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द्वितीय प्रकाश केवलितकपादानां सन्निधाने समागते। त्रिकं वर्शनमोहस्य वृत्तमोहचतुष्टयम् ॥ ६॥ एतत्सप्तप्रकृतीनां सपणायां समुखतः। प्रथमं कुरुते यावत्करणाना त्रिकं पुनः ॥६६॥ तत्रानिवृत्तिकालान्ते समं हानचतुष्टयम् । क्षपयित्वा पुनश्चायं कुरते करणत्रयम् ॥ ६७ ॥ आयद्विकं समुल्लडग्यानिवृत्तिकरणस्य च । गते संख्यातभागे वै मिथ्यात्वं अपपत्यसो ।। ६८॥ पश्चावन्तर्मुहूर्तन मिकं क्षपयति ध्रुवम् । ततोऽग्रेऽन्तर्मुहूर्तेन सम्यक्त्वप्रकृतिक्षयम् ॥ ६९॥ कृत्वा क्षायिकसदृष्टिहन्तुं चारित्रमोहकम् ।
अपकणिमारोढ़ मुखम विवधाति ॥ ७॥ अर्थ-अब इसके आगे विधिपूर्वक शास्त्र और अपनी बुद्धिके अनुसार मोहनीय कर्मकी क्षपणा विधि कहूंगा। क्षात्योपशमिक सम्यग्दर्शनसे युक्त कोई निकट' भव्यजीव चतुर्थसे लेकर सप्तम तक किसी गुणस्थानमे केवलीद्विक, केवली और श्रुतकेवलोकी निकटता प्राप्त होनेपर दर्शनमोहकी तीन-मिथ्यात्वादिक और चरित्रमोहकी चारअनन्तानुबन्धीचतुष्क, इन सात प्रकृतियोका क्षय करनेके लिये उद्यत होता है । प्रथम ही वह तीन करण करता है। उनमे अनिवृत्तिकरणके अन्त कालमे अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक साथ क्षय अर्थात् विसंयोजन करता है-उसे अप्रत्याख्यानावरणादिरूप परिणमा देता है। पश्चात् पुन तीन करण करता है। आदिके दो करण व्यतीत कर तृतीय करणका संख्यातवा भाग व्यतीत होनेपर वह मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय करता है अर्थात् उसे सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणत करता है। पश्चात अन्तर्मुहूर्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्व प्रकृतिरूप कर उसका क्षय करता है। इस तरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहका क्षय करनेके लिये वह क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ होनेका प्रयल करता है ॥६३-७०॥ भागे चारित्रमोहको क्षपणाकी विधि कहते हैं
सोऽयमन्तमहर्तेन व्यतीत्याधः प्रवृत्तम्।
भपूर्वकरण गत्वा विशुखया वर्धतेतरा ॥७१ ॥ १. जिसके अधिकसे अधिक पार भव बाकी हैं वही जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन
प्राप्त कर सकता है, अधिक भव वाला नहीं ।