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पञ्चम प्रकाश हैं। जिनके इष्ट अनिष्ट प्रसंगोमे रागद्वेष नही है उन इन्द्रिय विजयो साधुओको मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। ३१-३७ ॥ आगे इन्द्रिय-विजय प्रकरणका समारोप करते हैंरागद्वेषो यस्य नाशं प्रयातो
नोत्पद्यते तोषरोषौ च यस्य। सोऽय साधु। प्राप्य निर्गन्थवृत्तं
शुक्लध्यानाकर्मनाशं करोति ॥ ३८॥ अर्थ-जिसके रागद्वेष नाशको प्राप्त हो चुके हैं तथा जिसके तोष और रोष उत्पन्न नही होते वह साधु हो निर्ग्रन्थ चारित्र-दिगम्बर मुनि मुद्राको प्राप्तकर शुक्ल ध्यानसे कर्मोंका क्षय करता है ।। ३८ ।। इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमे पञ्चेन्द्रियोंके विजयका वर्णन करनेवाला इन्द्रियजयाधिकार नामका
पञ्चम प्रकाश पूर्ण हुआ।
षष्ठ प्रकाश যাযামিকা:
मङ्गलाचरण सम्यक्त्वबोषामलवृत्तमूलो
मोक्षस्य मार्गो गवितो जिनेन्द्रः। तं प्राप्य ये मोक्षपुरं प्रयाता
स्तान् मुक्तिकान्तान प्रणमामि नित्यम् ॥१॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान्ने सम्यग्दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और निर्मल सम्यक्-चारित्ररूप मूलसे युक्त मोक्ष मार्ग कहा है। इसे प्राप्तकर जो मोक्ष नगरको प्राप्त हुए है उन मुक्तिकान्त सिद्ध परमेष्ठियोको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ ॥१॥ आगे आवश्यक शब्दका निरुक्त अर्थ तथा उसके नाम कहते हैं
अथावश्यककार्याणि साधूनां कथयाम्यहम् । रागादीनां शो यो न सोऽवशः कथ्यते जिन। ॥२॥