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বি গায় दण्डवत है। कृषि आदि कार्योका जो निरर्थक-निष्प्रयोजन उपदेश दिया जाता है वह पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड है। पापासवका निरोध करनेवाले मनुष्योको उसका त्याग करना चाहिए । धनुष, बाण
आदि हिंसाके उपकरणोका निरर्थक देना हिंसावान नामका अनर्थ दण्ड है, उसका त्याग करना व्रत है। जिनके सुननेसे मनुष्योको राग. द्वेषकी वृद्धि होती है वह दु.श्रुति नामका अनर्थदण्ड है, इसका त्याग करना व्रत है। रागद्वेषसे अन्य लोगोके वध-बन्धन आदिका चिन्तन करना अपध्यान अनर्थदण्ड है, उसका त्याग करना श्रेष्ठ व्रत है। पर्वत, उद्यान तथा समुद्र आदिमें निरर्थक भ्रमण करना प्रमावचर्या है उसका त्याग करना व्रत कहलाता है ।। १५-२४ ॥ आगे चार शिक्षावतोका वर्णन करते है
मुनिधर्मस्य शिक्षायाः प्राप्तिर्यस्मात्प्रजायते । शिक्षावतं तु तज्नेयं चतस्त्रः सन्ति तद्धिवा ॥२५॥ आधं सामायिक नेयं द्वितीयं प्रोषषाह्वयम् । भोगोपभोगवस्तूनां परिमाणं तृतीयकम् ॥ २६ ॥ शिक्षावत चतुर्थ स्यादतिथीसंविभागकम् ।
श्रावका पालनीयानि यथाकालं यथाविधि ॥ २७ ॥ अर्थ-जिससे मुनिधर्मको शिक्षाकी प्राप्ति होती है उसे शिक्षावत जानना चाहिये। इसके चार भेद हैं-पहला सामायिक, दूसरा प्रोषघोपवास, तीसरा भोगोपभोग परिमाण और चौथा अतिथि संविभाग। श्रावकोको यथासमय विधि-पूर्वक इनका पालन करना चाहिये ।। २५-२७॥ आगे इनका स्वरूप कहते हैं
प्रातमध्याह्नसन्ध्यासु कृतिकर्मपुरस्सरम् । सामायिकं सुकर्तव्यं घटिकाढयसम्मितम् ॥ २८॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां चतुराहारवर्जनम् । प्रोषधः स हि विशेय एकासनपुरस्सरः ॥२९॥ ये भज्यन्ते सकृद भोगा: कम्यन्ते तेऽशनावपः। भूयो भूयोऽपि भुज्यन्ते ये तेऽलंकरणादयः॥ ३०॥ उपभोगाः प्रकीय॑न्ते वस्तु तस्व विमारक। परिमाण सवा ह्येषां विधातव्यं विवेकिनिः॥३१॥