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सम्यचारित्र-चिन्तामणिः वेवावृष्टिसंयुक्तः कश्चिद् भव्यतमो नरः। अनन्तानुबन्धिकोषमानादीनां चतुष्टयम् ॥ ३७॥ मिथ्यात्वादित्रिकं चेति प्रकृतीनां हि सप्तकम् । तुर्यादिसप्तमान्तेषु गुणस्थानेषु कुत्रचित् ॥ ३८॥ शमयित्वा भवेज्जातूपशमणिसम्मुखः । प्रागषःकरणं कुर्वन् भवेत् सातिशयो मुनिः ॥ ३९॥ एतस्मिन् हि गुणस्थाने विशुद्धि परमां वधत् ।
अपूर्वकरणं धाम लभते शुद्धिसयुतः॥४०॥ अर्थ-अब मोहनीय कर्मकी उपशमनाका कार्य आगम और अपनो बुद्धिके अनुसार संक्षेपमे कहता हूं। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनसे सहित कोई भव्य पुरुष अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार, तथा मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीन, इस प्रकार सात प्रकृतियोका चतुर्थसे लेकर सप्तम गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थानमे उपशम (विसयोजना-अन्य प्रकृतिरूप परिणमन ) कर द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर कभी उपशमश्रेणीके सन्मुख हो अधकरणरूप परिणामको करते हुए सातिशय अप्रमत्तविरत होते हैं। इस गुणस्थानमे परम विशुद्धिको धारण करते हुए अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होते हैं तथा वहा पूर्वको अपेक्षा सातिशय शुद्धिसे युक्त होते हैं।
भावार्थ-पहले बताया गया है कि प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव श्रेणी माडनेकी योग्यता नही रखते । जब कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मुनि उपशमश्रेणी माडनेके सम्मुख होते हैं तब वे अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्वादि त्रिकका उपशम करते हैं। यहां अनन्तानुबन्धोके उपशमका अर्थ है अपने स्वरूपको छोडकर अन्य प्रकृतिरूप रहना। इसे अन्यत्र विसंयोजन कहा है और उदयमे नही आना यह दर्शन-मोहनोय त्रिक-मिथ्यात्वा. दिक त्रिकके उपशमका अर्थ है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको उत्पत्ति लब्धिसारादि अन्य ग्रन्थोमे अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थानमे बतलाई है परन्तु धवला पु०१ ( पृष्ठ २१० ) में असयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान तक चार गुणस्थानोमें रहनेवाला कोई भी जोव कर सकता है, यह बताया है। लब्धिसारादि ग्रन्थोमे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उपशमको विसंयोजन नामसे कहा है