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सम्यक्पारित्र-चिन्तामणि प्रतिष्ठा स्थिर रखनेके लिये भाषासमितिके समान कही दूसरा साधन नही है ।। १६-२७ ॥ आगे एषणा समितिकी चर्चा करते है
अर्थषणा समित्याश्च कापि चर्चा विधीयते । एषणामुक्तिरित्यर्थस्तस्यां या सावधानता ॥ २८॥ एषणासमितिः प्रोक्ता सा विज्ञात-जिनागमः। औदारिकमिदं बम विना भुक्ति न तिष्ठति ॥ २९ ॥ अतस्तस्य सुरक्षार्थमाहारः प्रविधीयते । दिवसे होकवारं यः स्थित सन् पाणिपात्रके ॥ ३०॥ यथाविधि यथाप्राप्तमाहार विदधाति सः। एषणासमिति. संषा मुनिभिविनिरूपिता ॥३१॥ ईदृशो हि ममाहारो बोयेत श्रावकर्जनः। एव वाञ्छा न तेषां स्याज्जैनाचारतपस्विनाम् ।। ३२॥ अन्तराये समायात विषीवन्ति न साधवः। स्वात्मध्यानपराः सन्त. कुर्वते कर्मनिर्जराम् ।। ३३ ।। साधवः सुकुलीनानां जैनाचारस्य धारिणाम् । गहेषु नवधा भक्त्या प्रगृहीताः प्रभुजते ॥ ३४ ॥ कथिता एषणादोषाश्चत्वारिंशत् षडुत्तराः।।
वर्जनीयाः सदा ोते द्वात्रिशच्चान्तरायकाः ॥ ३५॥ अर्थ-अब एषणा समितिकी कुछ चर्चाको जाती है। एषणाका अर्थ भोजन है, उसमे जो सावधानता है वह जिनागमके ज्ञाता पुरुषो द्वारा एषणा समिति कही गई है। यह औदारिक शरीर आहारके बिना नहीं ठहरता इसलिये उसकी सुरक्षाके लिये आहार किया जाता है। जो दिनमे एकबार खड़े होकर पाणिपात्रमे विधिपूर्वक प्राप्त हुए आहारको ग्रहण करता है उसकी यह विधि मुनियो द्वारा एषणा समिति कही गई है। सरस, नोरस, कड़आ अथवा मीठा जैसा आहार प्राप्त होता है साधु उसीमे सन्तुष्ट रहते हैं। श्रावक लोग मुझे ऐसा आहार देते तो ठीक होता, ऐसी इच्छा जैनाचारके तपस्वियोके नही होतो । अन्तराय आनेपर साधु विषाद नहीं करते हैं किन्तु स्वात्मध्यानमे तत्पर रहते हुए कर्मोको निर्जरा करते है। साधु उत्तम कुलीन तथा जैनाचारके धारक श्रावकोके घरमे नवधाभक्तिसे पडगाहे जानेपर आहार करते हैं । एषणा सम्बन्धो छियालोस दोष और बत्तीस अन्तराय