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षष्ठं प्रकाश अभाव होनेसे यह निदान नही माना जाता क्योकि मुनियोंने आगामो भोगाकाक्षाको निदान माना है ।। ६०-६३ ।। आगे प्रतिक्रमण आवश्यकका वर्णन करते है
जातादृष्टस्वभावोऽयमात्मा मोहोवयाचदा। स्वभावाद्विच्युतो भूत्वा प्रमादापतितो भवेत् ॥ ६४ ॥ तदा स्वभावमास्पृश्य प्रमाबाज ज्ञो निवर्तते। तपस्विनः प्रयासोऽसौ प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ६५॥ देवसिकादिभेदेन सप्तधा जायते तु तत् । विवसस्यापराधेषु कृतं देवसिकं मतम् ॥ ६६ ॥ निशाया अपराधेषु कृतं तन्नेशिकं स्मृतम् । पक्षोद्भवापराधेषु विहितं पाक्षिक भवेत् ॥ ६७ ॥ चतुर्मासापराधेषु चातुर्मासिकमुच्यते । संवत्सरापराधेषु साम्वत्सरिकमिष्यते ॥ ६८ ॥ ईर्याया अपराधेषु स्यादीपिथिकं तु तत् । सन्यासे सस्तरारोहात्पूर्व गुरुपुर स्थितः ॥ ६९ ॥ यावज्जीवापराधानां क्रियते यनिवेदनम् । ओत्तमातिनाम्ना तत् प्रसिद्ध भुवि वर्तते ॥ ७० ॥ सोकर्यायेह साधूनामेकः पाठः प्रदीयते। वचसा पाठमात्रेण न भवेच्छतिरात्मनः ।।७१॥ मनःशुद्धि विधायव तत्पाठः कार्यकृद् भवेत् ।
कर्मास्त्रवनिरोधाय मनसशुद्धिरिष्यते ॥७२॥ अर्थ-ज्ञाताद्रष्टा स्वभाववाला यह आत्मा जब मोहके उदयसे स्वभावसे च्युत हो प्रमादमे आ पड़ता है तब ज्ञानो पुरुष स्वभावसे सम्बन्ध स्थापित कर प्रमादसे दुर हटता है। तपस्वीका यह प्रयास हो प्रतिक्रमण कहलाता है। देवसिक आदिके भेदसे यह प्रतिक्रमण सात प्रकारका होता है। दिवस सम्बन्धी अपराधोमे जो किया जाता है वह देवसिक प्रतिक्रमण माना गया है। रात्रि सम्बन्धो अपराधोके विषयमे जो किया जाता है वह नैशिक प्रतिक्रमण माना गया है। पक्षके भीतर होनेवाले अपराधोके विषयमे जो किया जाता है वह पाक्षिक प्रतिक्रमण है। चार मास सम्बन्धी अपराधोके विषयमे किया गया चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है । एक वर्ष के अपराधोंके विषयमे किया गया साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण माना जाता है। ईर्यागमन सम्बन्धो अपराधोके विषयमे