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द्वादश प्रकाश
सामायिकशिमावतके अतिचार चेतसश्चञ्चलत्वं च बचोदुष्प्रणिधानता। शरीरस्यान्यथावृत्तिरावराभाव एव च ॥६२॥ पाठस्य विस्मृतिश्चंते सामायिकव्यतिक्रमाः।
त्याज्याः सुश्रावनित्यं निन्दनीया महर्षिभि ।। ६३ ॥ अर्थ-चित्तकी चञ्चलता, वचनको दुष्प्रणिधानता, शरीरको अन्यथा-वृत्ति-इधर-उधर देखना, आदरका अभाव और पाठको विस्मृति, ये सामायिकके अतिचार महर्षियोके द्वारा निन्दनीय है। उत्तम श्रावकोको इनका त्याग करना चाहिये ॥ ६२-६३ ॥
प्रोषधोपवास शिक्षावतके अतिचार अवष्टामाजितस्थाने मलादीनां विमोचनम्। अदृष्टामाजितस्थाने संस्तरस्थ प्रसारणम् ॥ ६४ ।। अदष्टामाजितादानमादराभाव एव च। तिथेय तिक्रमश्चापि विस्मरण विधेरपि ॥६५॥ शिक्षावतस्य विज्ञेया द्वितोयस्य व्यतिकमाः ।
एते सर्वेऽपि सत्याज्या निर्मलव्रतवाञ्छिमिः ।। ६६ ॥ अर्थ-क्षुधासम्बन्धो शिथिलताके कारण बिना देखे, बिना शोधे स्थान पर मलादिकका छोड़ना, बिना देखे, बिना शोधे स्थान पर विस्तर आदिका फैलाना, बिना देखे, बिना शोधे उपकरण आदिका ग्रहण करना, आदरका अभाव और उपवासको तिथिका उल्लघन करना, ये द्वितीय शिक्षाबतके अतिचार हैं। निर्मल व्रतको इच्छा रखने वाले पुरुषोके द्वारा ये सभी छोडने योग्य हैं ।। ६४-६६ ॥
भोगोपभोग परिमाण शिक्षाबतके अतिचार लोल्यात्सचित्तससेवा सचित्तेन युतस्य च। मिश्रस्य च सचित्तेन भोगोऽमिषवसेवनम् ।। ६७ ॥ दुष्पक्वस्य पदार्थस्य ग्रहण चातिगृद्धितः। शिक्षावत तृतीयस्य परित्याश अतिक्रमाः ॥ ६८॥ इन्दुर्यथा कलङ्कन युक्तो नैव विशोभते ।
तथा दोषश्च सयुक्तो व्रतो नंबात्र शोभते ।। ६९॥ भयं-भोगाकामा को आतुरतासे सचित वस्तुका सेवन करना, सवितसे सम्बद्ध वस्तुका सेवन करना, सचितसे मिलो हुई वस्तुका