Book Title: Samyak Charitra Chintamani
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 162
________________ सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि बाप्पावरुद्धकण्ठास्ता रोमाञ्चितकलेवराः। शुश्रूषवो गुरोर्वाक्य तृष्णीभूताः पुरः स्थिताः ।। १४ ॥ अर्थ-जिनका संसार क्षीण हो गया है तथा जो गृहभारसे विरक्त हो चुको है ऐसो कुछ स्त्रिया संसार सम्बन्धो भोगो से विरक्त हो गुरु चरणोके पास जाकर उनसे भक्तिपूर्वक निवेदन करती हैं-हे भगवन् । हम संसार सागरसे भयभीत है अत हस्तावलम्बन देकर शीघ्र हो तारोपार करो। हमारे कोई नहीं है और हम भी किसीके कोई नही है। ये ससारके भोग हमे नागके समान प्रतिभासित होते हैं। इनके विष प्रयोगसे हम चिरकालसे मूच्छित हो रही हैं। खेद है कि हमने आज तक अपनो आत्माका स्वरूप नहीं जाना। हम शरीरसे भिन्न ज्ञाता, द्रष्टा स्वभाव वालो है। यह भूलकर हम सब पदार्थोंमे आत्मबुद्धि होनेके कारण चिरकालसे भटकती आ रही हैं। पुण्योदयसे हमने मार्गदर्शक सम्यक्त्वरूपी उत्कृष्ट ज्योति को प्राप्त कर लिया है। उस ज्योतिसे हम नित्य, सुख सपन्न तथा ज्ञानदर्शनसे सहित आत्मा को देख रही है-उसका अनुभव कर रहो हैं। इस सम्यक्त्व की प्राप्तिसे हम निरन्तर अपनो आत्मसम्पदामे संतुष्ट रहतो हैं। अतः भोगोसे विरक्त होकर आपके पास आई हैं तथा बार-बार प्रार्थना करतो है कि हमे आयिकाको दोक्षा दीजिये। यह कहते कहते जिनके कण्ठ वाष्पसे अवरुद्ध हो गये थे तथा शरीर रोमाञ्चित हो उठा था, ऐसी वे स्त्रिया गुरु वचन सुनने को इच्छा रखतो हुई उनके सामने चुपचाप बैठ गईं ॥ ६.१४॥ आगे गुरुने क्या कहा, यह लिखते हैं तासा मुखाकृति दृष्ट्वा परोक्ष्य भव्य भावनाम् । गुरुराह परप्रीत्या श्रेयोऽस्तु भवदात्मनाम् ॥ १५॥ आर्यावीक्षां गृहीत्वा भो निर्वृता भवतद्रुतम् । ससारान्धिरय सत्य दुखदो देहधारिणाम् ।। १६ ।। विरला एव सन्तीर्णा भवन्त्यस्मात् स्वपौरुषात् । सत्य क्षीणभवा भूय विरक्तास्तेन भोगतः ।। १७ ।। अर्थ-उनको मुखाकृति देख तथा भव्य भावना को परीक्षा कर श्री गुरु बडी प्रोतिसे बोले-आप सबको आत्माका कल्याण हो। आप लोग आयिकाकी दीक्षा लेकर शीघ्र हो संतुष्ट होवे । सचमुच ही यह संसार सागर प्राणियो को दुख देने वाला है। बिरले हो जीव अपने

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