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नयोक्न प्रकार काचिद् भावर्शषिल्यावन्नीचरपि पति ते। पुनर्भावविशुवित्वातवा यान्ति शीघ्रतः॥ ३५ ॥ देशवतयुता. केचिन्मनुमा भावशुदितः। महाव्रतानि संगृह्य सप्तमं यान्ति बामकम् ॥ ३६॥ भावतः संयमो यत्र वर्तते द्रव्यसंयमः ।
नियमेन भवत्येव मावो द्रव्ये तु मान्यतः ॥ ३७॥ अर्ष-जैनाचार्यों द्वारा सम्यग्दर्शन रूप वैभवसे सहित संयता-सयत देशचारित्रके धारक पञ्चम गुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। वे कदाचित भावोको शिथिलतासे यदि नीचे गुणस्थानोमे भी आते हैं तो भावोकी विशुद्धतासे शीघ्र ही पञ्चम गुणस्थानमे हो आ जाते हैं। देशव्रतसे सहित कितने हो मनुष्य महावत ग्रहणकर सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। जहा भावसंयम होता है वहां द्रव्यसंयम नियमसे होता है परन्तु द्रव्यसंयमके रहते हुए भावसयम भाज्य है-होता भी है और नही भी होता ॥ ३४-३७॥
भावार्थ-प्रतिपक्षी कषायका क्षयोपशम होनेसे आत्मामे जो विशुद्धता होतो है वह भाव-सयम कहलाता है तथा शरीरके द्वारा पदानुरूप क्रियाओका होना द्रव्यसंयम है। जिसके प्रतिपक्षी कषायोका अभाव होनेसे भावोमे विशुद्धता उत्पन्न हुई है उसका बाह्य वेष तथा आचरण नियमसे भावानुरूप होता है परन्तु प्रतिपक्षी कषायके मन्द या मन्दतर उदयमे जो द्रव्यसयम बना है उसके भावसयम होता भी है और नही भी होता। भावसयम या भावसंयमासंयमको परीक्षा प्रत्यक्ष ज्ञानी हो कर सकते हैं, साधारण लोग नही। वे तो चरणानुयोग के अनुसार निर्दोष आचरणको देखकर उसे संयत या सयतासयत मानते हैं। इसीलिये आहार-दान तथा भक्तिवन्दना आदिमे चरणानुयोगका आलम्बन ग्राह्य बतलाया गया है, करणानुयोग का नही। अब देशचारित्रका धारक मनुष्य या तिर्यञ्च कहा उत्पन्न होता है, यह कहते हैं
देशवतप्रभावेण मनुजाः षोडशावधिम् । स्वर्ग यान्ति ततश्च्युस्या भवन्ति पुरुषोत्तमा ॥ ३८ ॥ तिर्यचोऽपि समायान्ति त्रिवि षोडशावधिम् । ततरण्युत्वा मही यान्ति गृहीत्वा मानुषं भवम् ।। ३९ ॥