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सम्यचारित्र-चिन्तामणि
अनादिकालाद् भ्रमता भवेऽस्मिन् जीवेन या दु.खततिः प्रभुक्ता । तस्या विनाशे यतिवृत्तमेव समर्थमत्रास्ति न किचिदन्यात् ।। ११६ ॥ तदेव शक्त्या भुविधारणीयं तदेव भक्त्या मनसा प्रचिन्त्यम् । तदेव याचा वचनोयमत्र तदेव कामात् करणीयमस्ति ॥ ११७ ॥
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अर्थ - अनादि काल से इस संसारमे भ्रमण करनेवाले जीवने जो दुःखोका समूह भोगा है उसका नाश करनेमे मुनिव्रत - सकल चारित्र ही समर्थ है अन्य कुछ नही । इसलिये पृथिवीपर अपनी शक्तिके अनुसार वही मुनिव्रत धारण करने के योग्य है, भक्तिपूर्वक वही मुनिव्रत मनसे चिन्तनीय है वहो मुनित्रत वचनसे कहने योग्य है और वही मुनिव्रत शरीर से -- काय से करने योग्य है ।। ११६-११७ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थमे महाव्रतोका वर्णन करनेवाला तृतीय प्रकाश पूर्ण हुआ ।
चतुर्थ प्रकाश पञ्चसमित्यधिकार
मङ्गलाचरण
येनासिना ध्यानमयेन भिन्न कर्मारिसेना महती विदीर्णा । स वीरनाथो गुणिभिः सनाथो मोक्षस्य लाभाय सदा ममास्तु || १ ||
अर्थ- जिन्होने ध्यान रूप कृपाणके द्वारा बहुत बडी कर्म शत्रुओकी सेनाको छिन्न-भिन्न तथा विदोर्ण कर दिया एव जो अनेक गुणोजनो गणधरादिसे सहित थे वे भगवान् महावीर मेरे मोक्ष प्राप्ति के लिये हो ॥ १ ॥
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आगे महाव्रतोकी रक्षा के लिये समितियोका वर्णन करते हैंयथा कृषीवलाः क्षेत्र रक्षार्थं परितो वृती | कुर्वन्ति व्रतरक्षार्थं समितीश्च तथर्षय ॥ २ ॥ ईर्याभाषादिभेदेन समितिः पञ्चधा मता । अथासा लक्षणं किंचिद् दर्शयामि यथागमम् ॥ ३ ॥ अर्थ - जिस प्रकार किसान खेतको रक्षाके लिये चारो ओरसे