख्यान है।
५ साकार प्रत्याख्यान-भेदसहित उपवास करनेको साकार प्रत्याख्यान कहते है, जैसे-सर्वतोभद्र तथा कनकावली आदि व्रतोकी विधि सम्पन्न करते हुए उपवास करना।
६ अनाकार प्रत्याख्यान-तिथि आदिकी अपेक्षाके बिना स्वेच्छासे कभी भी उपवास करना अनाकार प्रत्याख्यान है।
७. परिमाणगत प्रत्याख्यान-वेला तेला आदि प्रमाणको लिये हुए उपवास करना परिमाणगत प्रत्याख्यान है।
८. अपरिशेष प्रत्याख्यान-जीवनपर्यन्तके लिये चतुर्विध आहारका त्याग करना अपरिशेष प्रत्याख्यान है।
९. अध्यानगत प्रत्याख्यान-मार्ग विषयक प्रत्याख्यानको अध्वानगत प्रत्याख्यान कहते हैं, जैसे-इस जङ्गल और नदी आदिसे बाहर निकलने तक उपवास करना।
१०. सहेतुक प्रत्याख्यान-किसी हेतुसे उपवास करना सहेतुक १. गाथा, ६४०।
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१२
सम्पचारित्र-चिन्तामणि प्रत्याख्यान है, जैसे- इस उपसर्गसे बचेंगे तो आहार लेंगे, अन्यथा त्याग है। विनयशुद्ध आदि प्रत्याख्यानके चार भेद निम्न प्रकार है
१ विनयशुद्ध, २ अनुभाषाशुद्ध, ३ अनुपालनाशुद्ध और १. परिणामशुद्ध।
१ विनयगुट प्रत्याख्यान-विनय सम्बन्धी शुश्केि साथ उपवास करना विनयशुद्ध प्रत्याख्यान है।
२. अनुभाषाशुद्ध प्रत्याख्यान-गुरुवचनके अनुरूप वचन बोलना, अक्षर पद आदिका शुद्ध उच्चारण करना अनुभाषाशुद्ध प्रत्याख्यान है।
३. अनुपालनाशुब प्रत्याख्यान-आकस्मिक व्याधि अथवा उपसर्ग आदिके समय किया गया प्रत्याख्यान अनुपालना शुद्ध प्रत्याख्यान है।
४. परिणामशुद्ध प्रत्याख्यान-राग-द्वेषसे अदूषित परिणामोसे जो प्रत्याख्यान किया जाता है वह परिणामशुद्ध प्रत्याख्यान है।
प्रतिक्रमणमे और प्रत्याख्यानमे क्या विशेषता है, इसको चर्चा आचार वृत्तिमे इस प्रकार की है
"प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानयोः को विशेष इतिचेन्नैष दोषोऽतीत् विषयातीचारशोधनं प्रतिक्रमणमतीतभविष्यद्वर्तमानकालविषयातिचारनिहरण प्रत्याख्यानमथवा व्रताखतीचारशोधनं प्रतिक्रमणमतीचारकारणसचित्ताचित्तमिश्राव्यविनिवृत्तिस्तपोनिमित्तं प्रासुक व्यस्य च निवृत्तिः प्रत्याख्यानं यस्मादिति ।" ___ अर्थात् भूतकाल सम्बन्धी अतिचारोका शोधन करना प्रतिक्रमण है और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानकाल सम्बन्धी अतिचारोंका निराकरण करना प्रत्याख्यान है अथवा व्रतादिके अतिचारोका शोधन करना प्रतिक्रमण है और अतिचारोके लिये कारणभूत सचित्त, मचित्त तथा मिश्र द्रव्योका त्याग करना एवं तपके लिये प्रासुक द्रव्यका भी त्याग करना प्रत्याख्यान है।
भूतकालिकदोषाणां परिहारे पाठ उभ्यते।
मनसा गदगोभूय पठितव्यो मनीषिभिः ।। ९३ ॥ अर्थ-भूतकालिक दोषोका परिहार करनेके लिये पाठ कहा जाता है। ज्ञानोजनोको मनसे गद्गद होकर वह पाठ पढ़ना चाहिये ।। ६३ ॥ १. मूलाचार, गापा ६४१-६४५ ।
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षष्ठ प्रकाश प्रमारतो ये बहोऽपराधा हिसाभिमुखया विहिता मयते। तेस्वरप्रसादातिफला भवन्तु भवन्तु, दुःखस्य यतो विनासा ॥ ९४ ।। पापाभिलिप्तेन हियोजितेन स्याव्यतोतेन महागठन । होनेन सुरुषाविहितानि यानि कृत्यानि हाहन्त मया प्रमावात् ॥१५॥ संवेगवातम्वलितेन तापामलेन तापख निहन्तुमाहे । निन्दामि मित्य मनसा विटमात्मस्वमा बहुसो विमो !हे ॥ ९६ ॥ सुदुर्लभ मर्यभवं पवित्रं गोधर्म महापवित्रम् । लवापिहा मूतमेन मान्य जीवा पराका निहता मर्यते ॥ ९७ ॥ भूत्वेनियालम्पटमानसेनादेनेव नूनं निहता समन्तात् ।। एकेन्द्रियाचा भवतः प्रसाबात् मातोमवेदख स मेऽपराधः ॥ ९८॥ आलोचनायो कुडिलारण दोषाः कृता मया ये विपुलाव भीमाः। भवन्तु ते नाम भवत्कृपाभिषा पाराषित पापा ॥ ९९॥
अर्थ-हे भगवन् ! प्रमादसे मेरे द्वारा जो ये अपराध हुए हैं वे आपके प्रसादसे निष्फल हो जिससे मेरे दुःखोंका नाश हो सके। पापसे लिप्त, निलंज्ज, निर्दय, अत्यन्त शठ और बुद्धिहीन होकर प्रमादसे मेरे द्वारा जो कार्य किये गये हैं आज संवेगरूपी वायुसे प्रज्वलित पश्चातापरूपी अग्निसे उन्हे नष्ट करना चाहता हूँ। हे विभो! मैने अनेक बार जो आत्म-स्वभावकी विराधनाकी है उसको मैं नित्य हो मनसे निन्दा करता हूँ। अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य पर्याय, पवित्र गोत्र और महापवित्र धर्मको पाकर भी मुझ महामूर्खने इन बेचारे जोवोको मारा है। इन्द्रियासक्त मनसे युक्त हो मैंने अज्ञानोके समान सब ओरसे जो एकेन्द्रिय आदि जीवोका घात किया है वह मेरा अपराध आपके प्रसादसे मिथ्या निष्फल हो। हे इन्द्र के द्वारा पूजित चरण-कमलो वाले जिनेन्द्र ! मैने आलोचनामे जो कुटिल, बहुत और भयंकर दोष किये हैं, आपको कृपासे वे मिथ्या हों।६४-६६॥
एबमाधुनिका दोषा भविष्यत्काल संभवाः।
प्रत्याख्यानाञ्च संशोध्या: मुनिभिहितवाञ्छया ॥१०॥ अर्थ-आत्महितके इच्छुक मुनियोंको भूतकाल सम्बन्धी दोषोके समान वर्तमान और भविष्यत् काल सम्बन्धी दोष भो प्रत्याख्यान नामक आवश्यकसे दूर करने योग्य हैं ॥१०॥ आगे कायोत्सर्ग आवश्यकका वर्णन करते हैं
कायोत्सर्गमयो पनि कर्मक्षपणकारणम् । मोममार्गोपदेष्टारं घातिकर्मविनासकम् ।। १०१॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्नामणि शरीरे रागहन्तारं सारं च कृतिकर्मणाम् ।
हर्तारं सर्वदोषाणां पारं गुणसम्पदाम् ॥१०२॥ मर्थ-अब मै उस कायोत्सर्ग आवश्यकको कहता हूँ जो कर्मक्षयका कारण है, मोक्षमार्गका उपदेशक है, घातिया कर्मोका नाश करनेवाला है, शरीरविषयक रागका घातक है, कृतिकर्मोंमे सारभूत है, सब दोषोका हरण करनेवाला है और गुणरूपो सम्पदाओको धारण करनेवाला है ॥ १०१-१०२॥ आगे कायोत्सर्ग करनेवाला कैसा होता है, यह कहते हैं
पाक्योरन्तरं वत्वा चतुरङ्गुलसंमितम् । सुस्थितो लम्बबाहुश्च निश्चलसर्वदेहकः ॥ १०३ ॥ विशुद्धभावना युक्त सूत्रेय च विशारदः।। मोक्षार्थी जितनिद्रश्च बलवीर्यसमन्वितः ॥ १०४॥ चतुर्विधोपसर्गाणां जेता नष्टनिदानकः ।
दोषाणां विनिवृत्यर्थ कायोत्सर्ग समाचरेत् ॥ १०५॥ अर्थ-दोनो पैरोके बोच चार अडगुलका अन्तर देकर जो खडा हुआ है, जिसकी भुजाएं नोचेकी ओर लटक रही हैं, जिसका सर्वशरोर निश्चल है, जो विशुद्धभावनासे युक्त है, द्रव्यश्रुत और भावश्रुतमे निपुण है, मोक्षका इच्छुक है, निद्राको जीतनेवाला है, बल, वीर्य, शारीरिक और आत्मिक शक्तिसे सहित है, चतुर्विध उपसर्गको जीतने वाला है और निदान-भोगाकाक्षासे रहित है, ऐसा मुनि दोषोका निराकरण करनेके लिये कार्योत्सर्ग करता है ।। १०३-१०५ ॥ अब कायोत्सर्गका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा प्रतिक्रमण सम्बन्धी विभिन्न कायोत्सर्गोंमे श्वासोच्छ्वासोका परिमाण बतलाते हैं
एकवर्षावधिः कायोत्सर्ग उत्कृष्ट उच्यते । अन्तर्मुहर्त पर्यन्तो जघन्यश्च निगद्यते ॥ १०६॥ अष्टोत्तरशतोच्छवासा विवसीयप्रतिक्रमे । चतुः पञ्चाशदुच्छ्वासा ज्ञेया रात्रिप्रतिकमे ॥१७॥ शतत्रयसमुच्छवासाः पाक्षिके च प्रतिक्रमे । चतु शती समुच्छ्वासाश्चतुर्मास प्रतिक्रमे ॥ १०८॥ पञ्चशतीसमुच्छ्वासा संवत्सरप्रतिको । हिंसासत्यादिदोषेषु भवत्सु जातुचिन्मुनेः ॥ १.९॥
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षष्ठ प्रकाश अष्टोत्तरशतोच्छवासा. कायोत्सर्गः प्रकीर्तितः। भोजनपानवेलापां प्राचाम्तरगतो तथा ॥ ११० ॥ अर्हकल्याणकस्थाननिषद्यावन्दनेऽपि च। मलमूत्रनिवृत्ती च हपुच्छ्वासाः पञ्चविंशति ॥ १११ ॥ इष्टग्रन्यस्य प्रारम्भे समाफ्यबसरे तथा। स्वाध्यायस्य समारम्भे समाप्तौ च यथाविधि ॥ ११२॥ वन्दनायां च भावेषु सत्स्वसत्सु च जातुचित्। सप्तविंशतिच्छवासाः कायोत्सर्गी सबिष्यते ॥ ११३॥ एतत्समयपर्यन्तं शरीरे रागवर्जनात् । आवश्यक: समाख्याता कायोत्सर्गाभिधानकः ॥ ११४ ॥ एककृत्यो नमस्कारमन्त्रस्योचारणे त्रयः। समुच्छ्वासा भवन्त्यत्र साधूना हि यथाविधि ॥ ११५॥ केचिद् वीर्यवैशिष्ट्य सहिताः साधुपुङ्गवाः। व्यन्तरादिकृतान् घोरानुपसर्गान् सुदुःसहान् ॥ ११६ ।। सहन्ते धर्यसंयुक्ता भीषणे शवशायने ।
कुर्वन्ति निर्जरा दुष्टकर्मणां दुःखदायिनाम् ॥ ११७ ॥ अर्थ-एक वर्षकी अवधि वाला उत्कृष्ट तथा अन्तर्मुहूर्तकी अवधि वाला जघन्य कायोत्सर्ग कहलाता है। देवसिक प्रतिक्रमणमे एकसौ आठ उच्छ्वास, रात्रि प्रतिक्रमणमें चौवन उच्छवास और पाक्षिक प्रतिक्रमणमे तीनसो उच्छ्वास जानना चाहिये । चातुर्मासिक प्रतिक्रमणमें चारसौ और साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणमे पाँचसो उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिये। यदि कदाचित् मुनिके हिंसा असत्यादि दोष हो जावें तो उस समय एकसौ आठ उच्छ्वासका कायोत्सर्ग करना चाहिये। भोजन, पान, आहारके समय, अन्यग्रामके जानेपर, जिनेन्द्र देवके कल्याणकोके स्थानपर आसन लगाने एवं वन्दना करनेमे और मलमत्रादि को निवृत्ति करने पर पच्चोस उच्छवास, इष्ट ग्रन्थके प्रारम्भ करनेमे, समाप्तिके अवसरमे, स्वाध्यायके प्रारम्भमे, समाप्तिमे, वन्दनामें तथा खोटे भावोंके होनेपर सत्ताईस उच्छवासोंका कायोत्सर्ग माना जाता है। अर्थात् इतने समय तक शरीर सम्बन्धी राग छोड़कर कायोत्सर्ग नामका आवश्यक करना चाहिये। विधिपूर्वक एक बार नमस्कार मन्त्र. का उच्चारण करनेमे साधुओके तीन उच्छ्वास होते हैं ॥ १०६-११७॥
मावार्थ-प्रथम उच्छ्वासमें णमो अरहताणं णमो सिखा द्वितीय
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सम्यक्चारित चिन्तामणिः
उच्छ्वासमे नमो आयरियाण णमो उवज्झायाणं और तृतीय उच्छ्वास मे णमो लोए सव्व साहूणं बोलना चाहिये ।
विशिष्ट वीर्य, आत्मबल से सहित कितने ही धेयंशालो मुनिराज, भयंकर श्मशानमे व्यन्तरादिकके द्वारा किये गये बहुत भारी उपसर्गों को सहन करते हैं तथा दुखदायक दुष्टकमको निर्जरा करते हैं ।
आगे कायोत्सर्ग के चार भेद कहते हैं
उत्थितश्वोत्थित. पूर्व उत्थितश्चोपविष्टकः । उपविष्टोस्थितो ज्ञेय उपविष्टोपविष्टकः ॥ ११८ ॥ इति ज्ञेयाश्चतुर्भेदाः कायोत्सर्गस्य सूरिभिः । प्ररूपिता निबोद्धव्याः कर्मनिर्जरणक्षमाः ॥ ११९ ॥ अर्थ - उत्थितोत्थित, उत्थितोपविष्ट, उपविष्टोस्थित ओर उपविविष्टोपविष्ट, इस प्रकार आचार्योंके द्वारा निरूपित कायोत्सर्गके चार भेद जानना चाहिये । इनका स्वरूप इस प्रकार है
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१. उस्थितो स्थित - जिसमे कायोत्सर्ग करनेवाला खडा होकर धर्म्य और शुक्लध्यानका चिन्तन करता है वह उत्थितोत्थित कहलाता है ।
२ उत्थितोपविष्ट - जिसमे खड़े होकर आतंरौद्रध्यान किया जाता है वह उस्थितोपविष्ट कहलाता है ।
३. उपविष्टोस्थित -- जिसमे बैठकर धम्यं और शुक्लध्यान किया जाता है वह उपविष्टोत्थित कहलाता है ।
४ उपविष्टोपविष्ट - जिसमे बैठकर आर्तरोद्रध्यान किया जाता है वह उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्ग कहलाता है ॥ ११८-११६ ॥
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आगे कायोत्सर्ग सम्बन्धो ३२ दोषोके परिहारका निर्देश करते हैंकायोत्सर्गस्य बोधव्या दोषा घोटकादयः । द्वात्रिंशत्प्रमितास्त्याज्याः कर्मनिर्जरणोद्यते ॥ १२० ॥
अर्थ - कर्मोंको निर्जरा करनेमे उद्यत साधुओको कायोत्सर्गके बत्तोस दोष जानकर छोड़ना चाहिये ।'
अब षडावश्यक अधिकारका समारोप करते हैं
त्यक्त्वा प्रमादं वपुषि स्थित ये कुर्वन्ति कार्याणि निरूपितानि । तेषां न मिथ्या विकथासु पातो भवेत् क्वचित्कर्मनिबन्धहेतुः ॥१२१॥
१. इन दोषोका स्वरूप परिशिष्ट में देखें
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सप्तम प्रकाश
७ अर्थ-जो मुनि शरीरमे स्थित प्रमादको छोड़कर उपर्युक्त कार्योंको करते हैं उनका कहीं कर्मबन्धमे कारणभूत, मिथ्या विकथामोमे कभी पतन नही होता ॥ १२१॥
इस प्रकार सम्यकचारित्र-चिन्तामणिमें षडावश्यकोका
वर्णन करनेवाला छठवां प्रकाश पूर्ण हुआ।
सप्तम प्रकाश पचाचाराधिकार
पञ्चाचारपरायणान् मुनिबरानाचार्यसंज्ञायुतान् बीमावानसमुद्यतान् दुषनुतान् संग्नानसंमूषितान् । बादीमान् प्रविजेतुमुखततमान् शास्त्राधिपारगतानाचार्यान् परमेष्ठिनः प्रतिदिनं संनोमि शान्त्या युतान् ॥१॥ अर्थ-जो पञ्चाचारके पालन करनेमे तत्पर हैं, मुनियोंमे श्रेष्ठ हैं, भाचार्य नामसे सहित हैं, दीक्षा देनेमे समुद्यत हैं, सम्यग्ज्ञानसे सुभूषित हैं, वादीरूपी गजोको जोतनेके लिये अत्यन्त तत्पर हैं, शास्त्ररूपो सागरके पारगामी हैं और शान्तिसे सहित हैं, उन आचार्य परमेष्ठियोको में प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ॥१॥ आगे पञ्चाचारके नाम तथा स्वरूपका निरूपण करते हैं
पञ्चाचारमयो बक्ये सारान् मुनिवषस्य हि। बसनं च तथा सानं चारित्रं तप एव च ॥ २ ॥ वीर्य च पञ्चमा सन्ति ह्याचारा जिनभाषिताः। आचार्या पालयन्स्येतान पालयन्ति परामपि ॥ ३ ॥ एषां स्वरूपमत्राहं बण्यामि कमशः पुरः। देवशास्वगुरूणां च मोक्षमार्गसहायिनाम् ॥ ४ ॥ भवाम पर्सनं प्रोक्तं मूत्रयविजितम्। मानाचष्टमातीतं सोपानं शिवसमनः॥ ५ ॥ माचं जीवावितस्वाना यापार्येन विशुम्भताम् ।
भवानं दर्शनं मे संशयातिविजितम् ॥ ६ ॥ १. कायोत्सर्ग सम्बन्धी दोषोका वर्णन परिशिष्टमे देखें ।
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८५
सम्यकुचारित्र-चिन्तामणि.
परद्रव्याद् विभिन्नस्य चेतनालक्ष्मशालिनः । आत्मनः स्वानुभूतिर्वा सम्यग्दर्शनमुच्यते ॥ ७ ॥ मोहादिसप्तमेवानां प्रकृतीनामभावतः । सम्यक्त्वगुणपर्यायो योऽत्र प्रकटितो भवेत् ॥ ८ #1 प्रशस्तं दर्शनं तत्स्यावात्मशुद्धिविधायकम् । सुलभं भव्यजीवस्य मूलं मोक्षस्य वर्त्मनः ॥ ९ ॥ अस्योत्पत्तिक्रमः प्रोक्तः पूर्वं सम्यक्त्ववर्णने । तस्य स्वरूपनिर्देशो देवादीनां च लक्षणम् ॥ १० ॥ सर्व चिन्तामणौ प्रोक्त विस्तारेण यथागमम् । क्षायिकाद्या मता अस्या त्रयोभेदा जिनागमे ॥
११ ॥ अर्थ - अब यहां आगे मुनिधर्मके सारभूत पञ्चाचारोका कथन करूँगा । दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार, ये जिनेन्द्र देवके द्वारा कहे हुए पाँच आचार हैं। आचार्य इनका स्वय पालन करते हैं और दूसरोको पालन कराते हैं। आगे यहाँ क्रमसे इनका स्वरूप कहूँगा । मोक्षमार्गमे सहायभूत देवशास्त्र गुरुका तीनमूढताओ तथा ज्ञानादि आठमदोसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । यह सम्यग्दर्शन मोक्षमहलकी पहली सोढो है । यह चरणानुयोग की पद्धति से सम्यग्दर्शन है । यथार्थता से सुशोभित जोवादि पदार्थोंका सशयादिसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । यह द्रव्यानुयोग की पद्धति से सम्यग्दर्शनका लक्षण है अथवा परद्रव्यसे भिन्न चेतना लक्षण से सुशोभित आत्माको जो अनुभूति है वह सम्यग्दर्शन है । यह अध्यात्मको पद्धतिसे सम्यग्दर्शनका लक्षण है अथवा मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियो के अभाव - उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमसे सम्यक्त्व गुणको जो पर्याय प्रकट होतो है वह सम्यग्दर्शन है । यह सम्यग्दर्शन आत्मशुद्धिको करने वाला है, भव्यजोवोको सुलभ है और मोक्षमार्गका मूल है। इसको उत्पत्तिका क्रम पहले सम्यक्त्वके वर्णन मे कहा गया है । सम्यग्दर्शनके स्वरूपका निर्देश तथा देव आदिके लक्षण सम्यक्त्व चिन्तामणिमे विस्तार से आगमानुसार कहे गये हैं। इस सम्यग्दर्शन के क्षायिक आदि तोन भेद जिनागममे कहे गये हैं ।। २-११ ॥ आगे सम्यग्दर्शनके आठ अङ्गोका स्वरूप बताते हुए दर्शनाचारका वर्णन करते हैं
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निःशङ्कत्वादिकं प्रोक्तमङ्गाष्टकममुष्य हि । सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः पदार्था जिनभाषिताः ॥ १२ ॥
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सप्तम प्रकाश
यथार्थाः सन्ति नास्त्पत्र संदेहावसरो मनाक । इत्थं श्रद्धानवाढ यत् निःशस्वं तदुच्यते ॥ १३ ॥ भोगोपभोगकामाया अमागे गतकाक्षाता। मुनीनां मलिनाङ्गादो मा स्याद् ग्लानेरभावता ॥ १४ ॥ सा सिद्धान्तविशेषज्ञमता निविचिकित्सता । देवे च देवता भासे धर्मे धर्मतरे तपा॥१५॥ यत्र वृष्टिर्न मूढा स्यात् सामता मूढष्टिता। प्रमावाद्देहशंथिल्यात रोगाद्वार्धक्यतोऽपि वा ॥१६॥ जातान् पस्मिनां दोषान् दृष्ट्वा तदुपगृहनम् । उपगृहननामादयं गङ्गं पञ्चमं मतम् ।। १७॥ सुधर्माच्च्यवतोमान् यस्मात्तस्माच्च कारणात् । स्थितीकरणमायोध्यं पुनस्तत्रैव बारणम् ॥ १८॥ सधर्मभिः सह स्नेहो गोर्वस इस शाश्वतः। वात्सल्यं तत्तु विज्ञेयं धर्मस्पंर्यविधायकम् ।।१९।। लोके प्रसरवज्ञान धर्मस्य विषये महत् । दूरीकृत्य प्रभावस्य स्थापनं स्यात्प्रमावना ॥२०॥ एतैरङ्गं सुपूर्ण स्यात् सम्यकत्व सुदृशां सदा । भवेदेषु प्रवृत्तिर्या सूरीणां हितकारिणाम् ॥ २१॥ स बोध्यो दर्शनाचारो यतिधर्मप्रभावकः।
ज्ञानाचारमथो वच्मि सम्यग्ज्ञानस्य कारणम् ॥ २२ ॥ अर्थ-इस सम्यग्दर्शनके नि शडकत्व आदि आठ अङ्ग हैं। जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ वास्तविक हैं। इनमे सदेह का थोडा भी अवसर नहीं है। श्रद्धानमे इस प्रकारको जो दृढता है वह निःशकात्व अङ्ग कहलाता है। भोगोपभोगको आकाङ्क्षाका अभाव होना नि:काक्षित अङ्ग है। मुनियोके मलिन शरीर आदिमे जो ग्लानिका अभाव है बह जैनसिद्धान्तके विशेषज्ञविद्वानोके द्वारा निविचिकित्सा अङ्ग माना गया है। जहाँ देव और देवाभासमे धर्म तथा अधर्ममें दृष्टि मूढ नही होती है वह अमढ़ष्टि अङ्ग है । प्रमादसे, शरीरको शिथिलतासे, रोगसे, अथवा वृद्धावस्थासे उत्पन्न हुए धर्मात्माओके दोषोको देखकर उनका जो गोपन किया जाता है, वह सम्यग्दर्शनका उपग्रहन नामका पञ्चम अङ्ग है । जिस किसी कारणसे धर्मसे डिगते हुए मनुष्योको फिरसे उसोमे स्थिर कर देना स्थितीकरण अङ्ग है। सहधर्मी जनोके साथ गोवत्सके समान जो
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि. स्थायी स्नेह है उसे वात्सल्य अङ्ग जानना चाहिये। यह अङ्ग धर्ममें स्थिरता करने वाला है। लोकमे फैलते हुए धर्म विषयक बहुत भारी अज्ञानको दूरकर धर्मका प्रभाव स्थापित करना प्रभावना अङ्ग है। सम्यग्दृष्टि जीवोका सम्यग्दर्शन इन आठ अङ्गोसे हो पूर्ण होता है। हितकारो आचायोकी इन आठ अङगोमे जो प्रवृत्ति है, उसे दर्शनाचार जानना चाहिये। यह दर्शनाचार मुनिधर्मकी प्रभावना बढाने वाला है । अब आगे सम्यग्ज्ञानके कारणभूत ज्ञानाचारका कथन करते हैं।। १२-२२॥
सम्यक्त्वसहितं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं समुच्यते । सम्यमानेन जायन्ते जीवाः कर्मक्षयोग्रताः ॥ २३ ॥ स्वपरभेवविज्ञान मोक्षस्य मुख्यकारणम्।।
सम्यग्ज्ञानेन तत्साध्यं तवज्यं साधुभिः सबा ॥ २४ ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन सहित जो ज्ञान होता है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञानसे जीव कर्मक्षय करनेमे उद्यत होते हैं । स्वपरभेद विज्ञान मोक्षका मुख्य कारण है, अतः साधुओको सम्यग्ज्ञानके द्वारा उसे अजित करना चाहिये ॥ २३-२४ ॥ आगे सम्यग्ज्ञानके आठ अङ्गो का वर्णन करते है
कालाचाराविमेवेन जिनवाणीविशारदः। सम्यमानस्य सूक्तानि ह्यष्टाङ्गानि जिनागमे ॥ २५॥ कालशुधिविधातव्या स्वाध्यायाभिमुखेजने । पुरा स एव कालाख्य आचारः परिगीयते ॥ २६॥ पूर्वाह्न पराले च प्रदोषेऽपररात्रिके। एषु चतुर्ष कालेषु स्वाध्यायः प्रविधीयते ॥ २७ ॥ एषु यः सन्धिकालोऽस्ति स्वाध्यायस्तत्रवजितः। भूकम्प भूविवारे वा सूर्येन्दुपहणे तथा ॥२८॥ उल्कापाते प्रदोषे च दिग्वाहे देशविप्लवे। अन्यस्मिन् क्षोभकाले च प्रधानमरणे तथा ॥२१॥ स्वाध्यायो नंव कर्तव्यः परमागमसंहतेः। स्तोत्रादीनां सुपाठस्तु नो निषिता सुधीवरः ॥ ३०॥ सूत्रं गणधरौ प्रोक्तं भुतकेबलिभिस्तथा। प्रत्येकबुनिभिः प्रोक्तमभिन्नवरापूर्वकः ॥ ३१॥
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सप्तम प्रकाश अकाले सूत्रपाठी हि निषिद्धः परमागमे ।
कथानग्यादि पाठस्तु नो निषित कदाचन ॥ ३२ ॥ अर्थ-जिनवाणीके ज्ञाता विद्वानोंने जिनागममे कालाचार आदिके भेदसे सम्यग्ज्ञानके आठ अड्ग कहे हैं। स्वाध्यायके लिये उद्यत पुरुषोको सबसे पहले काल शुद्धि करना चाहिये । कालशुद्धि हो कालाचार कहलाता है। पूर्वाल, अपराहु, प्रदोष काल और अपररात्रिक इन चार कालोमे स्वाध्याय किया जाता है।
भावार्थ-सूर्योदयके दो घड़ी बादसे लेकर मध्याह्नसे दो घडो पूर्व तकका काल पूर्वाह्न कहलाता है। मध्याह्नके दो घडी बादसे लेकर सूर्यास्तके दो घडो पूर्वतकका काल अपराह्न कहलाता है । सूर्यास्तके दो घडो बादसे लेकर मध्यरात्रिके दो धड़ो पूर्वतकका काल प्रदोष कहलाता है और मध्यरात्रिके दो धड़ो पूर्वसे लेकर सूर्योदयके दो घडो पूर्व तकका काल विरात्रि कहलाता है। इन चारो कालोमे स्वाध्याय करना चाहिये । इनके बोचका जो चार-चार घड़ोका सन्धिकाल है वह स्वाध्यायके लिये वर्जित है।
इसके सिवाय भूकम्प, भूविदारण-पृथ्वोका फटना, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, उल्कापात, प्रदोष-सूर्योदय और सूर्या रूपका समय, दिशादाह-दिशाओमे लालप्रकाश फैलना, देश विप्लव, क्षोभका अन्य काल और राजा आदिक प्रधान पुरुषका मरण होना, इन समयोमे परमागम समूहका स्वाध्याय नही करना चाहिये। किन्तु विद्वज्जनोने स्तोत्र आदिके पाठका निषेध नही किया है। गणधरो, श्रुतकेवलियो, प्रत्येक बुद्धिधारियो तथा अभिन्न दशपूर्वके पाठी आचार्योके द्वारा कथित शास्त्र सूत्र कहलाता है । अकालमें सूत्र पाठका निषेध परमागममे बताया गया है परन्तु कथाग्रन्थ आदिके पाठका निषेध नहीं है। तात्पर्य यह है कि क्षोभके समय स्वाध्याय करने वाले एवं स्वाध्याय सुनने वाले पुरुषोका चित्त स्थिर नही रहता। अतः महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोका भाव अन्यथा ग्रहण किये जानेकी सम्भावनासे स्वाध्यायका निषेध किया गया है। उपयुक्त स्वाध्यायके चार कालोके बीच जो चार-चार घडीका अन्तराल है वह सामायिक तथा ध्यानका काल है अतः उस समय स्वाध्यायका निषेध किया गया है ।। २५-३२ ।। १. सुत्त गणहर कहियं तदेव पत्तेयबुद्धिकहिय च।।
सुदकेवलिणा कहिद अभिण्णवसपुग्न कहिद ॥ मूलाचार, २७७
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२
सम्यकृचारित्र-चिन्तामणि:
काल शुद्धिके समान द्रव्य क्षेत्र और भाव शुद्धि भी करना चाहिये, यह
कहते हैं
स्वाध्यायसमुद्यतं । द्रव्यक्षेत्राविशुद्धय ॥ ३३ ॥
स्वाध्यायावसरे पुम्मि मुक्त्वालस्यं मुदा कार्या शरीरे रुधिरलाबापूयमांसाद्य निर्गमः । स्वाध्यायोद्यतसाधोश्च द्रव्यशुद्धिः प्रकथ्यते ॥ ३४ ॥ शतहस्तमिते क्षेत्रे दधिरापुर्याद्यदर्शनम् । क्षेत्रशुद्धिः प्रगोतास्ति परमागमपारगे || ३५ ॥ क्रोधमानादिभावानामभावो भावशुद्धये । विधातव्यः सदा विशेः स्वाध्यायाय समुद्यतः ॥ ३६ ॥
अर्थ- स्वाध्यायके लिये उद्यत साधुओको स्वाध्याय के समय आलस्य छोड़कर द्रव्य और क्षेत्र आदिको शुद्धिया करनी चाहिये । स्वाध्यायके लिये तत्पर साधुके शरीरसे रुधिर, पोप तथा मास आदि नही निकल रहा हो, यह द्रव्य शुद्धि कहो जाती है। सौ हाथ प्रमाण क्षेत्र मे रुधिर तथा पीप आदि नही दिख रहा हो, यह क्षेत्र शुद्धि है । परमागमके ज्ञाता पुरुषो द्वारा कही गई है। भाव शुद्धिके अर्थ स्वाध्याय के लिये उद्यत ज्ञानी पुरुषोको अपने आपमे क्रोध तथा मानादि विकारी भावोका अभाव करना चाहिये । यही भावशुद्धि है ॥ ३३-३६ ॥
आगे विनयाचारका वर्णन करते है
हस्तौ पादौ च प्रक्षाल्य पर्यङ्कासनसुस्थित | शास्त्रस्य मार्जनं कृत्वा कायोत्सगं विधाय च ॥ ३७ ॥ चल मनो वशीकृत्य विनयावनतो भवन् । ऋषिप्रणीतशास्त्रस्य स्वाध्याय प्रारभेत सः ॥ ३८ ॥ प्रवृत्तिरेषा साधूनां विनयाचार उच्यते । विनयाधीतशास्त्रो ना द्रुत विद्वद्वरो भवेत् ॥ ३६ ॥ स्वाध्याय विदधत् साधुर्हस्ताभ्यां न पदं स्पृशेत् ।
न स्पृशेद् वाञ्छणं कक्षं नखेवेंहं न खर्जयेत् ॥ ४० ॥ अर्थ - स्वाध्याय करने वाला साधु हाथ पैर धोकर, पर्यंङ्कासनसे बैठकर, शास्त्रका परिमार्जन कर, कायोत्सर्ग कर और चश्वल मनको बशमे कर विनयसे नम्रीभूत होता हुआ ऋषिप्रणीत शास्त्रोका स्वा
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सप्तम प्रकाश
ध्याय प्रारम्भ करे । साधुओंकी यह सब प्रवृत्ति विनयाचार कहलाती है । विनयसे शास्त्र पढ़ने वाला पुरुष शीघ्र हो श्रेष्ठ विद्वान् हो जाता । स्वाध्याय करने वाले साधुको स्वाध्यायके समय हाथोंसे पैर, बञ्छण-रंगे तथा कक्ष- बगलका स्पर्श नही करना चाहिये और मखोंसे शरीरको खुजलाना चाहिये || ३७-४० ॥ आगे उपधानाचारका वर्णन करते हैं
स्वाध्यायगतशास्त्रस्य
यावत्पतिर्नजायते । तावन्निविकृति मुक्ये व मुक्ष्ये फलादिकम् ।। ४१ ॥ एवं साधोः प्रतिज्ञा या युपधानं तदुच्यते । यद्वा चित्तं स्थिरीकृत्य निराकृत्याक्षविप्लवम् ॥ ४२ ॥ स्वाध्यायः क्रियते पुम्भिरूपधानं तदुच्यते । एव उपधानाचारो विज्ञातव्यो मनीषिभिः ॥ ४३ ॥ अर्थ-स्वाध्यायमे स्थापित शास्त्रकी जबतक समाप्ति नहीं हो जातो हैं तबतक मैं निविकृति-रसहोन भोजन करूगा अथवा फलादिक नही खाऊंगा, साधुकी यह जो प्रतिज्ञा है वह उपधानाचार कहलाती है अथवा चित्तको स्थिरकर और इन्द्रियोको स्वच्छन्द प्रवृत्तिको रोककर पुरुषो द्वारा जो स्वाध्याय किया जाता है उसे विद्वज्जनोको उपधानाचार जानना चाहिये ॥ ४१-४३ ॥
अब बहुमानाचारका कथन करते हैं
स्वाध्यायं विवधत् साधुरितरेषां तपस्विनाम् । अनादरं न कुर्वीत न गविष्ठ स्वयं भवेत् ॥ ४४ ॥ जिनवाक्यमिदं श्रोतुं जातः पुण्योदयो मम । वीतरागस्य वाणीयं भवान्धो पततो मम ॥ ४५ ॥ सत्यं सुद्द्धनौकास्ति जन्मव्याधियुतस्य में । परमीषषरूपा हि लब्धा काठिन्यतो मया ॥ ४६ ॥ श्रोतव्यं बहु मानेनाध्येतव्यं च प्रमोदतः । सर्वथा दुर्लभं ज्ञेयं जिनवाक्यरसामृतम् ॥ ४७ ॥ इत्येवं बहुमानेन स्वाध्यायं विदधाति यः । कुतकर्मकलापोsसो साक्षाद् भवति केवली ॥ ४८ ॥ एवं विधतः शास्त्र-स्वाध्यायं हि तपस्विनः । प्रयासो बहुमानाद्य आचारः परिकीर्त्यते ॥ ४९ ॥ अर्थ-स्वाध्याय करने वाला साधु अन्य तपस्वियोका अनादर नहीं
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि करे और न स्वयं गवंयुक्त हो। इस जिनवाक्य जिनशास्त्रको सुनने के लिये मेरा बहुत पुण्योदय हुआ है । वीतरागकी यह वाणी संसार सागरमें पडते हुए तथा जन्मकी पीड़ा सहित मेरे लिये सचमुच हो सुदृढ़ नौका है। परम औषधरूप यह वाणी मैंने बड़ो कठिनाईसे प्राप्तकी है । अत बहुत सम्मानसे इसे सुनना चाहिये तथा हर्षपूर्वक पढ़ना चाहिए। यह जिन वाणोरूपी रसामृत सर्वथा दुर्लभ है। ऐसा जानकर जो बहुमानआदरसे स्वाध्याय करता है, वह कर्मसमूहको नष्टकर साक्षात् केवली होता है। इस प्रकार स्वाध्याय करनेवाले साधुका जो प्रयास है वह बहुमानाचार कहलाता है ॥४४.४६॥ अब अनिह्नवाचारका वर्णन करते हैं
शास्त्रज्ञानादिना पाते महत्वे स्वस्य भूयसि । स्वीयहीनकुलस्वादि-गोपनं विवधीत नो॥ ५० ॥ न हि शास्त्रस्य विमस्य स्वस्मात्स्वल्पतरस्य हि। नामस्मरणसंत्यागो विधेयः स्वाभिमानतः ।। ५१॥ एषत्वनिह्नवाचारो गवितः परमागमे ।
निहवे सति ज्ञानादिगुणलोपो भवेदितः ॥ ५२॥ अर्थ-शास्त्रज्ञान आदिके द्वारा बहुत महत्व बढ़ जानेपर अपने होन कुल आदिका गोपन नही करना चाहिये । शास्त्रका अथवा अपनेसे लघु अन्य विद्वान्का स्वाभिमानसे नाम स्मरणका त्याग नही करना चाहिये। भाव यह है कि प्रारम्भमे किसो लघु शास्त्रसे ज्ञान प्राप्त किया हो अथवा लघु-छोटे विद्वान्से अध्ययन किया हो पश्चात् स्वयं के बहुत ज्ञानी हो जानेपर उस लघुशास्त्र अथवा लघु विद्वान्का अभिमानवश नाम नहीं छिपाना चाहिये। यह परमागममे अनिवाचार कहा है। निह्रवके होनेपर ज्ञानादि गुणोका लोप होता है अर्थात् निह्नव करनेसे ज्ञानावरण कर्मका बन्ध होता है और उसका उदय आनेपर ज्ञानादि गुणोंका ह्रास होता है ।। ५०-५२ ॥ आगे व्यञ्जनाचार कहते हैं
शब्बस्योच्चारणं शुद्ध व्यञ्जनाचार उच्यते ।
अशुद्धोच्चारणान्नूनं चतुर्भवति होनता ॥ ५३॥ अर्थ-शब्दका शुद्ध उच्चारण करना व्यञ्जनाचार कहलाता है क्योंकि अशुद्ध उच्चारणसे वक्ताकी होनता सिद्ध होती है ॥ ५३॥
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सप्तम प्रकाश भावार्ष-शस और वब के उच्चारणमें अधिकांश मशुद्धता होती है और उच्चारणकी अशुद्धतासे अर्थ में भी विपरीतता आ जाती है। जैसे-सकृतका अर्थ एकबार है और शकृतका अर्थ विष्टा है । सकलका अर्थ सम्पूर्ण है और शकलका अर्थ एक खण्ड है । वाल का अर्थ केश है और बाल का अर्थ बालक या अज्ञानी है। श का उच्चारण तालसे होता है और स का उच्चारण दांतोसे होता है, बतः उन्चारण करते समय जिह्वाका स्पर्श तत् तत् स्थानोपर करना चाहिये। अब अवारका स्वरूप कहते हैं
यद् व्यज्जनस्य यो वर्षः संगतो विद्यते भुषि।
तस्बाधारणा कार्या ह्यचारः स उच्यते ॥ ५४॥ अर्थ-जिस शब्दका जो अर्थ लोकमें संगत होता है उसीकी अवधारणा करना अर्थाचार कहलाता है ॥५४॥
भावार्थ-कहींपर विपरीत लक्षणका प्रयोग होनेसे विधिरूप कथनका निषेधपरक अर्थ किया जाता है। जैसे किसीके अपकारसे खिन्न होकर कोई कहता है कि आपने बड़ा उपकार किया, आपने अपनी सज्जनताको विस्तृत किया, आप ऐसा करते हुए सैकड़ों वर्षोंतक जीवित रहे । यहाँ विपरीत लक्षणाका प्रयोग होनेसे विधिपरक अर्थ न लेकर निषेधपरक अर्थ लिया गया है अथवा 'नरक जाना है तो पाप करो' यहा पाप करो इस विधि वाक्यका बर्थ निषेधपरक है। पाप करोगे तो नरक जाना पडेगा इसलिये पाप मत करो। आगे उभयावारको चर्चा करते हैं
वाकशुद्ध शुरश्च पुगपद् धारणा तुया। उभयोः शुचिराख्याता सा शास्त्राधुरंधरः ॥ ५५॥ मानाचारस्य सम्मेवा अष्टौ प्रोक्ताः समासतः।
इतोऽप्रे बर्य आचारचारित्राचारसंहितः ।। ५६ ॥ अर्ष-वाकशुद्धि-
व्यजनशुद्धि और अर्थ शुद्धि दोनोंकी एक साथ धारणा करना उभयशुद्धि कहीं गई है अर्थात् शब्दका शुद्ध उच्चारण और शुद्ध अर्थके एक साथ अवधारण करनेको शास्त्रके श्रेष्ठ ज्ञाता उभयशुद्धि १. उपकृतं बहु तव किमुच्यते सुजनता प्रषिता भवता परा। विदधदीडशमेव सदा सखे सुखितमास्व सता शरदा शतम् ।।
साहित्यदर्पण
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः कहते हैं। इस तरह ज्ञानाचारके आठ भेद संक्षेपसे कहे। अब आगे चारित्राचार वर्णन करनेके योग्य है ॥ ५५-५६ ॥ अब चारित्राचारका कथन करते हैं
अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहो। महाव्रतानि पञ्चव कथितानि जिनागमे ॥ ५७ ॥ ईर्याभाषणादाननिक्षेपणत्युत्सर्गकाः । प्रसिद्ध व्रतरक्षार्थ समितीनां हि पञ्चकम् ॥ ५८॥ कायगुप्तिर्वचोगुप्तिममोगुप्तिश्च भावतः। एतद् पुप्तित्रयं प्रोक्त चरणागमविश्रुतम् ॥ ५९॥ एषामाचरण जेयं चारित्राचारसंहितम् ।
एतत्स्वरूपसंख्यानं पूर्व विस्तरतः कृतम् ॥ ६॥ अर्थ-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, जिनागममे ये पांच ही महाव्रत कहे गये हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और व्युत्सर्ग ये व्रतोकी रक्षा करने वाली पाँच समितियाँ प्रसिद्ध हैं। कायगुप्ति, वचनगुप्ति और भावपूर्वक की गई मनोगुप्ति ये तीनगुप्तियों चरणानुयोगमे प्रसिद्ध है। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीनगुप्ति इन तेरहका आचरण करना चारित्राचार है । इन सबका स्वरूप पहले विस्तारसे कहा जा चुका है ॥ ५७-६० ॥ अब आगे तप आचारका वर्णन करते हुए बाह्य तपोका वर्णन करते हैं
इतोऽग्ने वर्णयिष्यामि तपआचारसंनितम् । आचारं मुनिनाथानां घोरारण्यनिवासिनाम् ॥ ६१॥ इच्छाया विनिरोधोऽस्ति तपा सामान्यलक्षणम् । बाह्याभ्यन्तरभेदेन तत्तपो द्विविध स्मृतम् ॥ ६२॥ उपवासोऽवमोदयवृत्तोपरिसंख्यानकम् । परित्यागो रसानां च विविक्तशयनासनम् ॥ ३ ॥ कायक्लेशश्च संप्रोक्ता बालानां तपसा भिवा । अन्न पानं तथा खाधं लेां चेति चतुर्विधा॥ १४ ॥ आहारो विद्यते पुंसां प्राणस्थिति विषायकः। एतच्चतुविधाहारत्यागो छपवासो मतः॥६५॥ तुर्यषष्ठाष्टमादीनां भेदेन बहुमेक्वान् । एकद्वित्रादि प्रासानां क्रमशो हानितो मतः॥६६॥
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भावोm बोवः समुच्यते । एक ग्रहं गमिष्यामि विधान वा पहिला स्थितान् ॥ ६॥ भाषतं वर्तलाकारं वर्मेति नियमो मतः । पत्तिसंख्यानमामा , तपता मेव उच्यते ॥ ६८॥ घृतदुग्धगुडायोना रसानां परिवर्जनात् । रसत्यागाभिषानोऽयं तपोमेवः प्रगीयते ॥ ६९।। विविक्ते यत्र नायेते शयनासनके मुनेः। तमोमेशः स वियो दिविलायनासनम् ॥ ७॥ मनाबकास मातापो वर्षायोगश्च सावधिः । कायक्लेमस्तपः प्रोक्तं कर्मनिरपक्षमम् ॥ ७१॥ एषां विधिपहिश्यो बाह्यश्वापि विधीयते ।
भतो बाह्याः समुच्यन्ते ता एतास्तपसो भिवाः ॥ ७२॥ अर्थ-यहां से भागे भयंकर वनोमे निवास करनेवाले मुनिराजोंके तप-आचारका वर्णन करूंगा। इच्छाका निरोध करना तपका सामान्य लक्षण है। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे वह तप दो प्रकारका स्मरण किया गया है। उपवास, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त-शय्यासन और कायक्लेश, ये छह बाह्य तपके भेद कहे गये हैं। अन्न, पान, खाद्य और लेह्य यह चार प्रकारका आहार पुरुषोको शरीरस्थितिका कारण है। इन चारो प्रकारके आहारोका त्याग करना उपवास नामका तप माना गया है। यह तुर्य-एक, षष्ठ-वेला और अष्टम-तेला आदिके भेदसे अनेक भेदो वाला है। क्रमसे एक, दो, तोन आदि प्रासोंके घटानेसे अवमोदर्य नामका तप कहा जाता है।' आज आहारके लिये एक घर तक जाऊँगा अथवा एक पंक्तिमे स्थित दो. तोन घर तक जाऊँमा, लम्बे रास्तोंमे जाऊँगा या गोल मार्गमे जाऊँगा। इस प्रकारका नियम लेकर तदनुरूप प्रवृत्ति करना वृत्तिपरिसंख्यान तपका भेद है। घो, दूध तथा गुड़ आदि रसोका त्याग करना रसपरित्याग नामक तप है। मुनिका जो एकान्त निजन स्थानमे शयनासन होता है वह विविक्त-शयनासन तप है। अध्रावकाश-छाया रहित स्थानमें रहना, आतापन योग तथा वर्षायोग धारण करना कायक्लेश
१. शुक्लपक्षमें एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए और कृष्णपक्षमें एक-एक पास घटाते
हुए माहार करना कवल चन्द्रायण बद होता है। यह वन अवमौवयं तपके अन्तर्गत होता है।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
तप है । यह तप समयको अवधि लेकर किया जाता है तथा कर्मक्षय करने में समर्थ है। इनकी विधि बाह्यमें दिखाई देती है तथा कहीं पर बाह्य अन्य लोगोंके द्वारा भी किये जाते हैं। इसलिये ये उपवासादि, बाह्य तप कहे जाते हैं ॥ ६१-७२ ॥
आगे आभ्यन्तर तपोंका वर्णन करते हुए प्रायश्चित्त तपका कथन करते हैं
असोऽन्तस्तपसां मेवा वर्ण्यन्ते यथागमम् । प्रायश्चित्तादिभेदेन तेऽपि षोढा निरूपिताः ॥ ७३ ॥ कृतापराधशुद्धपर्यं यत्तपः प्रविधीयते । गुरोराज्ञां पुरोधाय प्रायश्चित्तं हि तम्मतम् ॥ ७४ ॥ आलोचनाविमेदेन नवधा तदपि मिद्यते । गुरोरग्रे विनीतेन साधुना निश्छलतया ।। ७५ ।। प्रोक्ता ह्यालोचना प्राशेः स्वकीयागो निवेदनम् । स्वतः स्वस्यापराधानां यन्मिथ्याकरणक्रिया ।। ७६ ।। प्रतिक्रमः स विज्ञेयः स्थितिबन्धापसारकः । एतद्द्वयं विधीयेत स्मस्तदुभयं मतम् ॥ ७७ ॥ कृत्वावधि मुनेः सङ्खात् या पृथक्करणक्रिया । विवेको नाम तज्ज्ञेयं प्रायश्वितं मनीषिमि ॥ ७८ ॥ कृत्वा कालावधि साघोर्या कायोत्सर्जनक्रिया | व्युत्सर्ग. स च विशेयो निशायां निर्जनस्थले ।। ७९ ।। अङ्गीकृत्य गुरोराज्ञामुपवासो प्रायश्चितधिया पस्मिस्तत्तपः अपराधस्य वैषम्यं दृष्ट्वा यत्र विधीयते । सागसः साधुवर्गस्य बोलाछेवो हि सूरिणा ॥ ८१ ॥ बेवाभिधानं तज्ज्ञेयं प्रायश्वितं तपस्विमिः ।
विधीयते ।
परिगीयते ॥ ८० ॥
सापराधो मुनिर्यत्र सङ्घान् निःसार्यते क्वचित् ॥ ८२ ॥ परिहाराभिधानं तत् प्रायश्वितं निगद्यते । घोरापराधं संवृश्य पुनर्वीक्षा विधीयते ॥ ८३ ॥ हिमस्तदुपस्थापनम् ।
सागस:
सूरिवर्येण
प्रायश्चित्तमिवं
शास्या Racqqqciga: 11 GY ||
अर्थ - अब इसके आगे आगमके अनुसार आभ्यन्तर तपोंके भेद कहे जाते हैं । वे आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त आदिके भेद से छह प्रकार
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सप्तम प्रकार के कहे गये हैं। कृत अपराधको शुद्धिके लिये गुरुकी आशानुसारको तप किया जाता है वह प्रायश्चित रूप माना गया है । यह प्रायश्चित भी बालोचना आदिके भेदसे नौ प्रकारका होता है । अपराधी साधु निश्छल भावसे गुरुके आगे जो अपने अपराधका निवेदन करता है उसे विद्वज्जनाने आलोचना कहा है। स्वयं ही अपने अपराधोंका जो मिथ्याकरण करना है उसे प्रतिक्रमण जानना चाहिये। यह प्रतिक्रमण पूर्व बद्ध कोको स्थितिको कम कर देने वाला है। तात्पर्य यह है कि आलोचना गुरुके सम्मुख होती है और प्रतिक्रमण गुरुके बिना ही कृत अपराधोके प्रति पश्चात्ताप करते हुए परोक्ष प्रार्थनाके रूपमे 'मेरा अपराध मिथ्या हो ऐसा कपन करने रूप है। जिसमें आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं वह तदुभय नामका प्रायश्चित्त है । भाव यह है कि कुछ अपराधोंको शुद्धि प्रतिक्रमण मात्रसे हो जाती है, कुछ अपराधोको शुद्धि आलोचनासे होती है और कुछ अपराधोको शुद्धिके लिये दोनो करने पड़ते हैं। अवधि-समयकी सीमा निश्चित कर अपराधी साधुको जो सखसे पृथक किया जाता है अर्थात अलग बैठाग जाता है, चर्या आदि भो पृथक् करायो जाती है वह विवेक नामका प्रायश्चित्त है। समयको अवधिकर रात्रिमे निर्जन स्थानमें अपराधो साधुको जो कायोत्सर्ग करना होता है वह व्युत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त है। जैसे-रक्षाबन्धन कथामे मन्त्रियोंसे शास्त्रार्य करनेवाले श्रुत सागरमुनिको शास्त्रार्थके स्थलपर रात्रिमे कायोत्सर्ग करनेका मादेश दिया गया था और उन्होने उसका पालन किया था। जिसमें प्रायश्चितकी बुखिसे गुरुको आशाको स्कोकृतकर उपवास आदि किया जाता है वह सप नामका प्रायश्चित्त कहा जाता है। जिसमें अपराधकी विषमता देख गुरु द्वारा अपराधी साधुको दीक्षा कम कर दो जातो है वह वनामका प्रायश्चित्त जानने योग्य है । जिसमें अपराधो साधुको सङ्घसे अलग कर दिया जाता है वह परिहार नामका प्रायश्चित है और जिसमें घोर-भारो अपराधको देखकर आचार्य शरा अपराधी साधुको पुनः दीक्षा दी जाती है वह उपस्थापन नामका प्रायश्चित है । पुनः दोक्षित साधु नवदीक्षित माना जाता है। इसे संघके १. मुनियोको बाचार सहितासे नवीन दीक्षित साधु पूर्व दीक्षित साधुको
नमस्कार करते हैं। यदि किसो अपरमनी साधुकी दीक्षाके दिन कम कर दिये जाते हैं तो उसे उन साधुओंको नमस्कार करना पड़ता है जो पहले इसे नमस्कार करते थे।
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सम्यक्पारित-पितामणि सब साधुषोंको नमोऽस्तु करना पड़ता है। इस प्रायश्चितको जानकर अपराधसे भयभीत रहना चाहिये ॥७३-८५ । बागे विनयतपका वर्णन करते हैं
गुरुकमाम्जयोरो स्वस्य या मममकिया। साधोनिगा मानित्वं स एष बिनयो मतः॥८५॥ जानवर्शनचारिशोपचार प्रमेवतः । विमयस्यापि चत्वारो भेदाः शास्त्रे प्रपिताः ॥८६॥ क्वचिच्च तपसा साधं पञ्चमेवाः प्ररूपिताः। विनयो मोमसोधस्य प्रवेशद्वारमुच्यते ॥ ८७॥ विनयात्तीर्थकृत्वस्य प्राप्तिर्भवति पोगिनः।
विनयेन प्रहोणस्य सर्वा शिक्षा मिरविका ।। ८८॥ अर्थ-अपने मानको रोककर गुरुके चरण कमलोके आगे साधुका जो नम्रीभूत होना है वह विनय है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचारके भेदसे विनय तपके भी चार भेद शास्त्रमे बताये गये हैं। कहीं मूलाचार आदिमे तपके साथ पांच भेद भी कहे हैं अर्थात् दर्शन-विनय, शान-विनय, चारित्र-विनय, तपो-विनय और उपचार-विनय । विनय, मोक्ष-महलका प्रवेशद्वार कहा जाता है । विनयसे तोर्यकर पदकी प्राप्ति होती है। विनयसे रहित व्यक्तिकी सब शिक्षा निरर्थक है ॥८५-८८ ॥ अब वैयावृत्य तपका लक्षण कहते हैं
आयाते संकटे साधो भक्त्या शनिवारणम् । शुभषाप्रियवाक्पूर्व यावत्यं निगद्यते ॥ ८९॥ आचार्याविप्रमेवेन बयावृत्यं तपः पुनः।
भिद्यते दशधालोके चारित्रस्पैर्यकारणम् ॥१०॥ अर्थ-साधुपर संकट आनेपर भक्तिपूर्वक संकटका निवारण करना और प्रियवचन बोलते हुए उनकी सेवा करना वैयावृत्य कहलाता है। वैयावृत्य तप आचार्य आदि पात्रोके भेदसे लोकमे दश प्रकारका होता है । यह वैयाबृत्य चारित्रकी स्थिरताका कारण है ॥ ८६६ ॥
भावार्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वो. शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, सङ्घ और साधुके भेदसे साधुओंके दश भेद होते हैं। इनकी सेवा करने से वैयावृत्य दश प्रकारका होता है।
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सप्तम प्रकाश बागे स्वाध्याय तपका वर्णन करते हैं
स्वस्वभावस्य सिद्ध्यर्थ स्वाध्याया साधुभिः सदा । कर्तव्यच स्थिरं कृत्वा पलं विस प्रमोवतः॥९१॥ या शास्त्राध्ययनेन स्वस्यवाध्ययनं भवेत्। स्वाध्यायासच विशेषा स्वाध्यायः परमं तपः ॥ ९२ ॥ वाचनाप्रच्छना चाप्यनुप्रेक्षाम्नायको तथा। धर्मोपदेशश्चेत्येताः स्वाध्यायस्य भिवा मताः॥ ९३ ॥ मिरवद्यार्थयुक्तस्य पाठो भवति वाचना। संशयस्य निराकृत्य मातस्य वृढताकृते ॥१४॥ विनयात्प्रन्छनं श्रोतुः प्रच्छना किल कम्यते । सिदान्तश्रुतत स्वस्य भूयोभूयोऽमिचिन्तनम् ॥ ९५ ।। स्वाध्यायो नाम विशेयोऽनुप्रेक्षाभिषानकः । पन्धस्योच्चारणं सम्यगाम्नायः कथितो जिनः ॥ ९६ ॥ शुद्धर्मनोहरक्यिो श्रोतृकल्याणवाञ्छ्या। धर्मस्य देशना या हि सरलीकृतचेतसा ॥ ९७ ।। धर्मोपदेशनामा स स्वाध्यायः कषितो जिनः। स्वाध्यायाचपलं चेतः क्षणादेव स्थिरं भवेत् ॥ ९८॥ रागद्वेषप्रवाहश्च निरुतो भवति क्षणात ।
ततश्च निर्जरा दुष्टकर्मणां जायतेऽचिरात् ।। ९९॥ अर्थ-स्व-स्वभावकी सिद्धिके लिये साधुओको सदा चित्त स्थिरकर हर्षसे स्वाध्याय करना चाहिये। जहां शास्त्राध्ययनसे स्व-ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव वाले आत्म-तत्त्वका अध्ययन होता है, उसे स्वाध्याय जानना चाहिये। ऐसा स्वाध्याय परम तप माना गया है। वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश, ये स्वाध्यायके पाँच भेद माने गये हैं। निर्दोष अर्थसे युक्त शास्त्रका पढ़ना वाचना है। संशयका निराकरण करने और ज्ञात तत्त्वको दृढ़ करनेके लिये विनयसे श्रोताका जो पूछना है वह प्रच्छना कहलाती है। आगममे सुने गये तत्त्वका बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय जानने योग्य है। प्रन्यका ठीक-ठोक उच्चारण करना-आवृत्ति करना आम्नाय नामका स्वाध्याय जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है। सरल चित्त वाले वक्ताके द्वारा मोताओंके कल्याणको इच्छासे शुद्ध एवं मनोहर वचनों द्वारा जो धर्म को देशना दी जाती है उसे जिनेन्द्रदेवने धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय कहा है। स्वाध्यायसे चल चित्त क्षणभरमें स्थिर हो जाता है, रामः
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
द्वेषका प्रवाह क्षणभरमे रुक जाता है और उससे दुष्ट कर्मोंको निर्जरा शीघ्र होने लगती है ।। ६१-६६ ॥
आगे व्युत्सर्ग तपका कथन करते हैं
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बाहीकाभ्यन्तरोपध्योस्यागं कृत्वा प्रमोदतः । कायोत्सर्गीय मुद्राभिः स्थित्वात्मानं विचिन्तयन् ॥ १०० ॥ विविक्ले य. स्थितः साधुस्तपस्येत् तस्य या क्रिया । व्युत्सगं सा हि विज्ञेयं तपो ध्यानस्य साधनम् ॥ १०१ ॥
अर्थ- बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर कायोत्सर्गको मुद्रामे स्थित हो आत्माका चिन्तन करता हुआ सग्धु एकान्तमे जो तपश्चरण करता है उसको यह क्रिया व्युत्सर्ग नामका तप है। यह तप ध्यानका साधन है ॥। १०० - १०१ ।।
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अब ध्यान नामक तपका वर्णन करते हुए आतंध्यानका वर्णन करते हैंश्रेष्ठसंहननोपेतश्चित्तं काग्र्येण संयुक्ता । कुरुते यत्पदार्थेषु चिन्ताया विनिरोधनम् ।। १०२ ।। तद्ध्यानं कथ्यते लोकेज नागमविशारदः । आर्तरौद्राविभेवेन ध्यान स्यात्तच्चतुविधम् ॥ १०३ ॥ आत. खे भवेद्यत्तवासं ध्यान तदुच्यते ।
भेदा अस्यापि चत्वारः प्रगीता परमागमे ॥ १०४ ॥ इष्टस्त्रीसुतवित्तादिवियोगप्रभव
ततः ।
पुनः ।। १०५ ।।
अनिष्टा हिमृगेन्द्रादिसंयोगाज्जनित श्वासकासादिरोगाणामाक्रमाज्जनितं ईप्सितभोगकाङ्क्षायाः प्रभावाज्जनितं पुनः ॥ १०६ ॥
तत ।
अर्थ - उत्तम - आदिके तोन संहननोसे सहित तथा चित्तको एकाप्रतासे युक्त पुरुष जो पदार्थोंमे चिन्ताका निरोध करता है जैनागममे प्रवाण पुरुषो द्वारा वह ध्यान कहा जाता है । आतं, रौद्र, धर्म्यं और शुक्लके भदसे वह ध्यान चार प्रकारका है । आति अर्थात् दुःख के समय जा होता है वह आतध्यान कहलाता है । इसके भी परमागममे चार भद कह गये हैं । इष्ट, स्त्रो, पुत्र तथा धन आदिके वियोगसे होने वाला इष्ट-योगज 14 नामका पहला आर्तध्यान है । अनिष्ट सर्प तथा सिंह आदिके सयोगसे होने वाला अनिष्टसयोगज नामका दूसरा आतंध्यान
| श्वास तथा खाँसी आदि रोगोके आक्रमण से होने वाला वेदनाजन्य
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संस प्रकार नामका तीसरा आतध्यान है और ईप्सिन भोगोंको नाकाडासे होने वाला निवान नामका चौथा आर्तध्यान है ।। १०२-१०६ ॥ अब रोद्रव्यानका वर्णन करते हैं
शास्य परमावस्य जातं रौवं प्रचक्षते । मेवा अस्यापि चत्वारो जिननिरूपिता ॥१०७॥ हिसानको मृवानम्वरचौर्यावरण दुपा।
विषयामबाहत्येते त्वारः सम्प्रकीर्तिताः ॥१८॥ भर्ष-रुद्र अर्थात् क्रूर परिणाम वालेके जो होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है। जिनेन्द्रदेवने इसके भो हिंसानन्द, मृषानन्द, दु.खदायकचौर्यानन्द और विषयानन्द-परिग्रहानन्द, ये चार भेद कहे हैं। हिंसाके कार्योंमें तल्लोन होकर बानन्द मानना हिंसानन्द है। मृषा-असत्य भाषणमे आनन्द मानना मृषानन्द है। चोरोमे आनन्द मानना चौर्यानन्द है और पञ्चन्द्रियोके विषयभूत परिग्रहको रक्षामे व्यस्त रहते हुए आनन्द मानना विषयानन्द-परिग्रहानन्द है ।। १०७.१०८।। मागे धर्म्यध्यानका वर्णन करते हैं
स्या धर्मादनपेतं यत् तद् धन्यं च निगयते। मेवा अस्यापि स्वार: सूत्रमध्ये प्रपिताः॥१०६॥ स्यावासाविचयः पूर्वो पायविषयस्ततः।
विपाकविषयः पश्चात् संस्थानविषयस्ततः ॥११० ॥ अर्थ-धर्मसे सहित ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है। आगममें इसके भो चार भेद कहे गये हैं-पहला आज्ञा-विचय, दूसरा अपाय-विचय, तीसरा विपाक-विचय और चौया संस्थान-विचय । सूक्ष्म, अन्तरित तथा दूरवर्ती पदार्थोंका आज्ञा मात्रसे चिन्तन करना आज्ञाषिचय है। चतुर्गतिके दुःख तथा उससे बचनेके उपायका चिन्तन करना अपायविषय है। कर्म प्रतियोके फल, उदय, उदोरणा तथा संक्रमण भादिका विचार करला विपास-विषय है और लोकके सस्थान-आकार मादिका विचार करना संस्थान-विचय कहलाता है ।। १०६-११०॥ माये शुक्लध्यानका कथन करते हैं
सुक्लस्य रामकालिना रहितस्य भवेतु यत् । शुक्लण्यानं परं प्रोक्तं प्रधान मोक्षकारणम् ॥१११॥ एतस्यापि चतुर्मेसा शास्त्रयम्य प्रापिताः । कर्मनिरपोपाया मुनीनाष सात ते ॥ ११२॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः पृथग वितर्कवीचार एकस्वायवितर्क का।
सूक्ष्मकियोब्रुवं नाम तुर्य प्युपरतक्रियम् ॥ ११३ ॥ अर्थ-रागको कालिमासे रहित शुक्ल-वोतराग परिणाम वाले मनुष्य के जो ध्यान होता है वह शुक्लध्यान कहा गया है । यह शुक्लध्यान मोक्षका प्रधान कारण है । शुक्लध्यानके भी चार भेद शास्त्रोमे कहे गये हैं। ये सभो ध्यान कर्म निर्जराके उपाय हैं तथा मुनियोके हो होते हैं। पहला शुक्लध्यान पृथक्त्व वितर्कवोचार, दूसरा एकत्व वितर्क, तीसरा सूक्ष्म क्रियापत्ति और चौथा व्युपरतक्रिया निवति है ॥ १११-११३ ॥ ___ भावार्थ-जिसमे द्रव्य, पर्याय, शब्द, अर्थ और योगमे परिवर्तन हो वह पृथकत्व वितर्कवीचार नामका पहला शुक्लध्यान है। यह तीनो योगोके आलम्बनसे होता है। जिसमे द्रव्य, पर्याय आदिका परिवर्तन नही होता है वह एकत्व वितर्क नामका दूसरा शुक्लध्यान है। यह तीनमेसे किसी एक योगके आलम्बनसे होता है। तेरहवें गुणस्थानके अन्तिम अन्तर्मुहर्तमे जब मात्र काययोगका सूक्ष्म स्पन्दन रह जाता है तब सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है और जब सूक्ष्म काययोगका भी स्पन्दन बद हो जाता है पूर्वरूपसे योग रहित अवस्था हो जातो है तब चौदहवे गुणस्थानमे व्युपरत-क्रिया-निवति नामका चौथा शुक्लध्यान होता है। प्रथम शुक्लध्यानसे मोहनोय कर्मका उपशम अथवा क्षय होता है। द्वितीय शुक्लध्यानसे शेष तोन घातिया कर्मोंका क्षय होता है । तृतीय शुक्ल ध्यानसे कर्मोको अत्यधिक निर्जरा होतो है और चतुर्थ शुक्लध्यानके द्वारा अघातिया कर्मोको पचासो प्रकृतियोका क्षय होता है। आगे तप आचारका समारोप करते है
एषोऽस्ति तप आचारः साधना प्रमुखा किया। एतेनैव विलीयन्ते कर्माणि निखिलान्यपि ॥ ११४ ॥ अव तप आचारे मुनयः कर्मनिराम् । चिकीर्षव स्तपस्यन्ति धत्वा नानावतान्यपि ॥ ११५ ॥ सिंहनिष्क्रीडितादीनि कठिनानि महान्स्यपि।
एषां विधिविधानानि यानि हरिवंशतः ॥ ११६ ॥ १. इनका स्वरूप तथा गुणस्थान आदिका वर्णन पहले सम्यक्त्व-चिन्तामणि
और सज्ज्ञा चन्द्रिकामे किया गया है, अत विस्तार भयसे यहाँ भेदमात्र कहे गये हैं।
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सप्तम प्रकाश अर्थ-यह तप आचार साधुओको प्रमुख क्रिया है। इसोके द्वारा सभी कर्म विलय-विनाशको प्राप्त होते हैं । इसो तप आचारमे कर्मनिर्जराके इच्छुक मुनि सिंहनिष्क्रीडित आदि बड़े-बड़े कठिन व्रत धारण कर तपस्या करते हैं। इन व्रतोका विधि-विधान हरिवंश पुराण ( ३४ वां सर्गसे ) जानना चाहिये ।। ११४-११६ ॥ आगे वोर्याचारका वर्णन करते हैं
बीर्याचारमथाधिस्य प्रवीमि किश्चित्र भोः । यथाजातः स्वतो बालः स्वशक्तिवर्धयन क्रमात् ॥ ११७ ॥ उत्तुङ्गगिरिशृङ्गषु चटित जायते क्षमः । तथा सुदीक्षितः साधुः स्ववीयं वर्धयन् क्रमात् ।। ११८॥ मातापनादियोगेषु दक्षो दक्षतरो भवेत् । वीर्य स्यावात्मवः शक्तिर्बलं शारीरिक मतम् ॥ ११९ ॥ पुरस्तादात्मवीर्यस्य बलं तुच्छ हि दृश्यते । कृतमासोपवासो य सोऽपि शलशिलातले ॥ १२० ।। करोत्यातापनं योगं चित्रं बीर्य तपस्विनाम् । अघ्रावकाशं शीतों हिमाच्छावितकानने ॥ १२१ ॥ प्रावृदकालेऽपि वर्षाभिः सागरीकृतभूतले। वर्षायोग च संघस्य पादपानामधस्तले ॥१२२ ॥ प्रोष्मतौं तप्तभूखण्डे शैले तप्तशिलोच्चये। आतापनं महायोगं धृत्वा तिष्ठन्ति योगिनः ॥ १२३ ॥ वीर्याचारस्य मध्ये तु मुनयो ध्यानतत्पराः।
नानासनानि संघृत्य तिष्ठन्ति गहने वने ॥ १२४ ।। अर्थ-अब वोर्याचारका आश्रयकर यहां कुछ कहता हूँ। जिस प्रकार उत्पन्न हुआ बालक स्वयं हो क्रम-क्रमसे अपनी शक्तिको बढाता हुआ उन्नत पर्वतको चोटियोपर चढ़नेमे समर्थ होता है उसी प्रकार दोक्षित मुनि क्रमस अपनी शक्तिको बढ़ाते हुए आतापनादि योगोमे अत्यन्त समर्थ हो जाते हैं। आत्माकी शक्तिको वोर्य और शारीरिक शक्तिको बल कहते हैं। आत्मशक्तिके सामने शारीरिक बल तुच्छ दिखाई देता है। मासोपवासो मुनि भो पर्वत शिलातलपर आतापन योग धारण करते हैं। सचमुच हो तपस्वियोका वोर्य आश्चर्यकारक होता है। जब बन बर्फसे आच्छादित रहता है ऐसो शीत ऋतुमे मुनि अभावकाशखुले मैदान में तप करते हैं। वर्षाले जब स्थल समुद्रका रूप धारणकर
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
लेता है ऐसी वर्षा ॠतु मे वृक्षोके नोचे वर्षायोग धारणकर तप करते हैं और जब समस्त पृथिवोतल तप्त हो जाता है ऐसी ग्रीष्म ऋतुमे सतप्त पर्वतपर आतापन नामक महायोग धारणकर योगो स्थित होते है । ध्यान मे तत्पर रहने वाले मुनि, वोर्याचारके मध्य नाना आसन धारणकर सघन वनमे विद्यमान रहते है | ११७-१२४ ।। आगे पश्चाचार प्रकरणका समारोप करते हैं
पञ्चाचारमयं तपोऽत्र विधिना धृत्वा तपस्यन्ति ये ते क्षिप्रं निविडं स्वकर्मनिगई भित्वा शिव यान्ति वै । भो भव्यास्तपसां प्रभावमतुल दृष्ट्वा तपेयुश्चिरात् भोत ते भवबन्धनाद्यदि मन कस्य प्रतीक्षा तव ।। १२५ ॥
अर्थ - जो मुनि इस जगत् में विधिपूर्वक पश्चाचार रूप तपको धारण कर तपस्या करते हैं वे निश्चयसे शीघ्र हो कर्मरूपो सुदृढ़ बेडीको काटकर मोक्षको प्राप्त होते है । ग्रन्थकार कहते हैं- हे भव्यजन हो । यदि तुम्हारा मन संसारके बन्धन से भयभीत हुआ है तो तपका अनुपम प्रभाव देखकर दीर्घकाल तक तप करो। तुम्हे किसको प्रतीक्षा है ? ।। १२५ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमे पञ्चाचारका वर्णन करनेवाला सप्तम प्रकाश पूर्ण हुआ ।
अष्टम प्रकाश
अनुप्रेक्षाधिकार
मङ्गलाचरणम् विपद्यमानं भुवनं विलोक्य
ये वीतरागा भवतो विभीताः ।
धरन्ति दीक्षां भुविमाननीयां
तांस्तानहं भक्तिभरेण नौमि ॥ १ ॥
अर्थ - संसारको नष्ट होता देख रागरहित जो पुरुष संसारसे भयभीत हो पृथिवोपर माननीय दोक्षाको धारण करते हैं उन प्रसिद्ध मुनियोको मै भक्तिभारसे नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
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अष्टम प्र
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अब वैराग्य वृद्धिके अर्थ अनुप्रेक्षाओंका वर्णन करते हुए प्रथम अनित्यानुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं
वैराग्यस्थ प्रकर्षाय सुनिभिः कामनस्थित चिन्मयन्ते भावना नूनमनित्यस्वादि संहिताः ॥ २ ॥ नित्यं न विद्यते कचिद वस्तुलोकत्रये स्वचित् । भानुरुदेति यः प्रातः सायमस्तमुपैति सः ॥ ३॥ सुधांशुभिर्जगत्सर्वं सिवन्निन्दुरपि स्वयम् । प्रातर्भवति निर्वोप्तिः शुष्कपाण्डुपलाशवत् ॥ ४ ॥ न वृश्यते बली रामो लक्ष्मणो न बलाम्बितः । महाचक्रनितालिबसुन्धराः ॥ ५ ॥
भरताबा
न दृश्यन्ते महीमागे बलवद्भिरुपासिता । क्व लुप्ता सा च सीवर्णी लङ्का बशमुखस्य हि ॥ ६ ॥ शिरःस्थाः श्यामला बालाः क्रियन्ते बरसा सिताः । मुखचन्द्रस्य सौम्बयं नश्यत् क्वापि प्रलीयते ॥ ७ ॥ बाहुबेतण्ड शुण्डाभो जातौ शुष्कमृणालयत् । जितमुक्ता मुखे दन्ताः प्राप्तान्ताः कुत्र संगताः ॥ ८ ॥ जोवनं जन्तुजातस्य शरवस्यवद् भङ्गुरम् । भगुरा धनसम्पत्तिः चला सौन्दर्यसम्पदा ।। ९ ।। वस्तुतएवं विमृश्यात्मन् स्वस्थो भव निरन्तरम् । देहाद भिन्नमवेहि स्वं ज्ञानानन्दस्वभावकम् ॥ १० ॥ सर्व ह्यनित्यमेतत् पर्यायार्थविवक्षया । निखिलं नित्यमेवस्याद् द्रव्यार्थस्य विवक्षया ॥। ११ ॥ अर्थ- वैराग्यको वृद्धिके लिये वनमे स्थित मुनिराज अनित्यत्व आदि भावनाओंका चिन्तवन करते हैं। तोनो लोकोमे कही कोई भो वस्तु नित्य नही है । जो सूर्य प्रातःकाल उदित होता है । वह सायं समय अस्तको प्राप्त हो जाता है। अमृतमय किरणोसे समस्त जगत्को सोचने वाला चन्द्रमा भी अपने आप प्रातःकाल सूखे पलाश पत्रके समान कान्तिरहित हो जाता है। न बलवान् राम दिखाई देते हैं और न बलिष्ठ लक्ष्मण । जिन्होने महाचकके द्वारा समस्त वसुधाको जीत लिया था तथा बड़े-बड़े बलवान् जिनकी सेवा करते थे ऐसे भरत आदि चक्रबर्ती दिखाई नहीं देते। रावणको वह सोनेको लंका कहा लुप्त हो गई। शिरके काले बाल वृद्धावस्थाके द्वारा शुक्ल कर दिये जाते हैं।
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सम्यक्वारित्र-चिन्तामणिः मुख चन्द्रका सौन्दर्य नष्ट होकर कहीं विलीन हो जाता है। हाथीको मुंडके समान आभा वाली भुजाएँ सूखी मृणालके समान हो जाती हैं। मोतियोको जीतने वाले मुखके दात नष्ट होकर कहा चले जाते हैं ? जीवोंका जीवन शरद्के बादलोके समान भडगुर है । धन सम्पत्ति नश्वर है, सौन्दयं सम्पदा अस्थिर है । इस प्रकार हे आत्मन् । वस्तु स्वभावका विचारकर तं निरन्तर स्वस्थ रह अपना उपयोग अन्य पदार्थोंमे मत घमा। पर्यायाथिकन यकी अपेक्षा सब पदार्थ अनित्य हो हैं और द्रव्याथिक नयको अपेक्षा सब पदार्थ नित्य हो हैं ॥ २-११ ॥ आगे अशरण भावनाका चिन्तवन करते हैं
कण्ठीरवसमाक्रान्तकुरङ्गस्येव कानने । यमाकान्तस्य जीवस्य नास्तीह शरणं क्वचित् ॥ १२ ॥ माता स्वसा पिता पुत्रो भ्राताम्रातृसुतोऽपि च । एते सर्वे मिलिस्वापि प्रायन्ते नंव मृत्युतः ।।१३।। दावानलेन संव्याप्ते गहने पावपस्थितः। दग्ध सवं विलोक्याप्य दग्धं स्वं मन्यते यथा ॥१४॥ तथंव निखिलं लोक मृत्युष्याघ्रमुखस्थितम् । दृष्ट्वापि हन्त मयोऽयं स्वं स्वस्थ मन्यते मुधा ॥ १५॥ निर्गते जीविते जीव गृहान् निःसारयन्ति हा। बान्धवा मित्रवर्गाश्च नयन्ते शवशायनम् ।। १६ ।। भस्मयन्ति मिलित्वा ते विलपन्ति स्वन्ति च। विपद्यमानान दृष्ट्वापि मृतः प्रत्येति न क्वचित् ।। १७॥ ससारस्य स्वभावोऽयमनादिनिधनो मतः। उत्पद्यन्ते म्रियन्ते च जीवा भवमरस्थले ॥१८॥ कोऽपि केनापि साधं नो याति प्रतियाति नो। एक एव सुहद् धर्मः साधं जीवेन गच्छति ॥ १९॥ शंले बने तडागे वा शैलस्य शिखरेष्वपि । धर्म एवं परो बन्धुस्तरणं भववारिधः॥२०॥ मात्मन्नशरण मत्वा धर्मस्य शरणं बज ।
धर्मावृते न कोऽप्यस्ति त्राता तब जगत्त्रये ॥२१॥ अर्थ-जिस प्रकार वनमे सिंहके द्वारा चपेटे हुए हरिणका कोई शरण-रक्षक नही है उसी प्रकार यमके द्वारा आक्रान्त जोवको कही कोई धारण नहीं है। माता. बहिन, पिता, पुत्र, भाई और भतीजा, ये सब
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मिलकर भी मृत्युसे रक्षा नहीं कर सकते। दावानलले ब्याक्त बनमें वृक्षपर बैठा हुआ मनुष्य सबको जलता देखकर जिस प्रकार अपने आपको सुरक्षित मानता है उसी प्रकार यह मनुष्य समस्त लोकको मृत्युरूप व्याघ्रके मुखमें स्थित देखकर भी अपने आपको व्यर्थ हो स्वस्थ मानता है । प्राणोके निकल जानेपर मनुष्य जोवको घरसे निकाल देते हैं और arraa aur nari sमशानमे ले जाते हैं, मिलकर भस्म कर देते हैं, बिलाप करते हैं और रोते हैं। सम्बन्धो जनोंको रोता चोखता देखकर कोई भी मृत व्यक्ति कहीं लौटकर नही आता । संसारका यह स्वभाव अनादिनिधन माना गया है । संसार रूपी मरुस्थलमें जोव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं । कोई किसीके साथ नहीं जाता और न कोई लौटकर आता है। एक धर्मरूप मित्र हो जोवके साथ जाता है । पर्वतपर, वनमें, तालाब तथा पर्वतकी शिखरोपर धर्म हो उत्कृष्ट बान्धव-सहायक है, संसार सागरसे तारने वाला है। हे आत्मन् ! अपने आपको अशरण मान धर्मकी ही शरणको प्राप्त हो धर्मके बिना तीनो लोकोमें कोई भो तेरा रक्षक नही है ॥ १२-२१ ॥
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अब संसार भावनाका वर्णन करते हैं
अस्मिन् भवार्णवे घोरे दुःखनीरोधसंभृते । जन्ममृत्युमहान की में
व्याधितरङ्गके ।। २२ ।
मरम्तो दुःखसम्भारं चिरं सीदन्ति जन्तवः । श्व प्रतियं मनुष्याणाममराणां व भूयोभूयो अमिस्वाहं भ्रान्तवेहो बभूव हा ।
एकस्यां
धामनि ।। २३ ।।
विषद्योत्पद्यमानोऽहमभनं
श्वासवेलायामथाष्टादशवारकम् ।। २४ ।। घोरवेदनाम् । नटवर स्वामिभृत्यानां वेषस्य परिवर्तनम् ॥ २५ ॥ वृष्ट्वा कथं विरक्तो मो जायते मर्त्य संचयः । निर्धनो बनकाङ्क्षायाः सघमा धनतृष्णया ॥ २६ ॥ प्राप्नुवन्ति महादुःखं सुखी मास्स्यत्र कश्चन । द्रव्यं क्षेत्रं तथा कार्ल भवं भावं च नित्यशः ॥ २७ ॥ पूर्ण करोति जीवोऽयं परावर्तनपञ्चकम् । मृत्वा संजायते क्षिप्रं भूत्वा च म्रियते क्षणात् ॥ २८ ॥ एको रोदिति सन्तानाभावतो भुवि भूरिशः । अभ्यो रोदिति दुई ससंतानस्य समागमात् ॥ २९ ॥
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सम्यचारित-पितामणि कस्यचिन्मृतिमायाति सुगुणः प्रियपुत्रकः । कस्यचित् सुगुणामार्या प्रयाता यममन्दिरम् ॥ ३०॥ एकेन राज्यमालम्पमेक: सीदति कानने । राज्यलक्ष्मीपरियष्टो विचित्रा भवपतिः॥३१॥ संसारस्य स्वरूपं ये चिन्तयित्वा स्वचेतसि ।
विरक्ता भवभोगेभ्यो धन्यास्त सन्ति भूतले ॥३२॥ अर्थ-दुख रूप जलसे परिपूर्ण, जन्ममृत्यु रूपी बड़े-बडे मगरमच्छों से व्याप्त और रोगरूपी तरङ्गोंसे सहित इस भयंकर संसार सागरमें दुःख का भार ढोते हुए जीव चिरकालसे दुखी हो रहे हैं। बड़े दुःखको बात है कि मैं नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोके स्थान-स्वर्ग में बार-बार भ्रमणकर श्रान्त शरीर हो गया हूँ-थक गया हूँ। एक श्वासके समयमें अठारह बार जन्म मरण करते हुए मैंने घोर वेदना प्राप्त की है। नटके समान स्वामी और सेवकोका वेष परिवर्तन देखकर यह मनुष्योंका समूह विरक्त क्यो नही होता? निर्धन मनुष्य धनकी आकाक्षासे और धनवान् मनुष्य धनकी तृष्णासे महान् दु ख पा रहे हैं। इस जगत्में कोई सुखी नहीं है। यह जीव-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पांच परावर्तनोको पूर्ण करता रहता है। मरकर शीघ्र ही उत्पन्न होता है
और उत्पन्न होकर शोघ्र हो मृत्युको प्राप्त होता है। पृथिवोपर एक मनुष्य सन्तानके अभावमे अत्यन्त रोता है तो कोई दुराचारी संतानके संयोगसे रोता है । किसोका गुणवान् प्रिय-पुत्र मृत्युको प्राप्त होता है तो किसीको गुणवतो स्त्री मर जाती है। एक पुरुषने राज्य प्राप्त किया और एक पुरुष राज्य लक्ष्मीसे भ्रष्ट हो वनमें दुःखी होता है, संसारकी पद्धति बडो विचित्र है । जो मनुष्य अपने मनमे संसारके स्वरूपका विचारकर संसार सम्बन्धी भोगोसे विरक्त होते हैं, पृथिवो तलपर वे ही धन्य हैसर्वश्रेष्ठ हैं ।। २२-३२ ॥ आगे एकत्व भावनाका कथन करते हैं
एक एवात्र जायेऽहमेक एव घ्रिये तथा। एको निर्वाणमायाति नास्त्यन्यः कोऽपि में निजः ॥ ३३ ॥ यावृशे पुण्यपापे च कर्मणो विवषास्थयम् । तादृशे सुखदुखे च स्वयमाप्नोति मानवः ॥ ३४॥ बतं परेण नाप्नोति परस्मै मो स्वाति च। अन्योन्यव्यत्ययो नास्ति पुण्यपापास्यकर्मणोः ॥ ३५॥
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पिता परकमायात पुनो मो प्रमाति। स्वकृतं सर्व माप्नोति पुरस्तऽस्मिन् नवावे ।। ३६ ॥ मन्यस्य सुसिवर्ष हुने दुरितं बना। तत्य स्वयमाप्नोति नान्यः वापि कसावन ।। ३७ ॥ है माल्मन् स्वहित पस्य तदेव वासुखावहम् । परवृष्टिस्त्ययात्याच्या सुखं वाञ्छति वेदानबम् ॥ ३८॥ मस्मिन्ननारिसंसारे स्वतन्त्रा सन्ति मन्तवः। कारसन्ति सर्वेऽपि स्वभावस्यैव सर्वरा ॥३९॥ परः परस्यकास्ति दृष्टिरेवा न शोमना। इष्टानिष्टविकल्पानी जनकत्वाद्धयावहा ॥ ४०॥ दृष्ट्येष्टं सुखसम्पन्न मोवन्त राषिणो जनाः। दृष्ट्वा च दुःखसम्पन्न इयन्ते नितरा हि ते ॥४१॥
रागोषी परित्यज्य परकीयेषु वस्तुषु।
वीतरामस्वभावे स्वमात्मनि सुस्थिरो भव ।। ४२ । अर्ष-इस जगत में मैं अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता हूँ और अकेला हो निर्वाणको प्राप्त होता हूँ, अन्य कोई व्यक्ति मेरा निजी नहीं है । यह मनुष्य जैसे पुण्य-पाप कर्म करता है वैसे हो सुखदुःखको स्वयं प्राप्त होता है। यह मनुष्य न तो दूसरेके द्वारा दिये हुए को प्राप्त होता है और न दूसरेको देता है। पुण्य-पाप कर्मका परस्पर आदान-प्रदान नही होता। पिता नरकको प्राप्त होता है तो पुत्र मोक्षको जाता है। इस दुःखदायक संसार-सागर में सब अपना किया हुमा हो प्राप्त करते हैं। दूसरेकी सुख-सिद्धि के लिए मनुष्य पाप करता है परन्तु उसका फल स्वयं प्राप्त करता है दूसरा कोई कही, कभी नहीं । हे मात्मन् ! तू अपना हित देख, वही तेरे लिए सुखदायक होगा। यदि तू स्वायो सुख चाहता है तो तुझे परदृष्टि छोड़ने योग्य है। इस अनादिसंसारमें सब जीव स्वतन्त्र हैं, सभी सवा स्वभावके ही कर्ता हैं । पर, परका कर्ता है, यह दृष्टि-विचारधारा अच्छी नहीं है। इष्टानिष्ट विकल्पोंका जनक होनेसे संसारको बढ़ाने वाली है। इष्ट मनुष्यको सुखी देखकर रागी मनुष्य हर्षित होते हैं और दुःखी देखकर अत्यन्त दुःखी होते हैं। इसलिए पस्वस्तुओंमें राग, देष छोड़कर बोतराम स्वभाव वाले आरमा-अपने आपमें स्थिर हो जा ॥ ३३१२ ।।
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सम्परचारित्र-चिन्तामणि अब अन्यत्वभावनाका चिन्तन करते हैं
माहं नोकर्मरूपोऽस्मि नच कर्मरूपाः । माहं रागादिरूपोऽहं न च शेयस्वरूपकः ॥ ४३ ।। न गुणस्थानरूपोऽहं न च वै मार्गणामयः । मशब्दोऽहं न वर्णोऽहं न च स्पर्शो न गन्धवान् ॥ ४४ ॥ न रसोऽहं न पुण्यायो न च पापमया क्वचित् । एते सर्वे परद्रव्य संजाता विविधात्मकाः॥ ४५ ॥ अहं ज्ञानस्वभावोऽस्मि परतो भिन्न एव हि। आत्मानं बेहतो भिन्नं ये जानन्ति मुनीश्वरा ।। ४६ ।। त एव शिवमायान्ति कुर्वन्त' कर्मनिर्जराम् । यदा वेहोऽपि में नास्ति जन्मतः प्राप्तसंगतिः ।। ४७ ॥ तदा गेहादयो बाह्याः पदार्थाः सन्तु मे कथम्। पुत्रमार्यादिषु भ्रान्ताः कुर्वाणा ममताश्रयम् ॥ ४८॥ 'म में मे' इति कुर्वाणा वर्करा इव मानवा।। पतिता मोहपऽस्मिन् प्रविशन्ति मृतेर्मुखे ॥ ४९ ॥ यथा लोहस्य ससर्गावनलः पोरचते धनं.। तथा देहस्य ससर्गादात्माऽयं पोडपते घनः ॥ ५० ॥ जीवानामत्र सन्त्यत्र यावन्त्यो हि विपत्तया। तावत्यो निखिला ज्ञेया संयोगादेव देहिनाम् ॥५१॥ येषामात्मा पराच्युत्वा शुद्धाकाशनिभोऽभवत् ।
त एव भगवत्सिद्धाः सुखिन सन्ति नेतरे ॥ ५२ ।। अर्थ-निश्चयसे मैं नो कर्मरूप नही हूँ, कर्मरूप नही हूँ, रागादिरूप नही हूँ, ज्ञेयरूप नही हूँ, गुणस्थानरूप नही हूँ, मार्गणामय नहीं हूँ, शब्द नहीं हूँ, वर्ण नहीं हैं, स्पर्श नही हूँ, गन्धवान् नहो हूँ, रसरूप नहीं हूँ, पुण्य सहित नहीं हूँ और कही पाप सहित भो नही हूँ। ये सब नाना रूप परद्रव्यके सयोगसे उत्पन्न हुए हैं। मै ज्ञान स्वभावो हूं, परसे भिन्न ही हू जो मुनिराज शरोरसे भिन्न आत्माको जानते हैं वे हो कर्मोको निर्जरा करते हुए मोक्षको प्राप्त होते हैं । जब जन्मसे साथ लगा हुआ शरोर भो मेरा नहीं है तब घर आदि बाह्य पदार्थ मेरे कैसे हो सकते हैं? पुत्र तथा स्त्रो आदिमे भूले मनुष्य ममताका आश्रय करते हुए मे मे मे' करने वाले बकरोके समान मोहरूपो कर्दममे पड़कर मृत्यु के मुखमे प्रवेश करते हैं-मर जाते हैं। जिस प्रकार लोहको संगतिसे
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111 अग्नि, घनीके द्वारा पोटी जाती है उसी प्रकार देहको संगतिसे यह आत्मा, कर्म रूपी घनोंके द्वारा पोटी जाती है । इस जगत् में जीवोंको जितने कष्ट हैं वे सब स्त्रो पुत्रादि प्राणियोके संयोगसे ही जानना चाहिये। जिनकी आत्मा परसे च्युत हो शुद्ध आकाशके समान हो गई है वे भगवंत सिद्ध परमेष्ठी हो लोकमे सुखो हैं ॥ ४३-५२ ॥
अष्टम प्रकाश
आगे अशुचित्व भावनाका चिन्तन करते हैं
मातातात रजोवीर्यादुत्पत्तिर्यस्य
जायते ।
रा देहः शुचितां यायात् कथमित्थं विचार्यताम् ॥ ५३ ॥ य स्वभावावशुद्धोऽस्ति स शुद्धः स्यात्कथं परे । मलमूत्रमयो बेहो सुम्दर चर्मणावृतः ॥ ५४ ॥
I
स्वर्णपत्रसमाच्छन्नमलपूर्णघटोपमः एतत्संगतिमासाद्य चित्रमाद्यम्ति मानवा! ।। ५५ ॥ यदीय सङ्गमासाद्य वस्तुन्यत्र शुचीन्यपि । अशुचीन्येव जायन्ते स वेहो रूच्यते कथम् ।। ५६ ।। शरीररागः सर्वेषा रागाणां मूलमुच्यते । सर्व रागविरक्तिश्चेद् देहरागो विमुच्यताम् ।। ५७ ।। बेहरागेण संयुक्ता व शक्ताः स्यु परीबहान् । सोढुं क्षुधापिवासादीन् देहपीडाकराम् सदा ।। ५८ ।। इत्थंभूता नराः क्वापि मुनिदीक्षां धरन्ति नो । सुनियोक्षां विना क्वापि मोक्षप्राप्तिनं जायते ॥ ५९ ॥ यथार्थ सुखलिता से मानसे यदि वर्तते । देहरागस्त्वया स्याज्यस्तर्हि मुक्तिप्रबाधकः ॥ ६० ॥ देहस्याशुचितां नित्यं भावयित्वा मुनीश्वराः । देहरागं परित्यक्तुं समर्थाः सन्ति भूतले ॥ ६१ ॥ एते मुनीश्वरा एवं कायक्लेशादिकं तपः । कुर्वन्ति श्रद्धयोपेताः कर्मक्षयविधायकम् ।। ६२ ।।
अर्थ - माता-पिताके रजवीर्यसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह शरीर शुचिता - पवित्रताको कैसे प्राप्त हो सकता है, ऐसा विचार करना चाहिये ? जो स्वभावसे अशुद्ध है वह दूसरे पदार्थोंसे शुद्ध कैसे हो सकता है ? मलमूत्रमय शरीर सुन्दर चर्मसे ढका हुआ है अत स्वर्णपत्रसे आच्छादित मलपूर्ण घडेके समान है । इस शरोरको संगति पाकर मनुष्य मत्त होते हैं- अपने आपको भूल जाते हैं । यह आश्चर्य की बात
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
है, इस जगत् में जिसका सङ्ग पाकर अन्य पवित्र वस्तुएँ भी अपवित्र हो जाती हैं वह शरीर लोगोको कैसे रुचता है-अच्छा लगता है ? शरीरका राग ही सब रोगोका मूल कहा जाता है । यदि सब रागोसे विरक्ति हुई है तो शरीरका राग छोडना चाहिये । शरीरके रागसे सहित मनुष्य शरीरकी पीड़ा करने वाले क्षुधा, तृषा आदि परीषहोको सहन करनेमे सदा समर्थ नहीं हो सकते। ऐसे मनुष्य कही भो मुनि दीक्षा धारण नही करते और मुनि दीक्षा के बिना कही भी मोक्षकी प्राप्ति नही होती । है आत्मन् । यदि तेरे मन मे यथार्थ सुख प्राप्त करने की इच्छा है तो तुझे मुक्तिका बाधक शरोर सम्बन्धी दाम छोड देना चाहिये । पृथिवोतलपर मुनिराज सदा शरीरकी अशुचिताका विचारकर शरीर सम्बन्धी राग छोडनेमे समर्थ हैं । ये मुनिराज ही श्रद्धासे सहित हो कर्मक्षयकारक कायक्लेशादिक तप करते हैं ।। ५३-६२ ।।
अब आसव भावनाका स्वरूप कहते हैं
सच्छिद्रां नावमारुह्य यथा नो यान्ति मानवाः । स्वेष्ट धाम तथा लोकाः सालवा' स्वेष्टधामकम् ॥ ६३ ॥ मनोवाक्कायचेष्टा या सेव योगः समुच्यते । योगेनं वास्त्रवत्यत्र विविधा कर्मसन्ततिः ॥ ६४ ॥
तस्यां स्थिस्यनुभागो च कषायोदयतो मतौ । यथा स्थित्यनुमागं च सा ददाति फलं नृणाम् ॥ ६५ ॥ कर्मोदयवशाजीवा चतुरन्तभवार्णवे । मज्जनोन्मज्जने नूनं कुर्वन्ति विभ्रमन्ति च ॥ ६६ ॥ एकान्ताविमेदेन मिथ्यात्वं वञ्चषा मतम् । अविरतिश्च विख्याता द्वादशभेदसंयुता ॥ ६७ ॥ भेदाः सन्ति प्रमादस्य दशधा पञ्चधापि च । suratri प्रमेदा स्युः पञ्चविंशति संख्यकाः ॥ ६८ ॥ योगाः पञ्चदश प्रोक्ताः कर्मसिद्धान्तपारगः । द्वासप्ततिमिताः प्रोक्ताः कर्मसिद्धान्तपारगः ॥ ६९ ॥ एम्यो रक्षा प्रकर्तव्या स्वात्मनः सततं नृमि: । आलवे सति जीवानां कल्याणं नंव सम्भवेत् ॥ ७० ॥ यथा यथाहि जीवोsयं गुणस्थानेषु वर्धते । तथा तथा हि जीवस्य श्रीयन्ते स्वत आश्रवाः ॥ ७१ ॥
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एवं पर्वत, स्थाने सविशेषतः।
अवन्य पूर्णाति समान्मुक्ति प्रयाति सः॥७२॥ अर्ष-जिस प्रकार छिद्र सहित नासार सवार हो मनुष्य अपने इष्ट स्थानको प्रास नही होते हैं उसी प्रकार बाब सहित मनुष्य अपने इष्ट स्थान-मोक्षको सास नहीं होते हैं। मन, बचन, कायको जो चेष्टा-व्यापार है वहीं बोल कहलाता है । इस बोपके द्वारा हो आत्मामे विविध कर्मसमूहोका आस्रव होता है। उन कर्मसमूहोंमे स्थिति और अनुभाग कषायके उदयसे होते हैं और स्थिति-अनुभागके अनुसार वे मनुष्योंको फल देते हैं। कर्मोदयके वशीभूत जीव चतुर्गतिरूप संसार सागरमें मज्जन और निमज्जन करते हुए, खेद है कि निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं। एकान्त आदिके भेदसे मिथ्यात्व पाँच प्रकारका माना गया है, अविरतिके बारह भेद प्रसिब है, प्रमादके पन्द्रह भेद हैं, कषायोके पच्चीस प्रभेद हैं और योग पन्द्रह प्रकारके हैं। कर्मसिद्धान्त के पारगामी आचार्योंने ये हो सब आलवके बहत्तर भेद कहे हैं। मनुष्योको इन आस्रवके भेदोसे अपनी रक्षा करना चाहिये, क्योकि आस्रवके रहते हुए जोवोका कल्याण नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे यह जीव गुणस्थानोंमें बढता जाता है वैसे-वैसे ही उसके आस्रव अपने आप कम होते जाते हैं । इस प्रकार चौदहवें मुणस्थानमे सब आस्रवोंका अभाव हो जानेसे पूर्ण अबन्ध हो जाता है-बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है और तब यह आत्मा क्षणभरमें मुक्तिको प्राप्त हो जाता है ।। ६३-७२।। आगे संवर भावनाका चिन्तन करते हैं
मानवस्य निरोगो का बरः स हि कम्यते। संबरेल विना लोकोमेद स्पानं व्रजेत् स्यचित् ।। ७३ ॥ सच्छिापोतमाको लस्यासवणे सति । नियमेन सुबत्येव भोरे सागरे यथा ॥४॥ तपासावीवितह , शुभाचारमधिष्ठितः। नियमेन पतस्व. भवाचे मसागरे ॥ ७॥ मनो बारकास्यप्तीनां प्रवेष धर्मतः। पचया समितिभ्यास मारिवानां च पञ्चकात् ।। ७६ ॥ भासयोऽनुप्रेमायो या परोपही। संबरो जायते मूर्न सम्भावल्या विशुम्भताम् ॥ ७॥
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सम्यक्चारित-चिन्तामणि:
जायते ॥ ७८ ॥
मिथ्यादृशामबन्धोऽस्ति केषां चित्पुण्यकर्मणाम् । तीर्थकृत्प्रभृतीनां च संवरो मेव सत्येव बन्धविच्छेदे संवरो हि निगद्यते । संबरेण युता या हि निर्जरा कर्मणामिह ॥ ७९ ॥ सेव सार्थक्यमाप्नोति नाभ्या विग्रहधारिणाम् । समये समये जीवजातीनां कर्मणां चयः ॥ ८० ॥ बन्धमाप्नोति तावांश्च निर्जरामेति सर्वतः । सत्तायां विद्यते सार्धं गुणहानिमितस्तथा ॥ ८१ ॥ मोहनिद्राशमात् साधुसङ्घस्य शुभवेशनात् । सम्यक्त्वं प्राप्यते भव्यं स्त्रिलोक्यामपि दुर्लभम् ॥ ८२ ॥ संवरमेव सम्प्राप्तुं प्रयत्नं कुरु सर्वदा । सवरमन्तरा न स्यात् कर्मणां क्षपण क्वचित् ॥ ८३ ॥
अर्थ - जो आस्रवका रुकना है वही सवर कहलाता है । संवरके बिना मनुष्य कहीं भी इष्टस्थानको प्राप्त नही हो सकता । सच्छिद्र जहाजपर बैठा मनुष्य जलका आगमन होने पर जिस प्रकार गहरे समुद्रमे नियमसे डूबता है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्मोके आस्रवसे सहित शुभाचारको प्राप्त हुआ ( मिथ्यादृष्टि ) नियमसे भयपूर्ण संसार सागरमे पडता है। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति – इन तीन गुप्तियोसे, उत्तमक्षमादि दश धर्मोसे, पाँच समितियोसे, पाँच प्रकारके चारित्रोसे, बारह अनुप्रेक्षाओसे तथा बाईस परोषहजयोसे सम्यग्दृष्टि जीवोके निश्चय ही सवर होता है । मिथ्यादृष्टि जोवोके तोर्थङ्कर प्रकृति, आहारक शरीर तथा आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग इन पुण्य प्रकृतियोका अबन्ध है, संवर नही, क्योकि बन्ध व्युच्छित्ति होने पर हो सवर कहलाता है । सवरके साथ जो कर्मोंको निर्जरा होती है वहीं सार्थकताको प्राप्त होती है। वैसे तो सभी संसारी जीवोंके प्रत्येक समय जितना ( सिद्धो अनन्त भाग और अभव्यराशिसं अनन्तगुणित ) कर्मसमूह बन्धको प्राप्त होता है, उतना ही सब ओरसे निर्जराको प्राप्त होता है ओर डेढ गुणहानि प्रमाण कर्मसमूह सत्तामे रहता है। मोहनिद्राके उपशम तथा साधुसङ्घके उपदेशसे भव्य जीव त्रिलोक दुर्लभ सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते हैं । इसलिये है आत्मन् ! संवरको हो प्राप्त करनेका सदा प्रयत्न करो, क्योकि संबरके बिना कमका क्षय कहीं कभी नही होता है ।। ७३-८३ ।।
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बागे निर्जरा भावनाका चिन्तन करते हैं
कर्मणो पूर्वबहानायकदेशस्य संगमः। मिर्जरा प्रोग्यते विनायविशारदः॥४॥ सविपाकाविपाकेतिमेरेन हिविषा - सा। माया भवति सर्वेषां द्वितीया स्यातपस्विनाम् ॥ ८॥ कर्मस्थित्यनुसारेणावापाकाले समापते। बदतः स्वफल कर्म-प्रदेशाः संचिता स्वयम् ॥ ८६ ॥ पृथग भवन्ति जीवघ्या सविपाका मता भुतो। प्रभावात् तपसा केचिवाबाधा पूर्वमेव हि ॥ ८७ ॥ निर्मार्णा यत्र जायन्ते सा मता विपाकना। अविपाकाप्रभावेण जोपा आयान्ति निर्वृतिम् ॥ ८८॥ सविपाकाप्रभावात्तु तिष्ठत्वव विष्टपे। अनशनाविभेदेन तपांसिसन्ति दावश ।। ८९॥ तान्येव सूरिभिः प्रोक्ता अविपाकासुहेतवः। हेतो सत्येव सिदधन्ति कार्याणि न तु तं बिना ॥१०॥ आत्मन् ! वाग्छसि चेःपरिमोसं समन्ततः । सया कुरु तासि त्वं यथाकालं यथावलम् ॥ ९१ ॥ मग्नितप्तं यथा हेमनिर्मलं जायते दुतम् । तपस्तप्तस्तथाल्मायं निर्यसो भवति ध्रुवम् ।। ९२॥ अनावितो निवदानि कर्माणि तपसा बिना।
क्षीयन्ते नव जीवानां वाञ्छतामपि नित्यशः ॥ ९३ ॥ अर्थ-जैनागमके ज्ञाता विद्वानो द्वारा, पूर्वबद्ध कर्मों के एकदेशका क्षय होना निर्जरा कही जाती है। यह निर्जरा सविपाका और अवि. पाकाके भेदसे दो प्रकारको होती है। सविपाका निर्जरा सभी जीवोके होतो है परन्तु अविपाका निजरा तपस्वियो-मुनियोके होतो है। कर्मस्थितिके अनुसार आबाधाकाल आनेपर संचित कर्मप्रदेश अपना फल देते हुए जीवोंसे जो स्वयं पृथक् हो जाते हैं, यह निर्जरा शास्त्रोमे सविपाका मानी गई है और जिससे तपके प्रभावसे कितने ही कर्मप्रदेश आवाधाके पूर्व हो निर्जीर्ण हो जाते हैं वह अविपाकमा निर्जरा मानो गई है। अविपाक निर्जराके प्रभावसे जोव निर्वाणको प्राप्त होते हैं और सविपाक निर्जराके प्रभावसे इसो संसारमे स्थित रहते हैं। अनशनादिके भेदसे तप बारह हैं, ये तप ही आचार्योन अविपाक निर्जरा
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सम्पपारित-पितामणिः के हेतु कहे हैं। हेतुके रहते हुए हो कार्य होते हैं हेतुके बिना नहीं है आत्मन् ! यदि तू सब ओरसे दुःखोसे छुटकारा चाहता है तो समय और शक्तिके अनुसार शीघ्र ही तपकर । जिस प्रकार अग्निसे संतप्त स्वर्ण शोघ्र ही निर्मल हो जाता है उसी प्रकार तपसे संतप्त यह आत्मा निश्चित हो निर्मल हो जाती है। जीव निरन्तर चाहे भी, तो भो उनके अनादिकालसे बंधे हुए कर्म तपके बिना नष्ट नही होते हैं ।। ८४-६३ ॥ अब लोक भावनाका चिन्तन करते हैं
पादौ प्रसार्य भूपृष्ठे बाहूनिक्षिप्य मध्यके। स्थितमर्त्यसमाकारो लोकोऽय विद्यते सदा ॥ ९४ ॥ न केनापि कृतो लोको म हत शक्य एव हि । अनादिनिधनो ोष वातत्रयसमावृतः ॥ ९५ ॥ अधोमध्योलभेदेन लोकोऽयं त्रिविषो मतः। स्वाभा बसन्त्यधो लोके मध्यलोके च मानवाः ॥ ९६ ॥ निलिम्पा ऊर्ध्वसम्भागे तिर्यवः सन्ति सर्वतः। अयं सुविस्तृतो लोको निचितो जीवराशिभिः ॥ ९७॥ एकोऽपि स प्रवेशो न विद्यते भवनत्रये। यत्राहं न समुत्पन्नो यत्र न च समृतः ॥ ९८॥ हा हा क्षेत्रपरावर्ते सर्वत्र अमितो भराम् । जन्ममृत्युमहादुःखममजं भूरिशोऽप्यहम् ॥ ९९ ॥ लोकरूप विचिन्त्यात्र ये विरक्ता भवन्स्यतः। त एव कर्मनिर्मक्ता लोकाये निवसन्ति हि ॥ १० ॥ सरिन्छलादिसौन्वयं राजतो चन्द्रिकाविभाम् । सूर्योदयस्य लालित्यं निरास्फालनं तथा ॥१०१॥ वृष्ट्वा रज्यन्ति भूभागे तव विहरन्ति च । निर्जला वृक्षहीनां च मरुभूमि विलोक्य ये॥१०२॥ द्विषान्ते मानवास्तेऽत्र रागद्वेषवशं गताः।
उत्पयन्से म्रियन्ते च सव भवनत्रये ॥ १०३ ॥ अर्थ-पृथिवीपर दोनो पैर फैलाकर तथा दोनो हाथ कमरपर रखकर खड़े हुए पुरुषका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार वाला यह लोक सदासे विद्यमान है। यह लोक न तो किसीके द्वारा किया गया है और न किसीके द्वारा नष्ट किया जा सकता है। अनादि निधन और तीन वातवलयोसे वेष्टित-घिरा हुआ है। अधोलोक, मध्य
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अष्टमे प्रकाश
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लोक और ऊठलोकके भेदसे यह तीन प्रकारका माना गया है । अधोलोकमें नारकी रहते हैं, मध्यलोकमे मनुष्य रहते हैं, ऊर्वलोकमे देव रहते हैं और तियंश्व सभी लोकोमे रहते हैं । यह अत्यन्त विस्तृत लोक जीवराशिसे व्याप्त है। तीनो लोकोमें वह एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ और मरा नही हूँ। बड़े दुःखकी बात है कि क्षेत्र परावर्तनमे में सर्वत्र अनेक बार घूम चुका हूँ | मैंने जन्म और मृत्युका महान दुःख अनेक बार प्राप्त किया है। इस तरह लोकका स्वरूप विचार कर जो उससे विरक्त होते हैं वे हो कर्मरहित हो लोकके अग्रभागपर निवास करते हैं और जो नदी तथा पर्वतोंका सौन्दर्य, चाँदी के समान चांदनीकी प्रभा, सूर्योदयकी सुन्दरता और झरनोंके प्रपातको देखकर किसी प्रदेशमे राग करते हैं तथा वहीं विहार करते हैं एवं निर्जल तथा वृक्षहोन मरुभूमिको देखकर द्वेष करते है, रागद्वेषके वशीभूत हुए वे मनुष्य इन्ही तीनों लोकोमें उत्पन्न होते और मरते रहते हैं ।। ६४-१०३ ।।
मागे बोधिदुर्लभ भावनाका चितवन करते हैं
लोकोऽयं सर्वतो व्याप्तः स्थावरजीवराशिभिः । स्थावरात् प्रसता प्राप्तिर्युर्लभा वर्ततेतराम् ॥ १०४ ॥ Anatri च संशित्वं संशित्वे च मनुष्यता । मनुष्यत्वे च सत्क्षेत्रं सत्क्षेत्रे च कुलीनता ।। १०५ ।। कुलीनतायामारोग्यमारोग्ये दीर्घजीविता । तत्र सम्यक्त्वसंप्राप्तिस्तत्राप्तात्मनि लक्ष्यता ॥ १०६ ॥ तत्राप्यदोषचारित्वं दुर्लभं ह्यतिदुर्लभम् । एवं विचार्य सद्द्बोधेबर्डभ्यं तत् सुरक्ष्यताम् ॥ १०७ ॥ यथेह दुर्लभं ज्ञात्वा मणिमुताबिक नराः । रक्षन्ति तत्परत्वेन बोधी रम्यस्त्वया तथा ।। १०८ ।। बोधो रत्नत्रयं नाम दुर्लभं वर्तते नृणाम् । एकावशाद् गुणस्थानात् पतिताः साधवी ह्यधः ॥ १०९ ॥ अर्धपुद्गल पर्यन्तं पर्यटन्ति भवेभवे । केचिच्चान्तर्मुहूर्तेन सध्या रत्नत्रयं निधिम् ॥ ११० ॥ प्राप्नुवन्ति शिवं सद्यः स्वात्मन्येव रता नराः । परिणामस्य वैचित्र्यं यस्व बुध्यते ॥ १११ ॥
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सम्यक्चारित-चिन्तामणिः
भोगाniक्षाविशाला ते सागरोपमनीविश्वे अल्पायुषि नरवे सा पूर्यते कथमत्र सा । ततो विरज्य भोगेभ्यः स्वस्मिन्नेव रतो भव ॥
न पूर्णादेवपर्यये ।
आगे धर्म भावनाका स्वरूप कहते हैं
सर्व साधनसंयुते ॥ ११२ ॥
११३ ॥
अर्थ -- यह लोक सब ओर स्थावर जीवोके समूहसे व्याप्त है । स्थावरसे त्रस पर्यायकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । त्रस पर्यायमे संज्ञोपना, सज्ञियोमे मनुष्यता, मनुष्यतामे अच्छा क्षेत्र, अच्छे क्षेत्रमे कुलीनता, कुलीनतामे आरोग्य, आरोग्यमे दोर्घायुष्य, दीर्घायुष्यमे सम्यक्त्वको प्राप्ति, सम्यक्त्व प्राप्तिमे आत्माका लक्ष्य और आत्माके लक्ष्यमे निर्दोष चारित्रका पालन करना अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्रकार सद्बोधि की दुर्लभताका विचारकर उसकी रक्षा करना चाहिये। जिस प्रकार मनुष्य मणि, मुक्ता आदिको दुर्लभ जानकर तत्परता से उसकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार बोधिको दुर्लभ जान उसका रक्षा करना चाहिये । बोध रत्नत्रयका नाम है । यह मनुष्योके लिये दुर्लभ है । ग्यारहवे गुणस्थानसे नोचे गिरे हुए मनुष्य अर्धपुद्गल परिवर्तन पर्यन्त अनेक भवोमे घूमते रहते है और कोई रत्नत्रय रूप निधिको प्राप्त कर स्वात्मामे लोन रहने वाले मनुष्य अन्तर्मुहूर्त के भीतर शीघ्र हो मोक्षको प्राप्त कर लेते है । परिणामोको यह विचित्रता छद्मस्य जोव नही जान पाते । जहाँ सागरो प्रमाण आयु थो तथा सब साधन सुलभ थे ऐसी देवपर्याय• मे तेरो विशाल भोगाकाक्षा पूर्ण नही हुई तो अल्पायु वाले मनुष्य पर्याय मे कैसे पूर्ण हो सकती है ? अत ह आत्मन् । तूं भोगोसे विरक्त हो, स्वकोय आत्मामे ही रत - लीन हो जा ।। १०४-११३ ।।
कान्तारे मार्गतो भ्रष्टं समुद्रे पतितं तथा । दारिद्रद्याब्धितले मग्न शैलात्संपतितं नरम् ॥ ११४ ॥ रक्षितु धर्मएवास्ति शक्तो नान्योऽत्र भूतले । धर्मो मूलं त्रिवर्गस्य त्रिवर्गः सुखसाधनम् ॥ ११५ ॥ मूलस्य रक्षणं कार्यं मूलनाशे कुतः सुखम् । आत्मनो यः स्वभावोऽस्ति स धर्मः प्रोच्यते बुधैः ॥ ११६ ॥ रत्नत्रये क्षमाद्याश्च धर्मशब्देन कीर्तिताः । धर्मादेव मनुष्याणां जीवनं सफलं भवेत् ॥ ११७ ॥
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धर्महोना न शोमते मिर्गन्धा किशुकाः। सम्यक्स्वमूलो धर्मोऽस्ति मूळ रक्यं ततो नमिः ॥ ११८॥ सम्यक्त्ववन्तो पे जीवा चारित्रं वषते परम् । ते वृतं शिवमायान्ति स्थायिसोयसमन्वितम् ॥ ११६ ॥ ये नरा धर्ममात्य भोगाकलां धरम्ति च। ते नूनं कापण्डेन विक्रीणन्ति महामणिम् ।। १२० ॥ भोगाकांक्षामहानखां वहमाना नराः सदा। अन्ते निगोदनामानं महाब्धि प्रविशन्ति ॥ १२१ ॥ दुर्लभं मानुषं । लब्ध्वा धर्मेण सफलीकुरु । समुद्रे पतित रन पथा भवति दुर्लभम् ॥ १२२॥ तथा गतं मनुष्यत्वं दुर्लभ ह्येव वर्तते।
विपद्ग्रस्त नर लोके धर्मो रक्षति रक्षितः ।। १२३ ।। अर्थ-वनमे मार्गसे भ्रष्ट, समुद्रमे पतित, दरिद्रतारूपो समुद्रके तलमे निमग्न और पर्वतसे गिरे हुए मनुष्यको रक्षा करनेके लिए पृथिवीपर धर्म हो समर्थ है अन्य कोई नहो। धर्म, त्रिवर्गका मूल है और त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम-सुखका साधन है। अत मूलको रक्षा करना चाहिये क्योकि मूलका नाश होनेपर सुख किससे हो सकता है ? आत्माका जो स्वभाव है वही ज्ञानोजनो द्वारा धर्म कहा जाता है। रत्नत्रय और क्षमा आदिक भो धर्म शब्दसे कहे जाते हैं। धर्मसे हो मनुष्योका जीवन सफल होता है। धर्महोन मनुष्य गन्धरहित टेसूके फूलके समान शोभित नही होते । धर्म, सम्यक्त्वमूलक है अत मनुष्योको मूलकी रक्षा करना चाहिये । जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य उत्तम चारित्र धारण करते हैं वे शोघ्र हो शाश्वत सुखसे सहित मोक्षको प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य धर्म धारण कर उसके बदले भोगोको आकाक्षा रखते हैं वे निश्चित ही कांचके टुकड़ेसे महामणिको बेचते हैं। निरन्तर भोगाकाक्षारूपो महानदीमे बहने वाले मनुष्य अन्तमे निगोद नामक महासागरमे प्रवेश करते हैं। दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर उसे धर्मसे सफल करो। समुद्र में पड़ा हुआ रत्न जिस प्रकार दुर्लभ होता है उसी प्रकार गया हुआ मनुष्य भव दुर्लभ है । रक्षा किया हुआ धर्म हो लोकमे विपत्तिग्रस्त मनुष्यकी रक्षा करता है ॥ ११४-१२३ ॥
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१२२
सम्यक्पारित-चिन्तामणिः आगे अनुप्रेक्षाधिकारका समापन करते हैंभव्या इमा द्वादशनावना ये
स्विरेण चित्तम हि भावयन्ति । मध्यमुद्रापरिरक्षणे ते
शक्ता भवेयुनियमेन भव्याः ॥ १२४ ॥ अर्थ-जो भव्य पुरुष, स्थिर चित्तसे इन उत्तम बारह भावनामोका चिन्तवन करते हैं वे नियमसे निम्रन्थ मुद्राकी रक्षा करनेमे समर्थ होते हैं ॥ १२४ ॥
इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमे अनुप्रेक्षाओका
वर्णन करने वाला अष्टम प्रकाश पूर्ण हुआ।
नवम प्रकाश ध्यान सामग्री
मङ्गलाचरणम् ध्यानेन भित्त्या भवबन्धनानि
रागादिदोषोपनिबन्धनानि । प्रापुः प्रियां मुक्तिमनस्विनी ये
सिद्धान् विशुद्धान् सततं नुमस्तान् ॥ १॥ अर्थ-जो ध्यानके द्वारा रागादि दोषरूप तीव्र कारणोसे मुक्त ससारके बन्धनोको तोडकर मुक्तिरूपो गौरवशालिनी प्रियाको प्राप्त कर चुके हैं, मैं विशुद्ध परिणामोसे युक्त उन सिद्ध परमेष्ठियोको बारबार स्तुत करता हूं ॥१॥ अब चित्तकी स्थिरताके लिये ध्यानकी सामग्रीका वर्णन करते हैं
अथ वक्ष्ये गुणस्थानं मार्गणासु यथाक्रमम् ।
ध्यान तस्वस्य सिद्धचर्य यथाबुद्धि यथागमम् ॥ २॥ १. श्रेष्ठा.।
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जय गर्द
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मरकती भवेदार्थ गुणस्थानचतुष्टयम् । अपर्याप्त न विद्येत द्वितीयं च तृतीयकम् ॥ ३ ॥ द्वितीयाविषयां त्वपर्याप्त प्रथमं मतम् । पर्याप्तेषु हि जायेत गुपधामचतुष्टयम् ॥ ४ ॥ सिर्यग्गतरे भवेवाचं गुणस्थानीयपञ्चकम् । अपर्याप्तेषु जायेत वर्जयित्वा तृतीयकम् ॥ ५ ॥ आर्य चतुष्टयं शेयं भोगभूमिभवेषु वै । कर्मभूमिजतिक्षु पर्याप्तेषु तु पञ्चकम् ॥ ६ ॥ अपर्याप्ते तृतीयं नो जातुचिदपि सम्भवेत् । कर्मभूमिजमत्येषु सर्वाण्यपि भवन्ति हि ॥ ७ ॥ अपर्याप्तेषु विज्ञेयमारा चापि द्वितीयकम् । चतुर्थञ्च समुद्धातगतके बलिनो मतम् ॥ ८ ॥
त्रयोदशं गुणस्थानं अपर्याप्तेषु विज्ञेयं
वेवेष्वाद्यचतुष्टयम् । तृतीयस्थानमन्तरा ॥ ९॥
अर्थ - अब आगे ध्यानतत्त्वको सिद्धिके लिये यथाबुद्धि और यथागम मार्गणाओं में गुणस्थानोका कथन करूंगा । प्रथम हो गतिमार्गणाकी अपेक्षा कहते हैं- सामान्यरूपसे नरकगतिमे आदिके चार गुणस्थान होते हैं किन्तु अपर्याप्त नारकियोंके द्वितीय और तृतीय गुणस्थान नहीं होता [ इसका कारण है कि तृतीय गुणस्थानमे मरण नहीं होता और द्वितीय गुणस्थानमें मरा जीव नरक नही जाता । यह प्रथम पृथिवीके अपर्याप्तकोंको अपेक्षा कथन है ] । द्वितीयादि पृथिवियोके अपर्याप्तrth प्रथम गुणस्थान हो होता है क्योकि सम्यग्दृष्टि जीवकी उनमें उत्पत्ति नहीं होती । पर्याप्तकोके चार गुणस्थान होते हैं ।
तिर्यश्वगति आदिके पाँच गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्त कोके ततोय गुणस्थान नही होता । भोगभूमिज तिर्यश्वोमे आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्यातक अवस्थामे तृतीय गुणस्थान सम्भव नही है । कर्मभूमिन तिर्यश्वोमे पर्याप्तकोके आदिके पाँच गुणस्थान हैं । परन्तु अपर्याप्तकोंके तृतीय गुणस्थान कभी नहीं होता ।
मनुष्यगति में कर्मभूमिज मनुष्योंमे सभी चौदह गुणस्थान होते है । परन्तु अपर्याप्त प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और समुद्घातगत केवलीकी अपेक्षा त्रयोदश - तेरहवाँ गुणस्थान होता है । भोगभूमिज मनुष्यो
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१२४ सम्यवास्वि-वन्दामा मे आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्सक अवस्थामे तृतीय गुणस्थान नहीं होता। __ देवोके आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोमे तृतीय गुणस्थान नही होता ॥२-६॥ आगे इन्द्रिय और कायमार्गणाको अपेक्षा वर्णन करते हैं
एकेन्द्रिये तु विज्ञेयं तेजो वायुविजिते । आधद्वयं गुणस्थानमपर्याप्तवशापुते ॥१०॥ द्विषीकातसमारण्या संक्षिपञ्चेन्द्रियारो। गुणस्थानं भवेवाध नान्यत्ता हि सम्मवेत् ॥ ११॥ पञ्चेन्द्रियेषु सन्त्येव धामानि निखिलान्यपि । स्थावरेषु भवेवाय-द्वय नायत् प्रजायते ॥ १२ ॥
असेषु सन्ति सर्वाणि गुणधामानि मिश्चयात् । अथ-तेजस्कायिक और वायुकायिकको छोड़कर अन्य एकेन्द्रियोके अपर्याप्तक दशामे आदिके दो गुणस्थान होते हैं। कारण यह है कि सासादन गुणस्थानमे मरा जीव यदि एकेन्द्रियोमे उत्पन्न हो तो तेजस्कायिक और वायुकायिकमे उत्पन्न नहीं होता। सासादन गुणस्थान अपर्याप्तक अवस्थामे हो रहता है। पर्याप्तक होते होते सासादन गणस्थान विघट जाता है। दोन्द्रियसे लेकर असशो पञ्चन्द्रिय तक प्रथम गुणस्थान हो होता है अन्य गुणस्थान सम्भव नही हैं । द्वितीय गुणस्थानमे मरण कर विकलत्रयोमे उत्पन्न होने वाले जीवोके अपर्याप्तक अवस्थामे द्वितोय गुणस्थान भी सम्भव होता है । पञ्चेन्द्रियोमे सभी गुणस्थान होते है । स्थावरोमे आदिके दो गुणस्थान सम्भव है अन्य नही। सोमे निश्चयसे सभी गुणस्थान होते है ॥ १०-१२।। आगे योग मार्गणाको अपेक्षा चर्चा करते हैं
चतुषु चित्तयोगेषु वाग्योगेषु तव च ॥१३॥ गुणस्थानानि सन्स्यत्र प्रथमा यावद् द्वादशम् । सत्यानुभययोगेषु वयोमानसयोस्तथा ॥ १४ ॥ आधत्रयोदशझया गुणस्थानसमूहकार। ओरालमिश्रके बोध्यमाय चापि द्वितीयकम् ॥ १५॥ चतुर्थ चापि जीवानां सयोगे च त्रयोदशम् । औरारिके तु बोध्यानि तान्यायानि प्रयोवरा ॥ १६ ॥
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नवम प्रकाश
माहारके सम्मि पठमेक मवेविह। विधिक भवेवा गुणस्थानचतुष्टयम् ।। १७ ॥ सन्मित्रं मनु विस तृतीयस्थानमन्तरा। कार्मणे कायपोगे - प्रवन - द्वितीयकम् ॥१८॥ चतुर्य व समुद्घातगतकैवल्यपेक्षया।
प्रयोदशं भवेमातु समयश्तियावधि ॥ १९॥ अर्ष-बार मनोयोगों और चार बचनयोगोमें प्रथमसे लेकर द्वादश तक गुणस्थान होते हैं। सस्य मनोयोग और अनुभय मनोयोग तथा सत्य वचनयोग और अनुभय वचनयोगमे आदिके तेरह गुणस्थान होते हैं। औदारिक मिश्रकाययोगमें पहला, दूसरा, चौथा और कपाट समुद्घात गतसयोग केबलीकी अपेक्षा तेरहवां गुणस्थान होता है। औदारिक काययोगमे आदिके तेरह गुणस्थान जानना चाहिये । आहारक और माहारकमिश्र काययोगमे एक छठवां हो गुणस्थान होता है। वक्रियिक काययोगमे आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु वैक्रियिक मिश्र काययोगमे ततोय गुणस्थान नहीं होता और कार्मण काययोगमे पहला, दूसरा, चोषा और समुद्घात केवलीको अपेक्षा तेरहवां गुणस्थान होता है। कामण काययोग अधिकसे अधिक तोन समय तक ही रहता है। १३-१६॥ आगे वेद, कषाय और ज्ञान मार्गणामे गुणस्थानोका वर्णन करते हैं
मावानि स्यु सदेवानां नवधामानि भावतः। द्रव्यस्त्रीणां तु विशेयं प्रथमात्पञ्चमावधिः॥२०॥ सकवायस्य जीवस्य राधामानि सन्ति हि। निष्कायस्थ बोध्याम्पेकायसप्रमतोनि ॥२१॥ मतितावधिताने चतुर्वातावशावधिम् । मनापर्ययबोधे तु पटाप बावसावधिम् ॥ २२ ॥ केवले - मवेदत्य युगलं गुणधामकम् । कुमती कुमुते साने विमोच नियोगतः ॥ २३ ॥
प्रथम द्वितयं मे गुणस्थानं शरीरिणाम् । मर्ष-भाव वेदकी अपेक्षा सवेद जीवोके आदिके नौ गुणस्थान होते है परन्तु द्रव्य स्त्रियोंके प्रथमसे लेकर पञ्चम तक गुणस्थान होते हैं। कषाय सहित जीवोंके प्रारम्भके दश गुणस्थान होते हैं और कषाय रहित जीवोंके एकादश मादि गुणस्थान होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतमान
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सम्यक्चारित - चिन्तामणिः
और अवधिज्ञानमें चतुर्थसे लेकर बारहवे तक पुणस्थान होते हैं। मनःपर्यय ज्ञानमे षष्ठ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान होते हैं । केवलज्ञानमे अन्त के दो गुणस्थान होते हैं। कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग ज्ञानमे व्यादिके को गुणस्थान होते हैं [ तृतीय गुणस्थानमे मिश्र ज्ञान होता है ] ॥। २०-२३ ।।
आगे संयम मार्गणामे गुणस्थान कहते हैं
तु ।
1
सामायिके तथा देवोपस्थापन संयमे ॥ २४ ॥ ठान्नमपर्यन्तं गुणस्थानं भवेदिह । परिहारविशुद्धौ तु कठं च सप्तमं स्मृतम् ।। २५ ।। सूक्ष्मादिसाम्पराये च दशमं ह्येकमेव एकादशादितो ज्ञेयं यथाख्याताह्न संयमे ॥ २६ ॥ संयमासंयमे ह्येक पञ्चमं मामसंमत म् असंयमे तु चत्वारि प्रथमादीनि सन्ति हि ॥ २७ ॥ अर्थ - सामायिक और छेदोपस्थापन संयममे छठवेसे लेकर नौवें तक गुणस्थान होते हैं । परिहार विशुद्धिमें छठवां और सातवां गुणस्थान होता है । सूक्ष्मसापरायमें एक दशम गुणस्थान ही होता है और tered संयम एकादश आदि गुणस्थान हैं। संयमासंयममे एक पचम गुणस्थान और असयममे प्रथमसे लेकर चतुर्थं तक चार गुणस्थान होते हैं ।। २४-२७ ।।
आगे दर्शन, लेश्या और भव्यत्व मार्गणामें गुणस्थान कहते हैंचाप्यचक्षु दर्शन के
तथा ।
लोचनदर्शने आवितो द्वादशं यावत् गुणधामानि सन्ति वै ॥ २८ ॥ अवधिदर्शनं ज्ञेय चतुर्थाद् द्वादशावधिम् । केवलदर्शने ज्ञेयमतिमद्वितय तथा ।। २९ ।। कृष्णा मोलाच कापोता प्रथमात् स्यातुर्यावधिम् । पीता पद्मा च विज्ञेया प्रथमात्सप्तमावश्चिस् ॥ ३० ॥ शुक्ला लेश्या च विज्ञेया ह्याद्यान् यावत् त्रयोदशम् । भव्यत्वे गुणधामानि भवन्ति निखिलान्यपि ॥ ३१ ॥ अभव्ये प्रथमं ज्ञेयं नियमाद् भववासिनि ।
अर्थ- चक्षुदर्शन और अवक्षदर्शनमे प्रारम्भसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं । अवधि दर्शनमे चतुर्थसे लेकर
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गरह तक गुणस्थान होते हैं और केवल दधनमें अन्तके दो मुगस्थान माने जाते हैं। कृष्ण, मोल मोर कापोत लेश्या प्रयमसे चतुर्थ गुणस्थान तक होती है। पोत और पप केश्या प्रथमसे सप्तम तक होती है और शुक्ल लेश्या प्रथमसे तेरहवें गुणस्थान तक होती है। भव्यत्व मार्गमामे सभी गुणस्थान होते हैं परन्तु सदा संसारमें ही निवास करने वाली बभव्यत्य मागंणामें नियमसे पहला ही गुणस्थान होता है ॥ २८-३१॥ आगे सम्यक्त्व, संशो और आहारक मार्गणामें गुणस्थान बताते हैं
माधोपसम्बवे सायोपधिक तथा ॥ ३२ ॥ बतुलमानतानि गुणस्थानानि सन्ति । मायिकेतुबतुविनिहिलाम्यापि भवन्ति हि ॥ ३३ ॥ द्वितीयोपशमे मे तुविकारशावधिम् । समिणि गुणधामानि भवन्ति वारशावधिम ॥ ३४॥ मसतिमि मवेशाचं केवलिमोनास्ति तापम । मनाहारे बवेवावं द्वितीयं च चतुर्थकम् ॥ ३५ ॥ चतुर्व व विशेषमाहारस्थ निरोषतः। आहारके तु बोभ्यानि गाथान्येव त्रयोदश ।। ३६ ।। इत्थं - मार्गनास्थाने गुणस्थाननिदर्शनमः । संक्षेपाविहितं चिन्स्यं ध्यानस्पेन सुयोगिना ॥ ३७॥ एवं चिन्तयश्चितं विषयेभ्यो निवर्तते ।
निर्जरा विपुला च स्यात् कर्मणा कुम्भवापिनाम् ॥ ३८॥ वर्ष-प्रथमोपशम सम्यक्त्व और क्षायोपामिक सम्यक्स्वमें चतुर्थसे लेकर सप्तम तक गुणस्थान होते हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शनमें चतुर्थसे लेकर सभी गुणस्थान हैं और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें चतुर्षसे लेकर एकादश तक गुणस्थान होते हैं [सम्यक्त्व मार्गणाके भेद सम्यग्मिप्यात्वमे तृतीय, सासादनमें द्वितीय और मिथ्यात्वमे प्रथम गुणस्थान जानना चाहिये ] । संशी मार्गगामे प्रथमसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह और असंशी मार्गणामें प्रथम गुणस्थान हो होता है [ सासावन गुणस्थानमें मरकर एकेन्द्रियोंमे उत्पन्न होनेवाले जोवोके अपर्याप्तक बच्चामें दूसरा गुणस्थान भी सम्भव है ] । केवलो भगवान के संगी और मसंजोका व्यवहाय नहीं होता है। अनाहारक मार्गणामें पहला, दूसरा, बोया और बौदहवां गुणस्थान होता है [समुद्घातको अपेक्षा तेरहवां मुणस्थान भी होता है ] | आहारक मार्गणामे आदिके तेरह
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
गुणस्थान जानना चाहिये । इस प्रकार मार्गणा स्थानोंमे गुणस्थानोंका निर्देश संक्षेपसे किया है। ध्यानस्थ मुनिको इसका चिन्तवन करना चाहिये। ऐसा चिन्तवन करने वाले योगोका चित्त विषयोसे हट जाता है और उससे दुःखदायक कमको अत्यधिक निर्जरा होती है ।। ३२-३८ ।। अब आगे मार्गणाओमे सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हैं
इतोऽग्रे मार्गणामध्ये सम्यग्दर्शनमुच्यते । श्वागत्यनुवादेन प्रथमायां क्षितौ भवेत् ॥ ३९ ॥ पर्याप्तकेषु सम्यक्त्वमेदानां त्रितयं पुनः । अपर्याप्तकेषु विज्ञेयोपशमिकमन्तरा ॥ ४० ॥ आद्येतरासु पृथ्वीषु पर्याप्तानां भवेद्वयम | शायिकं तत्र नास्त्येवापर्याप्तेषु न किञ्चन ॥ ४१ ॥ तिर्यग्गत्यनुवादेन तिरश्चा भोगभूमिषु ।
पर्याप्तानां भवेद् भेदत्रयं भव्यत्व शालिनाम् ॥ ४२ ॥ अपर्याप्तेषु विज्ञेयमोपशा मिकमन्तरा ।
सुदृक् । सुदुक् ॥। ४५ ।।
कर्मभूमिजतिर्यक्षु क्षायिकेण विना भवेत् ॥ ४३ ॥ द्वयं सम्यक्त्वमेदानां पर्याप्तत्वविशुम्भताम् अपर्याप्तेषु नास्त्ये सम्यग्दर्शनसौरभम् ॥ ४४ ॥ पर्याप्तेषु मनुष्येषु त्रिविधा वर्तते अपर्याप्तेषु नास्येव मोहोपशमजा पूर्णासुद्रव्यनाशेषु क्षायिकी वृग् न अपूर्णद्रव्यभामासु गन्धोऽपि न वृतो भवेत् ॥ ४६ ॥ गत्यवान देवेषु द्विविधेष्वपि । अपर्याप्तासु नास्त्येव सम्यग्दर्शनसौरमम ॥ ४७ ॥ बानाविवेब देवीषु पर्याप्तासु भवेद्द्द्वयम् । अपर्याप्तासु सम्यक्त्व- मेवो नास्त्येष कश्चन ॥ ४८ ॥
वर्तते ।
अर्थ - यहाँसे आगे मार्गणाओमे सम्यग्दर्शन कहा जाता है अर्थात् किस-किस मार्गणामे कौन-कौन सम्यग्दर्शन होता है, यह कहते हैं । नरकगतिकी अपेक्षा प्रथम पृथिवीमे पर्याप्तक नारकियोके तीनो सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपर्याप्तक नारकियोके औपशमिक सम्यग्दर्शन नही होता है । तात्पर्य यह है कि प्रथम पृथिवो तक सम्यग्दृष्टि जा सकता है परन्तु औपशमिक सम्यग्दृष्टि मरकर देवगतिके सिवाय अभ्य गतियोंमें नही जाता, इसलिये यहाँ उसका अभाव बतलाया है ।
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नवम प्रकाश द्वितोयादिक पृथिवियोमें पर्याप्तकोंके क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व हो सकते हैं परन्तु अपर्याप्तकोके एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। ___तिर्यग्गतिको अपेक्षा भोगभूमिमें पर्याप्तक भव्य तिर्यञ्चोके तोनो सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोके औपशमिक सम्यवत्व नही होता। कर्मभूमिज पर्याप्तक तिर्यञ्चोमे क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व होते है परन्तु अपर्याप्तकोके सम्यग्दर्शनको सुगन्ध नही रहतो। तात्पर्य यह है कि जिसने तिर्यगायुका बन्ध करनेके बाद सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसा मनुष्य नियमसे भोगभूमिका हो तिर्यञ्च होता है, कर्मभूमिका नहीं। अत कर्मभूमिके अपर्याप्तक तिर्यञ्च सम्यक्त्वका अभाव रहता है । पर्याप्तक अवस्थामे औपशमिक और क्षायोपशमिक नवीन उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिये उनका सद्भाव बताया है।
पर्याप्तक मनुष्योमे तोनो सम्यग्दर्शन होते हैं, परन्तु अपर्याप्तक मनुष्योके औपशमिक सम्यग्दर्शन नही होता है। पर्याप्तक द्रव्य-स्त्रियोके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो होते हैं परन्तु अपर्याप्तक स्त्रियोके सम्यग्दर्शनका लेश भो नहीं होता है उसका कारण है कि सम्यग्दष्टि जीव द्रव्य-स्त्रियोमे उत्पन्न नही होता।
देवगतिकी अपेक्षा पर्याप्तक-अपर्याप्तक-दोनो प्रकारके भव्य देवोमे तोनो सम्यग्दर्शन होते है। इसका कारण है कि द्वितीयोपशममे मरा जोव वैमानिक देवोमे उत्पन्न होता है। अतः अपर्याप्तक अवस्थामे भो औपशमिकका सद्भाव सम्भव है। पर्याप्तक देवियोमे क्षायिक सम्य. ग्दर्शन नहीं होता, नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो सम्भव हैं। अपर्याप्तक देवियोके सम्यग्दर्शनकी गन्ध नही है। भवनत्रिक सम्बन्धो पर्याप्तक देव-देवियोके नवीन उत्पत्तिकी अपेक्षा औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं, अपर्याप्तकोके सम्यग्दर्शनका कोई भेद नहीं होता क्योकि सम्यग्दृष्टिको उनमे उत्पत्ति नहीं होती॥३६-४८॥ आगे इन्द्रिय, काय, योग, वेद और ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हैं
एकेन्द्रियात्समारभ्यासजिपश्चादेहिषु । नास्त्येकमपि सम्यक्स्व दोर्गत्येन युतेषु ॥४९॥ पञ्चेन्द्रियेषु जायेत सम्यक्त्वत्रितयं पुनः । स्थावरेषु च सम्यक्रवं विद्यते नात्र किञ्चन ॥५०॥ असेषु त्रिविधं शेय सम्यक्त्वं पुण्यशालिषु। योगत्रयेण मुक्तेषु सम्यक्स्वत्रितय भवेत् ।। ५१ ।।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
अयोगेषु भवेदेकं क्षायिकं नेतरसु तत् । एकद्वियोग युक्तेषु सम्यक्त्वं नास्ति किञ्चन ।। ५२ ।। वेदश्रयेण युक्तेषु जायते त्रिविधं तु तत् । भावतो, न तु द्रव्यस्त्री क्षायिकं लभते क्वचित् ॥ ५३ ॥ गतवेदेषु जायेत द्वितयं वेदकं विना । क्षोणमोहादिषु ज्ञेयं केवलं क्षायिक तु तत् ॥ ५४ ॥ क्षायोपशमिकज्ञान चतुष्केण विशोमिषु । त्रयः सम्यक्वमेदाः स्युः, क्षायिकज्ञानशालिषु ॥ ५५ ।। केवलिषु भवेदेकं क्षाधिकं नेतरत्पुनः । मन:पर्यययुक्तेषु शमजं नव जायते ।। ५६ ।।
अर्थ- इन्द्रियानुवादको अपेक्षा खोटो गतिसे युक्त, एकेन्द्रियसे लेकर असज्ञो पञ्चेन्द्रिय तकके जोवोके एक भी सम्यग्दर्शन नही होता । पञ्चेन्द्रिय जीवोमे तीनो सम्यक्त्व होते है । कायमार्गणाको अपेक्षा स्थावरोमे कोई भी सम्यग्दर्शन नही होता परन्तु पुण्यशाली सोमे तीनो प्रकारका सम्यक्त्व होता है। योगमार्गणाकी अपेक्षा तोनो योगोसे युक्त जीवोमे तीनो सम्यग्दर्शन होते हैं, अयोगियोके एक क्षायिक ही होता है अन्य दो नही होते। एक योग वाले -स्थावरोके और दो योग वाले - द्वीन्द्रियसे लेकर असज्ञो पञ्चेन्द्रिय तक्के जोवोको कोई भो सम्यक्त्व नही होता । वेदमार्गणाको अपेक्षा तीनो भाव वेदोसे युक्त जोवोके तोनो सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु द्रव्य-स्त्री कही भी क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त नही होती। अपगत वेदो जीवोके क्षायोपशमिक को छोडकर ओपशमिक और क्षायिक, ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपगत वेदियोमे जो क्षीणमोहादि गुणस्थानवर्ती हैं उनको एक क्षायिक हो जानना चाहिये। ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा चार क्षायोपशमिक ज्ञानोसे सहित जोवोके सम्यक्त्वके तोनो भेद होते हैं परन्तु क्षायिक ज्ञानसे सुशोभित केवलियो के एक क्षायिक सम्यक्त्व हो होता है शेष दो नही । क्षायोपशमिक ज्ञानो मे मन:पर्ययज्ञान से युक्त जीवोके औपशमिक सम्यग्दर्शन नही होता ॥ ४६-५६ ॥
आगे सयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञो और आहारमार्गणाको अपेक्षा सम्यग्दर्शनका कथन करते हैं
सामायिके तथा छेदोपस्थापन विशोभिते । त्रयः सम्यक्त्वमेवाः स्युरात्म पौरवशालिनाम् ।। ५७ ।।
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नवम प्रकाश परिहारविरुघाड्ये शमनं नास्ति सर्वथा। सूक्ष्मादि साम्पराये तु वेवकं नैव विद्यते ॥ ५८ ।। यथाख्याते तु विज्ञयं मायिक शमजं तथा। केवलवर्शनाढ्येषु केवल भायिकं भवेत् ।। ५९ ।। अन्यदर्शन युक्तेष त्रिविधमपि सम्भवेत् । सलेश्यानां त्रयो भेदा अलेश्यानां तु क्षायिकम् ।। ६० ॥ त्रिविध जायते भव्ये स्वभध्ये नास्ति किञ्चन । सम्यक्त्वानुवादेन वर्तते यत्र मा भिवा ।। ६१॥ तत्रव सा परिमेया सिद्धान्तानुगमोद्यतः। सम्यक्त्वस्य त्रयो भेदाः संशिनां देहधारिणाम् ।। ६२॥ जायन्तेऽसं शिनां किन्तु होकं नापि प्रजायते। आहारकेऽप्यनाहारे त्रयो मेवा भवन्ति हि ।। ६३ ।। शमजं किन्त्वनाहारे निर्जरगत्यपेक्षया ।
शमजेन युतो मृत्वा देवेष्वेवोपमायते ॥ ६४॥ अर्थ-संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना सयमसे सहित आत्मपुरुषार्थी जीवोके सम्यक्त्वके तोनो भेद होते हैं परन्तु परिहारविशुद्धि वालेके औपमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता। सूक्ष्मसाम्पराय संयममे वेदक सम्यग्दर्शन नहीं होता। यथाख्यातसंयम मे क्षायिक और औपशमिकसम्यग्दर्शन जानना चाहिये। दर्शनमार्गणा को अपेक्षा केवल दर्शनसे युक्त मनुष्योके मात्र क्षायिकसम्यक्त्व होता है शेष तीन दर्शनोसे सहित जीवोके तोनो सम्यग्दर्शन होते हैं। लेश्यामार्गणा को अपेक्षा सलेश्यजोवोके तीनो भेद होते हैं, परन्तु अलेश्यलेश्या रहित जीवोके मात्र क्षायिकसम्यक्त्व होता है। भव्यत्वमार्गणा को अपेक्षा भव्यजोवके तोनो सम्यक्त्व होते हैं पर अभव्य के एक भी नही होता। सम्यक्त्वमार्गणाको अपेक्षा जहां जो भेद है सिद्धान्तशास्त्रके जाननेमे उद्यत मनुष्योको वहां वही भेद जानना चाहिये। संज्ञी मार्गणाकी अपेक्षा संज्ञो जीवके तोनो सम्यग्दर्शन होते हैं किन्तु असज्ञीजोवके एक भो सम्यग्दर्शन नहीं होता। आहारकमार्गणाको अपेक्षा आहारक और अनाहारक-दोनो प्रकारके जोवोके सम्यग्दर्शनके तीनो भेद होते हैं परन्तु अनाहारक अवस्थामे औपशमिकसम्यग्दर्शन देवगति की अपेक्षा हो जानना चाहिये क्योकि औपशमिकसम्यग्दर्शन के साथ मरा जीव देवोमे ही उत्पन्न होता है ॥ ५७-६४ ॥
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सम्यक्लारित्र-चिन्तामणिः आगे इस प्रकरणका समारोप करते हैंएवं सर्व चिन्तयन्तः पुमांस
श्चिन्ताकाले स्वीयचित्तं समन्तात् । पञ्चाक्षाणां दीर्घदुःखप्रवानां
___ द्वन्द्वाद् दूरीकृत्य सुस्था भवन्ति ॥ ६५ ॥ अर्थ-इस प्रकार इस सबका चिन्तन करने वाले पुरुष चिन्तनके कालमे अपने मन को अत्यधिक दुख देनेवाले पञ्चेन्द्रियोके द्वन्द्वइष्टानिष्ट विकल्प को दूरकर सुखी होते है ॥ ६५॥ इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमे ध्यान सामग्रीका
वर्णन करने वाला नवम प्रकाश पूर्ण हुआ।
दशमप्रकाशः आयिकाणां विधिनिर्देशः
मगलाचरणम् नाहं क्लीवो नव भामा पुमांश्च
नाहं गौरो नंव कृष्णो न पीतः । एते सर्वे सन्ति देहप्रपञ्चा
स्तेभ्यो मिन्नः शुद्धचिन्मात्रमात्मा ॥१॥ एवं ध्यात्वा ये स्वरूपे निलोना
रागद्वेषाद् ये विरक्ताश्च जाताः । तान् निर्ग्रन्थान मोहमायाव्यतीतान् ।
भूयोभूयो भूरिशः संनमापि ॥ २ ॥ अर्थ-मैं नपुसक नही हूँ, मैं स्त्री नही हूँ, मैं पुरुष नही हूँ, मैं गोरा नही हूँ, मैं काला नही हूँ और मैं पोला नहीं हूं। ये सब शरीर के प्रपञ्च हैं। आत्मा इन सबसे भिन्न शुद्ध चैतन्य मात्र है। ऐसा ध्यान कर जो स्वरूप मे लोन हैं और जो राग-द्वेषसे विरक्त हो चुके हैं, मोह मायासे रहित उन निर्ग्रन्थ मुनियो को मैं बार-बार अत्यधिक नमस्कार करता हूँ।। १-२॥
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दशम प्रकाश
आगे आयिकाओको विधिका वर्णन करते हैं
अथार्याणां विधि वक्ष्ये भामानां हितसिद्धये। यथागम यथाबुद्धि प्रणिपत्य मुनीश्वरान् ॥ ३ ॥ जीवाः सम्यक्त्वसंपन्ना मृत्वा नार्यो भवन्ति नो। तथापि ताः स्वय शुद्धघा लभन्ते सुदृशं पराम् ॥ ४ ॥ सीता सुलोचना राजी मत्याचा बहवः स्त्रियः।
विकृत्यार्यावत नून प्रसिक्षा सन्ति भूतले ॥ ५ ॥ अर्थ-अब स्त्रियोके हितको सिद्धिके लिये मुनिराजो को नमस्कार कर मैं आगम और अपनी बुद्धि के अनुसार आर्यिकाओकी विधि कहूंगा। यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियो मे उत्पन्न नही होते अर्थात् स्त्रो पर्याय प्राप्त नहीं करते तथापि भावशुद्धिसे वे स्त्रियाँ स्वय उत्कृष्ट, औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेती है। सोता, सुलोचना और राजीमतो आदि बहुत स्त्रियाँ आयिकाके व्रत धारणकर निश्चित हो भूतल पर प्रसिद्ध हुई है ॥ ३-५ ॥ अब आगे कुछ निकट भव्यस्त्रिया श्री गुरुके पास जाकर आयिकादोक्षाको प्रार्थना करतो है
काश्चन क्षीण ससारा विरक्ता गृहमारतः । विरज्य भवभोगेभ्यो गुरु पादान् समाश्रिताः॥ ६ ॥ निवेदयन्ति तान् भक्त्या भीताः स्मो भवसागरात्। हस्तावलम्बन दत्त्वा भगवस्तारय द्रुतम् ।। ७ ॥ न सन्ति केचनास्माकं न वयं नाथ कस्यचित् । इमे संसारसम्भोगा भान्ति नो नागसन्निभाः ॥ ८ ॥ एषो विष प्रभावेण चिरात् सम्मूच्छिता वयम् । अद्यावधि न विज्ञातं स्वरूपं हा निजात्मनः ।। ९॥ जातादृष्टस्वभावाः स्मो देहाद भिन्नस्वरूपकाः । एतद् विस्मृत्य सर्वेषु भ्रान्ताः स्वत्वधिया चिरात् ॥ १० ॥ पुण्योदयात्पर ज्योति. सम्यक्त्वं मार्गदर्शकम् । अस्माभिर्लब्धमस्त्यत्र पश्यामस्तेन शाश्वतम् ॥११॥ आस्मानं सुखसम्पन्न ज्ञानदर्शनसयुतम् । एतल्लडध्या वयं तृप्ताः सततं स्वात्मसम्पदि ॥ १२॥ अतो विरज्य मोगेभ्यो भवन्तिकभागताः। प्रार्थयामो वय भूयो भूयो बीक्षा प्रदेहि नः।। १३ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि बाप्पावरुद्धकण्ठास्ता रोमाञ्चितकलेवराः।
शुश्रूषवो गुरोर्वाक्य तृष्णीभूताः पुरः स्थिताः ।। १४ ॥ अर्थ-जिनका संसार क्षीण हो गया है तथा जो गृहभारसे विरक्त हो चुको है ऐसो कुछ स्त्रिया संसार सम्बन्धो भोगो से विरक्त हो गुरु चरणोके पास जाकर उनसे भक्तिपूर्वक निवेदन करती हैं-हे भगवन् । हम संसार सागरसे भयभीत है अत हस्तावलम्बन देकर शीघ्र हो तारोपार करो। हमारे कोई नहीं है और हम भी किसीके कोई नही है। ये ससारके भोग हमे नागके समान प्रतिभासित होते हैं। इनके विष प्रयोगसे हम चिरकालसे मूच्छित हो रही हैं। खेद है कि हमने आज तक अपनो आत्माका स्वरूप नहीं जाना। हम शरीरसे भिन्न ज्ञाता, द्रष्टा स्वभाव वालो है। यह भूलकर हम सब पदार्थोंमे आत्मबुद्धि होनेके कारण चिरकालसे भटकती आ रही हैं। पुण्योदयसे हमने मार्गदर्शक सम्यक्त्वरूपी उत्कृष्ट ज्योति को प्राप्त कर लिया है। उस ज्योतिसे हम नित्य, सुख सपन्न तथा ज्ञानदर्शनसे सहित आत्मा को देख रही है-उसका अनुभव कर रहो हैं। इस सम्यक्त्व की प्राप्तिसे हम निरन्तर अपनो आत्मसम्पदामे संतुष्ट रहतो हैं। अतः भोगोसे विरक्त होकर आपके पास आई हैं तथा बार-बार प्रार्थना करतो है कि हमे आयिकाको दोक्षा दीजिये। यह कहते कहते जिनके कण्ठ वाष्पसे अवरुद्ध हो गये थे तथा शरीर रोमाञ्चित हो उठा था, ऐसी वे स्त्रिया गुरु वचन सुनने को इच्छा रखतो हुई उनके सामने चुपचाप बैठ गईं ॥ ६.१४॥ आगे गुरुने क्या कहा, यह लिखते हैं
तासा मुखाकृति दृष्ट्वा परोक्ष्य भव्य भावनाम् । गुरुराह परप्रीत्या श्रेयोऽस्तु भवदात्मनाम् ॥ १५॥ आर्यावीक्षां गृहीत्वा भो निर्वृता भवतद्रुतम् । ससारान्धिरय सत्य दुखदो देहधारिणाम् ।। १६ ।। विरला एव सन्तीर्णा भवन्त्यस्मात् स्वपौरुषात् ।
सत्य क्षीणभवा भूय विरक्तास्तेन भोगतः ।। १७ ।। अर्थ-उनको मुखाकृति देख तथा भव्य भावना को परीक्षा कर श्री गुरु बडी प्रोतिसे बोले-आप सबको आत्माका कल्याण हो। आप लोग आयिकाकी दीक्षा लेकर शीघ्र हो संतुष्ट होवे । सचमुच ही यह संसार सागर प्राणियो को दुख देने वाला है। बिरले हो जीव अपने
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दशम प्रकाश
पुरुषार्थसे इस संसार सागरसे पार होते हैं। यथार्थमे आपका संसार क्षीण हो गया है इसीलिये भोगोसे विरक्ति हुई है ।। १५-१७ ॥ आगे श्री गुरु उन्हे आर्यिकाके व्रत का उपदेश देते है
महावतानि सन्धत्त समितीनां च पञ्चकम् । पञ्चेन्द्रियजय कार्यः षडावश्यकपालनम् ॥ १८॥ विधिना नित्यशः कार्य न कुर्याद् दन्तधावनम् । एकवारं दिवाभोज्यमुपविश्य सुखासनात् ।। १९ ॥ हस्तयोरेवभोक्तव्यं न त धात्वाविभाजने। शुधंकाशाटिका धार्या मितालोरशहस्तकः ॥२०॥ भूमिशय्या विधातव्या रजन्याश्चोर्ध्वभागके । कचाना लुञ्चन कार्य स्वहस्ताभ्यां नियोगतः ॥ २१॥ मासद्वयेन मासंस्तु विभिर्मासचतुष्टयात् । गणिन्या सहकर्तव्यो निवासो रक्षितस्थले ।। २२ ।। चर्यार्थ सहगन्तव्य नगरे निगमे तथा। अन्याभिः सह साध्वीभिः श्रावकाणां गृहेषु वै ॥ २३ ॥ एकाकिन्या विहारो न कर्तव्यो जातचित् क्वचित् । आचार्याणा समोपेऽपि न गच्छेवेकमात्रका ॥२४॥ गणिन्या सार्धमन्याभिद्वित्राभिर्वा सह व्रजेत् । सप्तहस्तान्तरे स्थित्वा विनयेनोपविश्य वा ॥ २५ ॥ प्रश्नोत्तराणि कार्याणि सार्धमन्यतपस्विभिः । गृहिणीजनसम्पर्को न कार्यों विकथाकृते ॥ २६ ॥ जिनवाणीसमभ्यासे कार्यः कालस्य निर्गम । काले सामायिक कार्य स्वाध्यायः समये तथा ॥२७॥ पादयात्रेव कर्तव्या न जात वाहनाश्रयः । अग्नेः सन्तापन शोते न चौष्ण्ये जलसेचनम् ॥ २८॥ कार्य विहार काले च पादत्राणं न धारयेत।
इवमार्यावतं प्रोक्तं भवतीनां पुरो मया ॥२९॥ अर्थ-महाव्रत धारण करो, पाच समितियों का पालन करो, पञ्चेन्द्रिय विजय करो, पदके अनुरूप नित्य ही विधिपूर्वक षडावश्यकका पालन करो, दन्त धावन न करो, दिनमे एक बार सुखासनपालथोसे बैठकर हाथोमे भोजन करो, धातु आदिके पात्रोमे भोजन नहो करो, सोलह हाथ की एक सफेद शाटी धारण करो, रात्रिके उत्तरार्धमे
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि जमोन पर शयन करो। दो माह, तीन माह अथवा चार माहमें नियमसे अपने हाथोसे केश लोच करो। तुम्हे गणिनोके साथ सुरक्षित स्थानमे निवास करना चाहिये । चर्या-आहारके लिये नगर अथवा ग्राममे अन्य आयिकाओके साथ श्रावकोके घर जाना चाहिये। कभो भो और कही भी अकेलो विहार नहीं करना चाहिये, आचार्योंके पास भी अकेली नहो जाना चाहिये । गणिनो या अन्य दो तीन आयिकाओके साथ जाना चाहिये । विनयसे सात हाथ दूर बैठकर अन्य साधुओके साथ प्रश्नोतर करना चाहिये। विकथा करनेके लिये गहस्थ स्त्रियोका सपर्क नही करना चाहिये। जिन वाणोके अभ्यासमे समय व्यतीत करना चाहिये । समय पर सामायिक और समय पर स्वाध्याय करना चाहिये। विहार के समय पैदल यात्रा हो करना चाहिये। सवारीका आश्रय कभी नहीं करना चाहिये। शोतकालमे अग्नि का तापना और ग्रीष्मकालमे पानोका सोचना नहीं करना चाहिये और चलते समय पादत्राण नही रखना चाहिये। आप लोगोके सामने मैने यह आर्यिकाके व्रतका वर्णन किया है॥ १८-२६।। आगे क्षल्लिकाके व्रतका वर्णन करते है
एतस्य धारणे शक्तिनंचेद् वो वर्तते क्वचित् । शाटिकोपरि सन्चार्य एकोत्तरपटस्ततः ।। ३० ।। आयिकाणा व्रतं नूनं तुल्यमस्ति महावतः । अतस्ताः योग्यमानेन प्रतिग्राह्याः सुवातृभि ॥ ३१ ॥ क्षुल्लिकाणा वत किन्तूत्तमश्रावकसन्निभम् ।
गुणस्थान तु विज्ञेयं पञ्चम द्विकयोरपि ।। ३२ ॥ अर्थ--इस आयिका व्रतके धारण करनेमे यदि कहो तुम्हारो शक्ति नही हो तो धोतोके ऊपर एक चादर धारण किया जा सकता है। सचमुच आर्यिकाका व्रत महाव्रतोके तुल्य है अर्थात् उपचारसे महाव्रत कहा जाता है। अत दान-दाताओ को उन्हे उनके पदके योग्य सन्मानसे पडिगाहना चाहिये। क्षुल्लिकाओका व्रत उत्तम श्रावक-ग्यारहवी प्रतिमाके धारकके समान है। आयिका और क्षुल्लिका दोनोके पञ्चम गुणस्थान जानना चाहिये ।। ३०-३२ ॥ आगे श्री गुरुकी वाणी सुनकर उन स्त्रियोने क्या किया, यह कहते हैं
इत्थमाचार्य वक्त्रंन्दु नि स्मृता वचनावलीम् । सुधाधारायमाणा तां पीत्वाह्याप्यायिताश्चिरम् ॥३३॥
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दर्शम प्रकाश गृहीत्वार्याव्रतं सद्यो नाता: शान्तिसुमूर्तयः। शुभंकवसनाः साध्यो मुखविभ्रमजिता ॥ ३४॥ वात्सल्यमूर्तयः सन्ति सत्त्व रक्षणतत्पराः। सीताद्या राजमात्याद्याश्चन्दनाद्याश्च साध्यिकाः ॥ ३५॥ विहरन्तु चिरं लोके कुर्वाणा धर्मदेशनाम् ।
आत्मश्रेयः पथं नणां दर्शयन्त्यः सनातनम् ॥ ३६ ।। अर्थ-इस प्रकार आचार्य महाराजके मुखचन्द्रसे निकलो, अमृत धाराके समान आवरण करने वालो वचनावलीको पीकर-श्रवण कर वे सब स्त्रिया चिरकालके लिये सतुष्ट हो गई। वे सब आयिकके व्रत ग्रहण कर शान्ति को मूर्तिया बन गई। जो सफेद रगको एक साडी धारण करतो हैं, मुखके विभ्रम-हावभाव आदिसे रहित हैं, वात्सल्यको प्रतिकृति स्वरूप हैं और जोवरक्षामे तत्पर रहती हैं ऐसो सोता आदि, राजो मतो आदि और चन्दना आदि आर्यिकाएं धर्म-देशना करती तथा मनुष्योके लिये आत्म-कल्याण का सनातन मार्ग दिखलातो हुई लोकमे चिरकाल तक विहार करे ॥ ३३-३६ ॥
विशेष-आयिकाओका विशद वर्णन मूलाचारमे दिया गया है वहां बताया गया है कि आयिकाओको वयस्क, जितेन्द्रिय तथा भव. भ्रमण भोरु आचार्यको ही गुरु बनाना चाहिये तथा उनको आज्ञानुसार वयस्क, वृद्ध आयिकाओको साथमे रहना चाहिये। अकेलो विहार नहीं करना चाहिये। आगे इस प्रकरण का समारोप करते हैंयाभिस्त्यक्ता मोहनिद्रा विशाला
याभ्योजाता नेमिपाश्र्वादयस्ता । देवीतुल्यास्तीकृिन्मातृतुल्याः
साध्व्यो में स्युर्मोक्षमार्गप्रणेश्यः ॥ ३७॥ अर्थ-जिन्होने मोहरूपो विशाल निद्राका त्याग किया है, जिनसे नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ आदि महापुरुष उत्पन्न हुए हैं, जो देवोके समान तथा तोर्थवरोको माताओके समान है वे साध्वो-आर्यिकाएँ मेरे लिए मोक्षमार्ग पर ले जाने वालो हो ॥ ३७॥ इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमे आर्यिका व्रतका
वर्णन करनेवाला दशम प्रकाश पूर्ण हुआ।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
एकादशप्रकाशः
सल्लेखमाधिकार
मङ्गलाचरणम् सल्लेखनां स्वात्महिताय धृत्वा
मुनीन्द्रमार्गाद विचला न जाता.। मुनीश्वरास्तेऽद्य सुकोशलाद्या
विशन्तु मां स्वात्महितस्य मार्गम् ॥ १॥ अर्थ-जो स्वकीय आत्माके हितके लिये सल्लेखना धारणकर मुनिराजके मार्गसे विचलित नहीं हुए, वे सुकोशल आदि मुनिराज मुझे आत्म-कल्याण का मार्ग बतावे ॥१॥ आगे सल्लेखना की उपयोगिता बताते है
यथा कश्चिद् विदेशस्यो 'नार्जयन् विपुलं धनम् । आयियासुः स्वकं देशं विवेशस्य नियोगत. ॥ २ ॥ तधनं सार्धमानेतुं समर्थो नैव जायते।। तदा संक्लिष्टचेता सन् हृदये बहु खिद्यते ॥ ३ ॥ तथाय मनुजः स्वस्य प्रयत्नात् सञ्चितार्थकः । प्रयियासुः पर लोकमतल्लोकनियोगतः॥ ४ ॥ तद्धनं सह सन्नेतुमसमर्थो यदा भवेत् । तदा दु.खेन सन्तप्तो विरोति कि करोम्यहम् ॥ ५ ॥ अनुभूय महाकष्टं वित्तमेतदुपाजितम् । साधं नेतुं न शक्नोमि प्रयासो मम निष्फलः ॥ ६ ॥ विलपन्त नरं दृष्ट्वा करुणाकान्तमानसः। विदेशस्याधिपः कश्चित तस्मै ददाति पत्रकम् ॥ ७ ॥ एतत्पत्र गृहीत्वा त्वं प्रयाहि स्वीयपत्तनम् । एतद्वित्त त्वया तत्रावश्यं प्राप्तं भविष्यति ॥ ८ ॥ एवं दयालुराचार्य परलोकं यियासवे। सल्लेखनाह्वयं पत्रं वस्वा वदति भूरिशः ॥ ९॥ एतस्पत्र प्रभावेण त्वमेतन्निखिलं धनम् । परलोके नियोगेन प्राप्स्यस्येव न संशय.॥१०॥ तात्पर्यमिदमेवात्र ोतल्लोकस्य वैभवम् ।।
परलोके निनीषुश्चेत् कुरु सल्लेखनां ततः ॥ ११ ॥ १ ना पुरुष,
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एकादश प्रकाश
१५॥
अर्थ-जिस प्रकार कोई विदेशमे रहने वाला मनुष्य विपुल धन अजित करता है परन्तु जब स्वदेशको आनेकी इच्छा करता है तो उस देशके नियमानुसार वह उस धन को साथ लानेमे समर्थ नहीं हो पाता। इस दशामे वह सक्लिष्ट चित्त होता हुआ बहुत दुःखी होता है। इसी प्रकार यह पुरुष अपने प्रयत्नसे बहुत धनका संचय करता है परन्तु जब वह परलोकको जाना चाहता है तब इस लोकके नियमानुसार उस धनको साथ ले जानेमे समर्थ नहीं हो पाता, इस स्थितिमे वह दू खसे सतप्त होता हआ रोता है, क्या करूं? महान कष्ट सहकर मैंने यह धन उपाजित किया है परन्तु साथ ले जानेमे समर्थ नही हूँ, मेरा परिश्रम व्यर्थ गया। इस प्रकार विलाप करते हुए उस पुरुषको देखकर कोई दयाल विदेश का राजा उसके लिये एक पत्र देता है तथा कहता है कि तुम इस पत्र को लेकर अपने नगर जाओ, यह धन तुम्हे वहाँ अवश्य हो मिल जायेगा। इसी प्रकार दयाल आचार्य परलोक को जाने के लिये इच्छुक पुरुष को सल्लेखना नामक पत्र देकर बार-बार कहते हैं कि तुम इस पत्रके प्रभावसे यह धन परलोकमे अवश्य ही प्राप्त कर लोगे, इसमे संशय नही है। तात्पर्य यही है कि यदि तुम इस लोक का वैभव परलोकमे ले जाना चाहते हो तो सल्लेखना करो ॥२.११ ॥ आगे संन्यास सल्लेखना कबकी जाती है, यह कहते हुए उसके भेद बताते हैं
उपसर्गेऽतोकारे दुभिक्षे चापिभोषणे । ध्याधावापतिते घोरे संन्यासो हि विधीयते ॥ १२॥ संन्यासस्त्रिविधः प्रोक्तो जैनागमविशारद । प्रथमो भक्तसंख्यानो द्वितीयस्वेङ्गिनीमृतिः ॥ १३ ॥ प्रायोपगमनं चान्त्यं कर्मनिर्जरणक्षमम् । यत्र यमनियमाभ्यामाहारस्त्यज्यते क्रमात् ॥ १४॥
यावृत्यं शरीरस्य स्वस्य यत्र विधीयते। स्वेन वा च परापि सेवाभावसमुद्यतः ॥१५॥ मेयः स भक्तसंख्यानः साध्या सर्वजनरिह। जवन्यमध्यमोत्कृष्टमेवात् स त्रिविषो मत ॥ १६ ॥ जघन्य समयो यो घटिकाद्वय सम्मितः । अन्स्यो वावश वर्षात्मा मध्यमोऽनेकपा स्मृतः ॥ १७ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
इङ्गिनीमरणे स्वस्थ सेवा स्वेन विधीयते । परेण कार्यते नैव वैराग्यस्य प्रकर्षतः ॥ १८ ॥ प्रायोपगमने सेवा नैव स्वस्य विधीयते । स्वेन वा न परंश्चापि निर्मोहत्वस्य वृद्धितः ॥ १९ ॥ एते त्रिविधसंन्यासा. कर्तव्याः प्रीतिपूर्वकम् ।
प्रीत्या विधीयमानास्ते जायन्ते फलदायकाः ॥ २० ॥
अर्थ - प्रतिकार रहित उपसर्ग, भयंकर - दुर्भिक्ष और घोर - भयानक बीमारी के होनेपर सन्यास किया जाता है। जैन सिद्धान्तके ज्ञाता पुरुषो द्वारा सन्यास तीन प्रकार का कहा गया है। पहला भक्तप्रत्याख्यान, दूसरा इङ्गिनोमरण और तीसरा कर्मनिर्जरामे समर्थ प्रायोपगमन | जिसमे यम और नियमपूर्वक क्रमसे आहारका त्याग किया जाता है तथा अपने शरीर की टहल स्वय को जाती है और सेवामे उद्यत रहने वाले अन्य लोगोसे भी करायो जाती है, उसे भक्त प्रत्याख्यान जानना चाहिये। यह संन्यास सब लोगोके द्वारा साध्य है । यह सन्यास जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकार का माना गया है। जघन्यका काल दो घडी अर्थात् एक मुहूर्त और उत्कृष्ट का बारह वर्ष जानना चाहिये । मध्यमका काल अनेक प्रकार है । इङ्गिनीमरणमे अपनो सेवा स्वयं की जाती है, वैराग्य को अधिकता के कारण दूसरोसे नही करायी जातो । प्रायोपगमनमे अपनी सेवा न स्वय को जाती है और न दूसरोसे करायी जाती है । ये तोनो संन्यास प्रीतिपूर्वक करना चाहिये । क्योकि प्रीतिपूर्वक किये जाने पर ही फलदायक होते है ॥ १२-२० ॥
आगे निर्यापकाचार्य के अन्तर्गत सल्लेखना करना चाहिये, यह कहते हैसरिन्मध्ये यथा नौका कर्णधार विना क्वचित् ।
न लक्ष्यं शक्यते गन्तु तथा निर्यापक विना ॥ २१ ॥ सल्लेखनासरिन्मध्ये सुस्थितः क्षपकस्तथा ।
कार्यो निर्यापकस्ततः ।। २२ ॥ साघुरायुर्वेद विशारदः ।
न गन्तु शक्यते लक्ष्यं उपसर्गसहः देहस्थितिमवगन्तु क्षमः क्षान्ति युतो महान् ॥ २३ ॥ मिष्टवाक् सरलस्वान्तः कारितानेक सन्मृतिः । निर्यापको विधातव्यः संन्यास ग्रहणे पुरा ॥ २४ ॥
अर्थ - जिस प्रकार नदोके बीच खेवटिया के बिना नाव कही अपने लक्ष्य स्थानपर नही ले जायी जा सकती उसी प्रकार निर्यापकाचार्यक
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एकादश प्रकाश
१९१ विना सल्लेखना रूप नदीके बीच स्थित क्षपक अपने लक्ष्य स्थानपर नहीं पहुंच सकता। इसलिये निर्यापकाचायं बनाना चाहिये । जो साधु उपसर्ग सहन करने वाला हो, आयुर्वेदका ज्ञाता हो, शरीर स्थितिके जाननेमे समर्थ हो, क्षमासहित हो, महान् प्रभावशालो हो, मिष्टभाषो हो, सरल चित्त हो तथा जिसने अनेक सन्यासमरण कराये हैं, ऐसे साधुको संन्यासग्रहणके समय निर्यापकाचार्य बनाना चाहिये। यह निर्यापकाचार्य का निर्णय संन्यास ग्रहणके पूर्व कर लेना चाहिये
॥२१.२४॥ आगे क्षपक निर्यापकाचार्यसे सल्लेखना कराने की प्रार्थना करता है
भगवन् ! संन्यासदानेन मज्जन्मसफलोकुरु । इत्थं प्रार्थयते साधुनिर्यापकमुनीश्वरम् ।। २५ ॥ क्षपकस्य स्थिति ज्ञात्वा दद्याग्निर्यापको मुनिः। स्वीकृति स्वस्य संन्यासविधि सम्पादनस्य ॥ २६ ॥ द्रव्यं क्षेत्रं च काल च भाव वा क्षपकस्य हि । विलोक्य कारयेत्तेन युत्तमार्थ प्रतिक्रमम् ॥ २७ ॥ क्षपकः सकलान् बोषान् निजि समुदीरयेत् । क्षमयेत् सर्वसाधून स स्वयं कुर्यात्क्षमा च तान् ॥ २८॥ एवं निःशल्यकोभूत्वा कुर्यात्संस्तरोहणम् । निर्यापकश्च विज्ञाय क्षपकस्य तनस्थितिम ॥ २९॥ अग्नपानादि सत्यागं कारयेत यथाक्रमम् । पूर्वमन्नस्य संत्याग नियमेन यमेन वा ॥ ३०॥ पेयस्यापि ततस्त्यागं कारयति यथाविधि ।
क्षपकस्य महोत्साहं वर्धयेदनिशं सुधीः ॥३१॥ अर्थ-'हे भगवन् । संन्यास देकर मेरा जन्म सफल करो', इस प्रकार साधु निर्यापक मुनिराजसे प्रार्थना करता है। निर्यापक मुनिक्षपक की स्थिति जानकर संन्यास-विधि कराने के लिये अपनी स्वीकृति देते हैं। निर्यापकाचार्य सबसे पहले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकोदेखकर क्षपकसे उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कराते हैं। क्षपकको भी छल रहित अपने समस्त दोष प्रकट करना चाहिये। तत्पश्चात् क्षपक निशल्य होकर सब साधुओसे अपने अपराधोको क्षमा कराता है और स्वयं भो उन्हे क्षमा करता है। निर्यापकाचार्य क्षपकको शरीरस्थितिको अच्छी तरह जानकर क्रमसे अन्न-पानका त्याग कराते हैं। पहले
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सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिः
यम या नियम रूपसे अन्नका त्याग कराते है पश्चात् क्रमसे पेयका भो त्याग कराते हैं । बुद्धिमान् निर्यापकाचार्य निरन्तर क्षपकका उत्साह बढ़ाते रहते हैं ।। २५-३१ ॥
३६ ॥
आगे निर्याfपकाचार्य क्षपकको क्या उपदेश देते हैं, यह कहते हैंक्षुत्पिपासादिना जात कष्टं नानानिदर्शनैः । दूरीकुर्यात् सदा साधुनिर्यापणविधिक्षमः ॥ ३२ ॥ साधो' न विद्यते कश्चित् पुद्गलो जगतीतले । यो न मुक्तस्त्वया पूर्वं केय भुक्ते रतिस्तव ॥ ३३ ॥ नारके कियतो वाधा विसोढा क्षुत्तृषोस्त्वया । संस्मरनित्यमात्मानं ज्ञानानन्दस्वभावकम् ॥ ३४ ॥ आत्मा न म्रियते जातु पर्यायो ह्येवमुच्यते । पर्यायस्य स्वभावोऽयं न हतु ं शक्य एव ते ॥ ३५ ॥ विधिना कृत संन्यासो भव्य सान्तमवार्णवः । नियमान्निवृति याति पृथकत्वभव मध्यके ॥ बालबालोऽथवा बालो बालपण्डित एव च । मृत्यवो बहवः प्राप्ता भ्रमता भवकानने ॥ ३७ ॥ पण्डितोऽयमृतिः प्राप्ता विधेह्येतां सुनिर्मलाम् । पण्डिते मरणे प्राप्ते पण्डित पण्डित सम्मृतिः ॥ ३८ ॥ सुलभा ते भवेदेव साहस कुरु सत्वरम् । निर्यापकवचः श्रुत्वा क्षपकः शुद्धचेतसा ॥ ३९ ॥ ध्यायन् पञ्च नमस्कार मन्त्रं प्राणान् विसर्जयेत् । क्षपकस्त्रिदिव याति संन्यासस्य प्रभावतः ॥ ४० ॥ तत्र भुङ्क्ते चिरं भोगान् बन्दते च जिनालयान् । मेरु नन्दीश्वरादीनां स्थायिनोऽकृत्रिमान् सदा ।। ४१ ।। अर्थ - निर्यापण विधि करानेमे समर्थ साधु निर्यापकाचार्य, क्षुधातृषा आदिसे उत्पन्न कष्टको अनेक दृष्टान्तोके द्वारा दूर करता रहे । हे साधो ! इस पृथिवीतलपर ऐसा कोई पुरुष नही है जिसे तूने पहले भोगा न हो । अत भुक्तभोगी हुई वस्तुमे तुम्हारा यह राग क्या है ? नरकपर्यायमे तूने क्षुधा तृषाकी कितनी बाधा सही है । तूं निरन्तर ज्ञानानन्द स्वभावो आत्माका स्मरण कर । आत्मा कभी नही मरतो है, मात्र पर्याय हो छूटती है, पर्यायका यह स्वभाव तुम्हारे द्वारा हरा नही जा सकता । जिसका ससार सागर सान्त हो गया है, ऐसा भव्य
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एकादश प्रकाश
जीव यदि विधिपूर्वक संन्यास मरण करता है तो वह सात-आठ भवमें नियमसे निर्वाणको प्राप्त होता है। संसार वनमे भ्रमण करते हुए तूने बालबाल, बाल और बालपण्डितमरण बहुत किये है। आज पण्डितमरण प्राप्त हुआ है सो इसे निर्मल-निर्दोष कर। पण्डितमरण प्राप्त होनेपर पण्डितपण्डितमरण सुलभ हो जावेगा, अतः शीघ्र हो साहस कर। निर्यापकाचार्यके वचन सुनकर क्षपक शुद्धचित्तसे पञ्चनमस्कार मन्त्रका ध्यान करता हआ प्राण छोडता है। संन्यासमरणके प्रभावसे क्षपक स्वर्ग जाता है तथा वहाँ चिरकालतक भोग भोगता है। साथ ही मेह-नन्दीश्वर आदिके शाश्वत अकृत्रिम चैत्यालयोको बन्दना करता है ॥ ३३-४१॥
भावार्थ-संक्षेपमे मरणके पांच भेद हैं-१ बालबाल, २ बाल, ३ बालपण्डित ४ पण्डित और ५. पण्डित-पण्डित । मिथ्यादृष्टिके मरणको बालबालमरण कहते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टिके मरणको बालमरण कहते हैं। देशविरत-श्रावकके मरणको बालपण्डितमरण कहते हैं। मुनिके मरणको पण्डितमरण कहते हैं और केवलीके (मरण) निर्वाणको पण्डितपण्डितमरण कहते है। आगे सल्लेखनाके प्रकरणका समारोप कहते हैंमनसि ते यदि नाकसुखस्पृहा
कुरु हचि जिनसंयमषारणे । भज जिनेन्द्रपदं श्रयशारदा
जिन मुबाजभवां सुगुरून नम ॥ ४२ ॥ अर्थ-यदि तेरे मनमे स्वर्ग सुखको चाह है तो जिनेन्द्र प्रतिपादित संयमके धारण करनेमे रुचि कर, जिनेन्द्रदेवके चरणोको आराधना कर, जिनेन्द्रके मुखकमलसे समुत्पन्न वाणीका आश्रय लें और सुगुरुओंको नमस्कार कर ॥ ४२ ॥
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमें संन्यास-सल्लेखनाका
वर्णन करनेवाला एकादश प्रकाश समाप्त हुआ।
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः
द्वादशप्रकाशः देशचारित्राधिकार
मङ्गलाचरणम् यज्ज्ञानमार्तण्डसहलरश्मि
प्रकाशिताशेषदिगन्तराले। न विद्यते किश्चिदपि प्रकाश
विजितं वस्तु समस्तलोके ॥ १॥ यश्चात्र नित्यं गतरागरोषः
शुदाम्बराभः सततं विभाति । स वीर नाथो मम बोधरम्य
रश्मिप्रसारेऽवहित. सवा स्यात् ॥ २॥ अर्थ-जिनके ज्ञानरूपो सूर्यको हजारो किरणोके द्वारा समस्त दिशाओके अन्तराल-मध्यभाग प्रकाशित हो रहे है । ऐसे समस्त लोकमे कोई पदार्थ अप्रकाशित नहो रहा था अर्थात् जो सर्वज्ञ थे और जो नित्य ही रागद्वेषसे रहित होनेसे शुद्ध आकाशके समान सदा सुशोभित थे ऐसे महावीर भगवान् मेरे ज्ञानको रमणीय किरणोके प्रसारमे सदा तत्पर रहे ॥ १.२॥ __ भावार्थ-सर्वज्ञ और वीतराग भगवान् महावीरका पुण्य स्मरण हमारी ज्ञानवृद्धिमे सहायक हो। आगे देशचारित्रका वर्णन करते हैं
अथाने देशचारित्रं किञ्चिवत्र प्रवक्ष्यते । हिताय हतशक्तीनां पूर्णचारित्रधारणे ॥ ३ ॥ देह ससार निविण्णः सम्यक्त्वेन विभूषितः । कश्चिद् भव्यतमो जीवस्तीर्ण प्राय भवार्णवः॥ ४ ॥ हिसास्तेयानताब्रह्म द्विविधग्रन्थराशितः।
देशतो विरलोभूत्वा देशचारित्रमश्नुते ॥ ५॥ अर्थ-अब आगे पूर्णचारित्र धारण करनेमे शक्तिहीन मनुष्योके हितके लिए कुछ देशचारित्र कहा जायगा। जो संसार और शरीरसे उदासीन है, सम्यग्दर्शनसे सुशोभित है तथा जिसने भव-सागरको प्रायः पार कर लिया है ऐसा कोई श्रेष्ठ भव्य जीव, हिंसा, असत्य,
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द्वादश प्रकाश
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चोरो, कुशील और द्विविध-चेतन-अचेतन परिग्रह राशिसे एकदेश विरक्त हो देशचारित्रको प्राप्त होता है ।। ३-५ ॥ आगे पाँच अणुव्रतोका स्वरूप निर्देश करते हैं
अहिंसाविप्रभेदेनाणवतं पञ्चधामतम् । निवृत्तिस्त्रसहिसातोऽहिसाणुव्रतमुच्यते ॥६॥ संकल्पाद् विहिता हिंसा भविनां भववर्धनी। एतत्प्रभावतो जीवा जायन्ते श्वनभूमिषु ।। ७ ।। आरम्माज्जायते हिसा या च युद्धाप्राजयते। उधमाद या समुत्पन्ना तासां त्यागो न वर्तते ॥८॥ यथायथोचमायान्ति प्रतिमादिविधानतः। तथा तथा परित्याग आसां हि सम्भवेन्नणाम् ॥ ९ ॥ स्थलानतवचनानां त्यागो यत्र विधीयते। सत्याणव्रतमेतत्स्यात्पुंसां सद्धर्मशालिनाम् ॥१०॥ स्थूलस्तेयाख्य पापाद या विरति पुण्यशोभिनाम् । अचौर्याणुव्रतं ज्ञेय तदेतत्सौख्यकारणम् ॥११॥ धर्मेण परिणीतायाः पत्न्या सम्बन्धमन्तरा। अन्यस्त्रीसङ्ग सन्त्यागो ब्रह्मचर्य भवेत्तु तत् ।। १२॥ धनधान्याविवस्तूनां चेतनाचेतनाक्ताम् । यो देशेन परित्यागः सोऽपरिग्रहसंज्ञकम् ॥ १३॥ अणवत परिशेयं जनसोजन्यकारणम्।।
वस्तुतो वर्धमानेच्छा जनानां दुःखकारणम् ।। १४ ।। अर्थ- अहिंसा आदिके भेदसे अणुव्रत पांच प्रकारका माना गया है। त्रसहिंसासे निवृत्ति होना अहिंसाणुव्रत कहलाता है। संकल्पासे की गई हिंसा ससारी जीवोके ससारको बढानेवाली है । इसके प्रभावसे जोव नरककी पृथिवियोमे उत्पन्न होते हैं। आरम्भसे, युद्धसे और उद्योग से जो हिंसाये होती है उनका प्रारम्भमे त्याग नहीं होता। प्रतिमा आदिके विधानसे मनुष्य जैसे-जैसे ऊपर आते जाते है वैसे-वैसे हो उनका त्याग सम्भव होता जाता है। स्थूल असत्य वचनोका जिसमे त्याग किया जाता है वह समोचोन धर्मसे सुशोभित पुरुषोका सत्याणु व्रत है । स्थूल चोरो नामक पापसे पुण्यशाली मनुष्योको जो निवृत्ति है उसे अचौर्याणुव्रत जानना चाहिए। यह सुखका कारण है। धर्मपूर्वक विवाहो गई स्त्रोके सम्बन्धको छोड़कर अन्य सित्रयोके समागमका
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सम्यक्पारिन-चिन्तामणिः त्याग करना ब्रह्मचर्याणु व्रत है । चेतन-अचेतन धनधान्यादि वस्तुओंका जो एकदेश त्याग है उसे परिग्रह परिमाणाणवत जानना चाहिए। यह व्रत मनुष्योके सौजन्यका कारण है। वास्तवमे बढतो हुई इच्छा हो मनुष्योके दुखका कारण है ।। ६-१४ ॥ आगे तोन गुणवतोका वर्णन करते है
अणवतानां साहाय्यकरणं स्यात् गुणवतम् । दिशावतादिभेदेन तच्चेह त्रिविधं मतम् ॥ १५ ॥ प्राध्यपाच्यादिकाष्ठासु यातायातनियन्त्रणम्। यावज्जीवं भवेत्काष्ठा व्रतमाघ गुणवतम् ॥ १६ ॥ काष्ठावतस्य मर्यादा मध्ये चिरकालकम् । यो हि नाम भवेन्नाम तच्च वेशवतं स्मृतम् ॥१७॥ मनो वाक्काय चेष्टा या सा हि वण्ड. समुच्यते। अर्थो न विद्यते यस्य दण्डः सोऽनर्थको मतः॥१८॥ स्यागश्चानर्थदण्डस्यानर्थदण्डवतं मतम् । कृष्यादिवापकार्याणामुपदेशो निरर्थकः॥ १९॥ दीयते यः स पापोपदेशो नर्थदण्डकः । तस्य त्यागो विधातव्यः पापानवनिरोधिभिः॥२०॥ धनुर्वाणादि हिंसोपकरणाना निरर्थकम् । हिसादान प्रदानं स्यात्तत्यागस्तु वतं स्मृतम् ॥ २१॥ रागद्वेषादिवद्धिः स्याद् यासां श्रवणतो नणाम।। ताहि दुःश्रुतयो ज्ञेयास्तत्यागस्तु व्रतं मतम् ॥ २२॥ अन्येषां वधबन्धादि चिन्तनं रागरोषतः। अपध्यान भवेत् त्यागस्तस्य च स्यान्महद् व्रतम् ॥ २३ ॥ शेलाराम समुद्रादौ यत् भ्रमणं निरर्थकम् ।
मताप्रमावचर्या सा तत्त्यागो व्रतमुच्यते ॥ २४ ॥ अर्थ-जो अणुव्रतोकी सहायता करता है वह गुणवत है। दिग्वत बादिके भेदसे वह गुणव्रत तोन प्रकारका माना गया है। पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओमे जीवन पर्यन्तके लिये यातायातको नियन्त्रित करना दिग्वत नामका पहला गुणवत है। दिग्वतको मर्यादाके बोचमें कुछ समयके लिए जो नियम लिया जाता है वह देशवत माना गया है । मन, वचन, कायको जो चेष्टा है वह दण्ड कहलाती है। जिसका कोई प्रयोजन नहीं है वह अनर्थ कहलाता है, अनर्थदण्डका त्याग करना अनर्थ
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বি গায় दण्डवत है। कृषि आदि कार्योका जो निरर्थक-निष्प्रयोजन उपदेश दिया जाता है वह पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड है। पापासवका निरोध करनेवाले मनुष्योको उसका त्याग करना चाहिए । धनुष, बाण
आदि हिंसाके उपकरणोका निरर्थक देना हिंसावान नामका अनर्थ दण्ड है, उसका त्याग करना व्रत है। जिनके सुननेसे मनुष्योको राग. द्वेषकी वृद्धि होती है वह दु.श्रुति नामका अनर्थदण्ड है, इसका त्याग करना व्रत है। रागद्वेषसे अन्य लोगोके वध-बन्धन आदिका चिन्तन करना अपध्यान अनर्थदण्ड है, उसका त्याग करना श्रेष्ठ व्रत है। पर्वत, उद्यान तथा समुद्र आदिमें निरर्थक भ्रमण करना प्रमावचर्या है उसका त्याग करना व्रत कहलाता है ।। १५-२४ ॥ आगे चार शिक्षावतोका वर्णन करते है
मुनिधर्मस्य शिक्षायाः प्राप्तिर्यस्मात्प्रजायते । शिक्षावतं तु तज्नेयं चतस्त्रः सन्ति तद्धिवा ॥२५॥ आधं सामायिक नेयं द्वितीयं प्रोषषाह्वयम् । भोगोपभोगवस्तूनां परिमाणं तृतीयकम् ॥ २६ ॥ शिक्षावत चतुर्थ स्यादतिथीसंविभागकम् ।
श्रावका पालनीयानि यथाकालं यथाविधि ॥ २७ ॥ अर्थ-जिससे मुनिधर्मको शिक्षाकी प्राप्ति होती है उसे शिक्षावत जानना चाहिये। इसके चार भेद हैं-पहला सामायिक, दूसरा प्रोषघोपवास, तीसरा भोगोपभोग परिमाण और चौथा अतिथि संविभाग। श्रावकोको यथासमय विधि-पूर्वक इनका पालन करना चाहिये ।। २५-२७॥ आगे इनका स्वरूप कहते हैं
प्रातमध्याह्नसन्ध्यासु कृतिकर्मपुरस्सरम् । सामायिकं सुकर्तव्यं घटिकाढयसम्मितम् ॥ २८॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां चतुराहारवर्जनम् । प्रोषधः स हि विशेय एकासनपुरस्सरः ॥२९॥ ये भज्यन्ते सकृद भोगा: कम्यन्ते तेऽशनावपः। भूयो भूयोऽपि भुज्यन्ते ये तेऽलंकरणादयः॥ ३०॥ उपभोगाः प्रकीय॑न्ते वस्तु तस्व विमारक। परिमाण सवा ह्येषां विधातव्यं विवेकिनिः॥३१॥
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सम्यक्चारित्न-चिन्तामणिः सुपात्राय सवा देयं वानमत्र चतुर्विषम् । सुपात्रं त्रिविधं प्रोक्तमुत्तमादि प्रमेवता ॥ ३२॥ रत्नत्रयेण संयुक्ता मुनयः शान्तमूर्तयः। शेयान्युत्तमपात्राणि ह्यायिका मातरस्तथा ॥ ३३ ॥ देशवृत्तयुता ज्ञेया ऐलकादिपवान्विताः। सूक्तानि मध्यपात्राणि जैनतत्त्वविशारदः ।। ३४ ॥ व्रतेन रहिताः सम्यग्दृष्टयो जिनभाक्तिकाः । प्राप्ता जघन्य पात्रत्वं कथिताश्चरणागमे ॥ ३५॥ एभ्यस्त्रिविध पात्रेभ्यो देय दान चतुर्विधम् ।। आहारौषध शास्त्राघभयभेदाच्चतुर्विधम् ॥ ३६॥ दान महर्षिभिः प्रोक्तं गृहिणां पुण्यकारणम् । दानेनैव शुध्यन्ते गहाणि गहिणामिह ॥ ३७ ।। अम्ते सल्लेखना कार्या प्रतिभिविधिसयुता।
सल्लेखना विधिः पूर्व प्रोक्तो विस्तरतो मया ॥ ३८॥ अर्थ-प्रात , मध्याह्न और सायकाल कृतिकर्म-कायोत्सर्ग आवर्त आदि सहित कमसे कम दो घडोतक सामायिक करना चाहिये । अष्टमी और चतुर्दशोको चारो प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है। यह धारणा और पारणाके एकासनसे सहित होता है। जो एक बार भोगे जाते है वे भोजन आदि भोग है और जो बारबार भोगे जाते हैं वे आभूषण आदि वस्तु स्वरूपके ज्ञाता पुरुषो द्वारा उपभोग कहे जाते हैं। विवेको मनुष्योको इनका परिमाण करना चाहिये। यही भोगोपभोग परिमाणवत है। सुपात्रके लिये सदा चार प्रकारका दान देना चाहिये। उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे सुपात्र तीन प्रकारका कहा गया है। जो रत्नत्रयसे सहित तथा शान्तिको मानो मूर्ति हैं ऐस मुनि और आयिका माताएं उत्तम पात्र जानने योग्य हैं। जो देशवतसे सहित हैं ऐसे ऐलक आदि पदसे सहित व्रतो, जैनतत्त्वके ज्ञाता पुरुषोके द्वारा मध्यम पात्र कहे गये हैं और जो व्रतस रहित हैं तथा जिनेन्द्र देवके भक्तसम्यग्दष्टि है वे चरणानुयोगमे जघन्य पात्र माने गये हैं। इन तोनो प्रकारके पात्रोके लिये चार प्रकारका दान देना चाहिये। महर्षियोने आहार, औषध, शास्त्रादि उपकरण और अभयके भेदसे दानके चार भेद कहे हैं। वास्तवमे गृहस्थोके घर दानमे हो शुद्ध होते हैं । अन्तमे व्रती मनुष्योको विधि
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द्वादश प्रकाश
पूर्वक सल्लेखना करनी चाहिये । सल्लेखनाको विधि पोछे विस्तारपूर्वक कही गई है ।। २८-३८ ॥ आगे सत्तर अतिचारोके कथनको प्रतिज्ञाकर सम्यग्दर्शनके अतिचार कहते हैं
इतोऽग्ने सम्प्रवक्ष्याम्यतीचाराणां च सप्ततिम् । श्रुत्वा सुपरिहार्यास्ते वतनर्मल्य काक्षिभिः ॥ ३९ ॥ शङ्का कांक्षा च भोगानां विचिकित्सा तथैव च । अन्यदृष्टे प्रशसा च सस्तवश्चापि मोहिन. ॥ ४० ॥ एते पञ्च परित्याज्याः सववृष्टे रति चारकाः।
शुद्ध सदृष्टिरेवस्यात् कर्मक्षपणकारणम् ॥४१॥ अर्थ-अब इसके आगे सत्तर अतिचार कहेगे। व्रतोको निर्मलता चाहनेवाले पुरुषोको उन्हे सुनकर दूर करना चाहिये। शङ्का, भोगाकाडक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशसा और मोही-अन्य दृष्टिका सस्तव, ये सम्यग्दर्शनके पांच अतिचार छोडने योग्य है क्योकि शुद्धनिरतिचार सम्यग्दर्शन ही कर्मक्षयका कारण होता है ॥ ३६-४१॥ आगे पांच अणुव्रतोके अतिचार कहते है
अहिंसाणुव्रतके अतिचार आश्रितजीवजातीना तधो बन्धो विभेदनम् । आरोपोऽधिकभारस्य निरोधश्चान्न पानयोः ॥ ४२ ॥ अतीचारा इमे ज्ञेया हिसाणुव्रतस्य हि।
अतिचारान् परित्यज्य व्रत कार्य सुनिर्मलम् ॥ ४३ ॥ अर्थ-आश्रित जीव जातियो-गाय, भैस आदिका वध-लाठी, चाबुक आदिसे पोटना, कष्ट देनेके अभिप्रायपूर्वक बन्ध-रस्सो आदि. से बाधना, सौन्दर्य बढानेको भावनासे विभेदन-कान आदि अगोको छेदना, अधिक भार लादना और अन्न पानोका विरोध करना-पर्याप्त भोजन नही देना, ये पाच अहिंसाणु व्रतके अतिचार है। इनका त्याग कर व्रतको निर्मल बनाना चाहिये ।। ४२.४३ ॥
सत्याणवतके अतिचार अज्ञानाहा प्रमावाद्वा जीवानां हितकांक्षिणाम् । बानं मिथ्योपदेशस्य रहस्याख्यापनं तथा ॥४४ ।।
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१५० सम्यक्चारित्न-चिन्तामणि
कूटलेख क्रिया निन्या न्यासस्थापहतिस्तथा । साकारो मन्त्रभेदश्च सत्याणुवतशालिभि ॥ ४५ ॥ अतिचारा इमे त्याज्या सत्याणुव्रतशालिमिः।
व्रत निर्दोषमेवस्यादात्मशुद्धिविधायकम् ॥ ४६॥ अर्थ-हित चाहनेवाले पुरुषोको अज्ञान अथवा प्रमादसे मिथ्या उपदेश देना, स्त्री-पुरुषोके रहस्य-एकान्त बातको प्रकट करना, कूटलेख क्रिया-झठे लेख लिखना, धरोहरका अपहरण करनेवाले वचन कहना और साकार मन्त्र भेद-चेष्टा आदिसे किसीका अभिप्राय जानकर प्रकट करना, ये सत्याणुव्रतके अतिचार है। निर्दोष व्रतके इच्छक सत्याणु व्रतियोको इनका त्याग करना चाहिये, क्योकि निर्दोष व्रत ही आत्मशुद्धि करनेवाला होता है ।। ४४-४६ ॥
अचौर्याणुव्रतके अतिचार स्तेनप्रयोग चौरावाने लोभस्यवद्धितः। विरुद्धराज्येऽतिक्रान्तिानोन्मानीय वस्तुनो ।। ४७ ।। होनाधिक विधानं च सदशस्यापि मिश्रणम् । इत्येते पञ्च विजेया अतिचारा प्रदूषका ॥४८॥ अचौर्याण व्रतस्येह वर्जनीया विवेकिभिः ।
अतिचारयुत वृत्त न स्याच्छोभास्पद क्वचित् ॥४९॥ अर्थ-स्तेनप्रयोग-लोभकी अधिकतासे चोरको चोरोके लिये प्रेरित करना, तदाहृतादान-चुराकर लायो हुई वस्तुको खरीदना, विरुद्धराज्याति क्रम-विरुद्ध राज्यसे तस्कर व्यापार करना, हीना. धिक मानोन्मान-नाप-तौलके वस्तुओको कम बढ रखना और सदशसन्मिश्र-असली वस्तु मे नकलो वस्तु मिलाना, ये अचोर्याणुव्रतके अतिचार विवेको जनोके द्वारा छोडने योग्य है, क्योकि अतिचार सहित व्रत कही भी शोभित नही होता ॥ ४७-४६ ॥
ब्रह्मचर्याणवतके अतिचार कृतिरन्य विवाहस्य द्विविधत्वरिकागती। अनङ्ग क्रीडनं तीव कामेच्छा व्रतधारिणः ॥ ५० ॥ भतिचारा इमे या ब्रह्मचर्यव्रतस्थ हि। एतान् सर्वान् परित्यज्य विधेय विमलं व्रतम् ॥ ५१ ॥
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द्वादश प्रकाश
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अर्थ - अन्यविवाह करण - अपनो या अपने आश्रित सन्तानको छोड़कर दूसरोका विवाह करना, परिगृहोते त्वरिकागति - दूसरे के द्वारा गृहीत कुलटा स्त्रियोसे व्यवहार रखना, अपरिगृहीतेश्वरिका गति - दूसरेके द्वारा अगृहोत कुलटा स्त्रियोसे व्यवहार रखना, अनङ्गक्रीड़ा - काम सेवन के लिये निश्चित अङ्गोसे अतिरिक्त अङ्गो द्वारा क्रीड़ा करना और तीव्र कामेच्छा - काम सेवनमे तीव्र लालसा रखना, ये ब्रह्मचर्याणुव्रत अतिचार हैं। इन सबका त्याग कर व्रतको निर्मल करना चाहिये ।। ५०-५१ ।।
क्षेत्रवास्त्वो
रुक्मभर्मणोर्धनधान्ययोस्तथा ।
दासदास्योस्तयाकुप्य भाण्डयोश्च व्यतिक्रमः ॥ ५२ ॥ एते पञ्च परिप्रोक्ता अतिचारा जिनागमे । त्याज्या: स्वहित कामे पञ्चमाणु व्रतस्य हि ॥ ५३ ॥
अर्थ - क्षेत्र वास्तुप्रमाणातिक्रम - खेत व मकानोकी सीमाका उल्लङ्घन करना, रुक्मभमंप्रमाणातिक्रम - चादी, स्वर्णकी सोमाका उल्लघन करना, धनधान्यप्रमाणातिक्रम - गाय-भैंस आदि पशुधन और गेहू, धान, चना आदि अनाजकी सोमाका व्यक्तिक्रम करना, दासीदासप्रमाणातिक्रम - संपत्ति रूपसे स्वीकृत दासोदासके प्रमाणका उल्लघन करना और कुप्यभाण्डप्रमाणातिक्रम - वस्त्र तथा बर्तनोकी सोमाका व्यतिक्रम करना, ये परिग्रह परिमाण व्रतके अतिचार हैं । आत्महितके इच्छुक मनुष्योको इनका त्याग करना चाहिये ।। ५२-५३ ॥ आगे गुणव्रत के अतिचार कहते है
farare अतिचार
प्रमादाद्वा ह्यूर्ध्व सीमव्यतिक्रमः । अषोभ्यतिक्रमश्वंव तिर्यक्सीम व्यतिक्रमः ॥ ५४ ॥ लोभाद्वा क्षेत्रवद्विश्च ह्याधानमभ्ययास्मृतेः । अतिचारा इमे त्याज्याः काष्ण व्रतममीप्सुभिः ।। ५५ ।।
अज्ञानाद्वा
अर्थ - प्रमाद अथवा अज्ञानसे ऊर्ध्व सोमाका उल्लंघन करना, अध - नोचे जानेकी सीमाका उल्लघन करना तिर्यक् सीमा - समान धरातलको सीमाका उल्लंघन, लोभवश किसी दिशाकी सोमा घटाकर अन्य दिशाकी सीमामे वृद्धि कर लेना और कृत सीमाको भूलकर अन्य
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
सोमाको स्मृतिमें रखना, ये दिखतके अतिचार हैं। निर्दोष दिग्व्रतको इच्छा रखने वाले पुरुषोके द्वारा ये छोड़ने योग्य हैं ।। ५४-५५ ॥
देशव्रतके अतिचार
आनयनं बहिः सोम्नो यस्य कस्यापि वस्तुनः । प्रेषणं प्रेष्यवर्गस्य शब्दस्य प्रेषणं बहिः ॥ ५६ ॥ प्रदर्शनं स्वरूपस्य क्षेपणं पुद्गलस्य इत्य मनीषिभिः प्रोक्ता दोषा देशव्रतस्य हि ॥ ५७ ॥ त्याज्या मनस्विभिनित्य निर्दोषव्रतवाञ्छिभिः ।
च ।
व्रतं सदोष नो भाति मलिन ह्यम्वर यथा ॥ ५८ ॥
अर्थ - मर्यादा के बाहरसे जिस किसो वस्तुको बुलाना, मर्यादाके बाहर सेवक समूहको भेजना, मर्यादाके बाहर अपना शब्द पहुँचानाफोन आदि करना, मर्यादाके बाहर कार्य करने वालोको अपना स्वरूप दिखाना और मर्यादाके बाहर पुद्गल - ककड़-पत्थर फेकना या पत्र आदि भेजना, ये विद्वज्जनोके द्वारा देशव्रतके अतिचार कहे गये है । निर्दोषव्रतको इच्छा रखने वाले विचारशील मनुष्योको इनका सदा त्याग करना चाहिये, क्योकि सदोष व्रत मलिन वस्त्र के समान सुशोभित नही होता ।। ५६-५८ ॥
अनर्थदण्डव्रतके अतिचार
कन्दर्पश्च कौत्कुच्यं च मौखर्यं चासमीक्ष्य वं । अधिकस्य समारम्भ स्वप्रयोजनमन्तरा ॥ ५९ ॥ भोगोपभोगवस्तूनां सग्रहोऽनर्थको महान् । चित्तविक्षेपकारित्वादाकुलताविधायक
॥ ६० ॥
अतिचारा इमेत्याज्यास्तृतीयेऽनर्थदण्डके । लक्ष्यप्राप्तिर्यतो नास्ति सदोष व्रतधारणे ॥ ६१ ॥
अर्थ - कन्दर्प - रागमिश्रित भण्ड वचन बोलना, कौत्कुच्य - उसके साथ शरोरसे कुचेष्टा करना, मौखर्य-उसके साथ निरर्थक अधिक बोलना, स्वकोय प्रयोजनके न होने पर भी विचार बिना अधिक आरम्भ कराना और भोगोपभोगको वस्तुओका निरर्थक ऐसा बड़ा संग्रह करना जो चित्तविक्षेपका कारण होनेसे आकुलता उत्पन्न करने वाला हो । अनर्थदण्डव्रत नामक तृतीय गुणव्रतके ये अतिचार छोडने याग्य है क्योकि सदोष व्रत धारण करने पर लक्ष्यको प्राप्ति नही होतो ।। ५६-६१ ।।
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सामायिकशिमावतके अतिचार चेतसश्चञ्चलत्वं च बचोदुष्प्रणिधानता। शरीरस्यान्यथावृत्तिरावराभाव एव च ॥६२॥ पाठस्य विस्मृतिश्चंते सामायिकव्यतिक्रमाः।
त्याज्याः सुश्रावनित्यं निन्दनीया महर्षिभि ।। ६३ ॥ अर्थ-चित्तकी चञ्चलता, वचनको दुष्प्रणिधानता, शरीरको अन्यथा-वृत्ति-इधर-उधर देखना, आदरका अभाव और पाठको विस्मृति, ये सामायिकके अतिचार महर्षियोके द्वारा निन्दनीय है। उत्तम श्रावकोको इनका त्याग करना चाहिये ॥ ६२-६३ ॥
प्रोषधोपवास शिक्षावतके अतिचार अवष्टामाजितस्थाने मलादीनां विमोचनम्। अदृष्टामाजितस्थाने संस्तरस्थ प्रसारणम् ॥ ६४ ।। अदष्टामाजितादानमादराभाव एव च। तिथेय तिक्रमश्चापि विस्मरण विधेरपि ॥६५॥ शिक्षावतस्य विज्ञेया द्वितोयस्य व्यतिकमाः ।
एते सर्वेऽपि सत्याज्या निर्मलव्रतवाञ्छिमिः ।। ६६ ॥ अर्थ-क्षुधासम्बन्धो शिथिलताके कारण बिना देखे, बिना शोधे स्थान पर मलादिकका छोड़ना, बिना देखे, बिना शोधे स्थान पर विस्तर आदिका फैलाना, बिना देखे, बिना शोधे उपकरण आदिका ग्रहण करना, आदरका अभाव और उपवासको तिथिका उल्लघन करना, ये द्वितीय शिक्षाबतके अतिचार हैं। निर्मल व्रतको इच्छा रखने वाले पुरुषोके द्वारा ये सभी छोडने योग्य हैं ।। ६४-६६ ॥
भोगोपभोग परिमाण शिक्षाबतके अतिचार लोल्यात्सचित्तससेवा सचित्तेन युतस्य च। मिश्रस्य च सचित्तेन भोगोऽमिषवसेवनम् ।। ६७ ॥ दुष्पक्वस्य पदार्थस्य ग्रहण चातिगृद्धितः। शिक्षावत तृतीयस्य परित्याश अतिक्रमाः ॥ ६८॥ इन्दुर्यथा कलङ्कन युक्तो नैव विशोभते ।
तथा दोषश्च सयुक्तो व्रतो नंबात्र शोभते ।। ६९॥ भयं-भोगाकामा को आतुरतासे सचित वस्तुका सेवन करना, सवितसे सम्बद्ध वस्तुका सेवन करना, सचितसे मिलो हुई वस्तुका
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सेवन करना, विकारवर्द्धक गरिष्ठ वस्तुका सेवन करना और दुष्पक्वअर्धपक्व या अर्धदग्ध पदार्थको ग्रहण करना, ये भोगोपभोग परिमाण नामक तृतीय शिक्षावतके अतिचार है। इनका परित्याग करना चाहिये क्योकि जिस प्रकार कलङ्कसे युक्त चन्द्रमा सुशोभित नही होता, उसी प्रकार दोषोसे युक्त व्रती इस भूतल पर सुशोभित नही होता ॥६७-६६॥
अतिथि सविभाग व्रतके अतिचार सचित्तभाजने बत्तः पिहितश्च सचित्तत । परैः प्रदीयमानश्च मात्सर्यमितरजनः ॥ ७० ॥ कालस्योल्लद्धनं वाने प्रमाववशतो नृणाम् ।
तुर्यशिक्षावतस्यैते दोषास्त्याज्याः सदा बुधैः ।। ७१ ॥ अर्थ-सचित्त- हरित पत्ते आदि बर्तन पर रक्खा हुआ आहार देना, सचित्त-हरित पत्र आदिसे ढका हुआ आहार देना, परव्यपदेश-दूसरेसे आहार दिलाना, मात्सर्य-अन्य दातारोसे ईर्ष्या करना और कालोल्लघन-प्रमादवश दानके योग्य समयका उल्लघन करना, ये पाच अतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षावतके अतिचार ज्ञानी जनोके द्वारा सदा छोड़ने योग्य है ।। ७०-७१ ॥
सल्लेखनाके अतिचार जीविताशसनं जातु मरणाशसनं क्वचित् । मित्रः सहानुरागश्चानुबन्धो भुक्तशर्मणः ॥ ७२ ॥ निदान चेति विजेया. सन्यासस्य व्यतिक्रमाः।
एते सर्वे परित्याज्या. स्वर्गमोक्षाभिलाषिभिः।। ७३ ॥ अर्थ-कभी जीवित होनेकी आकाक्षा करना, कही कष्ट अधिक होने पर जत्दी मरनेको इच्छा करना, मित्रोके साथ अनुराग रखना, पूर्वभुक्त सुखका स्मरण करना और निदान-आगामो भोगोको इच्छा रखना, ये सन्यास-सल्लेखनाके अतिचार जानने योग्य है। स्वर्गमोक्षके इच्छुक पुरुषोको इन सब अतिचारोका परित्याग करना चाहिये ॥ ७२-७३ ॥
व्रत और शोलका विभाग अणुव्रतानि कथ्यन्ते तशब्देन सूरिमिः। शेषाणि सप्त कण्यन्ते शोलराम्देन सूरिभिः ।। ४।
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हार्दर्श प्रकाश
कृषीवला यथा लोके परित क्षेत्रसचयम् । कृत्वा वृति सुरक्षन्ति बुर्लभ सस्यसम्पदम् ।। ७५ ।। तथा शीलानि सधृत्य प्रतिनो मानवा भुवि । अत्यन्त दुर्लभां लोके रक्षन्ति व्रतसम्पदम् ॥ ७६ ॥ अर्थ - अणुव्रत आचार्यों द्वारा व्रत शब्दसे कहे जाते हैं और शेष सात- तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, शील शब्दसे कहे जाते हैं। जिस प्रकार लोकमे किसान खेतोके चारो ओर बाड़ लगाकर दुर्लभ धान्य सपत्तिकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार पृथिवो पर व्रती मनुष्य शीलोको धारण कर लोकमे अत्यन्त दुर्लभ व्रतरूप सम्पत्तिकी रक्षा करते हैं ॥ ७४-७६ ॥
अब आगे श्रावकोको जिनपूजा आदिका निर्देश देते है
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भक्त्या जिनेन्द्रदेवस्य द्रव्यैः सारतरंरिह । अर्चा नित्य विधेयास्ति सर्वसंकटहारिणो ॥ ७७ ॥ मन्दिराणि यथाशक्ति जिनदेवस्य भक्तितः । निर्मापयितुमर्हाणि मेरुतुल्यानि
सर्वदा ॥ ७८ ॥
तेषु जिनेन्द्रदेवस्य प्रतिमाश्चापि सुन्दराः । स्थापनीया प्रतिष्ठाभिः कृत्वा भव्य महोत्सवम् ॥ ७९ ॥
अर्थ - श्रावकोको प्रतिदिन अत्यन्त श्रेष्ठ अष्ट द्रव्योके द्वारा भक्तिपूर्व जिनेन्द्रदेवको पूजा करना चाहिये क्योकि जिनपूजा सब सकटोको हरने वाली है | श्रावकोको सदा भक्तिपूर्वक सुमेरुके समान - उत्तुङ्ग जिनमन्दिर भी यथाशक्ति बनवानेके योग्य है, तथा उनमे प्रतिष्ठाओ द्वारा महोत्सव कर जिनेन्द्र भगवान्की सुन्दर - मनोज्ञ प्रतिमाएँ स्थापित करना चाहिये ।। ७७-७८६ ॥
आगे जिनवाणीके प्रसारका निर्देश देते है
जिनवाणी प्रसाराय प्रयत्नो व्रतिभिर्जनैः ।
कार्यः सदा स्वद्रव्येण संचितेन सुभक्तितः ॥ ८० ॥ विद्यालयाच संस्थाप्याश्छात्रवश्वेन संयुताः । शिक्षकाers संयोज्या योग्यवृत्त्याभितोषिताः ॥ ८१ ॥ विद्वांसो दानमानाहः सच्छास्त्रेषु कृतश्रमाः । साम्प्रतं जिनशास्त्राणामाधाराः सन्ति ते यतः ॥ ८२ ॥ निर्प्रस्थमुद्रयोपेता विरक्ता भवभोगतः । शश्वदात्म हितोयुक्ताः परकल्याणकाङ्क्षिणः ।। ८३ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
मुनयोऽपि
सदावन्द्या
जैनधर्मप्रभावका ।
तेषां प्रभावना कार्या जनतानन्ददायिनी ॥ ८४ ॥ दोनहीनजना लोके कारुण्यावहमूर्तयः ।
अन्नवस्त्रादिदानेन रक्षणीयाः सदा नरेः ॥ ८५ ॥ आरोग्यलाभ संस्थान निचया धनदानतः ।
पोषणीयाः सदा स्वीय शरीर सहयोगतः ॥ ८६ ॥ लोककल्याण कारीणि कार्याणि विविधान्यपि । यथाशक्ति विधेयानि करुणापूर्ण मानसेः ॥ ८७ ॥
अर्थ - व्रतो मनुष्यो को अपने सचित द्रव्यके द्वारा सदा भक्तिपूर्वक जिनवाणी के प्रसारके लिये कार्य करना चाहिये। छात्र समूह से सहित विद्यालय भी स्थापित करना चाहिये और उनमे योग्यवृत्ति से सतो - षित अध्यापको को सयोजित करना चाहिये । समीचीन शास्त्रोमे परिश्रम करने वाले विद्वान् भी दान तथा सम्मानके योग्य है क्योकि वे इस समय जिनशास्त्रोके आधारभूत हैं। निर्ग्रन्थ मुद्रासे सहित, ससार सम्बन्धी भोगोसे विरक्त, निरन्तर आत्महितमे तत्पर, परकल्याणके इच्छुक तथा जैनधर्मकी प्रभावना करने वाले मुनि भी सदा वन्दनोय है । जनसमूहको आनन्द देने वाली उनको प्रभावना करना चाहिये । जिनके शरोरको देखकर करुणा उत्पन्न होतो है ऐसे दीन-हीन मनुष्य भो लोकमे सदा अन्न-वस्त्रादि देकर रक्षा करनेके योग्य है | आरोग्य लाभ के सस्थान जो औषधालय आदि हैं वे भी धन-दानसे तथा अपने शारीरिक सहयोगसे सदा पोषणोय है - पुष्ट करने के योग्य है । जिनका हृदय करुणासे पूर्ण है ऐसे मनुष्योको यथाशक्ति लोककल्याणकारी अन्य कार्य भी करनेके याग्य है | ८० ८७ ॥ आगे प्रतिमाओका वर्णन करते है
अप्रत्याख्यानावरण मोहस्य क्षयोपशमात् । प्रत्याख्यानावृतेः किश्वोदयस्य तारतम्यत । ८८ ।। श्रावकोऽयं यथाशक्ति प्रतिमासु प्रवर्तते । प्रतिमाः सन्ति ता एता एकादश मिता भुवि ॥ ८९ ॥ दर्शनिको व्रती चापि सामायिकसमुद्यतः । प्रोषधव्रतधारी च सचितत्याग तत्परः ।। ९० ॥ रात्रि मुक्तिपरित्यागी ब्रह्मचर्यविशोभित । कृतारम्भपरित्यागः सङ्गत्यागेन शुम्भितः ॥ ९१ ॥
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ान कान
विगतानुमतिः किव सन्तुष्टः स्वात्मसम्पदि । उद्दिष्टान्न परित्यागी तत्रस्था श्रावका मताः ॥ ९२ ॥ क्रमशोवर्धमानेन संयमेन सुशोभिता । एषां क्रमेण वक्ष्यामि लक्षणानि यथागमम् ॥ ९३ ॥ अर्थ - अप्रत्याख्यानावरण नामक चारित्रमोहके क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयको तरतमता - हीनाधिकतासे यह श्रावक अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिमाओमे प्रवृत्त होता है - उन्हें धारण करता है । वे प्रतिमायें यहा ग्यारह है- १ दर्शनिक, २ व्रतो, ३ सामयिकी, ४ प्रोषधत्रतधारी, ५ सचित्त त्यागी, ६ रात्रिभुक्ति त्यागी, ७. ब्रह्मचर्य से सुशोभित, ८ आरम्भ त्यागो, ६. परिग्रहत्यागसे सुशोभित, १० अपनी आत्म-संपदामे संतुष्ट रहने वाला अनुमति त्यागी और ११ उच्छिष्टान्न परित्यागो, ये ग्यारह प्रतिमाए हैं। इनमे स्थित रहने वाले व्रती श्रावक कहलाते है । ये श्रावक क्रम से बढते हुए चारित्र से सुशोभित रहते हैं । अब यहा क्रम से आगम के अनुसार इनके लक्षण कहूंगा ॥ ८८-६३ ॥
दर्शनिक श्रावक ( प्रथम प्रतिमाधारी ) का लक्षण
सम्यग्दर्शनस पन्नः
अष्टमूल गुणैर्युक्तो देवशास्त्रगुरूणां यो श्रद्धया परया युक्त सम्यग्दृष्टिः स उच्यते ॥ ९५ ॥ द्यूतं मांसं च मद्यं च वेश्याखेटको तथा । चौयं परपुरन्ध्रीणां सेवनं व्यसनं मतम् ।। ९६ ।। एषां यस्य परित्यागो दर्शनिकः स उच्यते । मद्यं मांसं च क्षौद्रं च यो नाश्नाति कदाचन ॥ ९७ ॥ मोदुम्बरादिकं भक्ते न भुङ्क्ते निशि जावपि । कुरुते जीव कारुण्यं करोति जिनदर्शनम् ॥ ९८ ॥ नावतेऽगालित नीरं स स्यान्मूल गुणाश्रयी । परमेष्ठिपवाम्भोजं शरणं गतवान् सुधीः ॥ ९९ ॥ एव दर्शनिको नूनं विरक्तो भवभोगतः । प्रथमः श्रावकः प्रोक्तो जैनागम विशारदः ॥ १०० ॥
सप्त व्यसनदूरगः ।
दर्शनिक: समुच्यते ॥ ९४ ॥ मोक्षमार्गोपयोगिनाम् ।
१. मद्य पल मधु निशासन पञ्चफली विरति पञ्चमाप्तनुति । जीवदया जलंगालन मिति च क्वचिदष्ट मूलगुणा ॥
सागार धर्मामृत
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामापः अर्थ-जो सम्यग्दर्शन से सहित हो, सात व्यसनों से दूर हो, आठ मूलगुणो से युक्त हो वह दर्शनिक श्रावक कहलाता है। जो मोक्ष मार्ग मे उपयोगी देव शास्त्र गुरु की उत्कृष्ट श्रद्धा से युक्त हो, वह सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। जुआ, मास, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन ये सात व्यसन माने गये हैं। इनका परित्यागो दर्शनिक होता है। जो कभी भी मद्य, मास, मधु को नही खाता है, न उदुम्बर आदि पाच फलोंको खाता है, न कभी रात्रि मे भोजन करता है, जोव दया पालता है, जिनदर्शन करता है और बिना छना पानो नही लेता, वह अष्टमूल गुणो का धारक होता है। साथ ही जो ससारके भोगोसे विरक्त हो पञ्चपरमेष्ठीके चरण कमलोको शरण को प्राप्त हुआ है वह जैनागमके ज्ञाता पुरुषोके द्वारा दर्शनिक नामक प्रथम श्रावक कहा गया है ॥ ६४-१००॥
प्रतिक भावक (दूसरी प्रतिमा) का लक्षण द्वादशवत सम्पानो जैनाचारपरायणः ।
वतिकः कथ्यते लोके द्वितीयः श्रावकस्तथा ।। १०१॥ अर्थ-जो पाच अणव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत, इन बारह व्रतोसे सहित तथा जैन कुलोचित आचारमे तत्पर है वह जगत् मे वतिक-द्वितीय प्रतिमाधारो श्रावक कहलाता है ॥ १०१ ॥
____सामायिको ( तृतीय प्रतिमा ) का लक्षण सामायिकं त्रिसन्ध्यासुप्रत्यहं विदधाति यः।
सामायिकी स सम्प्रोक्तस्तत्त्वचिन्तन तत्परः ॥१०२॥ अर्थ-जो प्रतिदिन तीनो संध्याओमे सामायिक करता है तथा तत्त्व विचार करनेमे तत्पर रहता है वह सामायिकी-तृतीय प्रतिमाधारी श्रावक कहा गया है ॥ १०२॥
प्रोषषिक ( चतुर्य प्रतिमा ) का लक्षण अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषधं नियमेन यः।
करोति रुचि सम्पन्न स हि प्रोषधिको मत ॥१०३॥ अर्थ-जो रुचिपूर्वक अष्टमी और चतुर्दशोको नियमसे प्रोषध करता है वह प्रोषधिक चतुर्थं प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है ।। १०३।।
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द्वारा प्रकाश
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सचितत्यागी ( पञ्चम् प्रतिमा ) का लक्षण
सचि वस्तु नो भुङ्क्ते योऽम्भः पत्रफलाविकम् । स सचितपरित्यागी कथ्यते दयया युतः ॥ १०४ ॥
अर्थ -- जो दयासे युक्त होता हुआ पानी, पत्र तथा फलादिक सचित्त वस्तुको नही खाता है वह सचित्त त्यागी पन्चम श्रावक कहलाता है ॥ १०४ ॥
रात्रिभुक्ति त्यागी ( वष्ठ प्रतिमा ) का स्वरूप
रात्रिमध्ये न यो भुङ्क्ते भोजनं च चतुविधम् ।
रात्रिभुक्ति परित्यागी षष्ठोऽमी श्रावक. स्मृतः ॥ १०५ ॥
अर्थ -- जो रात्रिमे चार प्रकार का भोजन नही करता है वह रात्रिमुक्ति त्यागी षष्ठ श्रावक कहलाता है ।। १०५ ।।
ब्रह्मचारी ( सप्तम प्रतिमा ) का लक्षण दारमात्रपरित्यागी ब्रह्मचारी समुच्यते । विरक्तिभावमापन्नो विभीतश्च भवार्णवात् ।। १०६ ।।
अर्थ -- जो स्त्री मात्रका परित्यागी है, वैराग्यभावको प्राप्त है तथा संसार सागर भयभीत है वह ब्रह्मचारी सप्तम प्रतिमाका धारी श्रावक कहलाता है ॥ १०६ ॥
आरम्भत्यागी ( अष्टम प्रतिमा ) का लक्षण सन्तुष्टोऽन्यगतस्पृहः ।
पुरासंचित वित्तेषु
व्यापारस्य परित्यागी त्यक्तारम्भः समुच्यते ॥ १०७ ॥
अर्थ -- जो पहले संचित किये हुए धनमे संतुष्ट है, अन्य धनमे जिसकी इच्छा समाप्त हो गई है और जिसने व्यापारका परित्याग कर दिया है वह आरम्भत्यागो अष्टम प्रतिमाधारो श्रावक कहलाता है ॥ १०७ ॥
अपरिग्रह ( नवम प्रतिमा ) का लक्षण
मुक्त्वा ह्यावश्यकं वस्त्रं भाजनं च कटादिकम् । यो नान्यद्धनमावत्ते सोऽपरिग्रह उच्यते ॥ १०८ ॥ अर्थ- जो आवश्यक वस्त्र, बर्तन और चटाई आदिको छोडकर अन्य परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है वह अपरिग्रह नवम प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है || १०८ ॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः अनुमतिविरत ( दशम प्रतिमा ) का लक्षण व्यापारगृह निर्माण प्रभृतो नानुमोदनम् ।
कुरते यः स विशेयोऽनुमतेविरतोगृही ॥१०९।। अर्थ--जो व्यापार तथा गृह निर्माण आदिमे अनुमोदना नहीं करता है उसे अनुमतिविरत श्रावक जानना चाहिये ॥ १०६ ।।
___ उद्दिष्टरयाग ( ग्यारहवीं प्रतिमा ) का स्वरूप उद्दिष्टं चान्नपानादि यो न गृह्णाति जातुचित् । ज्ञेय उद्दिष्ट सन्त्यागी स एकादश उत्तम. ॥११०॥ उहिष्टत्याग भेदस्य द्वो मेवी च निरूपितो। ऐलक क्षुल्लकश्चेति प्रसिद्धौ चरणागमे ॥१११॥ कौपीनमात्रकं धत्ते लिङ्गावरणमेलकः। क्षल्लकस्त समादत्तेऽतिरिक्त खण्डवस्त्रक्म ॥११२॥ ऐलक पाणिभोज्यस्ति क्षल्लक पात्रभोजिक । उपविश्यव भजाते क्षल्लको ह्येलकस्तथा ॥ ११३॥ ऐलक कुरुते लुञ्चं केशानां च यथाविधि । क्षल्लकोऽपनयेत केशान कर्तर्यापि करेण वा॥११४॥ केकि पिच्छ च गलीतो जीवानां रक्षणाय तो। शौचबाधानिवृत्यर्थमाददाते कमण्डलुम् ॥ ११५।। आर्या धत्ते सितां शाटी षोडशहस्तसंमिताम् । क्षल्लिका च समादत्ते धवल तूत्तरच्छदम् ॥११६॥ ऐलकवत् परिज्ञेय आसां चर्यादिसंविधिः। आर्यिकास्तूपचारेण महाव्रतयुता मताः ॥११७॥ क्षुल्लिकाः श्राविका एव वर्तन्ते नात्र संशय ।। यः कृतं सफल जन्म निर्दोषाचार धारणात् ।। ११८॥ धन्यास्ते धन्यभागास्ते शुष्कप्रायभवार्णवाः। मुनीनां महता वृत्तं रक्षितुं शक्नुवन्ति नो ॥११९॥ तेषां कृते प्रयासोऽयं श्रावकाचार वर्णने ।
जैनधर्मो यतः सर्वजीवानां हित कारकः ॥ १२० ॥ अर्थ--जो अपने उद्देश्यसे बनाये गये अन्न पानोको कभी ग्रहण नही करता वह उदिष्ट त्यागी एकादश प्रतिमाधारो उत्तम श्रावक माना गया है। उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाके दो भेद कहे गये हैं--एलक और क्षुल्लक । ये दोनो भेद चरणानुयोग मे प्रसिद्ध है। ऐलक कौपीन
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द्वादम प्रकाश
१११ नामक लिङ्गका आवरण ( लंगोटो) धारण करते हैं और क्षुल्लक कौपीनके सिवाय एक खण्ड वस्त्र भो ग्रहण करते हैं। ऐलक हाथमे हो भोजन करते हैं परन्तु क्षुल्लक पात्रभोजी होते हैं । ऐलक और क्षुल्लकदोनो ही बैठकर आहार करते हैं । ऐलक, विधि अनुसार केशोंका लोच करते हैं और क्षुल्लक लोच, कैचो अथवा उस्तराके द्वारा केशोको दूर करते हैं। दोनों हो जीव-रक्षाके लिये मयूरपिच्छ ग्रहण करते हैं और शौचबाधा की निवृत्तिके लिये कमण्डल धारण करते हैं ।
आर्यिका सोलह हाथकी सफेद साडी ग्रहण करती है और क्षुल्लिका साडोके ऊपर एक सफेद चद्दर भी रखती है। इन सबको चर्याविधि ऐलकके समान जानना चाहिये । आयिकाए उपचारसे महावतसे युक्त कहो गई हैं परन्तु क्षुल्लिका श्राविका ही है इसमे संशय नही करना है। ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जिन्होने निर्दोष चारित्र धारण करनेसे अपना जन्म सफल किया है वे धन्य हैं तथा धन्यभाग हैं, उनका संसारसागर प्राय सूख गया है। बडे-बडे मुनियोका चारित्र धारण करनेको जिनकी शक्ति नही है उनके लिये श्रावकाचारका वर्णन करनेके लिये मेरा यह प्रयास है क्योकि जैनधर्म सब जीवोका हित करने वाला है ॥ ११०-१२० ।। आगे इस प्रकरणका समारोप करते हैं--
वृत्तं मुनीनां गृहिणां नां च यथेच्छमाचर्य महोत्सवेन । दुःखानिवृत्योत्तमसौल्पराशौ मग्ना भवेयुः सतत पुमासः॥ १२१।। आचार एव प्रथमोऽस्ति धर्म इति श्रुति ये हृदये परन्ते । ते श्वघदुःखाव विनिवर्तमाना:स्वर्गापवर्गीय सुखं लभन्ते ॥ १२२॥
अर्थ-ग्रन्थकारकी भावना है कि मुनियो तथा गृहस्य मानवोके चारित्रको हर्षपूर्वक इच्छानुसार धारणकर पुरुष दुःखसे निवृत्त होते हुए उत्तम-सुख समूहमे सदा निमग्न रहे । 'आचारः प्रथमो धर्मः' आचार पहला धर्म है इस श्रुतिको जो हृदयमे धारण करते हैं वे नरक के दुःखसे दूर रहते हुए स्वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त होते हैं ।। १२१-१२२ ।।
इस प्रकार सम्यक-चारित्र-चिन्तामणिमे श्रावकाचारका
वर्णन करने वाला द्वादश प्रकाश पूर्ण हुआ।
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सम्यकचारित्र-चिन्तामणिः
त्रयोदश प्रकाश सयमासंपमलन्धि-अधिकार
मंगलाचरणम् संसाराब्धिनिमग्न जन्तुनिवहानुवर्तु कामजिन
निविष्टां सुदृढा सुरत्ननिभूता रत्नत्रयों पावनीम् । नौका ये शवलम्ब्य निर्वतिपुरी गच्छन्ति संमोवत
स्तानेतान् सुगुरून गुरुन् गुणगणेनित्यं नमस्याम्यहम् ॥१॥ अर्थ-संसार-सागर मे निमग्न जीवसमूहोका उद्धार करने के इच्छुक जिनेन्द्र भगवन्तोके द्वारा निर्दिष्ट, सुदृढ, सुरलोसे परिपूर्ण
और पवित्र रत्नत्रयो रूपी नौकाका अवलम्बन लेकर जो प्रमोदसे निर्वाणपुरोकी ओर जा रहे हैं तथा गुणोके समूहसे श्रेष्ठ हैं उन, इन सद्गुरुओको मैं नित्य ही नमस्कार करता ह ॥१॥ आगे देशचारित्र प्राप्त करनेके लिये अन्तरङ्ग कारणभूत कर्मोकी क्या कैसो दशा होती है, इसका संक्षेपसे वर्णन करते हैं
देशचारित्र संप्राप्त्यं कर्मणां कीदृशी स्थितिः । भवतोति विचारोऽयं संक्षेपाविह बीयते ॥२॥ संयमासंयमो लोके चारित्र देशतो मतम् । अहिंसानिवृत्तत्वात्संयमो व्यवह्रियते ॥३॥ सस्थास्थावर हिसाया' कथितोऽसंयमस्तथा। विवक्षाभेदतः साधं संयमासंयमो मतः॥४॥ सदृष्टेरेवचारित्र बेशतः सर्वतोऽपि वा।
संघर्तुमर्हता लोके मिथ्यादृष्टेरनहता ॥५॥ अर्थ-देशचारित्रकी प्राप्तिके लिये कोंकी कैसी स्थिति होतो है, यह विचार संक्षेपसे यहा दिया जाता है। सयमा संयमको लोकमे देशचारित्र माना गया है। त्रस हिंसा से निवृत्त होनेके कारण संयमका व्यवहार होता है और स्थावर हिंसाके विद्यमान रहनेसे असंयम कहा गया है। विवक्षाभेदसे संयमासंयम एक साथ माना गया है। देशचारित्र और सकलचारित्रको धारण करनेको योग्यता सम्यग्दृष्टिके
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वयोदश प्रकार होती है, मिथ्यादृष्टि में उसकी अनहंता-अयोग्यता या अपात्रता है ।। २-५॥ आगे उपशामनाका लक्षण तथा उसके भेद बताते हैं
उपयों लग्विाहतुं प्रतिबन्धककर्मणाम् । नियोगेन भवत्येव बिधिरत्रोपशामना ॥६॥ प्रकृत्याविधिमेदेन चतुर्षा सा च सम्पता। आदिमाष्टकषायाणामुण्याभाव एव हि ॥७॥ संयमासंयमप्राप्तो प्रकृत्युपशमो मतः। यपि वर्तते चात्र प्रत्याख्यानावृतेस्तथा ॥८॥ सज्जवलनास्य मोहस्य प्रकृतीनां च सन्तनेः। नवाना नोकषायाणामुक्योऽपि यषाविधि ॥९॥ तथाप्यत्र न कर्तृत्वं देशचारित्रधातने । किञ्चिति वर्तते तेषां देशघातित्वहेतुतः ॥१०॥ प्रत्याख्यानावतेरस्ति यद्यपि सर्वघातिता। तयापि देशवत्तस्य धातने देशवातिता ॥११॥ तत्सत्यप्युदये तस्य न वाधा सत्र वर्तते।
सज्वलनाकषायास्तु सन्त्येव देशघातिनः ॥ १२॥ अर्थ-चारित्रलब्धि और देशचारित्र-दोनों लब्धियोंको प्राप्त करनेके लिये नियमसे प्रतिबन्धक कर्मोको उपशामना विधि होती है । प्रकृति आदिके भेदसे वह उपशामना चार प्रकारको मानी गई है। अर्थात् प्रकृति-उपशामना, स्थिति-उपशामना, अनुभाग-उपशामना और प्रदेश-उपशामनाके भेदसे उपशामनाके चार भेद हैं । __ संयमा-संयमको प्राप्तिमें आदिके आठ कषाय-अनन्तानुबन्धी चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका उदय नही रहना प्रकृत्युपशामना मानी गई है । यद्यपि यहा प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क और नोकषायोका यथाविधि उदय रहता है तथापि देशचारित्रके घातनेमे उनका कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। क्योकि वे देशचारित्रके घातने में देशवाति रहते हैं। यद्यपि प्रत्याख्यानावरण सर्वपाति प्रकृति है तथापि देश-सयमके घातनेमे उसे देशवाति माना जाता है। इसलिये उसका उदय रहते हुए भो देश-संयममे बाधा नही आतो। संज्वलन कषाय चतुष्क और नोकषाय नवक तो देशघाति हैं हो॥६-१२॥
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः भागे स्थिति-उपशामना, अनुभाग-उपशामना और प्रदेश-उपशामनाका कथन करते हैं
बाधक प्रकृतीनां यो नोव्यस्तत्र वर्तते । स्थित्युपशमनासका द्वितीयात्वत्र कथ्यते ॥ १३ ॥ सर्वकर्मप्रकृतीनामन्तःकोटी कोटी स्थितिः । एतस्या अधिकस्तस्या नोक्यस्तत्र वर्तते ॥१४॥ प्राप्तोक्यकषायाणां सर्वघाति प्रदेशकाः। आयान्ति युवयं नैव सानुभागोपशामना ॥ १५॥ पूर्वोक्तानां कषायाणां य प्रदेशोदयो नहि। स एव च प्रवेशानां कथ्यते चोपशामना ॥ १६॥
अर्थ-बाधक प्रकृतियोका जो वहां उदय नही रहता है वह एक स्थित्युपशामना है और द्वितीय स्थित्युपशामना यह कहलाती है कि सर्व कर्म प्रकृतियो को स्थिति अन्तःकोटी कोटी ही रह जातो है इससे अधिक स्थितिका वहा उदय नहीं रहता। उदयागत कषायोके सर्व घाति प्रदेश उदयमे नही आते, यही अनुभागोपशामना है। पूर्वोक्त कषायोका जो प्रदेशोदय नही है वही प्रदेशोपशामना कही जाती है।। १३-१६ ।।
औपशमिकसम्यक्त्वसहिता वेदकेन वा। क्षायिकेणयुता वापि मनुनाः शान्तचेतसः ॥ १७ ॥ सायिकेतर सम्यक्त्व युगमुक्ता मृगास्तथा। लमन्ते देशचारित्रं कषायस्यातिमान्धत. ॥१८॥ भव्या निकट संसारा विरक्ता भवभोगतः । कि किन साध्यते लोके कषायोकहानितः।। १९ ॥ मियादगपि लोकेऽस्मिन् सम्यक्त्वं देशसंयमम् । युगपल्लभते क्वापि काललब्धि प्रमावतः ॥२०॥ देवायुर्वजयित्वा चेतरेषामायुषां पुनः । सत्ता तु विद्यते येषां तिरश्चा वा ना तथा ॥२१॥ तस्मिन् भवे न ते जीवा लभन्ते देशवत्तकम् । यैनंबद्ध परस्यायुबलं चेत्सुरसंसकम् ॥ २२ ॥ योग्यास्त एव सम्स्यत्र प्रहीतु देश संयमम् । व्यवस्थेयं बधोध्या संयममहणेऽपि ॥२३॥
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atter प्रकाश
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अर्थ -- औपशमिक, वेदक अथवा क्षायिक सम्यक्त्वसे सहित, शान्तचित्तके धारक मनुष्य और क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर शेष दो सम्यग्दर्शनों सहित तिर्यञ्च भी कषायोंकी मन्दतासे देशचारित्रको प्राप्त होते हैं । ये मनुष्य और तिर्यञ्च भव्य, निकट संसारी और भवभोगोसे विरक्त रहते हैं। ठीक ही है लोकमें कषायो की मन्दता से क्या-क्या सिद्ध नही होता है । इस लोकमे मिथ्यादृष्टि भी कहीं कालofous प्रभावसे एक साथ सम्यक्त्व और देशसयम को एक साथ प्राप्त कर लेते हैं। जिन मनुष्य और तिर्यञ्चोंके देवायु को छोड़कर परमव सम्बन्धी अन्य आयु को सत्ता है वे देशचारित्र को प्राप्त नहीं होते । देशचारित्र उन्हे प्राप्त होता है जिन्होने परभव सम्बन्धी आयु का बन्धन किया हो और किया हो तो देवायुका हो किया हो, वे ही इस जगत् में देशसंयम ग्रहण करने के योग्य होते हैं । यह व्यवस्था संयम -सकलचारित्र ग्रहण करनेके विषय मे भी ज्ञानी जनोके द्वारा ज्ञातव्य है ।। १७-२३ ।।
आगे देश- चारित्रको धारण करते समय प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव कितने करण करता है? यह कहते हैं
आद्योपशमसम्यक्ाव सहितो मानवो मृगः ।
लभते यदि चारित्रं संयमासंयमाभिधम् ॥ २४ ॥ परिणामविशध्यादधः कुरुते करणत्रयम् । अध प्रवृत्तप्रभृति मावशुद्धिसमन्वितम् ॥ २५ ॥
अर्थ - प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य अथवा तिर्यञ्च यदि संयमासयम नामक देशचारित्र को ग्रहण करता है तो वह भावोको विशुद्धियुक्त होता हुआ भावशुद्धि सहित अध प्रवृत्त आदि तोनो करण करता है ।। २४-२५ ।।
से
आगे वेदक सम्यग्दृष्टि अथवा वेदक कालके भीतर रहने वाला मिथ्या• दृष्टि जीव, देशसयम प्राप्त करनेके लिये कितने करण करता है यह कहते हैं-
वेवकेन युतः कश्चिद् यद्वा मिध्यादृगेव वा ।
अन्तर्वेदक कालस्यः समं वेदक सदृशा ॥ २६ ॥
प्राप्नोति देशचारित्रं युगपत् अनिवृति बिहावासों कुरुते
क्षीणसंसृतिः । करणद्वयम् ॥ २७ ॥
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सम्यकारिख-चिन्तामा अर्थ-वेदक सम्यग्दर्शनसे सहित अथवा वेदक कालके भीतर स्थित कोई अल्पसंसारी मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यग्दर्शन और देशचारित्रको एक साथ प्राप्त करता है तो वह अनिवृत्तिकरण को छोडकर शेष दो करण करता है ।। २६-२७ ॥ आगे किस करणमे क्या कार्य होता है, यह कहते हैं
अध.प्रवृत्ततः पूर्व जायमान विशुद्धितः। आयुर्वर्जमशेषाणां कर्मणां स्थितिबन्धनम् ॥ २८॥ कुरुतेऽन्तः कोटोकोटी प्रमितं पुण्यकर्मणाम् । अनुभागं चतुःस्थानमशुभानां तु कर्मणाम् ॥ २९ ॥ विस्थानीय विधायासो भवेत् देशवतोन्मुखः। अध प्रवृत्तकरणे विशुद्धिरेव वर्धते ॥ ३० ॥ स्थितिकाण्डकघातोऽनुभागकाण्डक सक्षतिः। भवितु नाहतस्तत्र योग्यशुद्धरमावतः ।। ३१॥ न स्यादत्र गुणश्रेणो न चात्र गुण सक्रमः । अपूर्वकरणे प्राप्ते भवन्त्येतानि सर्वत. ॥ ३२॥ कुर्वन्नेतानि सर्वाणि लभते देशतो व्रतम्।
देशवतो सवा कुर्यान्निर्जरा गुणश्रेणितः ॥ ३३ ॥ अर्थ-अधःप्रवृत्तसे पूर्व होने वाली विशद्धिसे यह जीव आयुकर्म को छोडकर शेष कर्मों का स्थितिबन्ध अन्त.कोडा-कोडी सागर प्रमाण करता है, पुण्य प्रकृतियोके अनुभाग को चतुःस्थानीय गूड, खाड, शर्करा अमृत रूप और पाप प्रकृतियोके अनुभाग को द्विस्थानीय-निम्ब और काजीर रूप करके देशवत धारण करनेके सन्मुख होता है। पश्चात् अध प्रवृत्त करण को प्राप्त होता है। उसमे इसकी विशुद्धि हो बढ़ती है। योग्य विशुद्धिका अभाव होनेसे स्थिति-काण्डक-घात और अनुभागकाण्डक-घात नही होते । अतः प्रवृत्तकरणमे न गुण श्रेणी निर्जरा होती है और न गुणसंक्रमण। पश्चात् अपूर्वकरणके प्राप्त होनेपर ये सब कार्य सब प्रकारसे होने लगते हैं। इन सव कार्योंको करता हुआ मनुष्य अथवा तिर्यञ्च देशव्रतको प्राप्त होता है। देशवतो गुण श्रेणी निर्जरा को सतत् करता है ।। २८-३३ ॥ आगे सयतासयत जोव किस गुणस्थानवर्ती है, यह कहते हैं
संयतासंयता जीवा पञ्चमस्थानतिनः । सम्यक्त्ववैभवोपेताः कश्यन्ते जिनसूरिमि ॥ ३४ ॥
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नयोक्न प्रकार काचिद् भावर्शषिल्यावन्नीचरपि पति ते। पुनर्भावविशुवित्वातवा यान्ति शीघ्रतः॥ ३५ ॥ देशवतयुता. केचिन्मनुमा भावशुदितः। महाव्रतानि संगृह्य सप्तमं यान्ति बामकम् ॥ ३६॥ भावतः संयमो यत्र वर्तते द्रव्यसंयमः ।
नियमेन भवत्येव मावो द्रव्ये तु मान्यतः ॥ ३७॥ अर्ष-जैनाचार्यों द्वारा सम्यग्दर्शन रूप वैभवसे सहित संयता-सयत देशचारित्रके धारक पञ्चम गुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। वे कदाचित भावोको शिथिलतासे यदि नीचे गुणस्थानोमे भी आते हैं तो भावोकी विशुद्धतासे शीघ्र ही पञ्चम गुणस्थानमे हो आ जाते हैं। देशव्रतसे सहित कितने हो मनुष्य महावत ग्रहणकर सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। जहा भावसंयम होता है वहां द्रव्यसंयम नियमसे होता है परन्तु द्रव्यसंयमके रहते हुए भावसयम भाज्य है-होता भी है और नही भी होता ॥ ३४-३७॥
भावार्थ-प्रतिपक्षी कषायका क्षयोपशम होनेसे आत्मामे जो विशुद्धता होतो है वह भाव-सयम कहलाता है तथा शरीरके द्वारा पदानुरूप क्रियाओका होना द्रव्यसंयम है। जिसके प्रतिपक्षी कषायोका अभाव होनेसे भावोमे विशुद्धता उत्पन्न हुई है उसका बाह्य वेष तथा आचरण नियमसे भावानुरूप होता है परन्तु प्रतिपक्षी कषायके मन्द या मन्दतर उदयमे जो द्रव्यसयम बना है उसके भावसयम होता भी है और नही भी होता। भावसयम या भावसंयमासंयमको परीक्षा प्रत्यक्ष ज्ञानी हो कर सकते हैं, साधारण लोग नही। वे तो चरणानुयोग के अनुसार निर्दोष आचरणको देखकर उसे संयत या सयतासयत मानते हैं। इसीलिये आहार-दान तथा भक्तिवन्दना आदिमे चरणानुयोगका आलम्बन ग्राह्य बतलाया गया है, करणानुयोग का नही। अब देशचारित्रका धारक मनुष्य या तिर्यञ्च कहा उत्पन्न होता है, यह कहते हैं
देशवतप्रभावेण मनुजाः षोडशावधिम् । स्वर्ग यान्ति ततश्च्युस्या भवन्ति पुरुषोत्तमा ॥ ३८ ॥ तिर्यचोऽपि समायान्ति त्रिवि षोडशावधिम् । ततरण्युत्वा मही यान्ति गृहीत्वा मानुषं भवम् ।। ३९ ॥
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१६८
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः ___ अर्थ-देशवतके प्रभावसे मनुष्य सोलहवे स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं और वहासे च्युत होकर उत्तम पुरुष होते हैं। व्रती तिर्यञ्च भो सोलहवे स्वर्ग तक जाते हैं और वहाँसे च्युत हो मनुष्य भव लेकर पृथिवो पर आते हैं ।। ३८-३६॥ आगे देशव्रती तिर्यञ्चो और मनुष्योका निवास बतलाते हैं
देशवतेन सयुक्तास्तिर्यञ्चो मानवास्तथा। सार्धद्वयेषु द्वीपेषु निवसन्ति यथास्थिति ॥ ४० ॥ केचित् तिर्यग्भवा जीवा देशवत विभूषिता । स्वयंभरमणे द्वीपे निवसन्ति प्रमोदतः ॥४१॥ एते पूर्वभवायात सुसंस्कार प्रभावतः। उपदेशादते सन्ति देशवतं विभूषिताः ॥ ४२ ॥ नियमेन स्वर्ग यान्ति भोरवो जोवघाततः।
विरक्ता भवभोगेभ्य प्रकृत्या शान्तचेतस ॥४३॥ अर्थ-देशव्रतसे सहित तिर्यञ्च तथा मनुष्य अपनी-अपनी स्थिति. के अनुसार अढाई द्वीपोमे निवास करते है। देशव्रतसे विभूषित कोई तिर्यञ्च स्वयंभूरमण द्वोपमे हर्षपूर्वक निवास करते हैं। ये तिर्यञ्च, पूर्वभवसे आये हुए सुसस्कारोके प्रभावसे उपदेशके बिना हो देशव्रतसे विभूषित होते है, जोवघातसे डरते रहते हैं, सासारिक भोगोसे विरक्त रहते है और प्रकृतिसे शान्तचित्त होते है एव नियमसे स्वर्ग जाते है ॥ ४०-४३॥
भावार्थ-मानुषोत्तर पर्वतसे आगे और स्वयंभूरमण द्वोपके मध्यमे स्थित स्वयप्रभ पर्वतसे इस ओर असख्यात द्वीप समुद्रोमे जघन्य भोगभमिको रचना है, वहाँ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और देवोका निवास है, परन्तु स्वयप्रभ पर्वतसे लेकर अर्धस्वयभरमण द्वीप, स्वयभरमण समुद्र औय उसके बाद कोनोमे कर्मभूमिको रचना है। यहाँके कोई-कोई तिर्यञ्च पूर्वभवागत सस्कारसे उपदेशके बिना हो देशव्रत धारण कर लेते है तथा उसके प्रभावसे स्वर्ग जाते हैं। मनुष्योका अस्तित्व अढाई द्वोपसे बाहर नही है। आगे इस प्रकरणका समारोप करते हुए इन्द्रिय विजयका उपदेश देते
अये प्रमादिनो नरा समाहिता स्त सत्वरम् । इसे धमन्ति तस्करा हृषीकवेषधारिण ॥ ४४ ॥
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वयोदश प्रकार
१५ स्ववीय वृत्तरत्नमत्र दुर्लभ परं मत । इमे हरन्ति वचनापरा नराधमा इह ॥४५॥ प्रमावनिद्रिता दश प्रमुञ्चत प्रमुञ्चत । धरस्व संयम दूत नियम्य दुर्धरं मनः ॥ ४६ ॥ पराजितो विधीयतां हषीक शत्रुसंचयः।
मनुष्य जन्म सार्थक विधीयता विधीयताम् ।। ४७ ॥ अर्थ-ऐ प्रमादो मनुष्यो। शोघ्र हो सावधान होओ, इन्द्रिय वेषको धारण करनेवाले ये चोर घूम रहे हैं । तुम्हारा चारित्ररूपी रत्न इस लोकमे दुर्लभ माना गया है। धोखा देनेमे तत्पर रहने वाले ये अधम मनुष्य उस संयमरूपो रत्नका हरण कर रहे हैं, अपनो अत्यधिक निद्रा दशाको छोडो, छोडो। दुर्धर मनको रोककर शीघ्र हो सयमको धारण करो। इन्द्रियरूपो शत्रुओके समूहको पराजित करो और मनुष्य जन्मको सार्थक करो, सार्थक करो॥४४-४७ ।। इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थमे संयमासयमलब्धिका संक्षिप्त वर्णन करनेवाला
त्रयोदश प्रकाश पूर्ण हुआ।
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प्रशस्ति
चारित्रचिन्तामणिरेष पुंसा
मनोरथान् पूर्णतरान् करोतु । संत्यज्य भोगान् भवपातहेतून
जगज्जनाः स्वात्मपरा भवन्तु ॥१॥ अर्थ-यह चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थ पुरुषोके मनोरथोको परिपूर्ण करे और जगत्के जीव संसारपतनके कारणभूत भोगोको छोडकर स्वकोय आत्मामे तत्पर हो-आत्मोय स्वभावमे रमण करे ॥१॥ शशि शशि बाणामि मिते (२५११)
___वीराब्दे सोमवासरे रम्ये । अपराले गगनतले
श्यामाग्दैः सवृते रचितः ॥ २॥ अर्थ-२५११ वीर-
निर्वाण संवत्सरमे रमणीय सोमवारके दिन अपराह्न कालमे जबकि आकाश श्याम मेघोसे घिरा हुआ था, यह ग्रन्थ रचा गया ॥२॥ आषाढमासीय बलक्षपक्षे
हरित्तृणालोलसरच्छ कक्षे। द्वितीय वारेण समागतायां
जयातियो पति मयं जगाम ॥३॥ अर्थ-हरे-हरे घासके समूहसे जब वन सुशोमित है तब आषाढ मासके शुक्ल पक्षकी द्वितीय बार आई हुई जया तिथि-अष्टमी तिथिमे यह ग्रन्थ पूर्णताको प्राप्त हुआ ।। ३ ।।
'नन्दा भद्रा जया रिवता पूर्णा च तिथय. क्रमाद' ज्योतिष के इस उल्लेखानुसार प्रत्येक पक्ष मे प्रतिपदा से लेकर पञ्चमी तक नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा ये पांच तिथियां आती हैं। पुन षष्ठी से दशमी तक यही नन्दा आदि तिथियां और एकादशी से पूर्णिमा तक पुन इसी नाम से तिथियां आती हैं। इस तरह नन्दा आदि तिथियां प्रत्येक पक्ष मे तीनतीन बार आती हैं । अत. अष्टमी दूसरी बार आई हुई जया तिथि है।
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प्रशस्ति
१७१
गल्लीलाल तनूजेन मानक्युवरसंभवा । बयाचन्द्रस्य शिष्येण सागरग्रामवासिना ॥४॥ पन्नालालेन बालेन रचितोऽल्पधिया मया। जीयाचिन्तामणिलॉक चारित्रायो निरन्तरम ॥५॥ अज्ञानाद्वा प्रमादाढा जाता अन्य विनिर्मिती। याः काश्चित् त्रुटयः सन्ति शोषनीया सुधस्तु ताः ॥ ६॥ जिनामा भगतो नूनं विमेमि भूरिभूरियः। अतो मत्स्खलनं दृष्ट्वा हसन्तु बुधोत्तमाः ॥७॥ त्रुटीनां शोधने कुर्यविद्वान्सो महती कृपाम् ।
सर्वेषां सहयोगेन जैनवाक्प्रसरो भवेत् ॥ ८॥ अर्थ-गल्लीलालके पुत्र, जानको माताके उदरसे उत्पन्न, दयाचन्द्र जीके शिष्य, सागर-निवासी, अल्पबुद्धि बालक पन्नालालके द्वारा रचा हुआ यह सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थ निरन्तर जयवन्त रहे। ग्रन्थको रचनामे अज्ञान अथवा प्रमादसे जो कोई त्रुटिया हुई हैं उन्हे विद्वज्जन शुद्ध करे। सचमुच हो मैं जिनाज्ञा भङ्गसे अत्यधिक भयभीत रहता हूँ। इसलिये उत्तम ज्ञानो जन मेरो त्रुटि देखकर हँसे नही। किन्तु विद्वज्जन त्रुटियोको शुद्ध करनेमे महतो कृपा करे । भावना यह है कि सबके सहयोगसे जिनवाणीका प्रसार हो ॥ ४.८॥
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परिशिष्ट
आहार सम्बन्धी ४६ दोषों का विवरण मूलाचारके पिण्ड-शुद्धि अधिकारमे मुनियोके आहार सम्बन्धी ४६ दोषोके नाम निम्न प्रकार आये है
सोलह उद्गम दोष १ औद्देशिक, २ अध्यधि, ३. पूति, ४ मिश्र, ५ स्थापित, ६. बलि, ७ प्रावर्तित, ८ प्रादुष्कार, ६ क्रीत, १० प्रामृष्य, ११ परि. वर्तक, १२. अभिघट, १३ उद्भिन्न, १४. माला रोह, १५ आच्छेय और १६. अनीशार्थ । ___ इनके सिवाय अधःकर्म नामका एक महादोष और भी है जो पञ्च. सूनाओसे सहित हैं तथा गृहस्थके आश्रित है। षट्काय जोवोके वधका कारण होनेसे महादोष कहा गया है। विदित होनेपर मुनि ऐसा आहार नही लेते । औद्देशिक आदि दोषोकी संक्षिप्त परिभाषा इस प्रकार है
१ औटेशिक-सामान्यजनको उद्देश्य कर बनाया गया आहार उद्देश है, पाखण्डी साधुओको लक्ष्य कर बनाया गया अन्न समुद्देश है, आजीवक, तापसो, बौद्ध भिक्षुक तथा छात्रोको लक्ष्यकर बनाया हुआ अन्न आदेश कहलाता है और निर्ग्रन्थ साधुओको लक्ष्यकर बनाया हुआ समादेश है। यह चारो प्रकारका आहार औद्देशिक आहार कहलाता है। यह आहार खासकर मेरे लिये ही बनाया गया है, ऐसा ज्ञान होने पर भी जो साधु उस आहारको लेते हैं उन्हे यह औद्देशिक दोष लगता है।
२. अध्यधि दोष-श्रावक अपने लिये भोजन बना रहा था उसो समय किसी साधुको आया देख उसमे जल तथा चावल आदि अधिक डाल देना अध्यधि दोष है।
३ पूति दोष-प्रासुक आहार भी यदि अप्रासुक-सचित्त आदिसे मिश्रित हो तो वह पूनि दोष कहलाता है। वह चूल्हा, ओखलो, कलछी, बर्तन तथा गन्धके भेदसे पाच प्रकारका है । जैसे इस नये चूल्हे पर भात बनाकर पहले साधुको दूंगा तत्पश्चात् अपने काममे लगा, इस भावसे
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परिशिष्ट
१७३
बनाया आहार पूति दोषसे दूषित माना जाता है। इसी तरह ओखली आदि के विषयमें जानना चाहिये ।
४. मिश्र दोष – जो अन्न, गृहस्थों और पाखण्डियोको साथ-साथ दिया जाता है, वह मिश्र दोष है ।
५. स्थापित दोष - जिस बर्तन मे भात आदि बना है उससे निकाल कर चौकाके बाहर अपने घरमे रखना या अन्यके घरमे पहुंचाना स्थापित दोष है ।
६. बलि दोष-यक्ष, नाग आदिके लिये जो नैवेद्य तैयार किया गया है, वह बलि कहलाता है। इस बलिमेसे कुछ आहार साधुको देना बलि दोष है ।
७. प्रावर्तत दोष- अन्य तिथियोमे देने योग्य आहारको पूर्व तिथियोमे देना और पूर्वतिथिमे देने योग्य आहार आगामी तिथिमे देना अथवा पूर्वाह्न मे देने योग्य वस्तु अपराह्नमे देना और अपराह्न मे देने योग्य वस्तु प्रावर्तित पूर्वाह्नमे देना प्रावर्तित दोष है। यह प्राभृत दोष भी कहलाता है ।
८. प्रादुष्कार दोष -- बर्तन, भोजन तथा स्थान आदिका दिखावा कर बनाया हुआ आहार प्रादुष्कार दोषसे दूषित माना गया है ।
९. क्रीत दोष - साधुको आया देख अपने यहाँ कमी होनेपर घो, दूध, फल आदिको तत्काल खरीदकर देना, क्रोत दोष है ।
१०. प्रामुष्य दोष – अपने घर साधुके आने पर पड़ोसी के यहाँ से उधार लेकर किसी वस्तुको देना प्रामृष्य दोष है, इसे ऋण दोष भी कहते हैं ।
११. परिवर्तक दोष -साधुके आनेपर अपने घर मोटे चावलोसे बना भात आदि आहार पड़ोसीके घरसे अच्छे चावलोंका भात आदि बदल कर देना परिवर्तक या परावर्तित दोष है ।
१२. अमिघट दोष -- जिस चौकामें साधु गये हैं उस चौकाका आहार तो ग्राह्य है ही उसके अतिरिक्त सरल पंक्तिमे स्थित तीन या सात घर आया हुआ आहार भी ग्राह्य है। इससे अधिक दूरीसे आया आहारा ग्राह्य नहीं है । वह अभिघट दोष से दूषित कहलाता है ।
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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः १३ उद्धिन्न दोष-साधुके सामने किसी बर्तनके ढक्कन और शील आदिको खोलकर उसमेसे निकाली हुई वस्तु उद्भिन्न दोषसे दूषित है। इसी तरह फल आदिको साधु के सामने हो बनाकर तैयार करना उद्भिन्न दोष है।
१४. मालारोह दोष-साधुके सामने हो नसैनो आदिसे ऊंचे स्थान पर चढकर लाई हुई वस्तु मालारोह दोषसे दूषित है।
१५ माच्छेच दोष-अपनी इच्छा न रहते हुए भो किसी राजा आदिसे आतङ्कित होकर जो आहार दिया जाता है वह आच्छेद्य दोष से दूषित माना गया है।
१६ अनीशार्थ दोष-जिस देय पदार्थका अर्थ-कारण अप्रधान पुरुष हो अर्थात् दाता स्वय तो दान नही देता किन्तु अन्य लोगोसे दिलाता है वह अनीशार्थ कहलाता है, ऐसे द्रव्यको यदि साधु लेता है तो वह अनोशार्थ दोष कहलाता है। इस दोषका स्पष्ट विवेचन मूलाचार की आचार-वृत्तिसे जानना चाहिये।
सोलह उत्पादन बोष १. धात्री, २.दूत, ३ निमित्त, ४ आजीव, ५. वनोपक, ६ चिकित्सा, ७ क्रोधी, ८ मानी,६ माया, १० लोभ, ११. पूर्व स्तुति, १२. पश्चात् स्तुति, १३ विद्या, १४. मन्त्र, १५ चूर्ण योग और १६ मूल कर्म । इनका स्वरूप इस प्रकार है
१ धात्री दोष-धात्री-धायके समान गृहस्थके बालकको स्वयं विभूषित करना अथवा उसके उपाय बताना। बालकके साथ साधुका स्नेह देख गृहस्थ साधुको आहार देता है और साधु उसे लेता है, वह धात्री दोष है।
२ दूत दोष-एक ग्रामसे दूसरे ग्राम जानेपर पूर्व ग्राममे गृहस्थके सम्बन्धीका समाचार अन्य ग्रामके सम्बन्धोको बताना। ये साधु हमारा संदेश लाये हैं इससे प्रभावित हो गृहस्थ साधुको जो आहार देता और साधु उसे लेता है तो वह दूत दोष है।
३ निमित्त दोष- गृहस्थको ज्योतिष आदि अष्टाङ्ग निमित्तका ज्ञान कराकर प्रभावित करना और उसके माध्यमसे जो आहार प्राप्त किया जाता है, वह निमित्त दोष है।
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परिशिष्ट
१७५
४. भाजीपक बोष-जाति, कुल, शिल्प, तप और ईश्वरता ये आजीव हैं, इनसे आहार प्राप्त करना आजीवक दोष है। ये साधु हमारो जाति या कुलके हैं, ये अनेक शिल्पके ज्ञाता है, तपस्वी हैं और ये पहले हमारे स्वामी रहे हैं अथवा इनको बड़ी प्रभुता रही है, इस विचारसे जो आहार दिया जाता है और साधु उसे लेता है तो वह आजीवक दोष है।
५. बनीपक दोष-'अमुक-अमुक व्यक्तियोको दान देनेमे पुण्य होता है या नहीं इस प्रकार दाताके पूछने पर उसके अनुकूल वचन कहना तथा उससे प्रसन्न होकर दाता जो बाहार देता है और साधु लेता है तो वह वनीपक दोष है।
६. चिकित्सा दोष-गृहस्थको किसो रोगकी चिकित्सा (औषध) बताना उससे प्रभावित होकर गृहस्थ आहार देता है तथा साधु उसे ग्रहण करता है तो वह चिकित्सा दोष होता है ।
७. क्रोध दोष-क्रोध दिखाकर गृहस्थसे आहार प्राप्त करना क्रोध दोष है।
८ मान दोष-मान दिखाकर गृहस्थसे आहार प्राप्त करना मान दोष है।
९. माया दोष-माया दिखाकर गृहस्थसे आहार लेना माया दोष है।
१०. लोम बोष-लोभ दिखाकर गृहस्थसे आहार लेना लोभ दोष है।
११. पूर्वस्तुति दोष-आहारके पूर्व हो गृहस्थको प्रशंसा करना जैसे आप बड़े दानो हैं, आपके सिवाय इस ग्राममे साधुओंको आहार देने वाला कौन है ? इस प्रकारकी प्रशंसासे प्रभावित होकर गृहस्थ जो आहार देता है और साधु उसे लेता है तो वह पूर्वस्तुति दोष है।
१२. पश्चात् स्तुति दोष-आहार लेनेके बाद गृहस्थकी प्रशंसा करना जिससे वह पुनः भी आहार दे। इस तरह जो माहार प्राप्त किया जाता है वह पश्चात् स्तुति दोष है।
१३. विद्या दोष-मैं तुम्हे अमुक विद्या दूंगा। इस प्रकार विद्याका प्रलोभन देकर गृहस्थसे जो आहार लिया जाता है वह विद्या दोष है । *विधा और मन्त्र में अन्तर-विद्या सिद्ध करने पर काम देती है और मन्न,
माता मानसे काम देता है।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः १४ मन्त्र बोष-मैं तुम्हे अमुक मन्त्र दंगा, इस तरह मन्त्रके प्रलोभनसे प्राप्त किया हुआ आहार, मन्त्र दोषसे दूषित है।
१५. चूर्ण दोष-नेत्रोका अञ्जन या शरीरको विभूषित करने वाले चूर्ण बनानेकी विधि बताकर उससे प्रभावित गृहस्थसे आहार लेना चूर्ण दोष है।
१६ मूलकर्म दोष-जो वश मे नही है उसे वशमे करनेको या जो बिछुडा है उसे मिलानेको विधिको मूल कर्म कहते हैं। इससे जो आहार प्राप्त किया जाता है, वह मूलकम दोषसे दूषित है।
बस अशन दोष अशन दोष १० प्रकारके हैं-१ शशित, २ प्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४ पिहित, ५ सव्यवहरण, ६ दायक, ७. उन्मिश्र, ८ अपरिणत, ६ लिप्त और १० व्यक्त । इनका स्वरूप इस प्रकार है
१ शङ्कित-'यह आहार मेरे योग्य है, या अयोग्य है', इस प्रकारके अनिर्णीत आहारको लेना शकित दोष है।
२. अक्षित-घो, तेल आदिसे चिकने बर्तनोमे रक्खा हुआ या चिकने हाथोसे दिया गया आहार प्रक्षित दोषसे दूषित है।
३ निक्षिप्त-सचित्त पृथिवी, जल, अग्नि तथा बोज आदि पर रक्खा हुआ आहार निक्षिप्त कहलाता है। ऐसे आहारको लेना निक्षिप्त दोष है।
४ पिहित-जो सचित्त वस्तुसे ढका हो अथवा जो किसी भारी अचित्त वस्तुसे ढका हो उसे पिहित कहते हैं। ऐसे आहारको ग्रहण करना पिहित दोष है।
५ संव्यवहरण दोष-दान आदिके बर्तनको शीघ्रताके कारण खीचना और बिना देखे उस बर्तनमे रक्खा हुआ आहार लेना संव्यवहरण दोष है।
६ दायक दोष-धाय, मद्यपायी, सूतकपातक वाला, पिशाचग्रस्त, अतिबालक, अतिवृद्धा, पाच माहसे अधिक गर्भ वाली स्त्रो, आड मे खडो या ऊंचे, नीचे स्थानपर खडो स्त्री आदिके द्वारा दिया हुआ आहार दायक दोषसे दूषित होता है ।
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परिशिष्ट
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७. उम्मित्र दोष-मिट्टी, अप्रासुक जल, सचित्त वनस्पति तथा बोज आदिसे मिला हुआ आहार उन्मित्र आहार है। इसे लेना उन्मित्र दोष है।
८. अपरिणत दोष-तिलोदक; चणेका धोवन, चावलोका धोवन तथा हरित वनस्पति आदिने जब तक अपना रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नही बदला है तब तक वह अपरिणत कहलाता है ऐसा आहार लेना अपरिणत दोष है।
९ लिप्त दोष-गर, हरिताल आदिसे लिप्त बर्तनमे रखा हुआ जल आदि आहार लिप्त दोषसे दूषित होता है।
१० व्यक्त दोष-पाणिपुटमे आये हुए आहारको अधिक मात्रामे नोचे गिराते हुए आहार करना, अथवा अञ्जलिमे आयो हुई एक वस्तु को नीचे गिराकर दूसरो इष्ट वस्तु लेना व्यक्त दोष है।
संयोजनादि चार रोष १ संयोजना दोष, २. प्रमाण दोष, ३. अंगार दोष और ४. धूम दोष।
इनका स्वरूप इस प्रकार है
१ संयोजना दोष-परस्पर विरुद्ध वस्तुओंके मिला देने पर सयोजना दोष होता है, जैसे-अत्यन्त गर्म जलमे अप्रासुक शीतल जल मिला कर उसे पीने योग्य बनाना, या अत्यन्त गाढ़ो दाल आदिमें अप्रासुक शीतल जल मिला कर उसे खाने योग्य बनाना।
२ प्रमाण दोष-प्रमाणसे अधिक भोजन लेने पर प्रमाण दोष होता है। उदरके दो भाग माहारसे, एक भाग पानोसे भरना चाहिये तथा एक भाग वायुके संचारके लिये छोड़ना चाहिये।
३. अंगार बोष-गृवतावश अधिक आहार लेना अंगार दोष है।
४. धूम बोष-अरुचिकर भोजनकी मनमें निन्दा करते हुए लेना धूम दोष है।
चौदह मल १. नख, २. रोम ( बाल ), ३. जन्तु, १. हड्डी, ५. कण ( जो गेहूँ आदिके बाहरका अवयव ), ६. कुण्ड (चावलके ऊपर लगा हुआ कन आदि), ७. पीप, ८. चर्म, ६. रुधिर, १०. मांस, ११. बोज
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
( अंकुर उत्पादनको शक्तिसे युक्त गेहूँ, चना तथा मुनक्काका बीज आदि ), १२ फल (जामुन आदि सचित्त फल ), १३ कन्द (जमीकंद आल, सूरण, शकरकन्द आदि ) और १४ मूल ( मूली तथा पिप्पली आदि)।
इन १४ मलोमें कुछ महामल हैं और कुछ अल्पमल हैं। कोई महादोष हैं और कोई अल्प दोष । जैसे रुधिर, मास, हड्डो, चर्म और पोप ये महादोष हैं। आहारमे इनके आ जाने पर आहार छोड़ दिया जाता है तथा प्रायश्चित भी किया जाता है । आहारमें इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जोवका कलेवर यदि आ जाय तो आहार छोड़ देना चाहिये । बाल निकलने पर आहार छोड देना चाहिये । नखके निकलने पर आहार छोडकर कुछ प्रायश्चित लिया जाता है। कण, कुण्ड, बोज, कंद, फल और मूलके आने पर यदि ये अलग किये जा सकते हो तो अलगकर आहार लिया जा सकता है और अलग न किये जा सकने पर आहार छोड देना चाहिये।
बत्तीस अन्तराय १ काक-चर्याके लिये जाते समय मुनिके ऊपर यदि काक या वक आदि पक्षो बोट कर दे तो यह काक नामका अन्तराय है।
२ अमेध्य-चर्याके लिये जाते समय यदि साधुका पैर विष्ठा आदि अपवित्र पदार्थसे लिप्त हो जाय तो अमेध्य नामका अन्तराय
३ छदि-चर्याके लिये जाते समय मुनिको यदि वमन हो जाय तो छदि नामका अन्तराय है।
४. रोधन-चर्याक लिए जाते समय साधुको यदि कोई रोक दे या पकड ले तो रोधन नामका अन्तराय है।
५ रुधिर-यदि आहार करते समय साधुके शरीरसे रुधिर निकल आवे या किसी अन्यके शरोरसे निकलता हुआ रुधिर दिख जाय तो रुधिर नामका अन्तराय है।
६ अश्रुपात-दुःखके कारण अपने या सामने खडे किसी अन्य व्यक्तिके नेत्रसे अश्रुपात होने लगे तो अश्रुपात नामका अन्तराय है।
७ जान्वषः परामर्श-घुटनोंसे नीचेके भागका यदि हापसे स्पर्श हो जाय तो जान्वधः परामर्श नामका अन्तराय है।
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परिशिष्ट
ខ្ញុំ៖
८. बातूपरि व्यतिकम-दाता पड़गाह कर ले जावे और चौका घुटनोसे ऊपर अधिक ऊंचाई पर है, साधुको बिना सीढोके उतना ऊपर चढना पडे तो यह अन्तराय होता है । साधु लौट जाते हैं।
९. नाभ्यधो निर्गमन-साधुको चौकामे पहुँचनेके लिये इतनो छोटी खिड़कोसे जाना पडे कि एकदम झुकना हो तो यह नाभ्यधो निर्गमन नामका अन्तराय है।
१. प्रत्याख्यात सेवना-साधुने जिस वस्तुका त्याग किया है यदि वह वस्तु आहारमें आ जाय तो प्रत्याख्यात सेवना नामका अन्तराय है. जैसे साधु नमक छोडे हुए है, दाता ने नमक वाला पदार्थ दे दिया, साधु को जब नमकका स्वाद आया तो अन्तराय मानकर शेष आहार छोड़ देते हैं।
११. जन्तु वध-चौकामे पहुंचने पर अपने द्वारा या दान देनेवाले अन्य व्यक्तिके द्वारा चिउटी आदि जीवोका वध हो जाय या नीचे रखे हुए बर्तनमे पडकर कोई मक्खी आदि मर जाय अथवा आहार करते समय यह शब्द सुननेमे आवे कि अमुक व्यक्तिका वध हो गया है तो यह जन्तु वध नामका अन्तराय है।
१२ काकादि पिण्डहरण-वनमे आहार लेते समय कोई काक आदि पक्षी झपट कर साधुके पाणिपुटसे ग्रास ले जाय तो यह काकादि पिण्ड हरण नामका अन्तराय है।
१३. पिण्ड पतन-यदि आहार करते समय साधुके पाणिपुटसे ग्रास मात्र नोचे गिर जाय तो पिण्डपतन नामका अन्तराय होता है।
१४. पाणिजन्तु वध-यदि आहार करते समय कोई मक्खी आदि जन्तु पाणिपुटमे आकर मर जाय तो पाणिजन्तु वध नामका अन्तराय
१५. मांस दर्शन-यदि आहार करते समय मरे हुए पञ्चेन्द्रिय जीव. के शरीरका मास दिख जाय तो मास दर्शन नामका अन्तराय है ।
१६. उपसर्ग-आहारके समय देवकृत आदि उपसर्गके आ जानेपर उपसर्ग नामका अन्तराय होता है।
१७ पादान्तर जीव-यदि आहार करते समय कोई चुहिया आदि पञ्चेन्द्रिय जोव साधुके पैरोके बोचसे निकल जाय तो पादान्तर जीव मामका अन्तराय होता है।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि १८ भाजन पात-यदि आहार देनेवालेके हाथसे कोई बर्तन नोचे गिर जाय तो भाजनपात नामका अन्तराय होता है।
१९ उच्चार-पेचिश आदिको बीमारी होनेके कारण यदि साधु के उदरसे मल निकल जाय तो उच्चार नामका अन्तराय होता है।
२० प्रत्रवण-यदि किसो बीमारोके कारण आहार करते समय साधुके मूत्रस्राव हो जाय तो प्रस्रवणका नामका अन्तराय होता है।
२१ अभोज्य गृह प्रवेश-चर्याके लिये जाते समय यदि साधुका चाडाल आदिके घरमे प्रवेश हो जाय तो अभोज्य गृह प्रवेश नामका अन्तराय होता है।
२२. पतन--यदि आहार करते समय मूर्छा आनेसे साधु गिर पडे तो पतन नामका अन्तराय होता है।
२३. उपवेशन-आहार करते समय शक्तिको क्षोणतासे साधुको बैठना पड जाय तो उपवेशन नामका अन्तराय होता है।
२४. सदश-आहार करते समय यदि कुता आदि काट खाये तो सदश नामका अन्तराय होता है।
२५ भूमि स्पर्श-सिद्ध भक्ति करनेके बाद यदि साधुसे भूमिका स्पर्श हो जाय तो भूमि स्पर्श नामक अन्तराय होता है ।
२६. निष्ठीवन-आहार करते समय यदि साधु के मुख से थूक या कफ निकल जाय तो निष्ठीवन नामका अन्तराय होता है।
२७ उदर कृमिनिर्गमन-आहार करते समय यदि साधुके उदरसे कृमि निकल पडे तो उदर कृमि निर्गमन नामक अन्तराय होता है।
२८. अदत्त ग्रहण-यदि बिना दो हुई वस्तु ग्रहण मे आ जाय अथवा आहार करते समय यह विदित हो जाय कि दाता जो वस्तु दे रहा है वह चोरो को है तो साधु अन्तराय कर देते है।
२९ प्रहार-आहार करते समय यदि कोई दुष्ट जीव साधु पर अथवा सामने उपस्थित श्रावको पर लाठी आदि से प्रहार कर दे तो प्रहार नामका अन्तराय होता है।
३० प्रामदाह-आहार के समय यदि ग्राममे आग लग जाय तथा भगदड़ मच जाय तो ग्राम दाह नामका अन्तराय होता है।
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३१. पावेन किंचिद् ग्रहण - यदि पैर से कोई वस्तु ग्रहण की जावे तो यह अन्तराय होता है।
३२. करेण किचित् ग्रहण - यदि आहार करते समय कोई दाता भूमि पर पडी वस्तु को हाथ से उठा ले तो करेण किंचिद् ग्रहण नामका अन्तराय होता है ।
विशेष- यद्यपि उपर्युक्त ३२ अन्तरायो के सिवाय चाण्डाल स्पर्श, कलह इष्टमरण, साधर्मिक संन्यास पतन तथा प्रधान का मरण आदि भी भोजन त्याग के हेतु हैं तथापि उपलक्षण होने से इनका उपयुक्त अन्तरायो मे अन्तर्भाव समझना चाहिये ।
वन्दना सम्बन्धी कृति कर्मके बत्तीस दोष
१. अनादृत, २. स्तब्ध, ३. प्रविष्ट, ४. परिपीडित, ५. दोलायित ६ अकुशित, ७ कच्छपरिङ्गित, ८. मत्स्योदूतं ९ मनोदुष्ट, १० वेदिका - बद्ध, ११ भय, १२ बिभ्यत्व, १३. ऋद्धिगौरव, १४ गौरव, १५ स्तेनित, १६ प्रतिनीत, १७ प्रदुष्ट, १८ तर्जित, १६. शब्द, २० होलित, २१. त्रिवलित, २२ कुञ्चित, २३ दृष्ट, २४ अदृष्ट, २५ संघकर मोचन, २६ आलब्ध, २७ अनालब्ध, २६ होन, २६ उत्तर चूलिका, ३० मूक, ३१ दर्दुर और ३२. चुलुलित। इनके लक्षण इस प्रकार है
१. अनावृत - आदर या उत्साह के बिना जो कृतिकर्म किया जाता है वह अनादृत दोष से दूषित है ।
२. स्तब्ध - विद्या आदिके गर्वसे उद्धत होकर क्रिया-कर्म करना स्तब्ध दोष है ।
३. प्रविष्ट - पञ्चपरमेष्ठीके अति निकट होकर कृतिकर्म करना प्रविष्ट दोष है । वन्द्य और बदक के बोच कम से कम एक हाथ का अन्तर होना चाहिये ।
४. परिपीडित-हाथ से घुटनो को पीडित कर अर्थात् घुटनो पर हाथ लगाकर खड़े होते हुए कृति कर्म करना परिपोड़ित दोष है ।
५. बोलायित - दोला झूलाके समान हिलते हुए वन्दना करना दोलायित दोष है ।
६. अंकुशित- अंकुश के समान हाथ के अंगूठों को ललाट पर लगा कर बन्दना करना अकुशित दोष है ।
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सम्यक्चारित- चिन्तामणिः
७. कच्छपरिङ्गित - कछुवेके समान कटिभाग से सरक कर वन्दना करना कच्छपरिङ्गित दोष हैं ।
८.
मत्स्योद्वर्त -- मत्स्य के समान कटिभाग को ऊपर उठाकर वन्दना करना मत्स्योद्वर्त दोष है ।
९. मनोदुष्ट - मन से आचार्य आदि के प्रति द्वेष रखते हुए वन्दना करना मनोदुष्ट दोष है ।
१० वेदिकाबद्ध - दोनो घुटनो को हाथो से बांधकर वेदिका की आकृति मे वन्दना करना वेदिकाबद्ध दोष है ।
११ भय - भय से घबड़ाकर वन्दना करना भय दोष है ।
१२ बित्व - गुरु आदिसे डरते हुए अथवा परमार्थं ज्ञान से शून्य अज्ञानी होते हुए वन्दना करना बिभ्यत्व दोष है |
१३ ऋद्धि गौरव - वन्दना करने से यह चतुविध सघ मेरा भक्त हो जायगा, इस अभिप्राय से वन्दना करना ऋद्धिगौरव है ।
१४ गौरव - आसन आदि के द्वारा अपनी प्रभुता प्रकट करते हुए वन्दना करना गौरव दोष है ।
१५. स्तेलित दोष -- मैंने वन्दना की है, यह कोई जान न ले, इसलिये चोर के समान छिपकर वन्दना करना स्तनित दोष है ।
१६. प्रतिनीत - गुरु आदि के प्रतिकूल होकर वन्दना करना प्रतिनोत दोष है ।
१७. प्रदुष्ट - अन्य साधुओ से द्वेषभाव- कलह आदिकर उनसे क्षमाभाव कराये बिना वन्दना करना प्रदुष्ट दोष है |
१८. तजित - आचार्य आदिके द्वारा तर्जित होता हुआ वन्दना करना तर्जित दोष है, अर्थात् नियमानुकूल प्रवृत्ति न करने पर आचार्य कहते हैं कि 'यदि तुम विधिवत् कार्य न करोगे तो संघ से पृथक् कर देगे' आचार्य की इस तर्जना से भयभीत हो वन्दना करना तजित दोष
है |
१९. शब्द - मौन छोड, शब्द करते हुए वन्दना करना शब्द दोष है ।
२० होलित - वचन से आचार्य का तिरस्कार कर पद्धतिवश बन्दना करना होलित दोष है ।
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परिशिष्ट
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२१. त्रिबलित ललाट पर तीन सिकुड़न डालकर रुद्रमुद्रा में वन्दना करता त्रिवलित दोष है।
२२. कुंचित - संकुचित हाथो से शिर का स्पर्श करते हुए अथवा घुटनो के बीच शिर झुकाकर वन्दना करना कुंचित दोष है ।
२३. दृष्ट - आचार्य यदि देख रहे हैं तो विधिवत् वन्दना करना अन्यथा जिस किसी तरह नियोग पूर्ण करना, अथवा इधर उधर देखते हुए वन्दना करना दृष्ट दोष है ।
२४ अदृष्ट - आचार्य आदि को न देखकर भूमि प्रदेश और अपने शरीर का पीछी से परिमार्जन किये बिना वन्दना करना अथवा आचार्य के 'पृष्ठ देश-पीछे खड़ा होकर वन्दना करना अदृष्ट दोष है ।
२५. सघकर मोचन - वन्दना न करने पर संघ रुष्ट हो जायगा, इस भय से नियोग पूर्ण करनेके भाव से वन्दना करना संघकर मोचन दोष है ।
२६ आलब्ध - उपकरण आदि प्राप्त कर वन्दना करना आलब्ध दोष है ।
२७. अनालब्ध - उपकरणादि मुझे मिले, इस भाव से वन्दना करना अनालब्ध दोष है ।
२८ होम - शब्द, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित होकर वन्दना करना होन दोष है, अर्थात् योग्य समय पर शब्द ध्यान देते हुए पाठ पढकर वन्दना करना चाहिये। जो वन्दना करता है वह होन दोष है ।
तथा अर्थ की ओर
इसका उल्लंघन कर
२९ उत्तर चूलिका-वन्दना का पाठ थोड़े ही समय मे बोलकर 'इच्यामि भन्ते' आदि अंचलिका को बहुत काल तक पढकर वन्दना करना उत्तर चूलिका दोष होता है ।
३०. मूक - जो मूक- गूगे के समान मुख के भीतर ही पाठ बोलता हुआ अथवा गूगे के समान हुंकार आदि करता हुआ वन्दना करता है उसके मूक दोष होता है ।
३१. बर्डर - जो मेढक के समान अपने पाठ से दूसरो के पाठ को दबाकर कलकल करता हुआ बन्दना करता है उसके दर्दुर दोष होता है। ३२. मुकुलित- जो एक ही स्थान पर खड़ा होकर मुकुलित अंजलि को घुमाता हुआ सबकी बन्दना कर लेता है उसके मुकुलित दोष होता है ।
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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
इन बत्तीसों दोषों से रहित कृतिकर्म हो कर्मनिर्जरा का कारण होता है।
कायोत्सर्ग के अट्ठारह दोष
१ घोटक, २. लता, ३ स्तम्भ, ४ कुड्य, ५ माला, ६ शबरवधू, ७ निगड, ८. लम्बोत्तर, ६ स्तनदृष्टि, १० वायस, ११. खलीन, १२ युग, १३ कपित्थ, १४ शोर्ष प्रकम्पित, १५. मूकत्व, १६. अंगुलि, १७ भ्रूविकार और १८. वारुणीपायो ।
इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. घोटक - कायोत्सर्ग के समय घोड़े के समान एक पैर को उठाकर अथवा झुका कर खडे होना घोटक दोष है ।
२. लता - लता के समान अङ्गो को हिलाते हुए कायोत्सर्ग करना लता दोष है ।
३. स्तम्भ - स्तम्भ - खम्भा के आश्रय खडे होकर कायोत्सर्ग करना स्तम्भ दोष है ।
४ कुडघ - कुड्य - दीवाल के आश्रय खडे होकर कायोत्सर्ग करना दोष है ।
कुडघ
५. माला - माला - पठि, आसन आदि ऊँचो वस्तु पर खडे होकर कायोत्सर्ग करना माला दोष है ।
६ शवरवधू - भिल्लनी के समान दोनो जंघाओ को सटाकर खड़े हो कायोत्सर्ग करना शवरवधू दोष है।
७ निगढ़ – निगड - बेडो से पीड़ित हुए के समान दोनो पैरो के बीच बहुत अन्तराल दे खडे होकर कायोत्सर्ग करना निगड़ दोष है ।
८ लम्बोत्तर - नाभि से ऊपर के भाग को अधिक लम्बाकर कायोत्सर्ग करना लम्बोत्तर दोष है ।
९. स्तनदृष्टि - अपने स्तनो पर दृष्टि देते हुए खडे होकर कायोत्सर्ग करना स्तनदृष्टि दोष है ।
१०. वायस - वायस - कौए के समान अपने पार्श्वभाग को देखते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना वायस दोष है ।
११. खलीन --- खलीन - लगामसे पोडित घोडे के समान दांत कटकटाते हुए कायोत्सर्ग करना खलीन दोष है ।
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परिशिष्ट १२. युग-युग-जूबासे पोड़ित बैलके समान गर्दन पसारकर बड़े हो कायोत्सर्ग करता युग दोष है।
१३. कपित्य-कथाके समान मुठी बांधकर खड़े हो कायोत्सर्ग करना कपित्य दोष है।
१४ शिर:प्रकम्पित-शिरको कपाते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना शिरा प्रकम्पित दोष है।
१५ मूकस्व-मूकके समान मुखविकार तथा नासाको संकुचित करते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना मूकत्व दोष है।
१६. अंगुलि-कायोत्सर्गमें खड़े होकर अंगुलियां चलाना अथवा उनसे गणना करना अगुलि दोष है।
१७. घू-विकार-भौहोको चलाते अथवा पैरोको अंगुलियों को ऊंचानोचा करते हुए खडे होकर कायोत्सर्ग करना 5-विकार दोष है।
१८. वारुणोपायी-वारुणी-मदिरा पोने वालेके समान झूमते हुए खड़े होकर कायोत्सर्ग करना वारुणीपायी दोष है।
शोलके अट्ठारह हजार मेव मूलाचारके शोल-गुणाधिकारमे प्रतिपादित शीलके अट्ठारह हजार भेद इस प्रकार हैं
तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएं, पांच इन्द्रिय, दश पृथिवीकायिक आदि जोवभेद, और उत्तम, क्षमा आदि दशधर्म, इनका परस्पर गुणा करनेसे शोलके अट्ठारह हजार भेद होते हैं। योग, संज्ञा, इन्द्रिय
और क्षमादि दशधर्म प्रसिद्ध हैं। अशुभ-योगरूप प्रवृत्तिके परिहारको करण कहते हैं। निमितभेदसे इसके भो तीन भेद है-मन, वचन और काय । पृषिवोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दोन्द्रिय, मोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये पृथिवीकायिक आदि १० जीवभेद हैं।
३४३४४४५४१०४१० - १६,००० शोलके अट्ठारह हजार भेद अन्य प्रकारसे भो परिपणित किये जाते हैं।
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सम्पचारित-चिन्तामणिः
मुनियोंके चौरासी लाख उत्तरगुण हिंसा, असत्य, चीयं, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, जुगप्सा, रति और अरति ये तेरह दोष हैं । इनमे मन, वचन एवं काय इन तोनोको दुष्टतारूप तीन दोष मिलानेसे सोलह होते हैं। इन १६ दोषोंमे मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनता ( चुगलखोरी ) अज्ञान और इन्द्रियोका अनिग्रह (निग्रह नहीं करना ) ये ५ और मिला देनेसे २१ दोष हो जाते हैं । इन २१ दोषोका त्याग करने रूप २१ गुण होते हैं। यह त्याग अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचारके त्यागसे । प्रकारका होता है, अतः इन चारका २१ मे गुणा करनेसे ८४ प्रकारके गुण होते हैं। इन ८४ में पृथिवीकायिक आदि ५ स्थावर एवं दोन्द्रिय, पोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय और संज्ञोपञ्चेन्द्रिय इन दशकायके जीवोकी दयारूप प्राणिसंयम तथा इन्द्रियसंयमके ६ भेद सब मिलाकर १०० का गणा करनेपर ८५०० होते हैं। इनमे १० प्रकारकी विराधनामओ (स्त्रीसंसर्ग, सरसाहार, सुगन्ध संस्कार, कोमल शयनासन, शरीर-मण्डन, गीतवादित्र श्रवण, अर्थ ग्रहण, कुशीलसंसर्ग, राजसेवा एव रात्रि-सचरणका गणा करनेपर ८४,००० चौरासो हजार होते हैं। इनमे आलोचना सम्बन्धो १० दोष ( आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, वादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अध्यक्त, तत्सेवी ) का गुणा करनेपर ८०,००.००० लाख उत्तरगुण हो जाते हैं।
निर्जरा निर्जरा भावनाके वर्णनमे पृष्ठ ११७ पर निर्जराके सविपाक और अविपाकके भेदसे दो भेदोका वर्णन किया गया है। बद्धकर्म के प्रदेश आबाधा कालके बाद अपना फल देते हुए निषेक-रचनाके अनुसार क्रमसे निजीर्ण होते जाते हैं, इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं । इस जीवके सिद्धोके अनन्तवे भाग और अभव्य राशिसे अनन्त गुणित प्रमाण वाले समयप्रबद्धका प्रतिसमय बन्ध होता है। इतने ही प्रमाण वाले समयप्रबद्धको निर्जरा होती रहती है और डेढ गुणहानि प्रमाण समयप्रवद सत्तामे बना रहता है। मोक्षमार्गमे इस निर्जराका कोई प्रभाव नही । होता, क्योकि जितने कर्मोकी निर्जरा होतो है उतने हो नवीन कोका बन्ध हो जाता है। अविपाक निर्जरा वह है जो तपश्चरणके प्रभावसे उदय कालके पूर्व होतो है और जिसके होनेपर सवर हो जाता है।
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परिशिष्ट
यह अविपाक निर्जरा हो कल्याणकारिणी है परिणामोकी विशुद्धतासे कदाचित् अचलावली के बाद ही बद्धकर्म खिर जाते हैं, इसकी उदीरणा संज्ञा है | पृष्ठ ११७ पर
प्रभावात पसां केचिदाबाधापूर्वमेव हि । निजीर्णायत्र जायन्ते सा मता ह्यविपाकजा ॥ ८७ ॥ श्लोकमे आबाघापूर्वमेवहिके स्थानपर 'उदयात्पूर्वमेव हि पाठ उचित लगता है । अनुवाद में भी 'आबाधा के पूर्व ही' के स्थानपर 'उदयकालके पूर्व' ऐसा पाठ उचित है। शुद्धिपत्रमे यह संशोधन देने से रह गया है। आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंको आबाधाका नियम उदयको अपेक्षा यह है कि एक कोड़ा-कोड़ी सागरको स्थितिपर सौ वर्षको आधा पडतो है । अर्थात् १०० वर्ष तक वे कर्मप्रदेश सत्ता मे रहते हैं, फल नहीं देते । १०० वर्षके बाद निषेक-रचनाके अनुसार फल देते हुए स्वयं खिरने लगते हैं। आयुकर्मको आबाधा एक कोटि वर्षके त्रिभागसे लेकर असक्षेपाद्धा आवलो प्रमाण है । उदीरणाको अपेक्षा कर्मो को आबाधा एक अचलावली प्रमाण है ।
सल्लेखना
श्रावक हो, चाहे मुनि, सल्लेखना दोनो के लिये आवश्यक है । उमास्वामी महाराजने लिखा है- 'मारणान्तिकी सल्लेखना जोषिता' - व्रतो मनुष्य मरणान्तकालमे होने वाली सल्लेखनाको प्रोतिपूर्वक धारण करता है । मूलाराधना तथा आराधनासार आदि ग्रन्थ सल्लेखनाके स्वतन्त्र रूपसे वर्णन करनेवाले ग्रन्थ हैं । इनके सिवाय प्राय. प्रत्येक श्रावकाचारमे इसका वर्णन आता है। प्रतीकाररहित उपसर्ग, दुर्भिक्ष अथवा रोग आदिके होने पर गृहोतसंयमकी रक्षाकी भावनासे कषाय और कायको कृश करते हुए समताभावसे शरीर छोड़ना सल्लेखना है । इसीको संन्यास अथवा समाधिमरण कहते हैं ।
दुक्खक्खयो कम्मrखयो समाहिमरण व बोहिलाहो य । मम होऊ जगदबांधव तव जिणवरचरणसरणेण ॥ अर्थात् दुःखका क्षय तब तक नही होता जब तक कि कमोंका क्षय नही होता, कर्मोंका क्षय तब तक नहीं होता जब तक समाधिमरण नही होता और समाधिमरण तब तक नही होता जब तक बोधिरत्नत्रयको प्राप्ति नही होती। इन चार दुर्लभ वस्तुओकी प्राप्ति जिनदेवके चरणोको शरणसे प्राप्त होती है।
कुन्दकुन्द स्वामीने सल्लेखनाको गरिमा प्रकट करते हुए इसे
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सम्पचारिख-चिन्तामणिः भावकके चार शिक्षाक्तोंमे परिगणित किया है परन्तु पश्चाद्वर्ती आचार्योने वतोमात्रके लिये आवश्यक जानकर उसका स्वतन्त्र वर्णन किया है। निरय सल्लेखना और पश्चिम सल्लेखनाके भेदसे सल्लेखना के दो भेद हैं। निरन्तर सल्लेखनाकी भावना रखना नित्य सल्लेखना है और जीवनका अन्त मानेपर मल्लेखना करना पश्चिम सल्लेखना है। अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्ध्यपायमें इसका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् ।
सततमिति भावनोया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ।। १७५ ॥ अर्थात् यह एक पश्चिम सल्लेखना ही मेरे धर्मरूपी धनको मेरे साथ ले जानेमे समर्थ है।
इसी भावको लेकर सल्लेखना-प्रकरणके प्रारम्भमे लौकिक वैभव. का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया गया है। दृष्टान्त दृष्टान्तमात्र है। सल्लेखना करनेवाले मुनि अथवा श्रावकको लोकिक सम्पदाको साथ ले जानेको भावना नही होती, क्योंकि लौकिक भोगोपभोगोको आकाक्षा को तो आचार्योने निदान नामका अतिचार कहा है। भोगोपभोगके प्रति क्षपकको आकाक्षा उत्पन्न करना दृष्टान्तका प्रयोजन नहीं है। सल्लेखना आत्मघात नही है। आगममे इसके तोन भेद बतलाये हैं१ भक्तप्रत्याख्यान, २ इंगिनोमरण और ३ प्रायोपगमन। भक्तप्रत्याख्यानमे क्षपक आहार-पानीका यम अथवा नियम रूपसे त्याग करता है तथा शरीरको टहल स्वयं अथवा अन्यसे करा सकता है। इगिनो. मरणमे शरोरको टहल स्वय कर सकता है, दूसरेसे नहो कराता और प्रायोपगमनमे न स्वयं करता है न दूसरेसे कराता है।
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पद्यानुक्रमणिका
भय वक्ष्ये गुणस्थान ६२ १२२ अकाले सूत्रपाठी हि ७, ३२ । ६१ अथ प्रवक्ष्यामि महा- ३,२१२६ अगाधे भवान्दो पतन्त ६, १५ । ६३ अथाने सम्प्रवक्ष्यामि ३,१०११ अङ्गीकृत्य गुरोराशा ०।६८ बथाने सम्प्रवक्ष्यामि ३,५४ । ३६ अग्निप्रशमनी नाम १,४६।५० यावश्यककार्याणि ६,२५६ अग्निकायिकजीवानां ३,२५ । ३० मचाये देशचारित्र १२, ३ । १४४ बग्नितप्त यथा हेम ८२ ११७ बयाने सम्प्रवक्ष्यामि ३, ७२ । २७ अचित्तास्तु गहारामा ३,८६।१६ अचान कियवे चर्चा ४,१६।५६ अचोर्याणवतस्येह १२, ४६ । ११० अपार्याणां विधि वक्ष्ये १०, ३ । १३३ अज्ञानाद्वा कषायावा ३, ५२ । ३४ अथेन्द्रियजय लक्ष्यं ५,२।५४ अज्ञानाता प्रमादाद्वा प्र०, ६॥ १७१ अर्थष्णासमित्याश्च ४, २८ । ६८ अज्ञानाता प्रमादाता १२, ५४ । १५१ अथोपशमनाकार्य २, ३६ । ३७ मज्ञानामा प्रमादादा १२, १४। १६ अयोपशमसम्यमत्व १३, २४। १६५ अज्ञानजनितासत्य ३, ५३ । ३४ अधःप्रवृत्ततः पूर्व १३, २८।१९६ अणुव्रताना साहाय्य १२, १५। १४६ अब प्रवृत्तकरण १३, ३० । १६६ अणवत परिशेप १२, १४ । १४५ मधोमध्योद्धभेदेन ८,६६। १०८ अणुव्रतानि कथ्यन्ते १२,७४। १५४ अष्टमाजितादान १३, ६५ ॥ ११३ अतस्तस्य सुरक्षार्थ १,३०। ४८ अष्टामाजितस्थाने १२, ६४ । १५३ अतिचारा इमे शेया १२, ५१४ १५० अनलोऽनलकायश्च ३, १६ । २८ अतिचारा इमे त्याज्या १२, ४६ । १५० जनाधितो निबढानि ६,६३११७ अतिचारा इमे त्या- १२, २१ । १५२ अनादिकालाद्ममता ३, ११६ । ४४ अतिचारा इमे शेया १२, १३ १४९ अनागतादिभेदेन ६,६२५० अतोन विद्रज्धनमाननीय १,७२ अनुभूय महाकष्ट ११, ६ । १३९ बतो विरज्य भोगेभ्यो १०,१३॥ ११३ अनुभागं चतुःस्पान १३, २६ । १६६ मवोतस्तपसा भेदा ७,७३18 अनेकान्तदः प्रचण्ड. ६, २१ । ६५ बतो दिसम्बरः साधुः १,५८१ ५१ अन्नपानाविसल्यान ११, ३०।१५१ अन्वेष तप माबारे ७, ११५। १०४ बन्यदर्शनयुक्तेषु ६६०1१३१
• प्रथम अंक प्रकाशका, द्वितीय क पका और तृतीय अंक पृष्ठका समाना
पाहिजे. प्र०-प्रशास्ति।
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१२०
बम्पस्तू पशमश्रेणी २, २४ । १५ अन्यस्व सुखसिद्ध्यर्थं ८, ३७ । १११ अन्येषां वधबन्धादि १२, २३ । १४६ बम्बोम्यं कलहायन्ते
५, ३५ । ५८
अन्तराये समायाते
४, ३३ । ४८
सम्यकचारि चिन्तामणि
१,५३१८
अन्तर्बाह्योपधित्यागे अन्तर्मुहुर्तमध्ये सो म सल्लेखना कार्या १२,३८ । १४८
१, ६६ । ११
अपराधस्य वैषम्यं
७८१ । ६०
अपर्याप्तेषु विशेय
६० ६ । १२३
अपर्याप्तेषु विज्ञेय
६४३ । १२८ ६, ७ । १२३ १२,६८ । १५६
अपर्याप्त तृतीयं नो अत्रत्याख्यानावरण अव्ये प्रथमं ज्ञेयं ६, ३२ । १२६ antaraमोक्षकाङ्क्षाया ६, ६३ । ७४ twitकाश मातापो अयं गौरो ह्यय श्यामो
७, ७१ । ६७
अयि कथं सुविधेऽवर अये प्रमादितो नरा. अयोगेषु भवेदेक
५, २७ । ५७ ६, ४१ । ७० १३,४४ । १६८ ६, ५२ । १३०
अर्धपर्यन्त
८, ११०।११६
३, ६४ । ३६ ६, १११ । ६५
अर्थो हि विद्यते पुसा अहं कल्याणकस्थान अल्पायुषि नरत्वे सा८, ११३ ॥ १२० मोदनामा स
७, ६७ ॥ ६७
अयशस्य मुनेः कार्य
६, ३ । ६०
refधदर्शन शेय ६, २६ । १२६ असक्त मुखस्तिष्ठन् १, २३ । ५ अष्टम्यां च चतुर्दश्या १२,२६ । १४७ अष्टम्यां च चतु- १२, १०३ ॥ १५८ अष्टा सम्य परव- १,७१।११ अष्टोत्तरशतोच्छ्वासा ६, ११० ८५ अष्टोत्तरशतोच्छ्वासा ६ १०७ । ८४
असत्यमेतद् विशेय
असत्यवचनत्यागात् refज्ञनि भवेदार्थ अस्तेय व्रतरक्षायं
६. ३५ । १२७
अस्मिन् केचन जीवाः अस्मिन्ननादिसंसारे
३, १०७ । ४२ ३, ३० । ३० ८३६ । १११
अस्मिन् भवार्णवे घोरे व २२ । १०६ अस्योत्पत्तिक्रमः प्रोक्तः ७, १० ८८ अह ज्ञानस्वभावोऽस्मि ८, ४६ । ११२ अहिंसादिप्रभेदेन
१२, ६ । १४५
१,२६ । ५
७, ५७ । ६६
अहिंसा सत्यमस्तेय अहिंसा सत्यमस्तेय
३, ४८ । ३३ ३, ५५ । ३४
7
आचार एव प्रथमोऽ- १२, १२२।१६१ आचार्यवर्यान् गुणरत्नआचार्यादिप्रभेदेन
५, १४ । ५५
माजीवमुष्णपानीय आतापनादियोगेषु ७, ११६ । १०५ बाहमान सुखसपन्न १०, १२ । १३३ आत्मनो वीतरागत्व आत्मस्वभावे स्थिरता आत्मन वाञ्छसि आत्मबलवर्धनेन आत्मन्नशरण मत्वा आत्मा न म्रियते आदाने क्षेपणे चैषा
अद्यद्विकं समुल्लङ्घय आद्यतयोदश ज्ञेया आद्य चतुष्टय ज्ञेय आद्य सामायिक ज्ञेय आय जीवादितत्वानां आद्यानि स्यु.
• सवेदानां ६, २० । भाद्येतरासु पृथ्वीषु
१, ३।१ ७,६० १००
DORR 1909 4439
१, ११ । ३ ८, ६१ ।११७
४, ७१ । ५४ ८,२१।१०८
११,३५ । १४२ ४, ५३ । ५१ २, ६६ । २३
६६ १५ । १२४
६, ६ । १२३ १२, २६ । १४७
७,६८७
१२५ ६, ४१ । १२८
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पचानुपाणित
माधोपचमतदष्टि २,२०१५ इतोको संप्रवक्याम्य १२, ३५१ भाचोपनमसम्यक्त्व २, ६ । ११ दोश्रो संप्रवक्ष्यामि २, ६३॥ २३. मानयनं बहिः सीम्नो १२, १६ । १५२ इतोओ संविधास्यामि १,६६५३ बायतं चतुलाकारं ७,६८।६७ स्थमाचार्यवक्वेन्दु १०,३३३ १३५ आयाते संकटे साधी ७५६।१०. इत्य च मार्गणास्थाने ६२७॥ १२७ भारम्भान्जायते हिंसा १२, ८।१४५ इत्य विचार्य निग्रंन्यो ५, २४ । ५७ मावत्योपशमी २, २२ । १५ इत्पं मुक्त्वा नवद्रव्य २,६० । २० आरोग्यलाभसंस्थान १२, ८६ । १५६ इत्व मूलगुणान् श्रुत्वा १,६५। १० आती दुरे भवेद्यत्तत ७, १०४।१०३ इत्पभूता नरा क्वापि ८, ५६ ॥ ११३ मार्यखण्डसमुत्पन्न २,११।१३ हत्येवं बहुमानेन ७,५८।३३ आर्यखण्डे समायान्ति २, १२ । १० इन्दुर्यया कलङ्कन १२, ६६ । १५३ मार्या दीक्षा गहीत्वा १०, १६ १३४ इष्टग्रन्यस्य प्रारम्भे ६, ११२ । ८५ भार्या धत्ते सितां १२, ११२ । १६० इष्टस्त्रीसुतवित्तादि ७, १०५। १०२ आयिकाणी व्रतं नन १०, ३१ । १३६ इष्टानिष्टपदार्येषु १,४८1८ मालोचनाविधानेषु ६, २६ । ६६ इष्टानिष्टेषु पञ्चानां ३, १६। ४३ मालोचनाविभेदेन ७,७५। ६८ इष्टानिष्टरसे भोज्ये १,४१७ मालोचनाया कुटिलाश्च ६,६६।६३ इष्टानिष्टप्रसङ्गेषु ६, ६.६० बाधिवजीवजातीना १२, ४२११४६ ।। इष्टानिष्टप्रसङ्गषु ५,३७ । १८ भाषाढमासीयवलक्ष प्र०, ३ । १७० । इष्टानिष्टवियोग ६, १३ । ७१ आमवस्य निरोधो यः ८, ७३ । ११५ ईदृशो हि ममाहारो ४, ३२ । १८ माहार स्वेप्सित गृहन् ४, ३८ । ४६ ई-भाषादिभेदेन ४,३१४४ आहारो विद्यते पुसा ७, ६५। ६६ ईर्याया अपराधेषु ६, ६६ । ०५ आहारके सम्मिच ६, १७ । १२५ ईयाभाषषणादान ७,५८।६६
र्याभाषषणादान १, ३२।६ इङ्गिनीमरणं स्वस्य ११, १८ । १४० इयाया विनिरोधोऽस्ति ७, ६२।६६ इति व्याजो न कर्तव्यो ३, ६५।४० उज्ज्वलज्ज्योतिराकाबनी ५, २६ । ५७ इति हि विहितां भक्त्या ६,५६।७४ उस्थितश्चोस्थितः पूर्व ६, ११८ । १६ इति मेयाश्चतुर्भदा. ६,१११।८६ उत्तुङ्गगिरिषु ७, ११८ ११०४ इति मदं विजही सुर- ६, ४२ । ७१ उद्दिष्टं चान्नपानादि १२, ११०।१६. इतो माणामध्ये ६३६।१२८ उहिष्टत्यागभेदस्य १२, १११।१६० इतोऽये वर्णयिष्यामि ७,६१1३६ उपवासोऽवमोदय ६३६ होमो स्यावाला २,२६ । १५ पपसर्वसहः साधुः ११०२३ ॥ १५०
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६२
सम्यक्पारित-पितामणिः
उपभोगाः प्रकीत्यन्ते १२,३१।१७ एतस्मिस्तु गुणस्पाने २,१११६ उपसर्गप्रतीकारे ११, १२ । १३६ एतस्यापि चतुर्भदाः ७, ११२ । १०३ उमवीं लब्धिमाहत १३. ६ । १६३ एतस्याविरति हि २,७।२७ उभयपन्यसंस्थागी २,६०३६ एतत्सप्तप्रकृतीनां २, ६६॥२३ उल्कापाते प्रदोष ७, २६ । एतस्मिन् हि गुणस्थाने २, ७२ ॥ २॥
एताश्चतुविधा नार्यस् ।, ७७ १ ३४ एकवारं दिवा भुङ्क्ते १, ३५।६ एते विविधसन्यासा ११, २० । १४० एककृत्यो नमस्कार ६, ११५। ८५ एते पूर्वभवायात १३, ४२ । १६८ एकवर्षावधि कायो- ६,१०६ । एत हषीकहरयः ५, १।५४ एक एवान जायेऽहं ८,३३ । ११० एते मुनीश्वरा एव ८, ६२ । ११३ एकस्मिन् दिवसे मुक्ति १, ६४।१० एते पञ्चेन्द्रिया. सन्ति ३, ११।२६ एकस्य वचन श्रुत्वा ४, २३ । ४७ एते पञ्च परित्या- १२, ४१।१४६ एकस्य वचन श्रोतु ४,२४॥ ४७ एते पञ्च परिप्रोक्ता १२, ५३ । १५१ एकान्तादिभेदेन ६,६७ ॥ ११४
SC एतरङगै सुपूर्ण स्यात् ७, २१ । ८६ एकाकिन्या विहारो १०, २५। १३५
एतो सुसयमा नून २, १५ ॥ १४ एकेन राज्यमालब्ध ८, ३१ । ११० ।
एव सापो. प्रतिज्ञा य. ७, ६२ । ६३ एकेन्द्रियादिभेदेन ३, १२ । २८ एवं निःशल्यको भूत्वा ११, २६ । १४१
दियPRINT १२४ एव दयालुराचार्यः ११,६।१३५ एकेन्द्रिये तु विज्ञेय ८, १० । १२४ एवमाधुनिका दोषा ६, १००। ६३ एककस्मिन् स्थितेषति २, ४२ ॥ १६ एवं विचारसम्पन्नो ६,६१८० एककान्तमुहूर्तेन २, ७३ । २४ एव ध्यात्वा ये स्वरूपे १०,२।१३२ एको रोदिति सन्ताना ८, २६ । १०६ एवं सर्वं चिन्तयन्ता ६५ । १३२ एकोऽपि स प्रदेशो न ८,६८ | ११८ एवं दर्शनिको नून १२, १०० । १५७ एभ्यस्त्रिविषपानेभ्यो १२, ३६ । १४८ एवं विषत शास्त्र ७,४६।६३ एभ्यो रक्षा प्रकर्तव्या ४, ७० । ११४ एव चतुर्दमे स्थाने ८, ७२ । ११५ एतच्चतुर्विधासत्य ३, ५१ । ३३ एवं चिन्तयतश्चित्त ६,३८ । १२७ एतत्पन गृहीत्वा वं ११, ८ । १३८ एष त्वनिह्नवाचारो १, ५१।६४ एतत्पत्नप्रभावेण ११, १० । १३८ एषा शरीरवृत्तिहि ४,६६। ५५ एतत्समयपर्यन्तं ६,११४ । ८५ एषाम्रक्षणी वृत्ति ४, ५० । ५१ एतबन्यामिधानं च ३,५०॥ ३३ एषणा समिति प्रोक्ता ४, २६ । ४८ एतस्य धारणे शक्तिर् १०, ३०११३६ एषा हि गोचरी वृत्ति ४, ४२ । ४६ एतस्मिन् हि गुणस्थाने २, ४७ । १९ एषामाचरण शेयं ७,६०।६६ एसयातिरिक्तानि २,३५। १७ एषा यस्य परित्यागो १२, ६७११५७
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i ttil
एषामावानवेलायो ५, ६५। ५२ का नाम स्पृहा पुंसां । । ३५ एषां विषिर्वहि श्यो ७,७२।६७ कान्वारे मार्गतो प्रष्टं ६,१.१८३ एषो स्वरूपमवाहं ७,४।८७ कामपि बेणिमारो? २, २५ । १५ एषां विषप्रभावेण १०,६।११३ कामिनीकुचकक्षादि ३, १०६।४३ एषु यः सन्धिकालो- ७, २८1० कामिनीकोमलस्पर्श ५,४।५४ एषैव भ्रामरी वृत्ति. ५, २६ । ४६
कामिनीकोमलाम्गंच १,१०। ७ एषोऽस्ति वाचार७, ११४ । १०४
कायगुप्तिवंचोगुप्ति ७, ५६ । ६६ कायक्लेशस्य संप्रोक्ता ७,६४ । ६६
कायवृद्धी सहाया ये ३, ११०। ४३ ऐलकः कुरुते लुञ्च १२, ११४ ॥ १६०
कार्य बिहारकाले च १०, २६ । १३५ ऐलक पाणिमोज्य- १२,११३ । १६०
कायोत्सर्गस्य बोध्या ६, १२० । ६६ ऐलकवत् परिशेय- १२, ११७ । १६०
कायोत्सर्ममयो वच्मि ६, १०१।८३
कालशुविविधातव्या ५, २६ । ६० मो
कालादनन्ताद्ममता ६, ७३ । ७६ भोपामिकसम्यक्त्व १३, १७।१६४ कालाचारादिभेदेन ७, २५। ६०
कालस्योल्लानं दाने १२,७१११५४
काश्चन क्षीणस. १०,६।१३३ कजकिञ्जकपीताभ ५, १६ । ५६ काष्ठाव्रतस्य मर्यादा १ ६२।६ कणोऽपि विद्यते यावन २, ५२ । २१ कुरुते स्थितिकाण्डानां २, १२ । १६ कण्ठीरवसमाक्रान्त ८, १२ । १०८ कुर्वन्नेतानि सर्वाणि १३, ३३ । १६६ कषिता एषणादोषा- १, ३५ । ४८ कुलीनतायामारोग्यं ८, १०६ । ११६ कदाचिद्भावषिल्य- १३, ३५॥ १६७ कुटलेखक्रिया निन्या १२,४५। १५० कन्दपंपच कोत्कृष्यं च १२,५६ । १५२ कृतापराषशुद्ध्यर्थ ७,७४ । ६८ करणानां विशुचिर्या १,६८।११ रुविरम्यविवाहस्य १२,५०। १५० करोस्यातापनं योगं ७, १२१ । १०५ कतिकर्माणि कार्याणि १, ३१ । ६६ कर्मविश्वयोगेन ३, २६ । ३० कृत्वा क्षायिकसदृष्टि २, ७० । २२ कर्मणां पूर्वबढानां ८,६४ । ११७ कृत्वावर्षि मुनेः सङ्घात ७, ७८।६८ कर्मस्थित्यनुसारेण ८,८६ ११७ कृत्वा कालावधि सायो ७,७६15 कारिदुखीकृतमान ६, ३६ । ७० कृपाण स्वपाणी समाधि ६, ३६। ७. कर्मोदयवसाजीवा ८, ६६ । ११४ कृषीवला या लोके १२, ०५। १५३ कलिविजमते कालो ३, ६६ । ३७ कृष्णा नीला ६, ३० । १२६ कस्यचिद् अवने वह्नि १,१३ । ५० कमाविकार्येषु सदामि- ६,८१७ कस्यचिन्मृतिमायाति १०।११० केकिपिच्छंच १२,११५॥ १५० कामप्रियरवं श्रुत्वा ५, २०१४६ केकेन पतिका लोके ५८१ ५५
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सम्यवारिस पतामणिः केचित तिर्यग्भवा १३,१।१६८ मषिम्या सामन्या- १०,२५ । १३५ केचित्तिक्तप्रिया लोके ५, ११।५५ मतपूरणनाम्नीयं १,।१० कंचन वीर्यवैशिष्ठय- ६, ११६ । ०५ गल्लीलालतनूजेन प्र०, ११७१ केनोक्तस्त्वं मुनिया ३,६७। ४० पल्यूतिप्रमित नित्यं २,१५ । १४ केबलिषु भवेदेक ५६ । १३० गार्हस्थ्यावसरे भोगा ३; ११० । ४२ केवलिद्विकपादानां २, ६५ । २३ ग्रीष्मता सप्तभूखण्डे ७ १२३ । १०५ केवले व भवेदनस्य ६,२३ । १२५ गुणस्थानानि सन्यत्र ६, १४ । १२४ कोऽपि केनापि सार्थ १६ | १०० गुरुक्रमान्जयोरले ७,८५। १०० कोपीनमात्र धत्ते १२, ११२।१६० गुरुणा वसंस्कारो १,६७।११ क्रमशो वर्धमानेन १२, १३ । १५७ गुरु सम्प्राप्य तत्पाद १,२० । क्रोधलोमभयत्यामा ३१०४।११ गृहाण मुनिदीमा १, २५ । ५ कोषमानादिमावानी ७,३६।१२ गीणी गृहमध्ये या ४,४१४६ क्रोधेन मानेन मदेन ६,७६ । ७६ प्रीता केनचिज्जातु १,५६।११ क्वचिच्च तपसा साधं ७,८७।१०० ग्रहीत्वार्यावत सद्यो १०, ३४ | १५७ भणादेवोत्पतिध्यामि ५,२१ । ५६ महीतवतेषु प्रदोष- १,७०। ५३ क्षपकस्य स्थिति ११, २६ । ११ पौराङ्गी रोचते मा ५, २८1५७ अपकः सकलान ११, २८ । ११
छ क्षपकोणमारुनः २, २६ । १५ धृतदुग्धगुडादीनां ७,६६।६७ क्षमाप्रभृतिधर्मेण ६,६११७४ शायिकेतरसम्यक्त्व १३, १८ । १६४ चतुर्विधोपसर्गाणा ६, १०५। ८४ क्षायोपमिकझान ६५५ । १३० चतुर्विशतितीर्थेशां ६, ३२ । ६७ क्षीणे वा स्युपशान्ते वा २,२८ १५ चतुविशतितीर्थेशा १,४६।८ क्षत्पिपासादिना जातं ११, ३२ । १२ चतुर्विशतितीर्थश६,१४। ६२ क्षुद्रजन्सुकरक्षा ४,११।४५ चतुर्थात्सप्तमान्तानि ६,३३ । १२७ ल्लिका धाविका १२, ११८ । १६० चतुर्थ चापि जीवानां ६, १६ । १२४ झल्मिकायां व्रत १०, ३५ । १३६ चतुर्दशं च विशेय , ३६ । १२७ क्षेत्रवास्त्वो रुपममम १२, ५२ । १५१ चतुर्णिकायभेदस्वाथ् ३, ४२ । ३२
चतुर्मासापराधेषु ६८। ७५ बण्डयत्येव स्वस्र्या ४, १५ । ४५ पर्याय सह गन्तव्य १०, २३ । १३५
चल मनो वशीकृत्य ७,३८। गज एको पलं पीत्वा ५, २२ ॥ ५६ चारित्रं लभते कोऽत्र २.२ । १२ मतवेदेषु जायेत ६,५५। १३० पारित्रचिन्तामणिरेष प्र०, १११७० गतिभेदेन जीवाना ३,६।२८ चिन्तयन्स्यात्मरूपतु ३० । ५७
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पक्षानुक्रमणिका
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चेतसश्चञ्चलत्वं ष १२, ६२ १५३ शेयः स भक्तसंख्यान. ११,१६१२६ सवण्डपरित्यापात १,५८६
त वर्षमान भुवि वर्षमानं ६,५८१७१ छेदाभिधान तोयं ७, ८२।६८ त एव मुनयो पीरा ५, ३३ । ५८
त एव शिवमायान्ति ८, ४७ । ११२ जगज्जीवधातीनि १, १७॥ ६४ ततश्च क्लीववेदस्य २,४६ । २० जघन्यसमयो केयो ११, १७ । १३६ ततश्च मर्यवेवस्य २, ४७ । २० जयति जनसुबन्ध- ६, ४५। ७१ ततोऽसंख्यगुणश्रेण्या २,५३। २० जमस्थलाप्रचारित्वात् ३, ४१ । ३२ ततो ध्यानस्पं निशातं ६, २२ । ६५ जलस्य भेदा विद्यन्ते ३, २४ । २६ ततो मुमुक्षुभिर्मोहः २, ६३२४ जल हि जलकायस्य ३, १५ । २८ तत्वज्ञानयुतो भीतो १,१४।२ जनाना क्षुद्रमाचार ३, ७१ । ३७ ततोऽनुभागकाण्डानां २, ७५ । २४ जाताम् धर्मात्मनां दोषान् ७, १७१६ सत्सत्यप्युदये तस्य १३, १२ । १६३ जायन्तेऽसंशिना किन्तु ६६३१ १२१ तज्जल मधुरं वा स्यान् ४,४४।५० जिनवाणीसमभ्यासे १०, २७ । १३५ तस्यापि सत्यभागेषु २,७६ । २४ जिनधर्मप्रसाराय ५,५। १५ तस्या हरणसभीति ४,६०। ५२ बिनवाक्यमिद श्रोतु ४५। ६३ तत्र मुक्ते चिरं ११,४१।१४२ जिनवाणीप्रसाराय १२,००।१५५ तत्र तस्गन्तिमे भागे २,८१।२४ जिनाशाभङ्गतो नन प्र०, ७।१७१ तत्राप्यदोषचारित्र ८,१०७ । १४६ जिह्वन्द्रियरसाधीमा ५,६।५५ तव सा परिशेया ६,६२।१३१ जीवजातिपरिज्ञान ३, ८।२७ तत्रानिवृत्तिकालान्ते २, ६७ १२३ जीवहिंसानिवृस्पर्ष १,५६1 तव निखिलं लोकं ८, १५ । १०८ जीवन जन्तुवातस्य ८,६।१०७ तद्धन सह सन्तु ११, ५ । १३८ जीवाः सम्यक्त्वसंपन्नाः १०,४।१३३ तद्धन सार्षमानेतु ११, ३।१३८ जीवानामत्र सन्यत्र ८,५१ । ११२ सध्यानं कथ्यते लोकः ७, १०३।१०२ जीविवाशंसनं जातु १२, ७२ । १५४ सदा सर्वेन्द्रियाधीना ५, ३६ । ५८ जीवे जीचे सन्ति मे ।६० तदा स्वभावमास्पृश्य ६६५। ७५ शानदर्शनचारितो ७,५६।१०० तदा गेहादयो बाझा. ८, ५५ । ११२ मानाचारस्प सभेदा ७, ५८ । ६५ तदेव सत्या मुवि. ३, ११७।१४ मानोपकरणत्वेन १,६२ । ५२ तस्यां स्थित्यनुभागो च ८, ६५ ॥ ११४ जानोपकरणादीनां १, ३६।६ तहि कायश्च ३, १८१२५ माताहण्टस्वभावाः १०१०।१३३ तथाहि निर्मले साधी ५.६८ । १० शावाहष्टस्वभावो ६४।७५ सपा जिलेन्द्रियाधीना ५.१० । १५
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१६६
तथावद्विविदन्द्र ८,७५ ११५ तथामन्दमानन्दमाचन्त- ६,२३ । ६५ तथा शीलानि सत्य १२, ७६ । ११५ तथायं मनुज स्वस्य ११, ४ ११३८ तथाप्यत्र न कर्तव्य १३, १० | १६३ तथा प्रयास कर्तव्यो
३, ५७ । ३५
तथायमौदरो गर्त
४, ४७ ॥ ५०
तथा कामेन्द्रियाधीना
५, ७ । ५५
सम्यक्वारिच-चिन्तामणिः
तथागत मनुष्यत्व तथा क्षेत्रमपि त्याज्यं
८, १२३ । १२१
३, ६७ । ३६ ४, ४५ ।५०
तस्य प्रशमने हेतु : तस्य स्यागो नृभिर्यस्य तस्मिन् भवेन ते
१, ३१।६
१३, २२ ॥ १६४ ६०१८ । १२५
१५ । २
तन्मिश्रे ननु विज्ञेयं तमादिदेव सुरजातसे वं ता त्यक्त्वा मुनयो यान्ति ३, ८५ । ३८ तासां मुखाकृति दृष्ट्वा १०, १५ । १३४ तारुण्यभावे कमनीयकान्ता ६, ७६ । ७७ तात्पर्यमिदमेवात्र ११,११ । १३८ तान्येव सूरिभि. प्रोक्ता ८, ६० ११७ सावदन्तरमस्त्यत्र ५, १६५६ तिर्यग्गत्यनुवादेन ६, ६२ । १२८ तिर्यवोऽपि समायान्ति १३,३६ । १६७ तिरश्चा विकला वाणी ३, ५६ । ३५ ६, ५ । १२३
तिर्यग्गती भवेदाद्य तिष्ठेदन्तमुहूर्तेन
२, ४५ । १६ ७, ६६ । ६६
षष्ठमादीन
तेभ्य पिच्छस्य निर्माण ४, ५७ । ५१ तेषामभिमुखत्वेन
तेषु जिनेन्द्रदेवस्य
६, ६२ । ७४ १२, ७६ । १५५ तेषां पुरा गृहस्थानां ५, १५ । ५५ तेषा कृते प्रयासोऽय १२, १२० । १६० त्यागश्चानयं दण्डस्य १२, १६ । १४६
त्यक्त्वा प्रमादं वपुषि ६ १२१ । ८६ त्याज्या मनस्विभि- १२, ५८ ।१५२ त्वयाञ्जनाद्या विहिता ६, ८७ । ७६ सस्थावरजीवाना १,२७ ॥ ५
त्रसेषु त्रिविध शेय सतायां च संशित्व ८, त्रसेषु सन्ति सर्वाणि त्रयोदश गुणस्थान
त्रिविध जायतेभव्ये ६, ६१ । १३१ त्रिविधा विदिता लोके ३, ८८ । ३६ त्रिशदवर्षाणि यो धाम्नि २,१६ । १४
त्रीन्द्रियो गदिना लोके ३, ३७ । ३२
प्र०, ८१७१
त्रुटीनां शोधने कुर्यु
•
६। ५१ । १२६ १०५ । ११६ ८, १३ । १२४
६, ६ । १२३
健
दत्त परेण नाप्नोति
दत्वा निर्ग्रन्यसन्दीक्षा ददाति यादृशदुःखं ५, १७।५६ दर्शनिको व्रती चापि १२, ६० । १५६ दशम धाम सम्प्राप्त २, २३ । १५ प्रोक्तं १२, ३७ । १४८ दावानलेन सव्याप्ते ८,१४।१०८ दारमात्र परित्यागी १२, १०६ । १५६ दिवा दण्डमितं भूमी १, ३३ । ६ दिवा विलोकिते स्थाने ४, १० । ४५ २,१६ । १४ १२, ८५ । १५६ १२, २० । १४६
६,१० । ६१
५, २५ । ५७
८,
१२२ । १२१ १२ ६८ । १५३
दीक्षित्वा ह्यष्टवर्षाणि
दीनहीन जना लोके दीयते य. स पापोपदु.खे सोपे बन्धुवर्गे दुर्गन्धे वा सुगन्धे वा दुर्लभ मानुष लब्ध्वा दुष्पक्वस्य पदार्थस्य दृष्ट्वेष्टं सुखसम्पन्न दृष्ट्वा कथं विरक्त
८, ३५ । ११०
१, २२ । ४
८, ४११५९
२६ ॥ १०६
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________________
दृष्ट्वा रज्यन्ति ८१.११११८ पावमाना गना गर्ने ५, ६ । ५४ देवगत्यनुवादेन , ४७ । १२८ ध्यानानले येन हुताः १,१११ देवशास्त्रगुरूणां यो १२, ६५१५७ ध्यायन पञ्चनमस्कार ११, ४० । १५२ देवायुपयित्वाचे १३, २१ । १६४ व्यानेन मित्वा भव- ११ १२२ देशवतेन सयुक्ता १३, ४० । १६८ ध्यायं ध्यायं जिन- २,६४।२५ देशव्रतप्रभावेण १३, ३८ । १६७ धुतसामायिकच्छेदो १,७०।११ देशवृत्तयुता शेया १२, ३४ । १४०
न केनापि कृतो लोको ८, १५ । ११८ देशचारित्रसम्प्राप्त्यै १३, २।१६२
न गुणस्थानरूपोऽह ८,४४॥ ११२ देशव्रतयुता केचिन् १३, ३६ ॥ १६७
न दृश्यन्ते महीमागे ८,६१०७ देहससारनिविण्ण १२, ४ । १४४
न दृश्यते बली रामो ८,५।१०७ देहरागेण संयुक्ता ८,५८ । १०३
न मन्द नातिशीघ्र च ,६।१५ देहस्याशुचिता नित्यं ६, ६१ । ११३
न वन्देत मुनि क्यापि ६, २७ । ६६ देहप्रमान्यक्कृतपन- १,३८१७० देवसिकादिभेदेन
नरकेषु निगोदेषु ३, ६६ । ४० ६, ६६ । ७५
न निषिद्ध मुनीन्द्राणां ६३ । ५२ दोलेव मारती यस्य ४, २६ । १७
नरी सुरी तिरपची च ३,७६ । ३७ यक्षप्रमतयो जीवा ३, ३६ । ३२
न रसोऽह न पुण्याढयो ८, ४५ ॥ ११२ धूत मांस च मद्य च १२,६६ । १५७
न में कश्चिद् भवे नाह १,२१ ।। द्रव्य क्षेत्रं च काल व ११, २७ ११४१
न सन्ति केचनास्माक १०,८।१३३ दादशवतसपन्नो १२, १०१।१५८ द्वादशेभ्योऽनुप्रेक्षाभ्यो ८,७७ । ११५
म स्यावत्र गुणश्रेणी १३, ३२ १६६
न हि शास्त्रस्य विज्ञस्य ७,५१ । ६४ द्वितीयादिपृषिव्यां च । १२३ द्वितीयोपशम य ६२४ । १२७
नाहं नोकर्मरूपोऽस्मि ८,४३ । ११२ द्विविधा गदिता लोके ३, ४० । ३२
नाह क्लीवो नेव भामा १०,१११३२ द्विषन्ति मानवास्तेऽत्र ८, १०३ । ११८
नारके किपती बापा ११, ३४ । १४२
नादरोगालित नीरं १२,६६। १५७ दिहषीकात्समारभ्य ६११ । १२४
निःशकत्वादिक प्रोक्त ७, १२ । ८८
निहत्य कर्माष्टकशनु- १,२।१ धनधान्यादिवस्तूनां १२, १३॥ १४५ निगोदाद ये विनिर्गस्य ३, ३१ । ३० धनुर्वाणादिहिंसोप- १२, २१ । १४६ नित्येतरविमेवेन ३, २८ । ३० धन्यास्ते मुनयो लोके ५, १३ । ५५ नित्यं न विद्यते किंचिद् ८,३।१०७ धन्यास्ले धन्यभाषा-१२, ११६४१६० मिन्दायां स्तवने यस्य ... ... " धर्महीना न शोमन्त ८, ११1१२१ निदान चेति विशेया १२, ७३ । १५४ धर्मेण परिणीतायाः १२, १२ । १४५ नियमेन स्वयं यान्ति १३, ४३ । १६८ धर्मोपदेशनामा स । १०१ निन्यसां तु सन्धतुं ३,१००।४.
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सम्यकमारित-पितामविः निरवधायुक्तस्य ७,६४।१०१ परिणामषिबपादयः १३, २५॥ १६५ निर्गत बीविते जोर ८, १६ । १०८ पर्याप्तकेषु सम्यक्त्व १० । १२८ निर्गन्पमुद्रयोपेता १२, १३ । १५५ पर्याप्तो जागृती योग्य २, । १२ निर्जीर्णा यत्न जायन्ते ८,८८ । ११७ पश्यति पाससम्पृक्तं १,४०1४६ निलिम्पा ऊर्ध्वसभागे ८,६७ । ११८ पाठस्य विस्मृतिश्यते १२, ६३॥ १५३ निवेदयन्ति तान् भक्त्या १०, ७।१३३ पादाभ्यामेव साधूना ४, १४ । ४५ निशाया अपराधेषु ६,६७ । ७५ पावविशेपवेलायां १, १२ । १५ निषेधो यत्र जायेत ३, ४६ । ३५ पादयाव कर्तव्या १०, २८ । १३५ नैन्थ्यवतरक्षा ३, ११५ । ४३ पादयोरन्तरं दत्वा १०३ । ८४ नोदुम्बरादिकं भुखपते १२, ६८ । १५७ पादौ प्रसार्य भूपृष्ठे ८,६४।११८ न्यायालये हन्त विनिर्णयापं ६, २२।७८ पानभोजनवृत्तिश्च ३, १०३ । ४१
पापेन प्रापं वचनीयरूप ६, ८६ १७६ पञ्चम वा तुरीय वा २, ३३ । १७ पिच्छपक्तिसमास्फाल्य ४, ५५। ५१ पञ्चशतीसमुन्छवासा. ६, १०६।८४ पिता नरकमायाति ८,३६ | १११ पञ्चषट्सप्तहस्तैश्च ६, २५ । ६६ पीयूषनिझर इव १,१६।४६ पञ्चाक्षा. सन्ति लोकेऽ- ३, ३८ । ३२ पुरस्तादात्मवीर्यस्य ७, १२० । १०५ पञ्चाचारमयं तपो- ७, १२५॥ १०६ पुरावंचितवितेषु १२, १००। १५६ पञ्चाचारपरायणान् ७,११८७ पुवेवस्य भवद्रव्यं २, ४८ । २० पञ्चाचारमथो वक्ष्ये ७,२।८७ पुष्योदयात्परं ज्योति: १०, ११११३३ पञ्चेन्द्रियेषु जायेत ६५० । १२६ पूर्व परिग्रह त्यक्त्वा ३,६३ । ४७ पञ्चेन्द्रियेषु सन्त्येव ६, १२ । १२४ पूर्वोक्ताना कषायाणा १३, १६ । १६४ पश्चादन्तर्मुहूर्तेन २, ५० । २० । पूर्ण करोति जीवोऽयं ८, २८ । १०६ पश्चादन्तमुहर्तन २, ५६।२० पूर्णासु द्रव्यनारीः ६४६ । १२८ पश्चादन्तर्मुहूर्तेन २, ६६ । २३ पूर्वाह्न छपराहे च ७, २७ । ६७ पन्नालालेन बालेन प्र०, ५। १७१ पृथग्भवन्ति जीवेभ्यः ८, ८७ । ११७ पठनं बहुशास्त्राणा ४, ६४ । ५. पृथ्वीदेहस्थितो जीवः ३, २० । २० पण्डिताऽध मृति ११,३८ । १४२ पृपिवी पृथिवीकाय. ३,१४ । २८ परः परस्य कर्तास्ति ८,४० । १११ पृथिव्यप्तेजसाम्मेदाः ३, १३ । २० परदव्याविभिन्नस्य ७,७ । ८८ पृथ्वीजीव. स विशेयः ३,२१ । २६ पराजितो विधीयताम् १३, ४७ । १६६ पुषिवीकायिकजीवेन ३, १६।२८ परिहारविशुद्ध्यास्य २. १६ । १४ पृथ्वीतीये वहिवायू च ६६।६० परिहारविशुद्ध्या-६, ५८ । १३१ पृथग्वितकवीचार ७, ११३ ॥ १०४ पारहाराभिधान तद ५ ६ पृष्ठबटमहामारी ३३१६२
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पचानुक्रमणिका
प्रकृत्यादिविभेदेन
१२ ७ । १६३
प्रभात स्थितिकाण्डान २, ७४ । २४
प्रणम्य भक्त्या भवभञ्जनाय १, ६२ प्रतिक्रमः स विज्ञेय ७, ७७ । ६८ प्रतिक्रमणं च प्रध्यायान १,४६ ६
प्रत्याख्यानमयो वच्मि ६, ६६ । २० प्रस्यास्यानं व तज्ज्ञेयं ६, ६० | ५० प्रत्याख्यानातेरस्ति १३, ११।११३ प्रत्याख्यान तनुत्सर्ग
६, ५ १६०
प्रत्याख्यानातेर्जा
१, १५ । ४
३, ३६ । ३२
६, २४ । १२५
प्रत्येकास्त्र सजीवास्तु
प्रथमं द्वितयं ज्ञेयं
"१८४
६,१११।११६
प्राप्नुवन्ति शिव प्राप्तो न पारो विदुषां ६, ४७ ॥ ७२ प्रायोपगमनं चान्त्वं प्रायोपगमने सैषा प्रावृट्कालेऽपि
११, १४ । १३६ ११, १६ । १४०
७, १२२ । १०५
प्रोक्ता झालोचना
७, ७६ । ६६
बद्धदेवेतरायुडको
बम्बमाप्नोति तावा aareerणादीनि
१, १७ । ४ ८, ८१ । ११६ २,१० । १३ १,१८।४
बन्धुवर्ग समापृष्ठघ बालबाerseer
बाला युवानो विधवा
११, ३७ । १४२ ६, ८० ॥ ७७ ६, ७८ ७७ ८,८१०७
बाल्ये मया बोषसमुबाहू देतण्ड शुण्डाम बाह्रीकाभ्यन्तरोपध्योः ७, १०० । १०२ बोधी रत्नत्रयं नाम ८, १०६ । ११६ ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ ब्रह्मचर्यपरिभ्रष्टाः ब्रह्मचर्यस्य शुद्धयर्थं
३, ११३ । ४३
३, ७४ । ३७
१,५७१६
भ
३, ६ । २७
प्रथमाद्वा चतुर्थाद्वा २,५।१२ प्रदर्शनं स्वरूपस्थ १२, ५७ । १५२ प्रमत्त योगाजीवानां प्रमत्तयोगाचज्जीव ३, ४५ । ३५ प्रमादनिद्रितां दशां १३, ४६। १६६ प्रभादाद् यदवत्तस्य ३, ६३ | ३६ प्रमादमान्मनसा मयैते ६, ७७ । ७७ प्रमादतो ये बisreeषाः ६,६६ १८३ प्रमादरहिता वृति.
४,४४५
७, ३६६२
भक्त्या जिनेन्द्रदेवस्य १२,७७ । १५५ भगवन् संम्यास
११२५ १४१
भव्या इमा द्वादश भव्या निकटसंसारा
प्रवृत्तिरेषा साधूना प्रशंसाशब्दमाकर्ण्य ५, ३२ । ५८ प्रशस्तं दर्शनं तत् स्यात् ७, ६ । ८६ प्रश्नोत्तराणि कार्याणि १०,२६ । १३५ प्रहृतं रिपुचक्रमर सुदृढ ६, ५१ । ९२ मार्गहसाव्रतं वक्ष्ये ३, ५ । २७ प्राच्यपाच्यादिकाष्ठासु १२, १६ । १४६ प्रातर्मध्याहृन्ध्यासु १२, २८ । १४७
८, १२४ । १२२ १३, १६ । १६४ भरतो दु.खसम्भार ८,२३११०३ भस्मयन्ति निलित्वा ८ १७३१०८ भाषतः सयमो यत्र १३, ३७ । १६७ भाविकाले विधास्यामि १,५२ । ८ resent २, ३१ । १६ भाषायाः सौष्ठवं प्राप्य ४, २२ । ४७ प्राप्तीदयकवायाणां १३, १४ । १६४ भ्रान्तचित्तः स सम्भूय प्राप्नोति देश- १३, २७ । १६५ भूवेन्द्रियालम्पटप्राप्नुवन्ति महादुः ६२७ । १०६ • भूतकालिक दोषाणां
३, ६६ । ३६ ६ ६६ ६२ ६६६३ । ५२
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२००
भूतकालिक दोषाणां १,५१।८ भूत्वा पुरस्ताद्भवतो ६, ७५ । ७६ भूमिशय्या विधातव्या १०,२१ । १३५ भूयोभूयो भ्रमित्वाह ८, २४ । १०६ मोगाकाक्षामहानद्यां ८, १२१ । १२१
भोजने परिधाने च
३, ६० १३८
भोगाकांक्षा विशाला
११२ । १२०
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
ܟ
६, ३७।७०
भोगा भुजङ्गा न भोगोपभोगकांक्षायाः भोगोपभोगवस्तूना १२, ६० । १५२
७, १४ । ६
भेदाः सन्ति प्रमा
८, ६८ ।११४
मैक्ष्यशुद्धि विषा
३, १०६ । ४२
मति तावधिज्ञाने २२ । १२५ मनसि ते यदि नाक- ११, ४२ । १४३ मनोवाक्कायचेष्टा १२, १८ ।१४६ मनोवाक्कायचेष्टा या ८, ६४ । ११४ antarantayati ८, ७६ ११४ मनः शुद्धि विधायैव
मनोशे ह्यमनोशे च
६, ७२ । ७५ १, ४३ । ७ २, ३ | १२
मनुजः कर्मभूम्युत्यो मनुजस्तत्परित्यागो
१, ३० । ६
मन्ता यो वै वेदतत्वायं ६, ५३ । ७२
१२,७८ । १५५
मन्दिराणि यथामलमूत्रादिबाधाया
१, ३७ ॥ ६ मले मलस्य पातो न ४, ६८ ५३ ममास्ति दोषस्य कृति: ६, ६६ । ७६ महाव्रतं भवेत्साधो ३, ४४ । ३२ महान्तमादरं तत्र ३, ७६ । ३८ महाव्रतानि संघस १०, १८ । १३५ मातातातर जावीर्या ८, ५३ । ११३ माता तात. पुत्रमित्राणि ६, ११ । ६१ माता स्वसा पिता ८,१३ | १०८
माधुर्यादिवृतीनां मासद्वयेन मासैस्तु मासद्वयेन मासंस्तु
मायाया नवक मुक्त्वा २, ५५ । २० मिथ्यात्वादित्रिकं चेति २, ३८ ११८ मिथ्याहशामबन्धोऽस्ति ८७८ ११६ मिथ्याहमपि लोकेऽ- १३, २००१६४ मिष्टवा सबलवा- ११, २४ । १४० मुक्त्वा ह्यावश्यक १२, १०८ । १५६ मुनिधर्मस्य शिक्षायाः १२, २५ । १४७ मुनयोऽपि सदा वन्धाः १२, ८४ । १५६ मूलस्य रक्षणं कार्य ८, मूलतोऽविद्यमानेऽ
११६ । १२०
मृगतृष्णा जल शात्वा मृदुकर्कशभेदेन
मे मे मे इति कुर्वाणा
४, ३६४६ १०, २२ । १३५ १, ५५ ६
मोहमल्लमदभेदन धीरं मोहनिद्राशमात्साधु. मोहादिसप्तभेदानां
३, ४६ । ३३
३, ५८ १३५
३, २० । २६
८, ४६ । ११२
६, ५२ । ७३
८, ८२ । ११६
७, ८ ६८
मोहध्वान्तेनावृतोद्बोध- ६, १२ । ६१ मोहस्य प्रकृती सप्त मोहध्वान्तापहारे
१, १३ ।३ १,१० । ३
यज्ज्ञानमार्तण्डसहस्रयत्र शास्त्राध्ययनेन
१२, १ । १४४ ७, ६२ । १०१
७, १६ । ८६ ११,२।१३८ ७, १३ । ८६
यत्र दृष्टिनं मूढा स्यात् यथा कश्चिद् विदेशयथार्थाः सन्ति नास्त्ययथायथोद्र्ध्वमायाति १२, ६ । १४५ यथा कृषीवलाः क्षेत्र ४, २ । ४४ यथा लोहस्य संसर्गा-८, ५०।११२ यथा यथा हि जीवोs ८, ७१ । १९४ यथार्थ सुखलिप्सा ते ६, ६० | ११३
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बयाण्यात विवं, ५६१३१ वेषां चकारीरे स्युः ३, २७।३० यथा तषिदेहोऽयं १,४६ । ५१ येषामारमा पराग्ज्युरवा, ५२११२ पमा मधुकरः पुष्पात् ३,३७ । ४६ येषु वेकारीरस्य ३, ३२।३० पया खलीनतो होना १,४५। ७ वैरिन्द्रियाणि स्ववशी- २,१।१२ पपानलस्य ससर्गाद ३, ८१४३५ योगाः पञ्चदश प्रोक्ता ८,६६११४ यथा सतोऽपि देवस्य ३, ४७ । ३३ यो वर्तते यस्य निसर्गजातो १, ८।२ पक्षाविधि यथा प्राप्तं १, ३० । ४८ योग्यास्त एव सन्त्यत्र १३, २३ । १६४ यह दुर्लभ जात्वा ८, १०८।११६ यो नो जितः कर्मकलाप-६, ३४ । ६६ यदि वेदकसम्यक्त्वी २,७ । १३ यदीयसङ्गमासाथ ८,५६ ॥ ११३
रक्तपीतारविन्दाना २, १८ ॥ ५६ यव्यम्जनस्य यो ७,५४ । ६५
रक्षार्थ तस्य भाषाया। १, १७ । ४६ यद् वस्तु यया चास्ति ३, ५६ । ३५
रक्षित धर्म एवास्तिक, ११५। १२० यद्वावश्यं च यत् कृत्यं ६,४।६०
रजतस्वर्णलोहार ३, २३ । २६ यस्य पुरस्ताद रिपुवर ६, ४६। ७२
रजन्याः पश्चिमे भागे १.६१।६ यः स्वभावादशुद्धोऽ- ८,५४ । ११३
ररक्ष कुन्युप्रमुखान् ६, ५० । १०२ यस्यास्यकान्त्या जित- ६,४०1७०
रलत्रयेण संयुक्ता १२, ३३ । १४८ यश्चात नित्य गत- १२, २०१७
रत्नत्रयं क्षमावाश्च ८, ११७ । १२० याच सक्लेशबाहुल्या- २, ३०।१६
रलप्रमादिभेदेन ३,१०।२८ य जन्मकल्याणमहो- ६, ५७ । ७३
रागद्वेषव्यतीतस्य यादृशे पुण्यपापे च ८, ३४॥ ११०
६,६०। ७४
रागद्वेषादिवृद्धि १२, २२ । १४६ यावज्जीवापराधाना ६,७०१ ७५
रागद्वेषौ परित्यज्य ८,४२। १११ यानि स्वय सन्ति महा- ३,२ । २६
रागदेषो यस्य नाशं ५, ३८ । ५६ याभिस्स्यक्ता मोह- १०, ३७ । १३७
रागद्वेषो निराकृत्य ६, १३ । ६१ युगपत् नपयेत् साधुः २,७८ । २४
रापद्वेषप्रवाहस्य ७,६६।१०१ येन मितासि मषी ६, ३३ ॥ ६६ येन निन्धमुद्राया ३,६०।१०
रागादीनां विभावाना ३, १३ । ३२
रातिमध्ये न पो १२, १०५।१५६ येनातिमान. कमठस्य ६, ५६ । ७३
रात्रिभुक्तिपरित्यागी १२,६१.१५६ येन स्वयं बोधमयेन लोके ६, ४४७०
रामराज्य प्रशंसन्तो ३, ७० ॥ ३७ येनासिना ध्यानमयेन १,१५४४
रुद्रस्य क्रूरभावस्य ७, १०७ । १०३ ये नराधर्ममावत्य क, १२० । १२१
रोषं तोष व विघ्राणाः ५, २६ । ५७ ये भुज्यन्ते सकूद- १२, ३० । १४७ येषां देहे न सन्स्यन्ये ३,३४।३० वेषामासयमासाथ ३३।३० लावण्यलीलाविजितेन्द्र
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२०३
सम्यकमारित्र-पितामणिः लुञ्चिताः पाणियुग्मेन १, ६६ । ११ विदग्धोऽपि लोक कसो ११६१६१ लोककल्याणकारीणि १२,७११५६ विद्यालयाश्च संस्था- १२,८११५५ लोकरूपं विचिन्त्यात्र ८, १००।११८ विद्वांसो दानमाना- १२, ८२। १५५ लोके प्रसरदज्ञानं ७, २०१६ विधिना परिणीता या ३, ७५ । ३७ मोकोऽयं सर्वतो ८,१०४ । ११६ विधिना नित्यश १०, १६ । १३५ लोचावेलस्यमस्नान १,५४।६ विषिना कृतसंन्यासो ११, ३६ । १४२ लोचनदर्शने चाप्य ६, २८ । १२६ विनयात्तीकृत्त्वस्य ७,८८ । १०० लोभानिलोकोलितधैर्य-६, ८५। ७८ विनयात्प्रच्छन श्रोतु. ७,६५। १०१ लोभावा क्षेत्रवृशिश्च १२, ५५ । १५१ विपद्यमानं भुवनं ८,१११०६ लोल्याव सचित्तसंसेवा १२, ६७।१५३ विपद्योत्पवमानोऽह ८, २५ १०६
विपिने मुनिभियुक्त १, १६ । ४ वक्तव्या सततं पुम्भिः ३, १२ । ३५ विपुलर्तियुता भूपा ३, ६८ । ३६ वधिकानां शरभिन्ना ५,३४ । ५८ विरला एव सन्तीर्णा. १०, १७ । १३४ वनिता रागवधिन्यः ३, १०८ । ४२
विरुवाहारपाने ५, १२ । ५५ वन्दना मुनिभिः कार्या ६, ३० । ६६ विलपन्तं नरं दृष्ट्वा ११, ७ । १३८ वन्दनायां च भावेषु ६, ११३ । ८५
विविक्ते यः स्थितः ७, १०१ । १०२ वरबोषविरामशरेण हि ६, ४६ । ७१
विविक्ते यत्र जायेते ७, ७० । ६७ वर्धमानविशुद्धपादयः २,६।१३ विशुद्धचा वधमानोऽयं २,८।१३ वलाहकाबली दृष्ट्वा ६, ५४ । ५१ विशुम्भावनायुक्ता ६, १०४ । ८४ वसुराणस्य यद्वाक्यं ३, ५४ । ३४ विष्टरादिपरित्यागे १०, ६० ।। वस्तुतत्त्वं विमण्यात्मन् ८,१०।१०७ विहरन्ति कदाचिद् वै ४, ६ । १५ वाकशदेरपंशदेश्च ७, ५५ । १५ विहरन्तु चिर लोके १०, ३६ । १३७ वाचां गुप्तिमंनोगुप्ति ,, १०२१४१ विहत्यार्यखण्डे ६, २० । ६५ वाचना प्रच्छना पाप्य ७,६३ । १०१ वीणावेणुस्वरादीनां ५, ३१ । ५८ वात्सल्यमूर्तयः सन्ति १०, ३५॥ १३७
वीर्याचारमचा- ७, ११७ । १०५ वाधकप्रकृतीनां यो १३, १३ । १६४ वीर्याचारस्य मध्ये ७, १२४ । १०५ बानादिदेवयोनिषु ६८ | १२८ बीयं च पञ्चधा सन्ति ७, ३१ ८७ वायुहि वायुकायश्च ३,१७।२८ वृतं मुनीनां गुहि- १२, १२१ । १६१ वाष्पावरुटकाठास्ताः १०, १४१३४ वृक्षाप्येकाकिनी चार्या ३,२३५ वासरे होकवारं यः १,६३।१० वेदकशा समायुक्तः २, ६४ । २२ विगतानुमति किञ्च १२.६२ । १५० वेदकदृष्टिसंयुक्तः २, ३७।१८ विज्ञातलोकत्रितयं ५५ ॥ ७१ वेदकेन धुतः कश्चित् १३, २६ ॥ १६५ वितरन्ति मनुष्यपस्ते १,५६ ॥ ५१ वेदत्रयेण युक्तेषु ५३॥ ११०
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________________
★
वैयावर शरीरस्य ११, १५ । १३६ वैराग्यसमानममेयमाना ३, १ । २६ deareer ear
८, २१०७
६, २६ । ६६
व्याक्षिप्तं वा परावृतं व्यापाद्य लोकान् रहसि ६,६३७८ व्यापारगृहनिर्माण १२, १०६ । १६०
४, २५ । ४७
४, २५ । ४७
व्यर्थं वचनविस्तारं
व्रतेन रहिताः सम्यग्
श
शङ्का काङ्क्षा च शतहस्तमिते क्षेत्र
घात त्रयसमुच्छ्वासा'
शब्दस्योच्चारण शुद्ध शमयित्वा भवेज्जातु
शमयेन्नवक द्रव्य
tarasafoet
१२, ४० । १४६
७, ३५ । ६२
६, १०८ । ८४
७, ५३ । ६४
२, ३६ । १८
२, ५६ । २०
२, ५४ २०
शमयित्वापकालेन
शरीरागः सर्वेषा
८, ५७ ।११३ ७, ३४ । ६२
शरीरे रुधिरस्राव
शरीरे रागहन्तारं ६, १०२ । ८४ शशि शशि वाणाक्षि प्र०, २ । १७० शास्त्रज्ञानादिना जाते ७, ५० । ६४ शिक्षाव्रतं चतुर्थ स्याद् १२, २७।१४७ शिक्षाव्रतस्य विशेया. १२, ६६ ॥ १५३
२०३
श्रावकोऽयं यथाशक्ति १२, ०६ । १५६
७, *vi {
श्रोतव्यं बहुमानेना श्रेष्ठसंहननोपेत श्वगत्यां भवेदार्थ
शिरस्यं भारमुत्ता ३, ६१ । २६ शिर. स्था: श्यामला ८,७१०७ शुक्ललेश्या च विज्ञेया ६, ३० । १२६ शुक्लस्म रागकालिम्ना ७, ११।१०३ शुद्ध मनोहरं ७, ६७ । १०१ शून्यागारेषु वत्स्यामि ३, १०५ । ४२ समुद्रादौ १२ २४ । १४६
कैसे बने तडागे वा सौपकरणं कुण्डी मानं दर्शनं प्रोक्त
८, २० | १०८ ४, ५० । ५१ ७५७
७, १०२ । १०३
६, ३ । १२२
श्वासकासादिरोगाणां ७, १०६ । १०२
षष्ठान्नयमपर्यन्तं
uter] कृतीनां तु षोडशकर्मभेदानां
स
सकलबोधधरं गुणिनां ६, ५४ । ७३ सकषायस्थ जीवस्य ६, २१ । १२५ सकल्पाद्विहिता हिंसा १२, ७ । १४५ संक्लेशस्य हि बाहुल्यात् २, ३२ । १७ सचित्तभाजने दत्त. १२, ७० । १५४ सचितं वस्तु नो सच्छिद्र पोतमारूढो
१२, १०४ । १५६
सच्छिद्रां नावमारुह्य
संज्वलनाक्यमोहस्य सज्वलनस्य क्रोषादीन् सज्वलनस्य रोषस्य सति सूर्योदये मार्गे सते हितं भवेत् सत्य
संतोषस्तत्र कर्तव्यो
६, २५ । १२६
२, ७६ । २४
२, ७७ ॥ २४
सत्तास्वं सकलद्रव्यं सत्यं सुदृढनोकास्ति सत्येव बन्धविच्छे सत्वान् स्थावरहितासद्द्दष्टेरेव चारित्रम् सचः सततं ब्रूयात्
सघर्मभिः कुतालापो समचिः सह स्नेहो
८, ७४ । ११५ ८, ६३ । ११४ १३, ६ । १६३ २, ८० ॥ २४
२, ४६ । २०
४, ७ । ४५
३, ६० । ३५ ३, ६६ । ३६
२, ५२ २० १०, ४६ । ६३ ८, ७६ । ११६ १३,४ । १६२ १३, ५ । १६२ ३, ६१ । ३५
४, २१४६
७, १६६
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सम्यकचारित्र-चिन्तामा स निपानाद् विनिर्गस्य ३, ६४।४० ससारतापविनिपात- ६,३५६६ संन्यासस्त्रिविध. ११, १३ । १३६ संवेगवासज्वलितेन सापा-६, ६६।६३ सप्तहस्तान्तर स्थित्वा ३, ६३ । ३८ सवरमेव संप्राप्तु ८, ९३।११६ स बोधो दर्शनाचार. ७, २२ । ६ सविपाकाविपाकेति ८,८५। ११७ सम्यक्त्वबोधामलवृत्तमूलो ६, १।५६ सविपाकाप्रभावात्तु ८,८६११७ सम्यक्त्ववन्तोये ८,११६।१२१ सल्लेखना स्वात्महिता- ११,१११३८ सम्यक्त्व सहित ज्ञान ७, २३ । १० सल्लेखनासरिन्मध्ये ११, २२ । १४० सम्यग्व्यवस्था प्रविधाय य १,४१ सशिष्य. स विप्रो गुरु. ६, १८ । ६४ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः १२,६४।१५७ सहन्ते नारका भूत्वा ५,५ । ५४ समये समयेऽसंख्य २,४४१६ सहन्ते धैर्यसंयुक्ता ६, ११७ । ८५ संयमाव पतितो मर्त्यस् २, २६ । १६ सागसः सूरिवर्येण ७,८४ । ६८ सयमासयमे ह्येक ६, २७ । १२६ साज्वलनस्य लोभस्य २, ५८ । २० सयम प्रतिपद्यन्ते २, ३४ । १७ साधवः सुकुलीनाना ४,३४ । ६८ सयमलब्धिरित्येषा १,१६ । ४ साधारणश्च प्रत्येको ३, २६ । ३७ सयतासयता जीवा १३, ३४११६६ साधुनानुदिन कार्य १,४६।८ सयमासयमो लोके १२, ३ । १६२ साधो न विद्यते ११, ३३ । १४२ सयमासययप्राप्ती १३, ७ । १६३ सामायिक तथा छेदो ६, ५७ । १३० सवं चिन्तामणी प्रोक्तं ७, ११।८८ सामायिकाच्च्युतो सत्या २, १४॥ १४ सर्वथा परवस्तूना १,२६।६ सामायिक त्रिसन्ध्यासु १२, १०२।१५८ सर्वथा शान्तमोहोऽय २१, ६२ । २१ साम्यभावस्य सिपथं ६,७।७ सर्वसावासयोगं २, १३ । १३ सायं निमोलिते पो ५, २० । ५६ सर्वतीर्थकृता भक्त्या १,५०।८ सा सिद्धान्तविशेष. ७, १५। ६६ सर्वज्ञ सर्वत्र विरोधशन्य ६,७४१७६ सिंहनिष्क्रीगिता- ७, ११६ । १०४ सर्वकर्मप्रकृतीना १३, १४ । १६४ सीता सुलोचना राजी १०,५। १३३ सर्व नित्यमेवंतत् ८, ११।१०७ सुदुर्लभ मस्तंभव पवित्र ६,६७१३ सरिच्छलादिसौन्दर्य ८,१० । ११८ सुधर्माचव्यवतो मान ७, १८।८६ सरिनमध्ये वया नौका ११ २११ ११० सुधांशुभिर्जगत सर्व ८,४।१०७ ससारोऽयं महादुःख १, २४ । ५ सुपात्राय सदा देयं १२, १२।१५८ ससाराब्धिनिगम्नजन्तु-१३, ११ १६२ सुरेन्द्रानुगेनालका नाय- ६, १६ । ६४ ससारस्य स्वभावोऽय ८, १८1१०८ सुलभा ते भवेवेव ११,४६।१४२ ससारस्य स्वरूपं ये 5, ३२ । ११० सुक्ष्मकृष्टिगत लोभं २०६१।२० संसारकारणनिवृत्तिपरा- १,६।२ सूक्ष्मस्थलविभेदेन १.२८६ संसारसियोविनिमग्न- ४८७२ सूक्मादिसाम्पराये ६२६१ १२१
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पानुक्रमणिका
२०५ सूक्ष्मोऽपि दशितो बन्ध १, १३ । ४५ स्वप्रतिष्ठा स्पिीकतुं ४, २७ । ४७ सूत्रं गणपरैः प्रोक्त ७,३१।६० स्वस्वभावस्य सिद्ध्ययं ७,६१।१०१ सैव साक्यमाप्नोति ८,८० । ११६ स्वर्णपनसमाच्छन्न ८, ५५ । ११३ सेवात्र साधुभि ह्या ४, ६० । ५२ स्थितिकाण्डकघातो- १३, ३११६६ सूरीणां वा गुरूणां वा ६, २४ । ६६ स्थूलस्तेयापपापाद् १२, ११ । १४५ सोऽयमन्तर्मुहूर्तेन २,७१। २३ स्थलानृतवचनाना १०, १०।१५५ सौकर्यायह साधूना ६,७१।७५ स्तेनप्रयोगवीरार्या १२, ४७ । १५० सौगन्ध्यलोमतो मृत्यु ५, २३ । ५६ सौगन्ध्ये चापि दोर्गन्ध्ये १, ४२ । ७ स्पर्शन रसन घ्राणं १, ३८।७ हरिद्घासावसंकीर्णे ४, ६७ । ५३ स्याद् धर्मादनपेतं ७, १०६।१०३ हरिद्घासाघसंकीर्णे ४,८।१५ स्यावाशाविषयःपूर्वो ७, ११०।१०३ हस्तयोरेव भोक्तव्यं १०, २० । १३५ स्वपरस्त्रीपरित्यागी ३, ७३ । ३७ हस्ती पादौ च प्रक्षाल्य ७, ३७ । ६२ स्वशरीरस्य संस्कार ३, ११२।४३ हा हा क्षेत्रपरावर्ते ८,६६।११८ स्वस्याहारनिमित्तं यः ४, ५१ । ५१ हास्यादयश्च षट् चैते ३, ८७ । ३६ स्वाध्यायगतशास्त्रस्य ७,४११६३ हिंसास्तेयान्ताबह्म १२, ५ । १४४ स्वकीयवृत्तरलमत्र १३, १५ १६६ हिंसादिपापाद् व्यवहारतो १, १२ । ३ स्वाध्यायो नैव कर्तव्य. ७,३०।६० हिंसानदो मृषानन्दस् ७, १०८।१०३ स्वाध्यायं विदधत साधु ७,४०। ६२ हिंसादिपापाद विरते ३, ४ । २७ स्वाध्यायः क्रियते पुम्भिः ७, ४३६३ हिता मिवा प्रिया पाणी १,३४।६ स्वपरभेदविज्ञान ७,२५। ६० हिता ब्रूते मितां ते ५, १८ । ४६ स्वकीयपुण्यपापाभ्या ३, ६५ । ३६ हीनाधिकविधानं च १२, १८ । १५० स्वाध्यायो नाम बिशेयो ,६६।१०१ हषीकविषयाषीना ५,३ । ५४ स्वाध्यायं विदधत्साधु. ७,४४ । ६३ हृषीकाणा जय. कार्य १, ३६ । ७ स्वाध्यायावसरे पुम्भिः ७, ३३ । १२ हे आत्मन् स्वहित ८,३८ । १११
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पृ० सं० प० सं०
१
२
6 J
६
१०
१५
१६
२३
२६
२८
२८
३३
३६
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१
१०
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2 is us us & &= 2
७७
६१
६७
६७
१००
१०३
११४
१४
१६
२०
२१
२६
१२
शुद्धि-पत्र
अशुद्ध
निजभावशुदध्यै विश्वान्य देवान्
श्रय
समितिरक्ता येकवाहं यो
एतद्वत्तं
विशुद्धया
विशुद्धया
आज्ञा
रुहन्ते -कार्याश्चतुविधा तच्चतुविध्य
महद्वाल्पतर - धारिणी
शिरास्थं
केनोक्तस्तवं
मुनिभर्या
सामर्थ्य
यः
-मक्षणां
पद्भयामेव
-लक्षणः
काकप्रियरवं
बहूपि
प्रत्पर्व
एव
शुद्ध
निजभावशुद्ध्यै विश्वाम्यदेवान्
श्रेय
- समितिरुक्ता
ह्येकवारं यः
एतद्वृत्तं
विशुद्ध्या
विशुद्ध्या
आत्ता
सहन्ते
-कायाश्चतुविधा तत्त्वातुविध्य
महद् वाल्पतरं -धारिणि
शिरःस्थं
केनोक्तस्त्वं
मुनिर्भूया
सामर्थ्य
या:
-मक्षाणां
पादाभ्यामेव
-लक्ष्मणः
काकाप्रियं
बह्नपि
प्रत्यमं
एवं
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________________
सुटिपा
To
५१
५१
५५
५१
3
७
.
बहिवाला
वह्नज्वाला शकटामा
शकटामा कुष्ठी
कुण्डी विद्युत्स्फति
विद्युत्स्फूतिपिच्छपङ्कित पिच्छपंक्ति गहोतः केन चिज्जातु गृहोताः केनचिज्जातु एकवित्रीणि एकद्वित्राणि संकीर्ण
संकीर्णे धेयं
देयं -रश्मिजितचन्द्रमा जितचन्द्रमस विज्ञानलोक- विज्ञातलोक-धर्मषु
-धर्मेषु ज्ञातादृष्टस्व- ज्ञातादृष्टास्वमनसशुद्धि- मनसः शुद्धि दयेकेन्द्रियाद्या दूधेकेन्द्रियाधा परेष्यां
परेषा स्वभाव
स्वभावो प्रत्याख्यानाञ्च प्रत्याख्यानाच्च केचिद्
केचन मता मूढदष्टिता मताऽमूढदृष्टिता स्वाध्यायसमुद्यते स्वाध्यायाय समुखते. बहमानाद्य
बहुमानाख्य वय॑न्ते यथागमम् वर्ण्यन्ते हि यथागमम्
-दात्मना जोवं मरन्तो
भरन्तो
दूयन्ते चतुल्तविषान्ते रत्नत्रये
स्वगत्या
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१००
११६
१६
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१०६
१०५ ११६ १०८
२३ ११ १ ११४६६ ११८ १०३ १२०
११७ १२३
इयन्ते
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________________
२०५
पृ० सं० १०० १२७ ३८ १२८४० १२८४५ १३३ १३३ १०
वधो
१४३ १२ १४५ १४७ १४८ ३७ १४६ ४२ १५१ ५५ १६० १६७ १६८ ५२ १६६ ४७ १७१ १७१७ पृ० सं० पं० सं० ३३ ३३
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि मशुद्ध चिन्तयश्चित्तं चिन्तयतश्चित्तं अपर्याप्तकेष अपर्याप्तेष नास्त्ये
नास्त्येव एषो
एषां ज्ञातादृष्ट स्वभावाः ज्ञातादृष्टास्वभावाः तीर्थाकृन्- तीर्थकृन्नाकसुखस्पहा मुक्तिसुखपृहा विरति विरतिः -दतिथी- दतिथिदानेनैव शुध्यन्ते दानेनैव हि शुध्यन्ते तृधो काष्ण
काष्ठा ऐलकवत् ऐलकवत्तु शैथिल्यादन्नोच- शैथिल्यान्नोचदेशवतं
देशव्रतसार्थक
सार्थक चारित्रायो चारित्राढयो हसन्तु
नो हसन्तु मशुद्ध गृहस्थको गर्दभको समूहसे मणि समूहसे मण्डित मध्यरात्रिके दो घड़ी मध्यरात्रिके दो घडी
पश्चात्से सूर्यारूप सूर्यास्त आदिके तीन संहन- छहो संहननोसे सहित नोसे सहित जीवको
देहको शुभाचारको प्राप्त शुभाचारको भी प्राप्त
६१
१२
पूर्वसे
६१
१०२
१०६
हुआ
हुआ
११७ ११७
२६ २६
आबाधाकाल आनेपर आवाधाकाल बीत जानेपर
आबाधाके पूर्व ही अपने उदयकालके पूर्व निर्जीर्ण निर्जीर्ण
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सुधि-पत्र पृ० . पं.. १२६६ तिर्वञ्च सम्य- तिर्यों में सम्यक्त्वका
पत्यका १६
आयिकाओको बायिकामोंके (प्रका) विष-वेला विष-वेल ६ (भूमिका ) भूतिबनो भूतबलो संयमा
संयमों नामानियोऽत्ति नामानि योऽति सचित्तविरलो सचित्तविरतो
सचित्त स्याग प्रतिभा सचित्तत्यागप्रतिमा ले. एकदशम
दशम १५ १६ ॥ अधोवर्जी
अधोवर्ती १६ १७ , समाज
समता नोट-समासवाले पदोंके मूढा अधिकांश अलग-अलग छापे गये हैं।
शुद्धि-पत्र में उनका संशोधन शक्य नहीं है । अतः संस्कृत विद्वान उनका सशोधन कर पढनेका कष्ट करें।
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