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धर्महोना न शोमते मिर्गन्धा किशुकाः। सम्यक्स्वमूलो धर्मोऽस्ति मूळ रक्यं ततो नमिः ॥ ११८॥ सम्यक्त्ववन्तो पे जीवा चारित्रं वषते परम् । ते वृतं शिवमायान्ति स्थायिसोयसमन्वितम् ॥ ११६ ॥ ये नरा धर्ममात्य भोगाकलां धरम्ति च। ते नूनं कापण्डेन विक्रीणन्ति महामणिम् ।। १२० ॥ भोगाकांक्षामहानखां वहमाना नराः सदा। अन्ते निगोदनामानं महाब्धि प्रविशन्ति ॥ १२१ ॥ दुर्लभं मानुषं । लब्ध्वा धर्मेण सफलीकुरु । समुद्रे पतित रन पथा भवति दुर्लभम् ॥ १२२॥ तथा गतं मनुष्यत्वं दुर्लभ ह्येव वर्तते।
विपद्ग्रस्त नर लोके धर्मो रक्षति रक्षितः ।। १२३ ।। अर्थ-वनमे मार्गसे भ्रष्ट, समुद्रमे पतित, दरिद्रतारूपो समुद्रके तलमे निमग्न और पर्वतसे गिरे हुए मनुष्यको रक्षा करनेके लिए पृथिवीपर धर्म हो समर्थ है अन्य कोई नहो। धर्म, त्रिवर्गका मूल है और त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम-सुखका साधन है। अत मूलको रक्षा करना चाहिये क्योकि मूलका नाश होनेपर सुख किससे हो सकता है ? आत्माका जो स्वभाव है वही ज्ञानोजनो द्वारा धर्म कहा जाता है। रत्नत्रय और क्षमा आदिक भो धर्म शब्दसे कहे जाते हैं। धर्मसे हो मनुष्योका जीवन सफल होता है। धर्महोन मनुष्य गन्धरहित टेसूके फूलके समान शोभित नही होते । धर्म, सम्यक्त्वमूलक है अत मनुष्योको मूलकी रक्षा करना चाहिये । जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य उत्तम चारित्र धारण करते हैं वे शोघ्र हो शाश्वत सुखसे सहित मोक्षको प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य धर्म धारण कर उसके बदले भोगोको आकाक्षा रखते हैं वे निश्चित ही कांचके टुकड़ेसे महामणिको बेचते हैं। निरन्तर भोगाकाक्षारूपो महानदीमे बहने वाले मनुष्य अन्तमे निगोद नामक महासागरमे प्रवेश करते हैं। दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर उसे धर्मसे सफल करो। समुद्र में पड़ा हुआ रत्न जिस प्रकार दुर्लभ होता है उसी प्रकार गया हुआ मनुष्य भव दुर्लभ है । रक्षा किया हुआ धर्म हो लोकमे विपत्तिग्रस्त मनुष्यकी रक्षा करता है ॥ ११४-१२३ ॥