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द्वादश प्रकाश
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चोरो, कुशील और द्विविध-चेतन-अचेतन परिग्रह राशिसे एकदेश विरक्त हो देशचारित्रको प्राप्त होता है ।। ३-५ ॥ आगे पाँच अणुव्रतोका स्वरूप निर्देश करते हैं
अहिंसाविप्रभेदेनाणवतं पञ्चधामतम् । निवृत्तिस्त्रसहिसातोऽहिसाणुव्रतमुच्यते ॥६॥ संकल्पाद् विहिता हिंसा भविनां भववर्धनी। एतत्प्रभावतो जीवा जायन्ते श्वनभूमिषु ।। ७ ।। आरम्माज्जायते हिसा या च युद्धाप्राजयते। उधमाद या समुत्पन्ना तासां त्यागो न वर्तते ॥८॥ यथायथोचमायान्ति प्रतिमादिविधानतः। तथा तथा परित्याग आसां हि सम्भवेन्नणाम् ॥ ९ ॥ स्थलानतवचनानां त्यागो यत्र विधीयते। सत्याणव्रतमेतत्स्यात्पुंसां सद्धर्मशालिनाम् ॥१०॥ स्थूलस्तेयाख्य पापाद या विरति पुण्यशोभिनाम् । अचौर्याणुव्रतं ज्ञेय तदेतत्सौख्यकारणम् ॥११॥ धर्मेण परिणीतायाः पत्न्या सम्बन्धमन्तरा। अन्यस्त्रीसङ्ग सन्त्यागो ब्रह्मचर्य भवेत्तु तत् ।। १२॥ धनधान्याविवस्तूनां चेतनाचेतनाक्ताम् । यो देशेन परित्यागः सोऽपरिग्रहसंज्ञकम् ॥ १३॥ अणवत परिशेयं जनसोजन्यकारणम्।।
वस्तुतो वर्धमानेच्छा जनानां दुःखकारणम् ।। १४ ।। अर्थ- अहिंसा आदिके भेदसे अणुव्रत पांच प्रकारका माना गया है। त्रसहिंसासे निवृत्ति होना अहिंसाणुव्रत कहलाता है। संकल्पासे की गई हिंसा ससारी जीवोके ससारको बढानेवाली है । इसके प्रभावसे जोव नरककी पृथिवियोमे उत्पन्न होते हैं। आरम्भसे, युद्धसे और उद्योग से जो हिंसाये होती है उनका प्रारम्भमे त्याग नहीं होता। प्रतिमा आदिके विधानसे मनुष्य जैसे-जैसे ऊपर आते जाते है वैसे-वैसे हो उनका त्याग सम्भव होता जाता है। स्थूल असत्य वचनोका जिसमे त्याग किया जाता है वह समोचोन धर्मसे सुशोभित पुरुषोका सत्याणु व्रत है । स्थूल चोरो नामक पापसे पुण्यशाली मनुष्योको जो निवृत्ति है उसे अचौर्याणुव्रत जानना चाहिए। यह सुखका कारण है। धर्मपूर्वक विवाहो गई स्त्रोके सम्बन्धको छोड़कर अन्य सित्रयोके समागमका