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सम्यकारिख-चिन्तामा अर्थ-वेदक सम्यग्दर्शनसे सहित अथवा वेदक कालके भीतर स्थित कोई अल्पसंसारी मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यग्दर्शन और देशचारित्रको एक साथ प्राप्त करता है तो वह अनिवृत्तिकरण को छोडकर शेष दो करण करता है ।। २६-२७ ॥ आगे किस करणमे क्या कार्य होता है, यह कहते हैं
अध.प्रवृत्ततः पूर्व जायमान विशुद्धितः। आयुर्वर्जमशेषाणां कर्मणां स्थितिबन्धनम् ॥ २८॥ कुरुतेऽन्तः कोटोकोटी प्रमितं पुण्यकर्मणाम् । अनुभागं चतुःस्थानमशुभानां तु कर्मणाम् ॥ २९ ॥ विस्थानीय विधायासो भवेत् देशवतोन्मुखः। अध प्रवृत्तकरणे विशुद्धिरेव वर्धते ॥ ३० ॥ स्थितिकाण्डकघातोऽनुभागकाण्डक सक्षतिः। भवितु नाहतस्तत्र योग्यशुद्धरमावतः ।। ३१॥ न स्यादत्र गुणश्रेणो न चात्र गुण सक्रमः । अपूर्वकरणे प्राप्ते भवन्त्येतानि सर्वत. ॥ ३२॥ कुर्वन्नेतानि सर्वाणि लभते देशतो व्रतम्।
देशवतो सवा कुर्यान्निर्जरा गुणश्रेणितः ॥ ३३ ॥ अर्थ-अधःप्रवृत्तसे पूर्व होने वाली विशद्धिसे यह जीव आयुकर्म को छोडकर शेष कर्मों का स्थितिबन्ध अन्त.कोडा-कोडी सागर प्रमाण करता है, पुण्य प्रकृतियोके अनुभाग को चतुःस्थानीय गूड, खाड, शर्करा अमृत रूप और पाप प्रकृतियोके अनुभाग को द्विस्थानीय-निम्ब और काजीर रूप करके देशवत धारण करनेके सन्मुख होता है। पश्चात् अध प्रवृत्त करण को प्राप्त होता है। उसमे इसकी विशुद्धि हो बढ़ती है। योग्य विशुद्धिका अभाव होनेसे स्थिति-काण्डक-घात और अनुभागकाण्डक-घात नही होते । अतः प्रवृत्तकरणमे न गुण श्रेणी निर्जरा होती है और न गुणसंक्रमण। पश्चात् अपूर्वकरणके प्राप्त होनेपर ये सब कार्य सब प्रकारसे होने लगते हैं। इन सव कार्योंको करता हुआ मनुष्य अथवा तिर्यञ्च देशव्रतको प्राप्त होता है। देशवतो गुण श्रेणी निर्जरा को सतत् करता है ।। २८-३३ ॥ आगे सयतासयत जोव किस गुणस्थानवर्ती है, यह कहते हैं
संयतासंयता जीवा पञ्चमस्थानतिनः । सम्यक्त्ववैभवोपेताः कश्यन्ते जिनसूरिमि ॥ ३४ ॥