Book Title: Samyak Charitra Chintamani
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 183
________________ हार्दर्श प्रकाश कृषीवला यथा लोके परित क्षेत्रसचयम् । कृत्वा वृति सुरक्षन्ति बुर्लभ सस्यसम्पदम् ।। ७५ ।। तथा शीलानि सधृत्य प्रतिनो मानवा भुवि । अत्यन्त दुर्लभां लोके रक्षन्ति व्रतसम्पदम् ॥ ७६ ॥ अर्थ - अणुव्रत आचार्यों द्वारा व्रत शब्दसे कहे जाते हैं और शेष सात- तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, शील शब्दसे कहे जाते हैं। जिस प्रकार लोकमे किसान खेतोके चारो ओर बाड़ लगाकर दुर्लभ धान्य सपत्तिकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार पृथिवो पर व्रती मनुष्य शीलोको धारण कर लोकमे अत्यन्त दुर्लभ व्रतरूप सम्पत्तिकी रक्षा करते हैं ॥ ७४-७६ ॥ अब आगे श्रावकोको जिनपूजा आदिका निर्देश देते है १५५ भक्त्या जिनेन्द्रदेवस्य द्रव्यैः सारतरंरिह । अर्चा नित्य विधेयास्ति सर्वसंकटहारिणो ॥ ७७ ॥ मन्दिराणि यथाशक्ति जिनदेवस्य भक्तितः । निर्मापयितुमर्हाणि मेरुतुल्यानि सर्वदा ॥ ७८ ॥ तेषु जिनेन्द्रदेवस्य प्रतिमाश्चापि सुन्दराः । स्थापनीया प्रतिष्ठाभिः कृत्वा भव्य महोत्सवम् ॥ ७९ ॥ अर्थ - श्रावकोको प्रतिदिन अत्यन्त श्रेष्ठ अष्ट द्रव्योके द्वारा भक्तिपूर्व जिनेन्द्रदेवको पूजा करना चाहिये क्योकि जिनपूजा सब सकटोको हरने वाली है | श्रावकोको सदा भक्तिपूर्वक सुमेरुके समान - उत्तुङ्ग जिनमन्दिर भी यथाशक्ति बनवानेके योग्य है, तथा उनमे प्रतिष्ठाओ द्वारा महोत्सव कर जिनेन्द्र भगवान्की सुन्दर - मनोज्ञ प्रतिमाएँ स्थापित करना चाहिये ।। ७७-७८६ ॥ आगे जिनवाणीके प्रसारका निर्देश देते है जिनवाणी प्रसाराय प्रयत्नो व्रतिभिर्जनैः । कार्यः सदा स्वद्रव्येण संचितेन सुभक्तितः ॥ ८० ॥ विद्यालयाच संस्थाप्याश्छात्रवश्वेन संयुताः । शिक्षकाers संयोज्या योग्यवृत्त्याभितोषिताः ॥ ८१ ॥ विद्वांसो दानमानाहः सच्छास्त्रेषु कृतश्रमाः । साम्प्रतं जिनशास्त्राणामाधाराः सन्ति ते यतः ॥ ८२ ॥ निर्प्रस्थमुद्रयोपेता विरक्ता भवभोगतः । शश्वदात्म हितोयुक्ताः परकल्याणकाङ्क्षिणः ।। ८३ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238