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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
मुनयोऽपि
सदावन्द्या
जैनधर्मप्रभावका ।
तेषां प्रभावना कार्या जनतानन्ददायिनी ॥ ८४ ॥ दोनहीनजना लोके कारुण्यावहमूर्तयः ।
अन्नवस्त्रादिदानेन रक्षणीयाः सदा नरेः ॥ ८५ ॥ आरोग्यलाभ संस्थान निचया धनदानतः ।
पोषणीयाः सदा स्वीय शरीर सहयोगतः ॥ ८६ ॥ लोककल्याण कारीणि कार्याणि विविधान्यपि । यथाशक्ति विधेयानि करुणापूर्ण मानसेः ॥ ८७ ॥
अर्थ - व्रतो मनुष्यो को अपने सचित द्रव्यके द्वारा सदा भक्तिपूर्वक जिनवाणी के प्रसारके लिये कार्य करना चाहिये। छात्र समूह से सहित विद्यालय भी स्थापित करना चाहिये और उनमे योग्यवृत्ति से सतो - षित अध्यापको को सयोजित करना चाहिये । समीचीन शास्त्रोमे परिश्रम करने वाले विद्वान् भी दान तथा सम्मानके योग्य है क्योकि वे इस समय जिनशास्त्रोके आधारभूत हैं। निर्ग्रन्थ मुद्रासे सहित, ससार सम्बन्धी भोगोसे विरक्त, निरन्तर आत्महितमे तत्पर, परकल्याणके इच्छुक तथा जैनधर्मकी प्रभावना करने वाले मुनि भी सदा वन्दनोय है । जनसमूहको आनन्द देने वाली उनको प्रभावना करना चाहिये । जिनके शरोरको देखकर करुणा उत्पन्न होतो है ऐसे दीन-हीन मनुष्य भो लोकमे सदा अन्न-वस्त्रादि देकर रक्षा करनेके योग्य है | आरोग्य लाभ के सस्थान जो औषधालय आदि हैं वे भी धन-दानसे तथा अपने शारीरिक सहयोगसे सदा पोषणोय है - पुष्ट करने के योग्य है । जिनका हृदय करुणासे पूर्ण है ऐसे मनुष्योको यथाशक्ति लोककल्याणकारी अन्य कार्य भी करनेके याग्य है | ८० ८७ ॥ आगे प्रतिमाओका वर्णन करते है
अप्रत्याख्यानावरण मोहस्य क्षयोपशमात् । प्रत्याख्यानावृतेः किश्वोदयस्य तारतम्यत । ८८ ।। श्रावकोऽयं यथाशक्ति प्रतिमासु प्रवर्तते । प्रतिमाः सन्ति ता एता एकादश मिता भुवि ॥ ८९ ॥ दर्शनिको व्रती चापि सामायिकसमुद्यतः । प्रोषधव्रतधारी च सचितत्याग तत्परः ।। ९० ॥ रात्रि मुक्तिपरित्यागी ब्रह्मचर्यविशोभित । कृतारम्भपरित्यागः सङ्गत्यागेन शुम्भितः ॥ ९१ ॥