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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि तमाविवेवं सुरजातसेवं भव्योषवन्धं जनताभिनन्धम् । गुणर्लसन्तं महसा हसन्तं विश्वान्य देवान् कृतरागिसेवान् ॥ ५॥ प्रणम्य भक्त्या भवभञ्जनाय चारित्रचिन्तामणिमत्र वक्ष्ये। ये सन्ति केचिन्मतिमान्धभाजतेषां कृतेऽयं मम सत्प्रयासः ॥६॥ अतो न विद्वज्जनमाननीय विधेयं मयि दौर्मनस्यम् । श्रुतस्य सेवा महनीय कार्यमित्येव हेतोरहमत्र लग्न ॥७॥ यो वर्तते यस्य निसर्गजातो न तस्य लोपः सहसा प्रसाध्यः। चारित्रचिन्तामणिरेव लोके चिन्त्याभिवाने सततं प्रसिद्धः ॥८॥
अर्थ-जिन्होने पहले समीचीन व्यवस्थाकर प्रजा-समूहका पालन किया था और पश्चात् संसारसे विरक्त हो सब लोगोको मोक्षका मार्ग दिखलाया था, देवोने जिनको सेवाको थो, जो भव्यसमूहके द्वारा वन्दनीय थे, जनसमूहके अभिनन्दनीय थे, गुणोसे शोभायमान थे तथा रागी मनुष्योके द्वारा सेवित ससारके अन्य देवोकी जो अपने तेजसे हँसी कर रहे थे उन आदिदेव-वृषभनाथ भगवान्को मैं संसार परिभ्रमणका नाश करनेके लिये भक्तिसे प्रणाम कर यहा 'चारित्र-चिन्तामणि' ग्रन्थको कहंगा। इस ससारमे जो कोई बुद्धिकी मन्दतासे युक्त हैं उनके लिये मेरा यह सत्प्रयास है। अत विद्वज्जनोके द्वारा माननीय ज्ञानोजन मेरे ऊपर दौर्मनस्य न करे-इसने यह ग्रन्थ क्यो रचा, ऐसा भाव न करे। श्रतको सेवा करना एक अच्छा कार्य है, इसी हेतुसे मै इस कार्यमे संलग्न हुआ हूँ। जिसका जो निसर्ग जात-स्वभाव होता है उसका लोप भो तो सहसा नही किया जा सकता। इस जगत्मे चारित्ररूपो चिन्तामणि हो अभिलषित पदार्थों के देनेमे निरन्तर प्रसिद्ध है, अत. उसका वर्णन करता हूं ॥४-८॥ आगे चारित्रका लक्षण कहते हैंसंसारकारणनिवृत्तिपरायणानां
या कर्मबन्धननिवृत्तिरियं मुनीनाम् । सा कथ्यते विशवबोषधरमुनीन्द्र
चारित्रमत्र शिवसाधनमुख्यहेतुः ॥९॥ अर्थ-संसारके कारण मिथ्यात्व तथा हिंसादि पापोको निवृत्ति करनेमे तत्पर मुनियोकी जो कर्म-बन्धनसे निवृत्ति है-कर्मबन्धनके कारणोको दूर करनेका प्रयास है वही निर्मल ज्ञानके धारक मुनिराजो