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द्वितीय प्रकाश और यहाँ उपशम नामसे कहा है । यह शब्द भेद हो समझना चाहिये। उपशमश्रेणोके सम्मुख हुए मुनि सप्तम गुणस्थानका दूसरा भेद जो सातिशय अप्रमत्तविरत है उसे प्राप्त होते हैं तथा अध करणरूप परिणाम करते हैं। इस गुणस्थानमे जो विशुद्धि होती है उससे स्थितिकाण्डक घात आदि कार्य नहीं होते। पश्चात् विशुद्धिको बढाते हुए अपूर्वकरण-अष्टम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। इस गुणस्थानको विशुद्धिसे स्थितिकाण्डक घात, अनुभागकाण्डक घात, गुणश्रेणो निर्जरा और अप्रशस्त प्रकृतियोका शुभ प्रकृतिरूप संक्रमण होता है ॥३६-४०॥ आगे अपूर्वकरण गुणस्थानमे होनेवाले कार्यका वर्णन करते हैं
एतस्मिस्तु गुणस्थाने विशुखया वर्धतेतराम् । एकान्तमुहूर्त च सख्यातस्य सहस्त्रकम् ॥ ४१ ।। कुरुते स्थितिकाण्डानां संघातं तावदेव च। बन्धापसरणं कुरुते भावानां हि विशुद्धितः॥ ४२ ॥ एककस्मिन् स्थितेते संख्यातस्य सहस्रकम् । धतेऽनुभागसघातं गुणसंक्रमणं तथा ॥४३॥ समये समयेऽसंख्यगुणितां निर्जरामपि ।
कुर्वन्नन्तर्मुहूर्तान्तेऽनिवृत्तिकरणं व्रजेत् ॥४४॥ अर्थ-इस अपूर्वकरण गुणस्थानमे मुनि विशुद्धिके द्वारा अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त होते हैं अर्थात् इनकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढती रहती है। इस विशुद्धिसे मुनि संख्यातहजार स्थितिकाण्डकोका घात करता है और भावोकी विशुद्धिसे उतने ही सख्यातहजार बन्धापसरण करता है। एक-एक स्थितिकाण्डकके घातमे संख्यातहजार अनुभागकाण्डक घात करता है, गुणसंक्रमण करता है और समय-सययमे असख्यात गुणित निर्जराको करता हुमा अन्तर्मुहूर्तके अन्तमे अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानको प्राप्त होता है।
भावार्थ-यद्यपि अपूर्वकरण गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है तथापि उसके अन्दर असंख्यात लघु अन्तर्मुहूर्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्तर्मुहूर्तसे असख्यात भेद होते हैं ॥ ४१-४४ ॥
तिष्ठेवन्तर्मुहूर्तेन कुर्वाणा पूर्ववत् क्रियाम् । पाचावन्तमुहूतन कुर्यावन्तरक्रिया ॥४५॥