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नवम प्रकाश द्वितोयादिक पृथिवियोमें पर्याप्तकोंके क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व हो सकते हैं परन्तु अपर्याप्तकोके एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। ___तिर्यग्गतिको अपेक्षा भोगभूमिमें पर्याप्तक भव्य तिर्यञ्चोके तोनो सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोके औपशमिक सम्यवत्व नही होता। कर्मभूमिज पर्याप्तक तिर्यञ्चोमे क्षायिकके बिना दो सम्यक्त्व होते है परन्तु अपर्याप्तकोके सम्यग्दर्शनको सुगन्ध नही रहतो। तात्पर्य यह है कि जिसने तिर्यगायुका बन्ध करनेके बाद सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसा मनुष्य नियमसे भोगभूमिका हो तिर्यञ्च होता है, कर्मभूमिका नहीं। अत कर्मभूमिके अपर्याप्तक तिर्यञ्च सम्यक्त्वका अभाव रहता है । पर्याप्तक अवस्थामे औपशमिक और क्षायोपशमिक नवीन उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिये उनका सद्भाव बताया है।
पर्याप्तक मनुष्योमे तोनो सम्यग्दर्शन होते हैं, परन्तु अपर्याप्तक मनुष्योके औपशमिक सम्यग्दर्शन नही होता है। पर्याप्तक द्रव्य-स्त्रियोके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो होते हैं परन्तु अपर्याप्तक स्त्रियोके सम्यग्दर्शनका लेश भो नहीं होता है उसका कारण है कि सम्यग्दष्टि जीव द्रव्य-स्त्रियोमे उत्पन्न नही होता।
देवगतिकी अपेक्षा पर्याप्तक-अपर्याप्तक-दोनो प्रकारके भव्य देवोमे तोनो सम्यग्दर्शन होते है। इसका कारण है कि द्वितीयोपशममे मरा जोव वैमानिक देवोमे उत्पन्न होता है। अतः अपर्याप्तक अवस्थामे भो औपशमिकका सद्भाव सम्भव है। पर्याप्तक देवियोमे क्षायिक सम्य. ग्दर्शन नहीं होता, नवीन उत्पत्तिको अपेक्षा शेष दो सम्भव हैं। अपर्याप्तक देवियोके सम्यग्दर्शनकी गन्ध नही है। भवनत्रिक सम्बन्धो पर्याप्तक देव-देवियोके नवीन उत्पत्तिकी अपेक्षा औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं, अपर्याप्तकोके सम्यग्दर्शनका कोई भेद नहीं होता क्योकि सम्यग्दृष्टिको उनमे उत्पत्ति नहीं होती॥३६-४८॥ आगे इन्द्रिय, काय, योग, वेद और ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हैं
एकेन्द्रियात्समारभ्यासजिपश्चादेहिषु । नास्त्येकमपि सम्यक्स्व दोर्गत्येन युतेषु ॥४९॥ पञ्चेन्द्रियेषु जायेत सम्यक्त्वत्रितयं पुनः । स्थावरेषु च सम्यक्रवं विद्यते नात्र किञ्चन ॥५०॥ असेषु त्रिविधं शेय सम्यक्त्वं पुण्यशालिषु। योगत्रयेण मुक्तेषु सम्यक्स्वत्रितय भवेत् ।। ५१ ।।