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षष्ठ प्रकाश नोयको छोड समस्त कर्मोके बन्धका अभाव है। वेदनोयके भो स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं है क्योकि कषायरूप प्रत्ययका अभाव है। योग है, इसलिये प्रकृति प्रदेश बन्धका अस्तित्व है यह नहीं कहा जा सकता, क्योकि स्थितिबन्धके बिना उदयरूपसे आनेवाले प्रदेशोमे उपचारसे ही बन्धका उपदेश है। यह भी कहना ठीक नहीं है कि उनके देश चारित्र और सकल चारित्रका उपदेश देनेसे अर्जित कर्मोंका संचय है, क्योंकि प्रत्येक समय उदयरूपसे जितने कर्म आते हैं उनसे असंख्यातगुणी कर्म निजरा प्रत्येक समय वे करते हैं। इसके सिवाय तोथंकरोके मन-वचनकायको प्रवृत्तियाँ भी इच्छापूर्वक नही होती किन्तु सूर्य और कल्पवृक्षकी प्रवृत्तियोके समान वैनसिक-स्वाभाविक है। आगे विविध छन्दोमे वृषभादि तीर्थंकरोकी स्तुति करते हैंयेन क्षितावसिमषीप्रभृती! सुवृत्तीः
संदिश्य कापि विहितोपकृतिर्जनानाम् । कल्पाघ्रिनाशमरणोन्मुखजीविताना.
मादीश्वरोऽवतु सतां सुखदा धियं सः॥ ३३ ॥ अर्थ-जिन्होने पृथिवीपर कल्पवृक्षोके नष्ट होनेसे मरणोन्मुख जीवोके लिये असि, मषो आदि वृत्तियोका उपदेश देकर उनका बहुत भारी उपकार किया था, वे आदीश्वर -भगवान् वृषभदेव सत्पुरुषोको सुखदायक लक्ष्मोकी रक्षा करे ॥ ३३ ॥
यो नो जितः कर्मकलापकेन जितत्रिलोकीगतजन्तुकेन । जेतारमीशं रिपुजालकस्याजितं मुवा तं प्रणमामि नित्यम् ॥ ३४ ॥
अर्थ-तीन लोकके समस्त जीवोको जोतनेवाले कर्मसमूहके द्वारा जो नहो जोते जा सके उन शत्रुसमूहके विजेता अजितनाथ भगवान्को मै हर्षपूर्वक नित्य ही प्रणाम करता हू ॥ ३४ ॥ संसारतापविनिपातपयोदरूपं
जन्माधिमग्नजनसंतरणं सुरूपम् । मिथ्यान्धमोहहननाय सहस्ररश्मि
त शंभवं ह्यमितसंविभवं नमामि ॥ ३५ ॥ अर्थ-जो संसार-पञ्च-परावर्तनरूप संतापको नष्ट करनेके लिये मेघरूप है, संसारमे निमग्न जोवोको तारने वाले हैं, सुरूप-अतिशय सन्टर हैं मिथ्यात्वरूपी गाढ अन्धकारका नाश करनेके लिये सर्य हैं