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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः
लेता है ऐसी वर्षा ॠतु मे वृक्षोके नोचे वर्षायोग धारणकर तप करते हैं और जब समस्त पृथिवोतल तप्त हो जाता है ऐसी ग्रीष्म ऋतुमे सतप्त पर्वतपर आतापन नामक महायोग धारणकर योगो स्थित होते है । ध्यान मे तत्पर रहने वाले मुनि, वोर्याचारके मध्य नाना आसन धारणकर सघन वनमे विद्यमान रहते है | ११७-१२४ ।। आगे पश्चाचार प्रकरणका समारोप करते हैं
पञ्चाचारमयं तपोऽत्र विधिना धृत्वा तपस्यन्ति ये ते क्षिप्रं निविडं स्वकर्मनिगई भित्वा शिव यान्ति वै । भो भव्यास्तपसां प्रभावमतुल दृष्ट्वा तपेयुश्चिरात् भोत ते भवबन्धनाद्यदि मन कस्य प्रतीक्षा तव ।। १२५ ॥
अर्थ - जो मुनि इस जगत् में विधिपूर्वक पश्चाचार रूप तपको धारण कर तपस्या करते हैं वे निश्चयसे शीघ्र हो कर्मरूपो सुदृढ़ बेडीको काटकर मोक्षको प्राप्त होते है । ग्रन्थकार कहते हैं- हे भव्यजन हो । यदि तुम्हारा मन संसारके बन्धन से भयभीत हुआ है तो तपका अनुपम प्रभाव देखकर दीर्घकाल तक तप करो। तुम्हे किसको प्रतीक्षा है ? ।। १२५ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमे पञ्चाचारका वर्णन करनेवाला सप्तम प्रकाश पूर्ण हुआ ।
अष्टम प्रकाश
अनुप्रेक्षाधिकार
मङ्गलाचरणम् विपद्यमानं भुवनं विलोक्य
ये वीतरागा भवतो विभीताः ।
धरन्ति दीक्षां भुविमाननीयां
तांस्तानहं भक्तिभरेण नौमि ॥ १ ॥
अर्थ - संसारको नष्ट होता देख रागरहित जो पुरुष संसारसे भयभीत हो पृथिवोपर माननीय दोक्षाको धारण करते हैं उन प्रसिद्ध मुनियोको मै भक्तिभारसे नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥