________________
पिता परकमायात पुनो मो प्रमाति। स्वकृतं सर्व माप्नोति पुरस्तऽस्मिन् नवावे ।। ३६ ॥ मन्यस्य सुसिवर्ष हुने दुरितं बना। तत्य स्वयमाप्नोति नान्यः वापि कसावन ।। ३७ ॥ है माल्मन् स्वहित पस्य तदेव वासुखावहम् । परवृष्टिस्त्ययात्याच्या सुखं वाञ्छति वेदानबम् ॥ ३८॥ मस्मिन्ननारिसंसारे स्वतन्त्रा सन्ति मन्तवः। कारसन्ति सर्वेऽपि स्वभावस्यैव सर्वरा ॥३९॥ परः परस्यकास्ति दृष्टिरेवा न शोमना। इष्टानिष्टविकल्पानी जनकत्वाद्धयावहा ॥ ४०॥ दृष्ट्येष्टं सुखसम्पन्न मोवन्त राषिणो जनाः। दृष्ट्वा च दुःखसम्पन्न इयन्ते नितरा हि ते ॥४१॥
रागोषी परित्यज्य परकीयेषु वस्तुषु।
वीतरामस्वभावे स्वमात्मनि सुस्थिरो भव ।। ४२ । अर्ष-इस जगत में मैं अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता हूँ और अकेला हो निर्वाणको प्राप्त होता हूँ, अन्य कोई व्यक्ति मेरा निजी नहीं है । यह मनुष्य जैसे पुण्य-पाप कर्म करता है वैसे हो सुखदुःखको स्वयं प्राप्त होता है। यह मनुष्य न तो दूसरेके द्वारा दिये हुए को प्राप्त होता है और न दूसरेको देता है। पुण्य-पाप कर्मका परस्पर आदान-प्रदान नही होता। पिता नरकको प्राप्त होता है तो पुत्र मोक्षको जाता है। इस दुःखदायक संसार-सागर में सब अपना किया हुमा हो प्राप्त करते हैं। दूसरेकी सुख-सिद्धि के लिए मनुष्य पाप करता है परन्तु उसका फल स्वयं प्राप्त करता है दूसरा कोई कही, कभी नहीं । हे मात्मन् ! तू अपना हित देख, वही तेरे लिए सुखदायक होगा। यदि तू स्वायो सुख चाहता है तो तुझे परदृष्टि छोड़ने योग्य है। इस अनादिसंसारमें सब जीव स्वतन्त्र हैं, सभी सवा स्वभावके ही कर्ता हैं । पर, परका कर्ता है, यह दृष्टि-विचारधारा अच्छी नहीं है। इष्टानिष्ट विकल्पोंका जनक होनेसे संसारको बढ़ाने वाली है। इष्ट मनुष्यको सुखी देखकर रागी मनुष्य हर्षित होते हैं और दुःखी देखकर अत्यन्त दुःखी होते हैं। इसलिए पस्वस्तुओंमें राग, देष छोड़कर बोतराम स्वभाव वाले आरमा-अपने आपमें स्थिर हो जा ॥ ३३१२ ।।