________________
५०
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि'
अपने स्वरूप में ही रहती है। श्रेष्ठ आचार्योंके द्वारा यह गोचरीवृत्ति कहो जाती है । अहो । वैराग्यको महिमा कहनेके लिये कौन समर्थ है ? ॥ ३६-४२ ॥
आगे अग्निप्रशमनोवृत्ति कहते हैं
तस्या:
कस्यचिद् भवने वह्निर्ज्याला सन्ततिरुस्थिता । प्रशमने हेतुर्जलधारंव मृग्यते ॥ ४३ ॥ तज्जलं मधुरं वा स्यात्क्षार वा च भवेत् क्वचित् । एवं हघुबरमध्येऽपि सुधाग्निर्वर्धते चिरात् ॥ ४४ ॥ तस्य प्रशमने हेतुः पाणिस्था ग्राससन्ततिः । सरसा नीरसा सा स्यादिति चिन्ता न विद्यते ।। ४५ ।। अग्निप्रशमनी नाम वृत्तिरेषा निगद्यते ।
अर्थ - यदि किसके मकानमे अग्नि ज्वालाओका समूह उठा है तो उसे शान्त करनेके लिये जलधारा ही खोजी जाती है, कही वह जल मीठा होता है और कहो खारा भी हो सकता है । इसी प्रकार उदरके भीतर क्षुधारूपी अग्नि चिरकालसे बढ रही है । उसे शान्त करने के लिये हाथमे स्थित ग्रासोका समूह हो कारण है । वह ग्रास समूह सरस हो या नीरस, इसका विचार नही रहता । यह अग्नि प्रशमनीवृत्ति कही जाती है ।। ४३-४५ ॥
अब गर्तपूरण वृत्तिको कहते है
गृहाङ्गणगतो तथायमोदरो
गर्तो यथा केनापि पूर्यते ॥ ४६ ॥ गर्तः सरसंनरसेरपि ।
प्रासं: पूरयितु शक्यो विरक्तस्य महामुने. ॥ ४७ ॥ गर्तपूरणनाम्नीयं प्रशस्ता वृत्तिरिष्यते ।
अर्थ - जिस प्रकार घरके आगनका गर्त किसी साधारण मिट्टी आदिके द्वारा भर दिया जाता है उसी प्रकार विरक्त महामुनिके उदरका गर्त सरस अथवा नीरस ग्रासोके द्वारा भर दिया जाता है अर्थात् मुनिराज सरस और नोरस आहारमे रागद्वेष नही करते। यह गतपूरण नामकी उत्तम वृत्ति मानी जाती है ॥ ४६-४७ ॥
आगे अक्षम्रक्षण वृत्तिका निरूपण करते हैं
अक्षस्य स्रक्षणे जाते गन्त्री लक्ष्यं प्रगच्छति ॥ ४८ ॥