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बागे निर्जरा भावनाका चिन्तन करते हैं
कर्मणो पूर्वबहानायकदेशस्य संगमः। मिर्जरा प्रोग्यते विनायविशारदः॥४॥ सविपाकाविपाकेतिमेरेन हिविषा - सा। माया भवति सर्वेषां द्वितीया स्यातपस्विनाम् ॥ ८॥ कर्मस्थित्यनुसारेणावापाकाले समापते। बदतः स्वफल कर्म-प्रदेशाः संचिता स्वयम् ॥ ८६ ॥ पृथग भवन्ति जीवघ्या सविपाका मता भुतो। प्रभावात् तपसा केचिवाबाधा पूर्वमेव हि ॥ ८७ ॥ निर्मार्णा यत्र जायन्ते सा मता विपाकना। अविपाकाप्रभावेण जोपा आयान्ति निर्वृतिम् ॥ ८८॥ सविपाकाप्रभावात्तु तिष्ठत्वव विष्टपे। अनशनाविभेदेन तपांसिसन्ति दावश ।। ८९॥ तान्येव सूरिभिः प्रोक्ता अविपाकासुहेतवः। हेतो सत्येव सिदधन्ति कार्याणि न तु तं बिना ॥१०॥ आत्मन् ! वाग्छसि चेःपरिमोसं समन्ततः । सया कुरु तासि त्वं यथाकालं यथावलम् ॥ ९१ ॥ मग्नितप्तं यथा हेमनिर्मलं जायते दुतम् । तपस्तप्तस्तथाल्मायं निर्यसो भवति ध्रुवम् ।। ९२॥ अनावितो निवदानि कर्माणि तपसा बिना।
क्षीयन्ते नव जीवानां वाञ्छतामपि नित्यशः ॥ ९३ ॥ अर्थ-जैनागमके ज्ञाता विद्वानो द्वारा, पूर्वबद्ध कर्मों के एकदेशका क्षय होना निर्जरा कही जाती है। यह निर्जरा सविपाका और अवि. पाकाके भेदसे दो प्रकारको होती है। सविपाका निर्जरा सभी जीवोके होतो है परन्तु अविपाका निजरा तपस्वियो-मुनियोके होतो है। कर्मस्थितिके अनुसार आबाधाकाल आनेपर संचित कर्मप्रदेश अपना फल देते हुए जीवोंसे जो स्वयं पृथक् हो जाते हैं, यह निर्जरा शास्त्रोमे सविपाका मानी गई है और जिससे तपके प्रभावसे कितने ही कर्मप्रदेश आवाधाके पूर्व हो निर्जीर्ण हो जाते हैं वह अविपाकमा निर्जरा मानो गई है। अविपाक निर्जराके प्रभावसे जोव निर्वाणको प्राप्त होते हैं और सविपाक निर्जराके प्रभावसे इसो संसारमे स्थित रहते हैं। अनशनादिके भेदसे तप बारह हैं, ये तप ही आचार्योन अविपाक निर्जरा