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एकादश प्रकाश
१९१ विना सल्लेखना रूप नदीके बीच स्थित क्षपक अपने लक्ष्य स्थानपर नहीं पहुंच सकता। इसलिये निर्यापकाचायं बनाना चाहिये । जो साधु उपसर्ग सहन करने वाला हो, आयुर्वेदका ज्ञाता हो, शरीर स्थितिके जाननेमे समर्थ हो, क्षमासहित हो, महान् प्रभावशालो हो, मिष्टभाषो हो, सरल चित्त हो तथा जिसने अनेक सन्यासमरण कराये हैं, ऐसे साधुको संन्यासग्रहणके समय निर्यापकाचार्य बनाना चाहिये। यह निर्यापकाचार्य का निर्णय संन्यास ग्रहणके पूर्व कर लेना चाहिये
॥२१.२४॥ आगे क्षपक निर्यापकाचार्यसे सल्लेखना कराने की प्रार्थना करता है
भगवन् ! संन्यासदानेन मज्जन्मसफलोकुरु । इत्थं प्रार्थयते साधुनिर्यापकमुनीश्वरम् ।। २५ ॥ क्षपकस्य स्थिति ज्ञात्वा दद्याग्निर्यापको मुनिः। स्वीकृति स्वस्य संन्यासविधि सम्पादनस्य ॥ २६ ॥ द्रव्यं क्षेत्रं च काल च भाव वा क्षपकस्य हि । विलोक्य कारयेत्तेन युत्तमार्थ प्रतिक्रमम् ॥ २७ ॥ क्षपकः सकलान् बोषान् निजि समुदीरयेत् । क्षमयेत् सर्वसाधून स स्वयं कुर्यात्क्षमा च तान् ॥ २८॥ एवं निःशल्यकोभूत्वा कुर्यात्संस्तरोहणम् । निर्यापकश्च विज्ञाय क्षपकस्य तनस्थितिम ॥ २९॥ अग्नपानादि सत्यागं कारयेत यथाक्रमम् । पूर्वमन्नस्य संत्याग नियमेन यमेन वा ॥ ३०॥ पेयस्यापि ततस्त्यागं कारयति यथाविधि ।
क्षपकस्य महोत्साहं वर्धयेदनिशं सुधीः ॥३१॥ अर्थ-'हे भगवन् । संन्यास देकर मेरा जन्म सफल करो', इस प्रकार साधु निर्यापक मुनिराजसे प्रार्थना करता है। निर्यापक मुनिक्षपक की स्थिति जानकर संन्यास-विधि कराने के लिये अपनी स्वीकृति देते हैं। निर्यापकाचार्य सबसे पहले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकोदेखकर क्षपकसे उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कराते हैं। क्षपकको भी छल रहित अपने समस्त दोष प्रकट करना चाहिये। तत्पश्चात् क्षपक निशल्य होकर सब साधुओसे अपने अपराधोको क्षमा कराता है और स्वयं भो उन्हे क्षमा करता है। निर्यापकाचार्य क्षपकको शरीरस्थितिको अच्छी तरह जानकर क्रमसे अन्न-पानका त्याग कराते हैं। पहले