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१५० सम्यक्चारित्न-चिन्तामणि
कूटलेख क्रिया निन्या न्यासस्थापहतिस्तथा । साकारो मन्त्रभेदश्च सत्याणुवतशालिभि ॥ ४५ ॥ अतिचारा इमे त्याज्या सत्याणुव्रतशालिमिः।
व्रत निर्दोषमेवस्यादात्मशुद्धिविधायकम् ॥ ४६॥ अर्थ-हित चाहनेवाले पुरुषोको अज्ञान अथवा प्रमादसे मिथ्या उपदेश देना, स्त्री-पुरुषोके रहस्य-एकान्त बातको प्रकट करना, कूटलेख क्रिया-झठे लेख लिखना, धरोहरका अपहरण करनेवाले वचन कहना और साकार मन्त्र भेद-चेष्टा आदिसे किसीका अभिप्राय जानकर प्रकट करना, ये सत्याणुव्रतके अतिचार है। निर्दोष व्रतके इच्छक सत्याणु व्रतियोको इनका त्याग करना चाहिये, क्योकि निर्दोष व्रत ही आत्मशुद्धि करनेवाला होता है ।। ४४-४६ ॥
अचौर्याणुव्रतके अतिचार स्तेनप्रयोग चौरावाने लोभस्यवद्धितः। विरुद्धराज्येऽतिक्रान्तिानोन्मानीय वस्तुनो ।। ४७ ।। होनाधिक विधानं च सदशस्यापि मिश्रणम् । इत्येते पञ्च विजेया अतिचारा प्रदूषका ॥४८॥ अचौर्याण व्रतस्येह वर्जनीया विवेकिभिः ।
अतिचारयुत वृत्त न स्याच्छोभास्पद क्वचित् ॥४९॥ अर्थ-स्तेनप्रयोग-लोभकी अधिकतासे चोरको चोरोके लिये प्रेरित करना, तदाहृतादान-चुराकर लायो हुई वस्तुको खरीदना, विरुद्धराज्याति क्रम-विरुद्ध राज्यसे तस्कर व्यापार करना, हीना. धिक मानोन्मान-नाप-तौलके वस्तुओको कम बढ रखना और सदशसन्मिश्र-असली वस्तु मे नकलो वस्तु मिलाना, ये अचोर्याणुव्रतके अतिचार विवेको जनोके द्वारा छोडने योग्य है, क्योकि अतिचार सहित व्रत कही भी शोभित नही होता ॥ ४७-४६ ॥
ब्रह्मचर्याणवतके अतिचार कृतिरन्य विवाहस्य द्विविधत्वरिकागती। अनङ्ग क्रीडनं तीव कामेच्छा व्रतधारिणः ॥ ५० ॥ भतिचारा इमे या ब्रह्मचर्यव्रतस्थ हि। एतान् सर्वान् परित्यज्य विधेय विमलं व्रतम् ॥ ५१ ॥