Book Title: Samyak Charitra Chintamani
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 174
________________ १५६ सम्यक्पारिन-चिन्तामणिः त्याग करना ब्रह्मचर्याणु व्रत है । चेतन-अचेतन धनधान्यादि वस्तुओंका जो एकदेश त्याग है उसे परिग्रह परिमाणाणवत जानना चाहिए। यह व्रत मनुष्योके सौजन्यका कारण है। वास्तवमे बढतो हुई इच्छा हो मनुष्योके दुखका कारण है ।। ६-१४ ॥ आगे तोन गुणवतोका वर्णन करते है अणवतानां साहाय्यकरणं स्यात् गुणवतम् । दिशावतादिभेदेन तच्चेह त्रिविधं मतम् ॥ १५ ॥ प्राध्यपाच्यादिकाष्ठासु यातायातनियन्त्रणम्। यावज्जीवं भवेत्काष्ठा व्रतमाघ गुणवतम् ॥ १६ ॥ काष्ठावतस्य मर्यादा मध्ये चिरकालकम् । यो हि नाम भवेन्नाम तच्च वेशवतं स्मृतम् ॥१७॥ मनो वाक्काय चेष्टा या सा हि वण्ड. समुच्यते। अर्थो न विद्यते यस्य दण्डः सोऽनर्थको मतः॥१८॥ स्यागश्चानर्थदण्डस्यानर्थदण्डवतं मतम् । कृष्यादिवापकार्याणामुपदेशो निरर्थकः॥ १९॥ दीयते यः स पापोपदेशो नर्थदण्डकः । तस्य त्यागो विधातव्यः पापानवनिरोधिभिः॥२०॥ धनुर्वाणादि हिंसोपकरणाना निरर्थकम् । हिसादान प्रदानं स्यात्तत्यागस्तु वतं स्मृतम् ॥ २१॥ रागद्वेषादिवद्धिः स्याद् यासां श्रवणतो नणाम।। ताहि दुःश्रुतयो ज्ञेयास्तत्यागस्तु व्रतं मतम् ॥ २२॥ अन्येषां वधबन्धादि चिन्तनं रागरोषतः। अपध्यान भवेत् त्यागस्तस्य च स्यान्महद् व्रतम् ॥ २३ ॥ शेलाराम समुद्रादौ यत् भ्रमणं निरर्थकम् । मताप्रमावचर्या सा तत्त्यागो व्रतमुच्यते ॥ २४ ॥ अर्थ-जो अणुव्रतोकी सहायता करता है वह गुणवत है। दिग्वत बादिके भेदसे वह गुणव्रत तोन प्रकारका माना गया है। पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओमे जीवन पर्यन्तके लिये यातायातको नियन्त्रित करना दिग्वत नामका पहला गुणवत है। दिग्वतको मर्यादाके बोचमें कुछ समयके लिए जो नियम लिया जाता है वह देशवत माना गया है । मन, वचन, कायको जो चेष्टा है वह दण्ड कहलाती है। जिसका कोई प्रयोजन नहीं है वह अनर्थ कहलाता है, अनर्थदण्डका त्याग करना अनर्थ

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