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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि किया गया ईर्यायिक प्रतिक्रमण है और संन्यासके समय संस्तरपर आरूढ होनेके पूर्व गुरु निर्मापकाचार्यके सम्मुख बैठकर जोवन भरके अपराधोका जो निवेदन किया जाता है वह भोतमार्थ प्रतिक्रमण, इस नामसे पृथिवीपर प्रसिद्ध है। ____साधुओकी सरलताके लिये एक पाठ दिया जाता है सो वचनोके पाठ मात्रसे आत्माको शुद्धि नहीं होती। मनको शुद्धिके साथ दोषको शुद्धिके लिये उस पाठका पढना कार्यकारी होता है। परमार्थ यह है कि मनको शुद्धि हो कर्मास्रवके रोकनेमे समर्थ मानो गई है ॥ ६४-७२॥ कालावनन्ताद् धमता समन्ताद
दु.खातिभारं भरता भवेऽस्मिन् । सौभाग्यभागोदधतो मर्यषा
निर्ग्रन्थमुद्रा सुखदा सुलब्धा ।। ७३ ॥ अर्थ-अनन्तकालसे सब ओर-चारो गतियोमे परिभ्रमण करते तथा दु.खके बहुत भार उठाते हुए मैंने इस भवमे सौभाग्यके कुछ उदयसे यह सुखदायक निर्ग्रन्थ मुद्रा प्राप्त की है ।। ७३ ॥ सर्वज्ञ ! सर्वत्रविरोधशन्य !
चञ्चदयासागर ! हे जिनेन्द्र !! कायेन वाचा मनसा मया यत्
__ पापं कृतं दत्तजनातितापम् ॥ ७४ ॥ भूत्वा पुरस्ताद् भवतो विनीतः
सर्व तदेतन्निगदामि नाथ ।। कारुण्यबुद्धचा सुभृतो भवांश्च
मिध्यातवहो विदधातु धात ॥७५ ॥ अर्थ-हे सर्वज्ञ | हे सर्वत्र विरोध रहित । हे दयाके सागर । हे जिनेन्द्र ! मैने मन, वचन, कायसे मनुष्योको अत्यन्त संताप देनेवाला जो पाप किया है उस सबको आपके सामने नम्र होकर कहता हूँ। हे नाथ | आप करुणा बुद्धिसे परिपूर्ण है, अत हे विधाता ! मेरा वह पाप मिथ्या हो ॥ ७४-७५ ॥ क्रोधेन मानेन मदेन माया
भावेन लोभेन मनोभवेन । मोहेन मात्सर्यकलापकेना.
शर्मप्रदं कर्म कृत सदा हा ।। ७६ ॥