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एकादश प्रकाश
१५॥
अर्थ-जिस प्रकार कोई विदेशमे रहने वाला मनुष्य विपुल धन अजित करता है परन्तु जब स्वदेशको आनेकी इच्छा करता है तो उस देशके नियमानुसार वह उस धन को साथ लानेमे समर्थ नहीं हो पाता। इस दशामे वह सक्लिष्ट चित्त होता हुआ बहुत दुःखी होता है। इसी प्रकार यह पुरुष अपने प्रयत्नसे बहुत धनका संचय करता है परन्तु जब वह परलोकको जाना चाहता है तब इस लोकके नियमानुसार उस धनको साथ ले जानेमे समर्थ नहीं हो पाता, इस स्थितिमे वह दू खसे सतप्त होता हआ रोता है, क्या करूं? महान कष्ट सहकर मैंने यह धन उपाजित किया है परन्तु साथ ले जानेमे समर्थ नही हूँ, मेरा परिश्रम व्यर्थ गया। इस प्रकार विलाप करते हुए उस पुरुषको देखकर कोई दयाल विदेश का राजा उसके लिये एक पत्र देता है तथा कहता है कि तुम इस पत्र को लेकर अपने नगर जाओ, यह धन तुम्हे वहाँ अवश्य हो मिल जायेगा। इसी प्रकार दयाल आचार्य परलोक को जाने के लिये इच्छुक पुरुष को सल्लेखना नामक पत्र देकर बार-बार कहते हैं कि तुम इस पत्रके प्रभावसे यह धन परलोकमे अवश्य ही प्राप्त कर लोगे, इसमे संशय नही है। तात्पर्य यही है कि यदि तुम इस लोक का वैभव परलोकमे ले जाना चाहते हो तो सल्लेखना करो ॥२.११ ॥ आगे संन्यास सल्लेखना कबकी जाती है, यह कहते हुए उसके भेद बताते हैं
उपसर्गेऽतोकारे दुभिक्षे चापिभोषणे । ध्याधावापतिते घोरे संन्यासो हि विधीयते ॥ १२॥ संन्यासस्त्रिविधः प्रोक्तो जैनागमविशारद । प्रथमो भक्तसंख्यानो द्वितीयस्वेङ्गिनीमृतिः ॥ १३ ॥ प्रायोपगमनं चान्त्यं कर्मनिर्जरणक्षमम् । यत्र यमनियमाभ्यामाहारस्त्यज्यते क्रमात् ॥ १४॥
यावृत्यं शरीरस्य स्वस्य यत्र विधीयते। स्वेन वा च परापि सेवाभावसमुद्यतः ॥१५॥ मेयः स भक्तसंख्यानः साध्या सर्वजनरिह। जवन्यमध्यमोत्कृष्टमेवात् स त्रिविषो मत ॥ १६ ॥ जघन्य समयो यो घटिकाद्वय सम्मितः । अन्स्यो वावश वर्षात्मा मध्यमोऽनेकपा स्मृतः ॥ १७ ॥