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सम्यकृचारित्र-चिन्तामणि:
काल शुद्धिके समान द्रव्य क्षेत्र और भाव शुद्धि भी करना चाहिये, यह
कहते हैं
स्वाध्यायसमुद्यतं । द्रव्यक्षेत्राविशुद्धय ॥ ३३ ॥
स्वाध्यायावसरे पुम्मि मुक्त्वालस्यं मुदा कार्या शरीरे रुधिरलाबापूयमांसाद्य निर्गमः । स्वाध्यायोद्यतसाधोश्च द्रव्यशुद्धिः प्रकथ्यते ॥ ३४ ॥ शतहस्तमिते क्षेत्रे दधिरापुर्याद्यदर्शनम् । क्षेत्रशुद्धिः प्रगोतास्ति परमागमपारगे || ३५ ॥ क्रोधमानादिभावानामभावो भावशुद्धये । विधातव्यः सदा विशेः स्वाध्यायाय समुद्यतः ॥ ३६ ॥
अर्थ- स्वाध्यायके लिये उद्यत साधुओको स्वाध्याय के समय आलस्य छोड़कर द्रव्य और क्षेत्र आदिको शुद्धिया करनी चाहिये । स्वाध्यायके लिये तत्पर साधुके शरीरसे रुधिर, पोप तथा मास आदि नही निकल रहा हो, यह द्रव्य शुद्धि कहो जाती है। सौ हाथ प्रमाण क्षेत्र मे रुधिर तथा पीप आदि नही दिख रहा हो, यह क्षेत्र शुद्धि है । परमागमके ज्ञाता पुरुषो द्वारा कही गई है। भाव शुद्धिके अर्थ स्वाध्याय के लिये उद्यत ज्ञानी पुरुषोको अपने आपमे क्रोध तथा मानादि विकारी भावोका अभाव करना चाहिये । यही भावशुद्धि है ॥ ३३-३६ ॥
आगे विनयाचारका वर्णन करते है
हस्तौ पादौ च प्रक्षाल्य पर्यङ्कासनसुस्थित | शास्त्रस्य मार्जनं कृत्वा कायोत्सगं विधाय च ॥ ३७ ॥ चल मनो वशीकृत्य विनयावनतो भवन् । ऋषिप्रणीतशास्त्रस्य स्वाध्याय प्रारभेत सः ॥ ३८ ॥ प्रवृत्तिरेषा साधूनां विनयाचार उच्यते । विनयाधीतशास्त्रो ना द्रुत विद्वद्वरो भवेत् ॥ ३६ ॥ स्वाध्याय विदधत् साधुर्हस्ताभ्यां न पदं स्पृशेत् ।
न स्पृशेद् वाञ्छणं कक्षं नखेवेंहं न खर्जयेत् ॥ ४० ॥ अर्थ - स्वाध्याय करने वाला साधु हाथ पैर धोकर, पर्यंङ्कासनसे बैठकर, शास्त्रका परिमार्जन कर, कायोत्सर्ग कर और चश्वल मनको बशमे कर विनयसे नम्रीभूत होता हुआ ऋषिप्रणीत शास्त्रोका स्वा