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प्रथम प्रकाश
अश्रुतिक्तमुचस्तिष्ठत् तस्य वागमृतोत्सुकः। अर्थ-मुनि दीक्षा धारण करनेके लिये उत्सुक भव्यमानव, बन्धुवर्गसे पूछकर, स्नेहरूपो बन्धनको तोडकर तथा पञ्च इन्द्रियोपर विजय प्राप्तकर शरीर पोषणसे विरक्त होता हुआ वनमे उन गुरुके पास जाता है जो अनेक मुनियोसे सहित हैं, दयाके मानो सागर हैं और वचन बोले विना ही शरीर द्वारा-शरीरकी शान्तमुद्राके द्वारा हो मोक्षमार्गका निरूपण कर रहे हैं । गुरुके पास जाकर वह उनके चरण युगल को नमस्कर करता हुआ हर्षपूर्वक प्रार्थना करता है-हे दयाके सागर । मुझे ससाररूपो सागरसे तारो-पार करो। ससारमे मेरा कोई नही है और मैं भो किसोका कुछ नही हूँ, आपके चरण युगलको छोड़कर अन्य कुछ शरण नही है, अत. आप निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर इस ससार-सागरसे पार करो। इस प्रकार प्रार्थना कर वह गुरुके चरणयुगलपर दृष्टि लगाकर चुप बैठ जाता है। उस समय उसका मुख आँसुओसे भीग रहा होता है और वह गुरुके वचनामृतके लिये उत्सुक रहता है ।। १८-२२॥ आगे गुरु क्या कहते हैं, यह बताते हैं
गुरुः प्राह महाभव्य ! साधु संचिन्तित त्वया ॥ २३ ॥ ससारोऽय महादु.खवृक्षकन्दोऽस्ति सन्ततम् । श्रय एतत्परित्यागे नावाने तस्य निश्चितम् ॥२४॥ गहाणु मुमिदीक्षां त्वमेव भवतारिणी।
साधुमलगुणान् बच्मि शृणु ध्यानेन तानिह ॥ २५ ॥ अर्थ-गुरु ने कहा-हे महाभव्य । तुमने ठोक विचार किया है। यह संसार सदा महादुःखरूपो वृक्षका कन्द है। इसका त्याग करनेमे कल्याण निश्चित है, ग्रहण करनेमे नही। तुम मुनि दीक्षा ग्रहण करो, यहो संसारसे तारनेवाली है। मैं मुनियोके मूलगुण कहता हूँ उन्हे तुम ध्यानसे सुनो ॥ २३-२५ ॥ आगे मूलगुणोके अन्तर्गत पांच महावतोका सक्षिप्त स्वरूप कहते हैं
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहो। एतानि पञ्च कष्यन्ते महावतानि सूरिभिः ॥ २६ ॥ प्रसस्थावरजीवानां हिंसायाः वर्जनं नृभिः । भहिंसा नाम विशेयं महानतमनुत्तमम् ॥ २७ ॥