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सम्यक्चारित-चिन्तामणिः
भोगाniक्षाविशाला ते सागरोपमनीविश्वे अल्पायुषि नरवे सा पूर्यते कथमत्र सा । ततो विरज्य भोगेभ्यः स्वस्मिन्नेव रतो भव ॥
न पूर्णादेवपर्यये ।
आगे धर्म भावनाका स्वरूप कहते हैं
सर्व साधनसंयुते ॥ ११२ ॥
११३ ॥
अर्थ -- यह लोक सब ओर स्थावर जीवोके समूहसे व्याप्त है । स्थावरसे त्रस पर्यायकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । त्रस पर्यायमे संज्ञोपना, सज्ञियोमे मनुष्यता, मनुष्यतामे अच्छा क्षेत्र, अच्छे क्षेत्रमे कुलीनता, कुलीनतामे आरोग्य, आरोग्यमे दोर्घायुष्य, दीर्घायुष्यमे सम्यक्त्वको प्राप्ति, सम्यक्त्व प्राप्तिमे आत्माका लक्ष्य और आत्माके लक्ष्यमे निर्दोष चारित्रका पालन करना अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्रकार सद्बोधि की दुर्लभताका विचारकर उसकी रक्षा करना चाहिये। जिस प्रकार मनुष्य मणि, मुक्ता आदिको दुर्लभ जानकर तत्परता से उसकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार बोधिको दुर्लभ जान उसका रक्षा करना चाहिये । बोध रत्नत्रयका नाम है । यह मनुष्योके लिये दुर्लभ है । ग्यारहवे गुणस्थानसे नोचे गिरे हुए मनुष्य अर्धपुद्गल परिवर्तन पर्यन्त अनेक भवोमे घूमते रहते है और कोई रत्नत्रय रूप निधिको प्राप्त कर स्वात्मामे लोन रहने वाले मनुष्य अन्तर्मुहूर्त के भीतर शीघ्र हो मोक्षको प्राप्त कर लेते है । परिणामोको यह विचित्रता छद्मस्य जोव नही जान पाते । जहाँ सागरो प्रमाण आयु थो तथा सब साधन सुलभ थे ऐसी देवपर्याय• मे तेरो विशाल भोगाकाक्षा पूर्ण नही हुई तो अल्पायु वाले मनुष्य पर्याय मे कैसे पूर्ण हो सकती है ? अत ह आत्मन् । तूं भोगोसे विरक्त हो, स्वकोय आत्मामे ही रत - लीन हो जा ।। १०४-११३ ।।
कान्तारे मार्गतो भ्रष्टं समुद्रे पतितं तथा । दारिद्रद्याब्धितले मग्न शैलात्संपतितं नरम् ॥ ११४ ॥ रक्षितु धर्मएवास्ति शक्तो नान्योऽत्र भूतले । धर्मो मूलं त्रिवर्गस्य त्रिवर्गः सुखसाधनम् ॥ ११५ ॥ मूलस्य रक्षणं कार्यं मूलनाशे कुतः सुखम् । आत्मनो यः स्वभावोऽस्ति स धर्मः प्रोच्यते बुधैः ॥ ११६ ॥ रत्नत्रये क्षमाद्याश्च धर्मशब्देन कीर्तिताः । धर्मादेव मनुष्याणां जीवनं सफलं भवेत् ॥ ११७ ॥