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मिलकर भी मृत्युसे रक्षा नहीं कर सकते। दावानलले ब्याक्त बनमें वृक्षपर बैठा हुआ मनुष्य सबको जलता देखकर जिस प्रकार अपने आपको सुरक्षित मानता है उसी प्रकार यह मनुष्य समस्त लोकको मृत्युरूप व्याघ्रके मुखमें स्थित देखकर भी अपने आपको व्यर्थ हो स्वस्थ मानता है । प्राणोके निकल जानेपर मनुष्य जोवको घरसे निकाल देते हैं और arraa aur nari sमशानमे ले जाते हैं, मिलकर भस्म कर देते हैं, बिलाप करते हैं और रोते हैं। सम्बन्धो जनोंको रोता चोखता देखकर कोई भी मृत व्यक्ति कहीं लौटकर नही आता । संसारका यह स्वभाव अनादिनिधन माना गया है । संसार रूपी मरुस्थलमें जोव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं । कोई किसीके साथ नहीं जाता और न कोई लौटकर आता है। एक धर्मरूप मित्र हो जोवके साथ जाता है । पर्वतपर, वनमें, तालाब तथा पर्वतकी शिखरोपर धर्म हो उत्कृष्ट बान्धव-सहायक है, संसार सागरसे तारने वाला है। हे आत्मन् ! अपने आपको अशरण मान धर्मकी ही शरणको प्राप्त हो धर्मके बिना तीनो लोकोमें कोई भो तेरा रक्षक नही है ॥ १२-२१ ॥
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अब संसार भावनाका वर्णन करते हैं
अस्मिन् भवार्णवे घोरे दुःखनीरोधसंभृते । जन्ममृत्युमहान की में
व्याधितरङ्गके ।। २२ ।
मरम्तो दुःखसम्भारं चिरं सीदन्ति जन्तवः । श्व प्रतियं मनुष्याणाममराणां व भूयोभूयो अमिस्वाहं भ्रान्तवेहो बभूव हा ।
एकस्यां
धामनि ।। २३ ।।
विषद्योत्पद्यमानोऽहमभनं
श्वासवेलायामथाष्टादशवारकम् ।। २४ ।। घोरवेदनाम् । नटवर स्वामिभृत्यानां वेषस्य परिवर्तनम् ॥ २५ ॥ वृष्ट्वा कथं विरक्तो मो जायते मर्त्य संचयः । निर्धनो बनकाङ्क्षायाः सघमा धनतृष्णया ॥ २६ ॥ प्राप्नुवन्ति महादुःखं सुखी मास्स्यत्र कश्चन । द्रव्यं क्षेत्रं तथा कार्ल भवं भावं च नित्यशः ॥ २७ ॥ पूर्ण करोति जीवोऽयं परावर्तनपञ्चकम् । मृत्वा संजायते क्षिप्रं भूत्वा च म्रियते क्षणात् ॥ २८ ॥ एको रोदिति सन्तानाभावतो भुवि भूरिशः । अभ्यो रोदिति दुई ससंतानस्य समागमात् ॥ २९ ॥