________________
१६६
सम्पचारित-चिन्तामणिः
मुनियोंके चौरासी लाख उत्तरगुण हिंसा, असत्य, चीयं, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, जुगप्सा, रति और अरति ये तेरह दोष हैं । इनमे मन, वचन एवं काय इन तोनोको दुष्टतारूप तीन दोष मिलानेसे सोलह होते हैं। इन १६ दोषोंमे मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनता ( चुगलखोरी ) अज्ञान और इन्द्रियोका अनिग्रह (निग्रह नहीं करना ) ये ५ और मिला देनेसे २१ दोष हो जाते हैं । इन २१ दोषोका त्याग करने रूप २१ गुण होते हैं। यह त्याग अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचारके त्यागसे । प्रकारका होता है, अतः इन चारका २१ मे गुणा करनेसे ८४ प्रकारके गुण होते हैं। इन ८४ में पृथिवीकायिक आदि ५ स्थावर एवं दोन्द्रिय, पोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय और संज्ञोपञ्चेन्द्रिय इन दशकायके जीवोकी दयारूप प्राणिसंयम तथा इन्द्रियसंयमके ६ भेद सब मिलाकर १०० का गणा करनेपर ८५०० होते हैं। इनमे १० प्रकारकी विराधनामओ (स्त्रीसंसर्ग, सरसाहार, सुगन्ध संस्कार, कोमल शयनासन, शरीर-मण्डन, गीतवादित्र श्रवण, अर्थ ग्रहण, कुशीलसंसर्ग, राजसेवा एव रात्रि-सचरणका गणा करनेपर ८४,००० चौरासो हजार होते हैं। इनमे आलोचना सम्बन्धो १० दोष ( आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, वादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अध्यक्त, तत्सेवी ) का गुणा करनेपर ८०,००.००० लाख उत्तरगुण हो जाते हैं।
निर्जरा निर्जरा भावनाके वर्णनमे पृष्ठ ११७ पर निर्जराके सविपाक और अविपाकके भेदसे दो भेदोका वर्णन किया गया है। बद्धकर्म के प्रदेश आबाधा कालके बाद अपना फल देते हुए निषेक-रचनाके अनुसार क्रमसे निजीर्ण होते जाते हैं, इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं । इस जीवके सिद्धोके अनन्तवे भाग और अभव्य राशिसे अनन्त गुणित प्रमाण वाले समयप्रबद्धका प्रतिसमय बन्ध होता है। इतने ही प्रमाण वाले समयप्रबद्धको निर्जरा होती रहती है और डेढ गुणहानि प्रमाण समयप्रवद सत्तामे बना रहता है। मोक्षमार्गमे इस निर्जराका कोई प्रभाव नही । होता, क्योकि जितने कर्मोकी निर्जरा होतो है उतने हो नवीन कोका बन्ध हो जाता है। अविपाक निर्जरा वह है जो तपश्चरणके प्रभावसे उदय कालके पूर्व होतो है और जिसके होनेपर सवर हो जाता है।