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सम्यक्चारित्न-चिन्तामणि
अर्थ-जिन्होने अपने कर्ममलरूपो समस्त शत्रुको उत्कृष्ट ज्ञान और वैराग्यरूपी बाणके द्वारा खण्ड-खण्ड कर दिया था उन निर्मलविमलनाथ मुनीन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ॥४६॥ प्राप्तो न पारो विदुषां समूहैर्यदीयसज्ज्ञानसरस्वतो वं। नौम्यर्चनीयं जगतीपति तमनाद्यनन्त जिनपं ह्यनन्तम् ।। ४७ ॥
अर्थ-विद्वानोके समूहोने जिनके सम्यग्ज्ञानरूपी सागरका पार प्राप्त नही कर पाया उन पूजनीय, जगत्के स्वामी तथा ( द्रव्यार्थिक नयसे ) अनाद्यनन्त अनन्तनाथ जिनेन्द्रको मै स्तुति करता हूँ॥ ४७ ॥ संसारसिन्धोविनिमग्न जन्तूनुद्धृत्य यो मुक्तिपदे बधार । त धमसंज्ञैः सहितं क्षमायेनौम्यात्मनोन मुनिधर्मनाथम् ॥ ४८॥
अर्थ-जिन्होने संसार-सागरसे डूबे हुए जीवोको निकालकर मोक्षस्थानमे पहुँचाया था तथा जो क्षमा आदि धर्मोसे सहित थे उन आत्महितकारी धर्मनाथ जिनेन्द्रकी में स्तुति करता हूँ॥४८॥ यस्य पुरस्ताद्रिपुवरनाथा नो स्थिरता समरे समवापुः। चक्रकर सुखशान्तिकरं तं शान्तिजिनं सतत प्रगतोऽस्मि ॥ ४९ ॥
अर्थ-जिनके आगे युद्धमे बडे-बड़े शत्रु राजा स्थिरताको प्राप्त नही हो सके थे, जिनके हाथमे चक्ररत्न था तथा जो सुख और शान्तिके करनेवाले थे उन शान्ति जिनेन्द्रके प्रति म नित्य हो प्रणत-नम्रीभूत
ररक्ष कुन्थुप्रमुखान् सुजीवान दयाप्रतानेन दयालयो यः । सकुन्थुनाथो दयया सनाथः करोतु मां शीघ्रमहो! सनाथम् ॥ ५० ॥ ____ अर्थ-दयाके आधारस्वरूप जिन्होने दयाके प्रसारसे कुन्थु आदि जीवोकी रक्षाको थो तथा जो दयासे सनाथ-सहित थे वे कुन्थनाथ भगवान् मुझे सनाथ-अपने स्वामित्वसे सहित करे ॥ ५० ॥ प्रहतं रिपुचक्रमर सुदृढ वरयोगधरेण हि येन ततम् । तमर भगवन्तमहं सततं विरतं जगतः प्रणमामि हितम् ।। ५१॥
अर्थ-उत्कृष्टयोग-ध्यानको धारण करनेवाले जिन्होने सुदढशक्तिशालो शत्रु समूहको शीघ्र ही नष्ट कर दिया था उन जगत्से विरक्त हितकारी अर जिनेन्द्रको मैं नित्य हो प्रणाम करता हूँ ।। ५१॥