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सम्यक्चारित्र-चिन्तामापः अर्थ-जो सम्यग्दर्शन से सहित हो, सात व्यसनों से दूर हो, आठ मूलगुणो से युक्त हो वह दर्शनिक श्रावक कहलाता है। जो मोक्ष मार्ग मे उपयोगी देव शास्त्र गुरु की उत्कृष्ट श्रद्धा से युक्त हो, वह सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। जुआ, मास, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन ये सात व्यसन माने गये हैं। इनका परित्यागो दर्शनिक होता है। जो कभी भी मद्य, मास, मधु को नही खाता है, न उदुम्बर आदि पाच फलोंको खाता है, न कभी रात्रि मे भोजन करता है, जोव दया पालता है, जिनदर्शन करता है और बिना छना पानो नही लेता, वह अष्टमूल गुणो का धारक होता है। साथ ही जो ससारके भोगोसे विरक्त हो पञ्चपरमेष्ठीके चरण कमलोको शरण को प्राप्त हुआ है वह जैनागमके ज्ञाता पुरुषोके द्वारा दर्शनिक नामक प्रथम श्रावक कहा गया है ॥ ६४-१००॥
प्रतिक भावक (दूसरी प्रतिमा) का लक्षण द्वादशवत सम्पानो जैनाचारपरायणः ।
वतिकः कथ्यते लोके द्वितीयः श्रावकस्तथा ।। १०१॥ अर्थ-जो पाच अणव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत, इन बारह व्रतोसे सहित तथा जैन कुलोचित आचारमे तत्पर है वह जगत् मे वतिक-द्वितीय प्रतिमाधारो श्रावक कहलाता है ॥ १०१ ॥
____सामायिको ( तृतीय प्रतिमा ) का लक्षण सामायिकं त्रिसन्ध्यासुप्रत्यहं विदधाति यः।
सामायिकी स सम्प्रोक्तस्तत्त्वचिन्तन तत्परः ॥१०२॥ अर्थ-जो प्रतिदिन तीनो संध्याओमे सामायिक करता है तथा तत्त्व विचार करनेमे तत्पर रहता है वह सामायिकी-तृतीय प्रतिमाधारी श्रावक कहा गया है ॥ १०२॥
प्रोषषिक ( चतुर्य प्रतिमा ) का लक्षण अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषधं नियमेन यः।
करोति रुचि सम्पन्न स हि प्रोषधिको मत ॥१०३॥ अर्थ-जो रुचिपूर्वक अष्टमी और चतुर्दशोको नियमसे प्रोषध करता है वह प्रोषधिक चतुर्थं प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है ।। १०३।।