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सम्यक्चारित - चिन्तामणिः
और अवधिज्ञानमें चतुर्थसे लेकर बारहवे तक पुणस्थान होते हैं। मनःपर्यय ज्ञानमे षष्ठ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान होते हैं । केवलज्ञानमे अन्त के दो गुणस्थान होते हैं। कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग ज्ञानमे व्यादिके को गुणस्थान होते हैं [ तृतीय गुणस्थानमे मिश्र ज्ञान होता है ] ॥। २०-२३ ।।
आगे संयम मार्गणामे गुणस्थान कहते हैं
तु ।
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सामायिके तथा देवोपस्थापन संयमे ॥ २४ ॥ ठान्नमपर्यन्तं गुणस्थानं भवेदिह । परिहारविशुद्धौ तु कठं च सप्तमं स्मृतम् ।। २५ ।। सूक्ष्मादिसाम्पराये च दशमं ह्येकमेव एकादशादितो ज्ञेयं यथाख्याताह्न संयमे ॥ २६ ॥ संयमासंयमे ह्येक पञ्चमं मामसंमत म् असंयमे तु चत्वारि प्रथमादीनि सन्ति हि ॥ २७ ॥ अर्थ - सामायिक और छेदोपस्थापन संयममे छठवेसे लेकर नौवें तक गुणस्थान होते हैं । परिहार विशुद्धिमें छठवां और सातवां गुणस्थान होता है । सूक्ष्मसापरायमें एक दशम गुणस्थान ही होता है और tered संयम एकादश आदि गुणस्थान हैं। संयमासंयममे एक पचम गुणस्थान और असयममे प्रथमसे लेकर चतुर्थं तक चार गुणस्थान होते हैं ।। २४-२७ ।।
आगे दर्शन, लेश्या और भव्यत्व मार्गणामें गुणस्थान कहते हैंचाप्यचक्षु दर्शन के
तथा ।
लोचनदर्शने आवितो द्वादशं यावत् गुणधामानि सन्ति वै ॥ २८ ॥ अवधिदर्शनं ज्ञेय चतुर्थाद् द्वादशावधिम् । केवलदर्शने ज्ञेयमतिमद्वितय तथा ।। २९ ।। कृष्णा मोलाच कापोता प्रथमात् स्यातुर्यावधिम् । पीता पद्मा च विज्ञेया प्रथमात्सप्तमावश्चिस् ॥ ३० ॥ शुक्ला लेश्या च विज्ञेया ह्याद्यान् यावत् त्रयोदशम् । भव्यत्वे गुणधामानि भवन्ति निखिलान्यपि ॥ ३१ ॥ अभव्ये प्रथमं ज्ञेयं नियमाद् भववासिनि ।
अर्थ- चक्षुदर्शन और अवक्षदर्शनमे प्रारम्भसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं । अवधि दर्शनमे चतुर्थसे लेकर