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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
इङ्गिनीमरणे स्वस्थ सेवा स्वेन विधीयते । परेण कार्यते नैव वैराग्यस्य प्रकर्षतः ॥ १८ ॥ प्रायोपगमने सेवा नैव स्वस्य विधीयते । स्वेन वा न परंश्चापि निर्मोहत्वस्य वृद्धितः ॥ १९ ॥ एते त्रिविधसंन्यासा. कर्तव्याः प्रीतिपूर्वकम् ।
प्रीत्या विधीयमानास्ते जायन्ते फलदायकाः ॥ २० ॥
अर्थ - प्रतिकार रहित उपसर्ग, भयंकर - दुर्भिक्ष और घोर - भयानक बीमारी के होनेपर सन्यास किया जाता है। जैन सिद्धान्तके ज्ञाता पुरुषो द्वारा सन्यास तीन प्रकार का कहा गया है। पहला भक्तप्रत्याख्यान, दूसरा इङ्गिनोमरण और तीसरा कर्मनिर्जरामे समर्थ प्रायोपगमन | जिसमे यम और नियमपूर्वक क्रमसे आहारका त्याग किया जाता है तथा अपने शरीर की टहल स्वय को जाती है और सेवामे उद्यत रहने वाले अन्य लोगोसे भी करायो जाती है, उसे भक्त प्रत्याख्यान जानना चाहिये। यह संन्यास सब लोगोके द्वारा साध्य है । यह सन्यास जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकार का माना गया है। जघन्यका काल दो घडी अर्थात् एक मुहूर्त और उत्कृष्ट का बारह वर्ष जानना चाहिये । मध्यमका काल अनेक प्रकार है । इङ्गिनीमरणमे अपनो सेवा स्वयं की जाती है, वैराग्य को अधिकता के कारण दूसरोसे नही करायी जातो । प्रायोपगमनमे अपनी सेवा न स्वय को जाती है और न दूसरोसे करायी जाती है । ये तोनो संन्यास प्रीतिपूर्वक करना चाहिये । क्योकि प्रीतिपूर्वक किये जाने पर ही फलदायक होते है ॥ १२-२० ॥
आगे निर्यापकाचार्य के अन्तर्गत सल्लेखना करना चाहिये, यह कहते हैसरिन्मध्ये यथा नौका कर्णधार विना क्वचित् ।
न लक्ष्यं शक्यते गन्तु तथा निर्यापक विना ॥ २१ ॥ सल्लेखनासरिन्मध्ये सुस्थितः क्षपकस्तथा ।
कार्यो निर्यापकस्ततः ।। २२ ॥ साघुरायुर्वेद विशारदः ।
न गन्तु शक्यते लक्ष्यं उपसर्गसहः देहस्थितिमवगन्तु क्षमः क्षान्ति युतो महान् ॥ २३ ॥ मिष्टवाक् सरलस्वान्तः कारितानेक सन्मृतिः । निर्यापको विधातव्यः संन्यास ग्रहणे पुरा ॥ २४ ॥
अर्थ - जिस प्रकार नदोके बीच खेवटिया के बिना नाव कही अपने लक्ष्य स्थानपर नही ले जायी जा सकती उसी प्रकार निर्यापकाचार्यक