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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि करे और न स्वयं गवंयुक्त हो। इस जिनवाक्य जिनशास्त्रको सुनने के लिये मेरा बहुत पुण्योदय हुआ है । वीतरागकी यह वाणी संसार सागरमें पडते हुए तथा जन्मकी पीड़ा सहित मेरे लिये सचमुच हो सुदृढ़ नौका है। परम औषधरूप यह वाणी मैंने बड़ो कठिनाईसे प्राप्तकी है । अत बहुत सम्मानसे इसे सुनना चाहिये तथा हर्षपूर्वक पढ़ना चाहिए। यह जिन वाणोरूपी रसामृत सर्वथा दुर्लभ है। ऐसा जानकर जो बहुमानआदरसे स्वाध्याय करता है, वह कर्मसमूहको नष्टकर साक्षात् केवली होता है। इस प्रकार स्वाध्याय करनेवाले साधुका जो प्रयास है वह बहुमानाचार कहलाता है ॥४४.४६॥ अब अनिह्नवाचारका वर्णन करते हैं
शास्त्रज्ञानादिना पाते महत्वे स्वस्य भूयसि । स्वीयहीनकुलस्वादि-गोपनं विवधीत नो॥ ५० ॥ न हि शास्त्रस्य विमस्य स्वस्मात्स्वल्पतरस्य हि। नामस्मरणसंत्यागो विधेयः स्वाभिमानतः ।। ५१॥ एषत्वनिह्नवाचारो गवितः परमागमे ।
निहवे सति ज्ञानादिगुणलोपो भवेदितः ॥ ५२॥ अर्थ-शास्त्रज्ञान आदिके द्वारा बहुत महत्व बढ़ जानेपर अपने होन कुल आदिका गोपन नही करना चाहिये । शास्त्रका अथवा अपनेसे लघु अन्य विद्वान्का स्वाभिमानसे नाम स्मरणका त्याग नही करना चाहिये। भाव यह है कि प्रारम्भमे किसो लघु शास्त्रसे ज्ञान प्राप्त किया हो अथवा लघु-छोटे विद्वान्से अध्ययन किया हो पश्चात् स्वयं के बहुत ज्ञानी हो जानेपर उस लघुशास्त्र अथवा लघु विद्वान्का अभिमानवश नाम नहीं छिपाना चाहिये। यह परमागममे अनिवाचार कहा है। निह्रवके होनेपर ज्ञानादि गुणोका लोप होता है अर्थात् निह्नव करनेसे ज्ञानावरण कर्मका बन्ध होता है और उसका उदय आनेपर ज्ञानादि गुणोंका ह्रास होता है ।। ५०-५२ ॥ आगे व्यञ्जनाचार कहते हैं
शब्बस्योच्चारणं शुद्ध व्यञ्जनाचार उच्यते ।
अशुद्धोच्चारणान्नूनं चतुर्भवति होनता ॥ ५३॥ अर्थ-शब्दका शुद्ध उच्चारण करना व्यञ्जनाचार कहलाता है क्योंकि अशुद्ध उच्चारणसे वक्ताकी होनता सिद्ध होती है ॥ ५३॥