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________________ सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि आत्मबसवर्धनेन प्रमावमन्तर्गत विहातुं ये। उद्यमशीला मुवने त एव भव्याः प्रमावरहिताः स्युः॥१॥ अर्थ-आत्मबलकी वृद्धि द्वारा जो भीतरो प्रमादको छोडनेके लिये प्रयत्नशील हैं, वे भव्य ही प्रमादरहित हो सकते है ॥ ७१ ॥ इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमे पञ्चसमितियोका वर्णन करनेवाला समित्यधिकार नामका __ चतुर्थ प्रकाश पूर्ण हुआ। पञ्चम प्रकाश इन्द्रियविजयाधिकारः __ मङ्गलाचरणम् एते हषीकहरया संयमकविकापरप्रयोगेण। वान्ता यहि समन्तात्ते मुनिराजाः सदा प्रणम्या में ॥१॥ अर्य-जिन्होने संयम रूपो लगामके उत्कृष्ट प्रयोगसे इन इन्द्रिय. रूपो अश्वोका सब ओरसे दमन कर लिया है वे मुनिराज मेरे सदा प्रणाम करनेके योग्य हैं। तात्पर्य यह है कि मैं इन्द्रियविजयी साधुओको सदा प्रणाम करता हूँ ॥१॥ आगे इन्द्रियविजय नामक मूलगुणोका वर्णन करता हूँ अथेन्द्रियजयं लक्ष्य कृत्वा किञ्चिद् वदाम्यहम् ।' अकृत्वाक्षजयं लोके स्याद् दीक्षाया विडम्बना ॥२॥ हृषीकविषयाधीना लोका भ्राम्यन्ति सर्वतः। क्षितिमूले नभोमार्गे शैले सिन्धुतले तथा ॥३॥ कामिनीकोमलस्पर्शलालसा लम्पटा नराः। इहैव विविधापायानमुत्र श्वनवेदनाः॥४॥ सहन्ते नारका भूत्वा रावणवन्निरन्तरम् । यथा करेणुकुट्टिन्याः कायाकुलितचेतस.॥५॥ घावमाना गजा गर्ने पतन्तः परतन्त्रताम्। प्राप्नुवन्ति महादुःख चिरं सीवन्ति च क्षिती॥६॥
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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