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द्वादश प्रकाश
पूर्वक सल्लेखना करनी चाहिये । सल्लेखनाको विधि पोछे विस्तारपूर्वक कही गई है ।। २८-३८ ॥ आगे सत्तर अतिचारोके कथनको प्रतिज्ञाकर सम्यग्दर्शनके अतिचार कहते हैं
इतोऽग्ने सम्प्रवक्ष्याम्यतीचाराणां च सप्ततिम् । श्रुत्वा सुपरिहार्यास्ते वतनर्मल्य काक्षिभिः ॥ ३९ ॥ शङ्का कांक्षा च भोगानां विचिकित्सा तथैव च । अन्यदृष्टे प्रशसा च सस्तवश्चापि मोहिन. ॥ ४० ॥ एते पञ्च परित्याज्याः सववृष्टे रति चारकाः।
शुद्ध सदृष्टिरेवस्यात् कर्मक्षपणकारणम् ॥४१॥ अर्थ-अब इसके आगे सत्तर अतिचार कहेगे। व्रतोको निर्मलता चाहनेवाले पुरुषोको उन्हे सुनकर दूर करना चाहिये। शङ्का, भोगाकाडक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशसा और मोही-अन्य दृष्टिका सस्तव, ये सम्यग्दर्शनके पांच अतिचार छोडने योग्य है क्योकि शुद्धनिरतिचार सम्यग्दर्शन ही कर्मक्षयका कारण होता है ॥ ३६-४१॥ आगे पांच अणुव्रतोके अतिचार कहते है
अहिंसाणुव्रतके अतिचार आश्रितजीवजातीना तधो बन्धो विभेदनम् । आरोपोऽधिकभारस्य निरोधश्चान्न पानयोः ॥ ४२ ॥ अतीचारा इमे ज्ञेया हिसाणुव्रतस्य हि।
अतिचारान् परित्यज्य व्रत कार्य सुनिर्मलम् ॥ ४३ ॥ अर्थ-आश्रित जीव जातियो-गाय, भैस आदिका वध-लाठी, चाबुक आदिसे पोटना, कष्ट देनेके अभिप्रायपूर्वक बन्ध-रस्सो आदि. से बाधना, सौन्दर्य बढानेको भावनासे विभेदन-कान आदि अगोको छेदना, अधिक भार लादना और अन्न पानोका विरोध करना-पर्याप्त भोजन नही देना, ये पाच अहिंसाणु व्रतके अतिचार है। इनका त्याग कर व्रतको निर्मल बनाना चाहिये ।। ४२.४३ ॥
सत्याणवतके अतिचार अज्ञानाहा प्रमावाद्वा जीवानां हितकांक्षिणाम् । बानं मिथ्योपदेशस्य रहस्याख्यापनं तथा ॥४४ ।।