Book Title: Samyak Charitra Chintamani
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 199
________________ प्रशस्ति १७१ गल्लीलाल तनूजेन मानक्युवरसंभवा । बयाचन्द्रस्य शिष्येण सागरग्रामवासिना ॥४॥ पन्नालालेन बालेन रचितोऽल्पधिया मया। जीयाचिन्तामणिलॉक चारित्रायो निरन्तरम ॥५॥ अज्ञानाद्वा प्रमादाढा जाता अन्य विनिर्मिती। याः काश्चित् त्रुटयः सन्ति शोषनीया सुधस्तु ताः ॥ ६॥ जिनामा भगतो नूनं विमेमि भूरिभूरियः। अतो मत्स्खलनं दृष्ट्वा हसन्तु बुधोत्तमाः ॥७॥ त्रुटीनां शोधने कुर्यविद्वान्सो महती कृपाम् । सर्वेषां सहयोगेन जैनवाक्प्रसरो भवेत् ॥ ८॥ अर्थ-गल्लीलालके पुत्र, जानको माताके उदरसे उत्पन्न, दयाचन्द्र जीके शिष्य, सागर-निवासी, अल्पबुद्धि बालक पन्नालालके द्वारा रचा हुआ यह सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थ निरन्तर जयवन्त रहे। ग्रन्थको रचनामे अज्ञान अथवा प्रमादसे जो कोई त्रुटिया हुई हैं उन्हे विद्वज्जन शुद्ध करे। सचमुच हो मैं जिनाज्ञा भङ्गसे अत्यधिक भयभीत रहता हूँ। इसलिये उत्तम ज्ञानो जन मेरो त्रुटि देखकर हँसे नही। किन्तु विद्वज्जन त्रुटियोको शुद्ध करनेमे महतो कृपा करे । भावना यह है कि सबके सहयोगसे जिनवाणीका प्रसार हो ॥ ४.८॥

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