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द्वितीय प्रकाश
.. २५ होते हैं और वहां विशुद्धिसे अत्यन्त बढ़ते रहते हैं। वे मुनि इस गुणस्थानमे प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा करते हैं। एक एक अन्तर्मुहूर्तमे एक-एक स्थितिकाण्डकका घात कर अपने कालके भीतर सख्यात हजार स्थितिकाण्डक घात करते हैं तथा उतने ही बन्धापसरण करते है। पश्चात् असंख्यात गणित अनुभागकाण्डकोका घात करते है। इस सबके पश्चात् वे महामुनि अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानमे प्रवेश करते हैं। उसके भो संख्यातभागोमे पूर्ववत्-अपूर्वकरणके समान क्रिया करते हैं। पश्चात् शेष सख्यात भागोमे स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मप्रकृतियोका क्षय करते हैं पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमे शुक्लध्यान-पृथक्त्ववितर्कविचार नामक प्रथम शुक्लध्यानके आठ मध्यम कषायोका युगपत् क्षय करते हैं। यह क्रम सत्कर्मप्राभृतके अनुसार है।
कषायप्राभृतके अनुसार क्रम यह है कि आठ मध्यम कषायोको क्षपणाके पश्चात स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियोका क्षय होता है। एक-एक अन्तमुहूर्तमे नपुंसकवेद, स्त्रोवेद, पुवेद तथा सज्वलन, क्रोध, मान और मायाका क्रमसे क्षय करते हैं। तदनन्तर संज्वलन लोभको लेकर दशमगुणस्थानको प्राप्त होते हैं और वहा उसके अन्तमे उस संज्वलन लोभका भी क्षय करते है। इस प्रकार वे मुनि क्षणभरमे क्षोणमोह नामक बारहवे गणस्थानको प्राप्त होते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि जबतक मोहनोयकर्मको एक कणिका भो विद्यमान रहती है तबतक यह जीव ससाररूपी वनमे भ्रमण करता रहता है। इसलिये मुमुक्षुजनोको प्रयत्नपूर्वक मोहनीयकर्मका क्षय करना चाहिये । मोहका क्षय होनेसे यह मनुष्य क्षणभरमे अन्तर्मुहूर्तके भीतर केवलज्ञानसे सहित हो जाता है ॥ ७१.८३॥ आगे प्रकरणका समारोप करते हैध्याय ध्यायं जिनपतिपद शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः
श्राव भाव जिनवरवचः प्राप्तसज्जानपुजः। भाय धाय सुगुरुचरणं लब्धचारित्रशुद्धिः।
सद्यो मुक्त ज भज सुखं भव्य ! कि क्लाम्यसि स्वम् ॥४॥ अर्थ-हे भव्य । तूं जिनेन्द्रदेवके चरणोका बार-बार ध्यान कर शुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त हो-सम्यग्दृष्टि बन, पश्चात् जिनेन्द्रदेवके वचनोको बार-बार श्रवण कर सम्यग्ज्ञानका समूह प्राप्त कर पश्चात् सुगुरुओ