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१२४ सम्यवास्वि-वन्दामा मे आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्सक अवस्थामे तृतीय गुणस्थान नहीं होता। __ देवोके आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोमे तृतीय गुणस्थान नही होता ॥२-६॥ आगे इन्द्रिय और कायमार्गणाको अपेक्षा वर्णन करते हैं
एकेन्द्रिये तु विज्ञेयं तेजो वायुविजिते । आधद्वयं गुणस्थानमपर्याप्तवशापुते ॥१०॥ द्विषीकातसमारण्या संक्षिपञ्चेन्द्रियारो। गुणस्थानं भवेवाध नान्यत्ता हि सम्मवेत् ॥ ११॥ पञ्चेन्द्रियेषु सन्त्येव धामानि निखिलान्यपि । स्थावरेषु भवेवाय-द्वय नायत् प्रजायते ॥ १२ ॥
असेषु सन्ति सर्वाणि गुणधामानि मिश्चयात् । अथ-तेजस्कायिक और वायुकायिकको छोड़कर अन्य एकेन्द्रियोके अपर्याप्तक दशामे आदिके दो गुणस्थान होते हैं। कारण यह है कि सासादन गुणस्थानमे मरा जीव यदि एकेन्द्रियोमे उत्पन्न हो तो तेजस्कायिक और वायुकायिकमे उत्पन्न नहीं होता। सासादन गुणस्थान अपर्याप्तक अवस्थामे हो रहता है। पर्याप्तक होते होते सासादन गणस्थान विघट जाता है। दोन्द्रियसे लेकर असशो पञ्चन्द्रिय तक प्रथम गुणस्थान हो होता है अन्य गुणस्थान सम्भव नही हैं । द्वितीय गुणस्थानमे मरण कर विकलत्रयोमे उत्पन्न होने वाले जीवोके अपर्याप्तक अवस्थामे द्वितोय गुणस्थान भी सम्भव होता है । पञ्चेन्द्रियोमे सभी गुणस्थान होते है । स्थावरोमे आदिके दो गुणस्थान सम्भव है अन्य नही। सोमे निश्चयसे सभी गुणस्थान होते है ॥ १०-१२।। आगे योग मार्गणाको अपेक्षा चर्चा करते हैं
चतुषु चित्तयोगेषु वाग्योगेषु तव च ॥१३॥ गुणस्थानानि सन्स्यत्र प्रथमा यावद् द्वादशम् । सत्यानुभययोगेषु वयोमानसयोस्तथा ॥ १४ ॥ आधत्रयोदशझया गुणस्थानसमूहकार। ओरालमिश्रके बोध्यमाय चापि द्वितीयकम् ॥ १५॥ चतुर्थ चापि जीवानां सयोगे च त्रयोदशम् । औरारिके तु बोध्यानि तान्यायानि प्रयोवरा ॥ १६ ॥