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सम्यक्चारित-चिन्तामणि:
जायते ॥ ७८ ॥
मिथ्यादृशामबन्धोऽस्ति केषां चित्पुण्यकर्मणाम् । तीर्थकृत्प्रभृतीनां च संवरो मेव सत्येव बन्धविच्छेदे संवरो हि निगद्यते । संबरेण युता या हि निर्जरा कर्मणामिह ॥ ७९ ॥ सेव सार्थक्यमाप्नोति नाभ्या विग्रहधारिणाम् । समये समये जीवजातीनां कर्मणां चयः ॥ ८० ॥ बन्धमाप्नोति तावांश्च निर्जरामेति सर्वतः । सत्तायां विद्यते सार्धं गुणहानिमितस्तथा ॥ ८१ ॥ मोहनिद्राशमात् साधुसङ्घस्य शुभवेशनात् । सम्यक्त्वं प्राप्यते भव्यं स्त्रिलोक्यामपि दुर्लभम् ॥ ८२ ॥ संवरमेव सम्प्राप्तुं प्रयत्नं कुरु सर्वदा । सवरमन्तरा न स्यात् कर्मणां क्षपण क्वचित् ॥ ८३ ॥
अर्थ - जो आस्रवका रुकना है वही सवर कहलाता है । संवरके बिना मनुष्य कहीं भी इष्टस्थानको प्राप्त नही हो सकता । सच्छिद्र जहाजपर बैठा मनुष्य जलका आगमन होने पर जिस प्रकार गहरे समुद्रमे नियमसे डूबता है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्मोके आस्रवसे सहित शुभाचारको प्राप्त हुआ ( मिथ्यादृष्टि ) नियमसे भयपूर्ण संसार सागरमे पडता है। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति – इन तीन गुप्तियोसे, उत्तमक्षमादि दश धर्मोसे, पाँच समितियोसे, पाँच प्रकारके चारित्रोसे, बारह अनुप्रेक्षाओसे तथा बाईस परोषहजयोसे सम्यग्दृष्टि जीवोके निश्चय ही सवर होता है । मिथ्यादृष्टि जोवोके तोर्थङ्कर प्रकृति, आहारक शरीर तथा आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग इन पुण्य प्रकृतियोका अबन्ध है, संवर नही, क्योकि बन्ध व्युच्छित्ति होने पर हो सवर कहलाता है । सवरके साथ जो कर्मोंको निर्जरा होती है वहीं सार्थकताको प्राप्त होती है। वैसे तो सभी संसारी जीवोंके प्रत्येक समय जितना ( सिद्धो अनन्त भाग और अभव्यराशिसं अनन्तगुणित ) कर्मसमूह बन्धको प्राप्त होता है, उतना ही सब ओरसे निर्जराको प्राप्त होता है ओर डेढ गुणहानि प्रमाण कर्मसमूह सत्तामे रहता है। मोहनिद्राके उपशम तथा साधुसङ्घके उपदेशसे भव्य जीव त्रिलोक दुर्लभ सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते हैं । इसलिये है आत्मन् ! संवरको हो प्राप्त करनेका सदा प्रयत्न करो, क्योकि संबरके बिना कमका क्षय कहीं कभी नही होता है ।। ७३-८३ ।।