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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः चतुर्विशतितीर्थेशामकस्य स्तवनं यदा। क्रियते साधुसन्तत्या तदा सा वन्दना स्मृता ॥ १४॥ अर्थ-साधु समूह द्वारा जब चौबीस तीर्थङ्ककरोमेसे किसी एक तीर्थङ्करकी स्तुतिकी जाती है तब वह वन्दना नामक स्तवन माना गया है ॥१४॥
विशेष-इस सदर्भमे कषायपाहुड,प्रथम भाग, पृष्ठ १०२-१०३ पर दिया गया शंका समाधान विशिष्ट रुचिकर है
'एयस्य तित्थयरस्स ममसण वदणा णाम । एक्कजिणजिणालय वंदणा ण कम्मक्खय कुणइ, सेसजिण जिणालयच्चा सण दुवारेणप्पण्णकम्मबंधहेउत्तादो। ण तस्स मोक्खो जइणत्तं वा, पक्खवायदूसियस्स णाणचरणणिबधणसम्मत्ताभावादो तदो एगस्स णमसणमणुववण्ण त्ति'।
शंका-एक जिन और एक जिनालयकी वन्दना कोका क्षय नही कर सकती क्योकि इससे शेष जिन और जिनालयोको आसादनाअपमान होता है। इस आसादनासे अशुभ कर्मोका बन्ध होता है। इसके सिवाय एकको वंदना करने वालेको मोक्ष और जैनत्वको प्राप्ति नही हो सकती। पक्षपातसे दूषित मनुष्यके ज्ञान और चारित्रके कारणभूत सम्यग्दर्शनका अभाव है, अत एक जिन या जिनालयको नमस्काररूप वन्दना नही करनी चाहिये।
एत्थ परिहारो बुच्चदे-ण ताव पक्खवाओ अत्यि, एक्कं चेव जिण जिणालयं वा वदामि त्ति णियमाभावादो। ण च सेस जिणजिणालयाण वदणा ण कया चेव, अणतणाणदंसणविरियसुहादिवारेण एपत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाय सव्वेसि पि वंदणुवत्तीदो। एवं संते ण च चउबीसत्थयम्मि वंदणाए अतम्भावो होदि, दव्वविय पज्जवट्ठियणयाणमेयत्तविरोहादो। ण च सम्वो पक्खवाओ असुह कम्मबंध हेऊ चेवेत्ति णियमो अत्थि, खीणमोहजिणविसयपक्ख वायम्मि तदणु वलभादो। एग जिणवदणाफलेण समाणफलत्तादो ण सेसजिण वंदणा फलवंता, तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणवलं भादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणंतेसु जिणेसु अक्कमेण छदुमत्थुवयोग पउत्तीए विसेसपरूवणाए असभवादो वा एक्कस्सेव जिणस्स वंदणा कायव्वा त्ति ण एसो वि एयंग्गही कायव्वो, एयंतावहारणस्स सव्वहा दृण्णयत्तप्पसंगादो। तम्हा एव बिह विप्पडिवस्तिणिरायर ण